ग्रहण

सूर्य ग्रहण


सूर्यग्रहण अर्थात् सूर्योपराग

सूर्योपराग अर्थात् सूर्यग्रहणः - चंद्रमा अपने भ्रमण-पथ पर चलते हुए अमावस्या को सूर्य और पृथ्वी के बीच में आ जाता हैं और कभी-कभी (जब तीनों बिल्कुल सीधे हो जा होते हैं) तब चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश को ढक लेता हैं और प्रकाश को हमारे लिए मेघ की भाँति रोक देते हैंजिससे सूर्योपराग अर्थात् सूर्यग्रहण होता है ।

खगोल विज्ञान के अनुसार पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी चाँद, सूरज और धरती के बीच आ जाता है। तो चन्द्रमा सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। वास्तव में पृथ्वी के जिस स्थान पर चंद्रमा की छाया पड़ती है। सूर्य ग्रहण उसी स्थान पर दिखाई देता हैं।



चंद्रोपराग अर्थात् चंद्रग्रहणः - पृथ्वी अपने भ्रमण-पथ पर चलते हुए पूर्णिमा को सूर्य और चंद्रमा के बीच में आ जाता हैं और कभी-कभी जब ये तीनों बिल्कुल सीधे हो जा होते हैं। तब पृथ्वी की छाया चन्द्रमां को ढक लेती है। इस स्थति को चंद्रोपराग अर्थात् चंद्रग्रहण कहते हैं।

सूर्य ग्रहण के प्रकार : - सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं।
01.   खग्रास या पूर्ण सूर्य ग्रहण या सर्वग्रास सूर्यग्रहण
02.   कंकडाकार या वलयाकार सूर्यग्रहण या चतुर्थांशग्रास सूर्यग्रहण
03.   खण्डग्रास या आंशिक सूर्यग्रहण

01.   खग्रास या पूर्ण सूर्य ग्रहण या सर्वग्रास सूर्यग्रहण: - खग्रास या सर्वग्रास सूर्यग्रहण को पूर्ण सूर्य ग्रहण भी कहते हैं। इस समय चन्द्रमा का अप्रकाशित भाग हमारी ओर होता है। साथ ही साथ यह पृथ्वी के काफी निकट भी होता है। जिसके कारण सूर्य का बिम्ब पूरे सूर्य को ढ़क लेता है। इस प्रकार पूर्ण सूर्य ग्रहण होता है। इस वक्त रात का भ्रम होने लगता है। दिन में प्रकाश धुधला होकर रात के अंधकार मे बदल जाता है। तारे दिखाई देने लगते हैं। पक्षी भी भ्रमित होकर घोंसलों की ओर चल देते हैं। जब अमास्या को चन्द्रमा राहु या केतु पर हो तथा पृथ्वी समीप बिन्दु पर हो तब यह ग्रहण होता है।

सूर्य ग्रहण के समय दो प्रकार की छाया बनती है।
अ) प्रच्छाया या उम्ब्रा तथा
आ) उपछाया या न्यूम्ब्रा।
प्रच्छाया में पूरा सूर्य चन्द्रमा के द्वारा ढक लिया जाता है। इस कारण प्रच्छाया के स्थान पर पूर्ण अंधेरा होने के कारण पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखाई देता है।

उपछाया में सूर्य के प्रकाश का कुछ भाग हम तक पहुच रहा होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उपछाया द्वारा सूर्य का भाग अंशतः या खण्ड़ रूप में घेरा होता है। इसी कारण घेरा हुआ भाग अंधेरा दिखाई देता है। यही कारण आशिक सूर्य ग्रहण दिखाई देता है अर्थात उपछाया के स्थान पर खंडित या खण्ड़ग्रास सूर्य ग्रहण दिखाई देता है। जिन स्थानों पर यह छाया नहीं होती वहाँ ग्रहण दिखाई नहीं देता।

जहां खग्रास चन्द्रग्रहण लगभग चार घंटे रहता है। जिसमें दो घंटे यह गहरा काला दिखाई देता है। इसके विपरीत खग्रास सूर्य ग्रहण केवल दो घंटे तक रहता है जबकि पूर्ण सूर्य ग्रहण केवल 8 से 10 मिनट ही रहता है। यह वह समय है जब सूर्य पूरा ढका होता है। साधारण ग्रहणों में यह अवस्था केवल दो से तीन मिनट के बीच ही होती है। पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय रात्रि जैसा दृष्य उत्पन्न हो जाता है। इस समय चन्द्रमा द्वारा सूर्य को पूर्णतः छिपा लिया जाता है। जिस कारण पृथ्वी का रंग बदल जाता है। पशु पक्षी आदि भ्रमित हो जाते हैं। स्पर्श-मध्य-मोक्ष तक का संपूर्ण समय में लगभग दो से ढाई घंटे का समय लगता है अर्थात पूर्ण-ग्रहण के समय चाँद को सूरज के सामने से गुजरने में दो से ढाई घंटे का लगते हैं।

यह स्पर्श, मध्य और मोक्ष तीन शब्द आए हैं। वह समय जब ग्रहण प्रारंभ होता है स्पर्श कहलाता है। इसी प्रकार जब ग्रहण पूर्ण अवस्था में होता है तो उसे मध्य कहते हैं। यह ग्रहण के मध्य का कल होता है। जब ग्रहण समाप्त हो रहा होता है तो उसे अवस्था को मोक्ष कहते हैं।

पूर्ण सूर्य ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ पचास (250) किलोमीटर के सम्पर्क में ही देखा जा सकता है। इस क्षेत्र के बाहर खड़े व्यक्ति को केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। 

02.   कंकणाकार या वलयाकार सूर्यग्रहण या चतुर्थांशग्रास सूर्यग्रहण :- चूंकि यह ग्रहण वलय अर्थात कंकण के रूप में दिखाई देता है। इस लिए इसे कंकणाकार या वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं। यह स्थति तब बनती है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है अर्थात चन्द्र सूर्य को इस प्रकार से ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वलय या कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहलाता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार कंकणाकार या वलयाकार सूर्य ग्रहण के समय चन्द्रमा ठीक राहु व केतु बिन्दु पर तथा पृथ्वी से दूरतम स्थिति पर होता है।

03.   खण्ड़ग्रास या आंशिक सूर्यग्रहण : - जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि चन्दमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में लेकर ग्रहण से प्रभावित करे तथा सूर्य का कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहे तो प्रभावित क्षेत्र में खण्ड़ग्रास या आंशिक सूर्यग्रहण दिखाई देता है।
जैसा कि हम पहले भाग खग्रास के अंदर बता चुके हैं कि जिस स्थान पर उपछाया बनती है। उस स्थान वालों को खण्ड़ग्रास सूर्य ग्रहण दिखाई देता है।

सूर्य ग्रहण के बारे में बताया जाता है कि प्रत्येक 18 माह में पृथ्वी पर एक पूर्ण सूर्य ग्रहण किसी न किसी स्थान पर अवश्य घटित होता है। इसका दृश्य पथ लगभग 270 किलोमीटर चौड़ा होने के कारण इसके स्थान पर पुनः देखे जाने की संभवाना लगभग 375 वर्ष बाद ही बनती है। इस कारण हम कह सकते हैं कि यदि किसी स्थान के लोगों ने पूर्ण सूर्य ग्रहण देखा है तो उसी स्थान पर पुनःसूर्य ग्रहण घटित हाने के लिए उसे 375 वर्ष इन्तजार करना होगा।

सूर्य ग्रहण घटित हाना भी एक दुर्लभ खगोलिय संयोग है क्योंकि सूर्य चन्द्रमा व पृथ्वी तीनों ही गोलाकार हैं। साथ ही सूर्य व चन्द्रमा के व्यासों का अनुपात पृथ्वी से उनकी दूरियों के अनुपात के बराबर है।

सुर्य का व्यास            1392000 km
___________   =  ______________________ ≈ 400
सुर्य का व्यास                3476 km

 इसी प्रकार एक अन्य अनुपात

पृथ्वी की सुर्य से  दूरी           15,00,00,000 km
_________________   =  __________________ ≈ 400
पृथ्वी की चंद्रमा से  दूरी        3,84,000 km

यदि पृथ्वी व सूर्य की दूरी का अनुपात घटता है तो सूर्य ग्रहण कंकणाकार हो जाता है। यदि यह अनुपात बढ़ता है तो सूर्य ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण में बदल जाता है। इसी कारण सूर्य व चन्द्रमा दोनों एक ही कोणीय आकार के दिखाई देते हैं। 

खगोल विज्ञान के अनुसार पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चाँद पृथ्वी की। कभी-कभी धरती, सूरज और चाँद के बीच आ जाता है। तो चन्द्रमा सूरज की कुछ या सारी रोशनी रोक लेता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। वास्तव में पृथ्वी के जिस स्थान पर चंद्रमा की छाया पड़ती है। सूर्य ग्रहण उसी स्थान पर दिखाई देता हैं।


चन्द्रग्रहण अर्थात चन्द्रोपराग

चन्द्रग्रहण : - जब पृथ्वी का छाया चन्द्र मंडल पर पडती है। तो उसकी चमक धुंधली हो जाती है। इसे ही चन्द्रग्रहण कहते हैं। ध्यान रहे कि सूर्य व चन्द्रमा के बीच से गुजरने वाली पृथ्वी के बाई ओर के आधे भाग पर रहने वालां की ही चन्द्रग्रहण दिखाई देता है।

     सूर्य बहुत बड़ा है तथा पृथ्वी उससे बहुत छोटी व गालाकार है। इसलिए उसकी छाया शंक्वाकार होकर चन्द्रमा के बहुत बडे़ क्षेत्र को देखते हुए बहुत दूर तक निकल जाती है। पृथ्वी की छाया लगभग 8,57,000 मील (13,71,200 किलोमीटर) तक लम्बी होती है। जो पृथ्वी व सूर्य के बीच की दूरी पर निर्भर करती हैं। यह 8,71,000 से 8,43,000 मील तक लम्बी हो सकती है। उपछाया में चन्द्रमा पर कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं देता। प्रच्छाया के पास आने पर ही ग्रहण दिखाई देना शुरू होता है अर्थात चन्द्रग्रहण लगता है।

चन्द्रग्रहण दो प्रकार के
अ) सर्वग्रास चन्द्रग्रहण तथा
आ) खण्ड़ग्रास चन्द्रग्रहण के नाम से जानते हैं।

सर्वग्रास चन्द्रग्रहण को पूर्ण चन्द्रग्रहण भी कहते हैं। इसमें पूरा चन्द्रमा ढ़क जाता है। यह लगभग चार घंटे रहता है। इसमें दो घंटे यह गहरा काला दिखाई देता है। जबकि खण्ड़ग्रास में इसका कुछ ही भाग ढ़कता है। कुछ ही खण्ड़ या भाग के ग्रसित होने के कारण ही इसे खण्ड़ग्रास नाम दिया गया है।
     हर पूर्णिमा को ग्रहण क्यों नहीं लगता इसका एक कारण है। इसका कारण पृथ्वी व चन्द्रमा के बीच का झुकाव 5° है। चन्द्रग्रहण के बारे में एक बात जाननी जरूरी है। वह है पात रेखा। चन्द्रमा की पात रेखा चल है जिसका परिक्रमण काल 18 वर्ष 11 दिन है। यह अवधि वह है जिसके बाद ग्रहणों की पुनावृत्ति होती है। इस समय को चन्द्रकक्ष भी कहते हैं।

इसी आधार पर खगोलशास्त्रियों ने गणितीय गणना से निश्चित किया है कि इस काल में 41 सूर्य ग्रहण तथा 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। सामान्यतः एक वर्ष में 5 सूर्य तथा 2 चन्द्रग्रहण हो सकते हैं परंतु ऐसा बहुत ही कम होता है। एक वर्ष में चार से अधिक ग्रहण बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। यदि किसी वर्ष में दो ग्रहण होने हैं तो वे दोनों ग्रहण सूर्य ग्रहण होंगें चन्द्रग्रहण नहीं। जैसा कि हम जानते हैं कि ग्रहण पुनरावृत्ति 18 वर्ष 11 दिन बाद होती है। परंतु संपात बिन्दु के चलायमान होने के कारण पूर्व स्थान पर ही दिखें यह संभव नहीं है। अर्थात स्थान बदल जाता है।

प्राय हमने देखा है कि हमे लगता है कि हम सूर्य ग्रहण की तुलना में चन्द्रग्रहण अधिक होते हैं। परंतु हम जान जान चुके है कि सूर्य ग्रहण चन्द्रग्रहण से अधिक होते हैं। यदि हम अनुपात देखें तो पाते हैं कि चार सूर्य ग्रहण पर तीन चन्द्रग्रहणों का योग बनता है। इस भ्रम का कारण है कि चन्द्रग्रहण आधे से अधिक पृथ्वी पर तथा बहुत लम्बे समय तक दिखाई देता हैं इसके विपरीत समय्र ग्रहण थोड़े समय के लिए तथा पृथ्वी के बहुत छोटे भाग में ही दिखाई देता है। आपको बता दें कि सूर्य ग्रहण 100 मील चौड़े तथा दो से तीन हजार मील लम्बे मार्ग पर ही दिखाई देता है। इसी मार्ग पर ही हम सूर्य ग्रहण देख पाते हैं अन्य स्थानों पर नहीं।

खग्रास चन्द्रग्रहण लगभग चार घंटे रहता है। इसमें दो घंटे यह गहरा काला दिखाई देता है। इसके विपरीत खग्रास सूर्य ग्रहण केवल दो घंटे तक रहता है जबकि पूर्ण सूर्य ग्रहण केवल 8 से 10 मिनट ही रहता है। साधारण ग्रहणों में यह अवस्था केवल दो से तीन मिनट के बीच ही होती है।

ग्रहण लगने में केतु व सूर्य का योग ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। केतु व सूर्य का योग यदि नियत संख्या में 5 राशि व 16° से लेकर 6 राशि 14° अथवा 11 राशि 16° से लेकर 12 राशि 14° के बीच होता है तभी ग्रहण लगता है। यदि योग इस नियत संख्या से बाहर है तो ग्रहण नहीं लगेगा।

ग्रहण के समय सूर्य के समान चन्द्रमा पूर्ण रूप से अदृष्य नही होता बल्कि तांबे की तरह लालिमा युक्त दिखाई देता है। ऐसा होने का कारण है कि सूर्य की लाल किरणे पृथ्वी के वायु मंडल से गजरने के समय नीलांश शोषित हो जाने के बाद परावर्तित हो जाता है। इसी कारण हम चन्द्रमा को पूर्ण ग्रहण में भी देख सकते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो चन्द्रमा भी अदृष्य हो जाता।







सूतक
हिन्दु धर्म में चन्द्रग्रहण एक धार्मिक घटना है जिसका धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। हिन्दु मान्यताओं के अनुसार सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण से पूर्व की एक निश्चित समयावधि के समय पृथ्वी का वातावरण दूषित हो जाता है।  जिसे सूतक के रूप में जाना जाता है। इसीलिए मनीषियों ने सूतक के अशुभ दोषों से सुरक्षित रहने हेतु कुछ अतिरिक्त सावधानियां रखने का आदेश दिया है।

★ जो चन्द्रग्रहण नग्न आँखों से स्पष्ट दृष्टिगत न हो तो उस चन्द्रग्रहण का धार्मिक महत्व नहीं होता है। मात्र उपच्छाया वाले चन्द्रग्रहण नग्न आँखों से दृष्टिगत नहीं होते हैं इसीलिये उनका पञ्चाङ्ग में समावेश नहीं होता है और कोई भी ग्रहण और सूतक से सम्बन्धित कर्मकाण्ड नहीं किया जाता है। 
दूसरे शब्दों में यदि चन्द्रग्रहण आपके देश या शहर में दर्शनीय नहीं हो परन्तु दूसरे देशों अथवा शहरों में दर्शनीय हो तो कोई भी ग्रहण से सम्बन्धित ग्रहण के सूतक का अनुसरण या कर्मकाण्ड नहीं किया जाता है। 

★ केवल प्रच्छाया वाले चन्द्रग्रहण, जो कि नग्न आँखों से दृष्टिगत होते हैं, धार्मिक कर्मकाण्डों के लिये विचारणीय होते हैं। सभी परम्परागत पञ्चाङ्ग केवल प्रच्छाया वाले चन्द्रग्रहण को ही सम्मिलित करते हैं।
लेकिन ग्रहण की घटना घटित हो रही है परंतु मौसम की वजह से चन्द्र या सूर्य ग्रहण दर्शनीय न हो तो ऐसी स्थिति में ग्रहण के सूतक का अनुसरण किया जाता है और ग्रहण से सम्बन्धित सभी सावधानियों का पालन किया जाता है।

सूतक काल क्या है?

सूतक समयावधि
सूर्य ग्रहण से पूर्व सूतक काल चार प्रहर तक माना जाता है तथा चन्द्र ग्रहण के दौरान ग्रहण से पूर्व तीन प्रहर के लिये सूतक माना जाता है। सूतक काल की गणना समस्त सूतक काल से लेकर मोक्ष काल तक समझनी चाहिए।

सूर्योदय से सूर्योदय तक आठ प्रहर होते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि 24 घंटे को आठ प्रहर में बांटा गया है। तो एक प्रहर में (24 ÷ 8 = 3) 3 घंटे हुए।

अतः सूर्य ग्रहण में सूतक काल ग्रहण से चार प्रहर पूर्व तक अर्थात बारह घण्टे पूर्व से से मोक्ष काल तक तथा चन्द्र ग्रहण में सूतक काल ग्रहण से पूर्व तीन प्रहर तक के लिये अर्थात नौ घण्टे पूर्व से मोक्ष काल तक माना जाता है।

हां एक सबसे बड़ी बात जो प्राचीन भारतीय मनीषियों ने बताई है कि सूतक उसी स्थान पर मान्य होता है जिस स्थान पर ग्रहण दर्शनीय होता है। इस इस प्रकार मान सकतेहैं कि ग्रहण दर्शनीय होने पर ही सूतक काल माना जाना चाहिए अन्यथा नहीं। 

ग्रहणकाल के समय भोजन
प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा ग्रहण एवं सूतक के दौरान समस्त प्रकार के ठोस एवं तरल खाद्य पदार्थों का सेवन निषिद्ध किया गया है। अतः सूर्य ग्रहण से बारह घण्टे तथा चन्द्र ग्रहण से नौ घण्टे पूर्व से लेकर ग्रहण समाप्त होने तक भोजन नहीं करना चाहिये। 

यद्यपि उन्होंने बालकों, रोगियों तथा वृद्धों के लिये भोजन मात्र एक प्रहर अर्थात तीन घण्टे के लिये ही वर्जित है।

गर्भवती स्त्रियों के लिये सावधानियाँ
प्राचीन भारतीय मनीषियों द्वारा गर्भवती स्त्रियों को भी ग्रहण में सावधानी बरतने के लिए कहा है । उनके अनुसार राहु व केतु के दुष्प्रभाव के कारण शिशु शारीरिक रूप से अक्षम हो सकता है तथा गर्भवती स्त्री के गर्भपात की सम्भावनायें भी बढ़ जाती है। इसी कारण गर्भवती स्त्रियों को ग्रहण काल में बाहर न निकलने का सुझाव दिया जाता है। 

ग्रहणकाल में गर्भवती स्त्रियों को किसी ग्रुप भी प्रकार के काटने, सिलने अथवा छीलने के काम जैसे वस्त्र आदि काटने या सिलने अथवा ऐसे अन्य कार्य न करने का सुझाव दिया जाता है, क्योंकि इन गतिविधियों का भी शिशु पर दुष्प्रभाव पड़ता है।

प्रतिबन्धित गतिविधियाँ
ग्रहण काल में गर्भवती स्त्रियोंको सावधान बरतने तथा 
सभी के लिए तेल मालिश करना, जल ग्रहण करना, मल-मूत्र विसर्जन, बालों में कन्घा करना, मञ्जन-दातुन करना तथा यौन गतिविधियों में लिप्त होना ग्रहण काल में प्रतिबन्धित किया गया है।

ग्रहणोपरान्त अनुष्ठान
यह सलाह दी जाती है कि पहले से बने हुए भोजन को त्यागकर ग्रहण के पश्चात् मात्र स्वच्छ एवं ताजा बने हुए भोजन का ही सेवन करना चाहिये। गेहूँ, चावल, अन्य अनाज तथा अचार इत्यादि जिन्हें त्यागा नहीं जा सकता, इन खाद्य पदार्थों में कुश घास तथा तुलसी दल डालकर ग्रहण के दुष्प्रभाव से संरक्षित किया जाना चाहिये। ग्रहण समाप्ति के उपरान्त स्नान आदि करके ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देनी चाहिये। 

ग्रहणोपरान्त दान करना अत्यन्त शुभ व लाभदायक माना जाता है।

ग्रहण के दौरान मंत्र जाप करें
तमोमय महाभीम सोमसूर्यविमर्दन।
हेमताराप्रदानेन मम शान्तिप्रदो भव॥१॥

श्लोक अर्थ - अन्धकाररूप महाभीम चन्द्र-सूर्य का मर्दन करने वाले राहु ! सुवर्णतारा दान से मुझे शान्ति प्रदान करें।

विधुन्तुद नमस्तुभ्यं सिंहिकानन्दनाच्युत।
दानेनानेन नागस्य रक्ष मां वेधजाद्भयात्॥२॥

श्लोक अर्थ 
सिंहिकानन्दन (पुत्र), अच्युत ! हे विधुन्तुद, नाग के इस दान से ग्रहणजनित भय से मेरी रक्षा करो।

सूर्य ग्रहण के समय हमारे ऋषि-मुनियों के कथन
हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएँ और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएँ। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।[13]

पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चन्द्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की सन्तान हैं। चन्द्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चन्द्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमज़ोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चन्द्र ग्रहण नहीं देखने चाहिए, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।[14]

ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किए गए हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्‌मण को दान देने का विधान है। कहीं-कहीं वस्त्र, बर्तन धोने का भी नियम है। पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नया भोजन पकाया जाता है और ताजा भरकर पिया जाता है। ग्रहण के बाद डोम को दान देने का अधिक माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि डोम को राहु-केतु का स्वरूप माना गया है।

सूर्य ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाएं रखें खास ध्यान
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब भी ग्रहण लगता है इसका बुरा प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है ऐसे में ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाएं विशेष ध्यान रखना चाहिए।

★ गर्भवती महिलाओं को सूर्य ग्रहण के दौरान भोजन नहीं करना चाहिए। कहा जाता है कि ग्रहण के दुष्प्रभाव से भोजन दूषित हो जाता है, इसलिए पहले से रखे पके हुए भोजन पर तुलसी का पत्ता या गंगाजल डाल दें। 
★ गर्भवती महिलाओं को सूर्य ग्रहण के दौरान सूई, चाकू, कैंची जैसी नोकदारी वस्तुओं से दूर रहना चाहिए। कहा जाता है कि इनका उपयोग करने से गर्भ में पल रहे बच्चे पर दुष्प्रभाव हो सकता है। 
★ जब सूर्य ग्रहण प्रारंभ हो और ग्रहण के समापन तक गर्भवती महिलाओं को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, क्योंकि इसका नकारात्मक प्रभाव पल रहे बच्चे पर पड़ता है। 
★ गर्भवती महिलाओं को सूर्य ग्रहण को भी नहीं देखना चाहिए। इससे उनकी और गर्भ में पल रहे बच्चे की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका रहती है। 
★ सूर्य ग्रहण के समय में गर्भवती महिलाओं को अपने इष्टदेव का स्मरण करना चाहिए।

वहीं इस तरह के संयोग से कुछ राशि के जातकों को विशेष लाभ के मिलने की संकेत हैं। जिनमें मेष, कर्क और वृश्चिक राशि शामिल है।

हिन्दु कैलेण्डर में पूर्ण चन्द्र दिवस को पूर्णिमा अथवा पौर्णमी के रूप में जाना जाता है। चन्द्र ग्रहण सदैव पूर्णिमा के दिन ही होता है। इस दिन पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा के बीच होती है।

सूर्य और चंद्र ग्रहण के पहले सूतक काल लग जाता है. सूतक काल में किसी भी तरह का शुभ और मांगलिक कार्य करना वर्जित माना जाता है. क्योंकि इस समय पृथ्वी का वातावरण बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता है. जिसका नकारात्मक प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर देखने को मिलता है. सूतक काल क्या होता है? ये कितने समय पहले लगता है, और इस दौरान किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? जानते हैं भोपाल निवासी ज्योतिष एवं वास्तु सलाहकार पंडित हितेंद्र कुमार शर्मा से.

क्या है सूतक काल
मान्यताओं के अनुसार सूतक काल ग्रहण के पहले का वो अशुभ समय है जिसमें पृथ्वी का वातावरण हानिकारक किरणों के कारण प्रदूषित हो जाता है. हर सूर्य और चंद्र ग्रहण से पहले सूतक काल लग जाता है. माना जाता है इस दौरान राहु सूर्य और चंद्रमा का ग्रास करता है. सूतक काल में किसी भी तरह का मांगलिक और शुभ कार्य नहीं किया जाता.

कितनी होती है सूतक काल की अवधि?
सूतक काल की अवधि सूर्य और चंद्र ग्रहण में अलग-अलग होती है. सूर्य ग्रहण से चार प्रहर पहले यानी 12 घंटे पहले सूतक काल मान्य होता है. वही चंद्रग्रहण के तीन प्रहर पहले यानी 9 घंटे पहले सूतक काल मान्य होता है. सूर्य उदय से अगले सूर्य उदय तक आठ प्रहर होते हैं. इसी वजह से सूर्य ग्रहण से 12 घंटे पहले और चंद्र ग्रहण से 9 घंटे पहले सूतक काल मान्य होता है.
क्या करना है वर्जित?
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सूतक और ग्रहण काल में किसी भी तरह का ठोस या तरल पदार्थ का सेवन वर्जित माना गया है. इसलिए सूर्य ग्रहण में 12 घंटे पहले और चंद्रग्रहण में 9 घंटे पहले से ग्रहण समाप्त होने तक भोजन का सेवन करने से बचना चाहिए. परंतु कोई बीमार या गर्भवती हैं तो उस स्थिति में आप पके ताजे फल या ड्राई फ्रूट्स का सेवन कर सकते हैं इसके तुलसी मिला पानी पी सकते हैं.

बच्चे, बीमार और बूढ़े लोगों के लिए किसी भी तरह के भोजन का सेवन एक प्रहर या 3 घंटे तक ही सीमित माना गया है.

जिस जगह ग्रहण नहीं दिखाई देता वहां सूतक काल मान्य नहीं होता.

सूतक और ग्रहण काल में भगवान को ना छुएं, उनके कपाट बंद कर दें.
सूतक लगते ही मंदिर पर पर्दा डाल दें या फिर मंदिर के दरवाजे बंद कर दें। सूतक काल से ही पूजापाठ के सभी कार्य बंद कर दिए जाते हैं और फिर ग्रहण की समाप्‍ति के बाद मंदिर का शुद्धिकरण करके पूजा आरंभ की जाती है।

ग्रहण में मल-मूत्र त्यागना, पानी पीना, दांतों में ब्रश करना, बालों में कंघी करना वर्जित माना गया है.

इसके अलावा ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाओं को बाहर निकलने के लिए सख्त मना किया जाता है. क्योंकि इसके हानिकारक प्रभाव से गर्भ में पल रहे बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना बढ़ जाती है.
ग्रहण समाप्त होने के बाद क्या करें?
जैसे ही ग्रहण समाप्त होता है उसके बाद स्नान करके पहने हुए वस्त्रों को निकालकर स्वच्छ वस्त्र धारण अवश्य करें. भगवान को स्नान कराकर उनके भी वस्त्र बदल दें और पूजा करें. ग्रहण समाप्त होने के बाद ब्राह्मणों को सामर्थ्य अनुसार दान करें.

ग्रहण के दौरान इन बातों का रखें खास ध्यान
सूर्य ग्रहण के समय घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए और ना ही सूर्य ग्रहण को कभी भी डायरेक्ट आंखों से देखना चाहिए।
ग्रहण के समय रसोई से संबंधित कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, खासकर कि खाना नहीं बनाना चाहिए।
ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाएं बाहर बिल्कुल भी न निकलें।
ग्रहण के समय सुई में धागा नहीं डालना चाहिए।
सूर्य ग्रहण के दौरान कुछ काटना, छीलना, कुछ छौंकना या बघारना नहीं चाहिए।
इसके अलावा ग्रहण के समय मंदिर के मूर्ति को स्पर्श नहीं करना चाहिए।
ग्रहण के समय सूर्यदेव का ध्यान करते हुए उनके मंत्रों का तेज आवाज में उच्चारण करना चाहिए। सूर्यदेव का मंत्र इस प्रकार हैं- 'ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:'।
इसके अलावा सूर्यदेव का एक अन्य विशेष मंत्र भी है- 'ऊँ घृणिः सूर्याय नमः'।
तेज आवाज में मंत्रों का उच्चारण करने से ग्रहण के दौरान फैली निगेटिविटी का व्यक्ति पर असर नहीं पड़ता है। 
सूर्य ग्रहण के बाद क्या करना चाहिए?
ग्रहण के बाद घर की साफ-सफाई करके पूरे घर में गंगाजल का छिड़काव करें।
घर के मंदिर में रखे सभी देवी-देवताओं की मूर्तियोंऔर चित्रों पर भी गंगाजल का छिड़काव करके स्नान कराएं।
साथ ही सूर्य ग्रहण के बाद स्नान आदि से निवृत होकर दान अवश्य करें।
सूर्य ग्रहण के बाद गाय को हरा चारा भी खिलाएं। 
ग्रहण के दौरान घर में सभी पानी के बर्तन में, दूध और दही में कुश या तुलसी की पत्ती या दूब धोकर डाल दें। फिर ग्रहण समाप्त होने के बाद दूब को निकालकर फेंक दें।
इसके अलावा ग्रहण शुरू होने से पहले थोड़ा-सा अनाज और कोई पुराना पहना हुआ कपड़ा निकालकर अलग रख दें और जब ग्रहण समाप्त हो जाए तब उस कपड़े और अनाज को आदर के साथ किसी सफाई-कर्मचारी को दान कर दें । इससे आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।
 सूतक काल
सूतक काल को अशुभ काल या दूषित काल माना जाता है। सूतक काल के दौरान भगवान की पूजा की मनाही होती है। साथ ही मंदिरों के कपाट भी बंद कर दिए जाते हैं। इतना नहीं सूतक काल के दौरान खाना पीना भी वर्जित माना गया है। सूर्य ग्रहण से 12 घंटे पहले सूतक काल आरंभ हो जाता है। 
कैसे होती है सूतक की गणना?
ज्योतिष के अनुसार सूतक काल की गणना के लिए पहले सूर्य या चंद्र ग्रहण की तिथि के साथ समय का सटीक ज्ञान होना बेहद जरूरी है क्योंकि जब सूर्य ग्रहण के सूतक काल की गणना करते हैं तो ग्रहण से ठीक 12 घंटे पहले से उसका सूतक काल शुरू हो जाता है और ग्रहण समाप्त होने के बाद सूतक काल पूरा होता है. ठीक इसी तरह चंद्र ग्रहण का सूतक काल ग्रहण शुरू होने से ठीक नौ घंटे पहले शुरू होता है और ग्रहण खत्म होने के साथ स्वत: समाप्त हो जाता है.

क्या करें क्या नहीं?
1. ग्रहण के सूतक काल के दौरान कम से कम बोलें. भगवान की भक्ति में मन लगाएं.
2. भगवान का ध्यान कर पूजा करें, ग्रहण से मन में भटकाव से गुस्सा आ सकता है.
3. सूतक काल के दौरान ग्रहण संबंधित ग्रह की शांति पाठ करें और मंत्रों का जप करें.
4. सूतक काल के समय जितना मुमकिन हो योग और ध्यान करें. ऐसा करने से मानसिक शक्ति का विकास होगा.
5. सूतक काल में खाना न बनाएं, अगर बन चुका है तो तुलसी के पत्ते डालकर रख दें.
6. चंद्र ग्रहण के दौरान चंद्र मंत्रों का जप और सूर्यग्रहण के दौरान सूर्य मंत्रों का सपरिवार स्पष्ट उच्चारण पूर्वक जप लाभ देगा.
7. ग्रहण के समय होने वाली पूजा में मिट्टी के दीये इस्तेमाल करें. सूतक पूरा होने पर घर साफ कर दोबारा स्नान और पूजा पाठ करें.
8. ग्रहण खत्म होने के बाद घर और पूजा स्थल पर गंगाजल छिड़क कर उन्हें शुद्ध करें.
9. सूतक काल में गर्भवती महिला को घर से बाहर नहीं जाना चाहिए. ग्रहण की छाया गर्भ में पल रहे शिशु पर न पड़े.
10. शास्त्रों के अनुसार सूतक काल में दांत साफ करना या बालों में कंघी नहीं करनी चाहिए. साथ ही बीमार नहीं हैं तो सोने से बचें.
11. सूतक काल में पवित्र मूर्ति को छूना अशुभ माना गया है. काम या क्रोध जैसे नकारात्मक विचारों को मन में न आने दें.
12. कुछ जगहों पर सूतक के दौरान मल, मूत्र और शौच भी वर्जित बताए गए हैं. चाकू और कैंची जैसी नुकीली चीजों का इस्तेमाल करना भी मना है.


इस दशा में नहीं लगता है सूतक
चंद्र ग्रहण खगोलीय घटना है. सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती तो चंद्रमा पर प्रकाश बंद हो जाता है. चंद्र ग्रहण तीन होते हैं. पूर्ण चंद्र ग्रहण, इसमें सूर्य की परिक्रमा करते हुए पृथ्वी ठीक सामने आ जाती है और पृथ्वी के आगे चंद्रमा आ जाता है. पृथ्वी सूर्य को ढक लेती है, जिस चंद्रमा तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है. दूसरी स्थिति में जब पृथ्वी चंद्रमा को आंशिक ढकती है तो आंशिक चंद्र ग्रहण कहते हैं. जब चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए पैनंब्रा से गुजरता है तब चंद्रमा पर सूर्य का प्रकाश कटा पहुंचता है. अब चंद्रमा की सतह धुंधली दिखेगी, इसे उपछाया या पेनुम्ब्रा चंद्र ग्रहण कहा गया है. चूंकि इसे ग्रहण नहीं कहा जाता है, इसलिए इसका सूतक काल मान्य भी नहीं होता है.








 


भौतिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है, इसी घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। 

जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है, तब इसे चन्द्र ग्रहण कहा जाता है।


चन्द्र ग्रहण के समय चन्द्रमा पर पड़ रहा सूर्य का प्रकाश पृथ्वी द्वारा अवरुद्ध हो जाता है। पृथ्वी के वायुमण्डल से परावर्तित प्रकाश चन्द्रमा पर पड़ने के कारण ही वह चन्द्र ग्रहण के दौरान दिखाई देता है। यदि पृथ्वी से प्रकाश परावर्तित नहीं हो तो चन्द्र ग्रहण के समय चन्द्रमा अदृश्य हो जाता। पृथ्वी से परावर्तित प्रकाश के कारण चन्द्रग्रहण के समय चन्द्रमा लाल रँग का दिखता है।

चन्द्र ग्रहण के समय चन्द्रमा पर पड़ने वाली पृथ्वी की छाया को उपच्छाया एवं प्रच्छाया क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है। भौतिक विज्ञान के नियमों के कारण सभी ग्रहों की छाया दो क्षेत्रों का निर्माण करती हैं, जिन्हें उपच्छाया एवं प्रच्छाया क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। उपरोक्त आरेख से यह स्पष्ट है कि प्रच्छाया क्षेत्र में अंधकार है क्योंकि इस क्षेत्र तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता है, जबकि उपच्छाया क्षेत्र पूर्णतः अंधकारमय नहीं है क्योंकि इस क्षेत्र में कुछ मात्रा में सूर्य का प्रकाश पहुँचता है।

जब चन्द्रमा प्रच्छाया क्षेत्र के अन्तर्गत आता है तब पृथ्वी से पूर्ण चन्द्र ग्रहण देखा जाता है। यदि चन्द्रमा प्रच्छाया क्षेत्र से आंशिक रूप से निकलता है, किन्तु पूर्णतः पार नहीं करता, उस स्थिति में पृथ्वी से आंशिक चन्द्र ग्रहण देखा जाता है।

उपच्छाया चन्द्र ग्रहण तब होता है जब चन्द्रमा छाया के प्रच्छाया क्षेत्र को बिना स्पर्श किये उपच्छाया क्षेत्र से निकलता है। उपच्छाया चन्द्र ग्रहण कम महत्वपूर्ण होते हैं तथा सामान्यतः उन पर ध्यान नहीं जाता है क्योंकि यह ग्रहण नग्न आँखों से दिखाई नहीं देते हैं। हिन्दु कैलेण्डर में भी उपच्छाया चन्द्र ग्रहण को सूचीबद्ध नहीं करते हैं तथा इसे पूर्णतः अनदेखा किया जाता है।

उपरोक्त आरेख द्वारा यह स्पष्ट होना चाहिये कि पूर्ण चन्द्र ग्रहण के समय ग्रहण उपच्छाया चरण से आरम्भ होता है एवं आंशिक प्रच्छाया चरण तक चलता है तथा अन्त में पूर्ण ग्रहण के चरण में आ जाता है। आंशिक प्रच्छाया रूप में पुनः आने से पूर्व कुछ समय के लिये चन्द्रमा पूर्ण ग्रहण चरण में रहता है तथा अन्त में पूर्णतः ग्रहण से मुक्त होने से पूर्व उपच्छाया चरण में आता है।

यह स्मरण रखना रोचक है कि पृथ्वी पर कुछ स्थानों पर पूर्ण चन्द्र ग्रहण या आंशिक चन्द्र ग्रहण को कुछ स्थानों पर मात्र एक उपच्छाया ग्रहण के रूप में ही देखा जा सकता है। यह उस स्थिति में होता है जब चन्द्रोदय होता है, जब चन्द्रमा प्रच्छाया क्षेत्र से उपच्छाया क्षेत्र में उदय होता है अथवा जब चन्द्रास्त होता है, जब चन्द्रमा उपच्छाया क्षेत्र से प्रच्छाया क्षेत्र में स्थानान्तरित होने ही वाला होता है। उपरोक्त घटनाक्रम के कारण पृथ्वी पर कुछ स्थानों पर पूर्ण चन्द्र ग्रहण को आंशिक चन्द्र ग्रहण रूप में देखा जा सकता है।

एक वर्ष में कुल 0 से 3 (0 और 3 सम्मिलित) चन्द्र ग्रहण हो सकते हैं। किसी ग्रहण का पूर्ण चन्द्र चरण एक से दो घण्टे तक रहता है तथा उपच्छाया चरण से उपच्छाया चरण तक का सम्पूर्ण चन्द्र ग्रहण लगभग चार से छह घण्टे तक रहता है। एक चन्द्र ग्रहण के पूर्ण चन्द्र, आंशिक प्रच्छाया/चन्द्र या केवल उपच्छाया ग्रहण होने की सम्भावना लगभग समान होती है।

★ वैज्ञानिक रूप से आंशिक अथवा पूर्ण दोनों ही प्रकार के चन्द्र ग्रहण को नग्न आँखों से देखना सुरक्षित है।

★ बच्चों, बृद्धों और अस्वस्थ लोगों के लिये सूतक प्रारम्भ काल और सूतक समाप्त काल लागू नहीं होता है।
   
★ पञ्चाङ्ग में दिन सूर्योदय से शुरू होता है और पूर्व दिन सूर्योदय के साथ ही समाप्त हो जाता है।

चन्द्र ग्रहण के समय पर टिप्पणी
जब चन्द्र ग्रहण मध्यरात्रि (१२ बजे) से पहले लग जाता है परन्तु मध्यरात्रि के पश्चात समाप्त होता है - दूसरे शब्दों में जब चन्द्र ग्रहण अंग्रेजी कैलेण्डर में दो दिनों का अधिव्यापन (ओवरलैप) करता है - तो जिस दिन चन्द्रग्रहण अधिकतम होता है उस दिन की दिनाँक चन्द्रग्रहण के लिये दर्शायी जाती है। ऐसी स्थिति में चन्द्रग्रहण की उपच्छाया तथा प्रच्छाया का स्पर्श पिछले दिन अर्थात मध्यरात्रि से पहले हो सकता है।

इस पृष्ठ पर दिये चन्द्रोदय और चन्द्रास्त के समय लंबन/विस्थापनाभास के लिये संशोधित हैं। लंबन का संशोधन चन्द्रग्रहण देखने के लिये उत्तम समय देता है।

हिन्दु धर्म और चन्द्र ग्रहण


खगोल शास्त्रीयों गणना
खगोल शास्त्रियों नें गणितीय गणनाओं द्वारा निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। 
एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए। हाँ, यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुए तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे। यद्यपि वर्षभर में 7 ग्रहण तक सम्भाव्य हैं, तथापि 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। 
प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुन: होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं।

साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। 3 चन्द्रग्रहण पर 4 सूर्यग्रहण का अनुपात आता है। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बड़े भाग में प्राय सौ मील से कम चौड़े और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास (जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है) ग्रहण हो तो गुजरात में खण्ड सूर्यग्रहण (जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढँकता है) ही दिखलाई देगा और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।

चन्द्रग्रहण तो अपने सम्पूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में ही देखा जा सकता है।


भारतीय वैदिक काल और सूर्य ग्रहण
संपादित करें
वैदिक काल से पूर्व भी खगोलीय संरचना पर आधारित कलैन्डर बनाने की आवश्कता अनुभव की गई। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से चार हजार पूर्व ही उपलब्ध थी। ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था। वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है।[12]

ग्रह नक्षत्रों की दुनिया की यह घटना भारतीय मनीषियों को अत्यन्त प्राचीन काल से ज्ञात रही है। चिर प्राचीन काल में महर्षियों नें गणना कर दी थी। इस पर धार्मिक, वैदिक, वैचारिक, वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण के ज्ञान को देने वाले प्रथम आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल अर्थात वैदिक काल से ग्रहण पर अध्ययन, मनन और परीक्षण होते चले आए हैं।[6]






सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्र ग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये। बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए। बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिये व दंत धावन नहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र का त्याग करना, मैथुन करना और भोजन करना - ये सब कार्य वर्जित हैं। ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता। ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमन्दों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है। 'देवी भागवत' में आता है कि भूकम्प एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदना नहीं चाहिये।[16]


सूर्यग्रहण के बारे में क्या कहता है धर्म, विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र

5 वर्ष पहले

जीवन मंत्र डेस्क. साल 2019 का दूसरा सूर्य ग्रहण मंगलवार 2 जुलाई को लगने वाला है. ये सूर्यग्रहण भारतीय मानक समयानुसार 2 जुलाई की रात लगभग 10 बजकर 25 मिनट पर प्रारंभ होगा। वहीं, ग्रहणकाल का सूतक लगभग 12 घंटे पहले लगेगा। इससे पहले 5-6 जनवरी को साल 2019 का पहला सूर्यग्रहण लगा था। आज हो रहे पूर्ण सूर्यग्रहण के बाद 26 दिसंबर को तीसरा और साल का आखिरी सूर्यग्रहण पड़ेगा। जो कि भारत में दिखाई देगा। 

 

विज्ञान की नजर से सूर्य ग्रहण 
विज्ञान के अनुसार, सूर्यग्रहण के दौरान खतरनाक सोलर रेडिएशन निकलता है. यह सोलर रेडिएशन आंखों के नाजुक टिशू को नुकसान पहुंचा सकता है. इससे आपकी आंखें खराब भी हो सकती हैं. इसे रेटिनल सनबर्न के नाम से जाना जाता है। सूर्य ग्रहण पर की जा रही लम्बी रिसर्च से यह सामने आया है कि प्रत्येक वर्ष में कम से कम सूर्य ग्रहण की घटना देखने को मिलती है. सूर्य एक प्राकृ्तिक अद्धभुत घटना है. पूरे सौ सालों में इस प्रकार दो सौ से अधिक सूर्य ग्रहण होने की संभावनाएं बनती है. यह आवश्यक नहीं है कि होने वाले सभी सूर्य ग्रहणों को भारत में देखा जा सके, अपितु इनमें से कुछ ही भारत में देखे जा सकेगें।

 

ज्योतिष के अनुसार ग्रहण
काशी के ज्योतिषाचार्य पं गणेश मिश्रा के अनुसार, एक साल में तीन या तीन से अधिक ग्रहण शुभ नहीं माने जाते हैं। बताया जाता है, अगर ऐसा होता है तो प्राकृतिक आपदाएं और सत्ता परिवर्तन देखने को मिलता है। ग्रहण से राजा तथा प्रजा में से किसी एक को काफी नुकसान होता है। सूर्यग्रहण पर कुंडली में सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में आ जाते हैं और इन पर राहु-केतु की दृष्टि पर पड़ने लगती है। चहीं चंद्रग्रहण पर सूर्य और चंद्रमा आमने-सामने आ जाते हैं और इनके साथ राहु एवं केतु भी होते हैं। ग्रहों की ये स्थिति मानसिक तनाव बढ़ाने वाली होती है। इसके प्रभाव से लोगों में अनजाना डर रहता है और लोग गलत फैसले भी लेने लगते हैं।

 

सूर्यग्रहण का धार्मिक महत्व
मत्स्य पुराण में सूर्य ग्रहण को लेकर काफी जानकारी मिलती है। इस पुराण के अनुसार, सूर्य ग्रहण का संबंध राहु-केतु और उनके द्वारा अमृत पाने की कथा से है। सागर मंथन के बाद जब अमृत बांटा जाने लगा तब स्वरभानु नाम का असुर अमृत पीने की लालसा में रूप बदलकर सूर्य और चंद्र के मध्य बैठ गया लेकिन दोनों देवताओं ने इसे पहचान लिया और इसकी शिकायत भगवान विष्णु से कर दी। लेकिन तब तक स्वरभानु अमृत पान कर चुका था और अमृत उसके गले तक आ गया था।। जैसे ही सूर्य और चंद्र ने इसकी शिकायत की, यह दोनों देवताओं को लीलने के लिए दौड़े। भगवान विष्णु ने एक पल गंवाए बिना अपने सुदर्शन चक्र स्वरभानु असुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह असुर अमृत पी चुका था इसलिए मरकर भी जीवित रहा। इसका सिर राहु कहलाया गया और धड़ केतु। कथा के अनुसार, उस दिन से जब भी सूर्य और चंद्रमा पास आते हैं तब राहु-केतु के प्रभाव से ग्रहण लग जाता है।
 

सूर्य ग्रहण को लेकर क्या है मान्यता
सूर्य ग्रहण को लेकर हमारे देश में कई प्रकार की मान्यताएं हैं. मान्यता के अनुसार, ग्रहणकाल में किसी भी देवी-देवता का मूर्ति को छूना नहीं चाहिए. देवी-देवताओं की मूर्ति के अलावा ग्रहण में किसी पौधे की पत्तियों को नहीं छूना चाहिए। एक मान्यता के अनुसार ग्रहण काल में सब्जी काटना, सूई धागा से काम करने से जन्म लेने वाले शिशु में शारीरिक दोष होनेकी संभावना ज्यादा रहती है. कहा जाता है कि सूर्य ग्रहण के समय में सूरज को खुली आंखों से नहीं देखना चाहिए।

सूर्यग्रहण पर सावधानीयां
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सूर्य ग्रहण को सीधा नग्न आंखों से न देखें। सूर्य से निकलती हुई हानिकारक किरणें आंखों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
किसी भी प्रकार के अन्य चश्मे से सूर्य ग्रहण को देखने से बचें। केवल सोलर फिल्टर चश्मे का प्रयोग करें।
बच्चों को यदि ग्रहण दिखा रहे हैं तो उन्हें भी सोलर फिल्टर वाले चश्मे से दिखाएं क्योंकि बच्चों की आंखें नाज़ुक होती हैं।
यदि चश्मा उपलब्ध नहीं है तो किसी भी स्थिति में सूर्यग्रहण न देखें।
Solar Eclipse 2020 Special-सूर्यग्रहण विशेष
ऐसे समय को सूतक काल कहते हैं और गर्भवती महिलाओं को इससे बचने की सलाह दी जाती है लेकिन यह एक आम दिवस है जिसमें खगोलीय घटना हो रही है। यह सूतक और उसके प्रभाव आदि मानना व्यर्थ है। क्यों व्यर्थ है? भगवान सदैव सबसे शक्तिशाली होते हैं। पर मंदिरों के पट बंद करके क्या वे कैद हो गए? क्या वे बाहर नहीं निकल पाएंगे? क्या वे केवल मंदिर में ही रहते हैं? नहीं। वास्तव में हमें बताया गया कि सभी भगवान बराबर हैं। स्वयं नकली धार्मिक गुरुओं ने ज्ञान न होने के कारण वास्तविक ज्ञान से अनजान रखा और ग्रहण के साथ अन्य अंध श्रद्धा वाली भक्ति जोड़ दी।

गीता अध्याय 15 के श्लोक 1 से 2 में उल्टे वृक्ष के माध्यम से बताया गया है कि अविनाशी परमात्मा अलग है जो विवश नहीं है, किसी के आश्रित नहीं है, किसी विधि विधान से बंधा नहीं है, सारी चीजें बदलने की सामर्थ्य रखता है। वे हैं कबीर साहेब। उसके बाद इस लोक का स्वामी क्षर पुरुष फिर अक्षर ब्रह्म, और फिर आते हैं तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश। इस प्रकार की सृष्टि रचना है जो ग्रहण जैसी घटनाओं से पूरी तरह अप्रभावित है।

ग्रहण के कारण लोग सूतक और अशुभ समय मानते हैं। सनातन धर्म के आदि ग्रन्थ वेदों में कहीं भी इस अंध श्रद्धा का उल्लेख नहीं है। न ही भागवत गीता में है। गीता अध्याय 16 श्लोक 23 के अनुसार शास्त्र विरुद्ध आचरण करने वाले किसी गति को प्राप्त नहीं होते हैं। ग्रहण एक खगोलीय घटना है इसका भक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। शास्त्रों को गहराई से समझने के लिए सन्त रामपाल जी महाराज के सत्संग साधना TV पर रात 7:30pm से अवश्य सुनें तथा “अंधश्रद्धा भक्ति खतरा ए जान” पुस्तक वेबसाइट से डाउनलोड करके पढ़ें।

Surya Grahan 2019: सनातन संस्कृति के शास्त्रों में सूर्य ग्रहण का काफी महिमा मंडन किया गया है। सूर्य ग्रहण के वैज्ञानिक पहलूओं की इसमें विस्तृत व्याख्या की गई है और सूर्य ग्रहण के प्रभाव के बारे में बताया गया है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार ग्रहण का खगोलीय ज्ञान हमारे पूर्वजों को ईसा से चार हज़ार वर्ष पहले हो गया था। वेदांग ज्योतिष में सूर्य और चंद्र ग्रहण के संबंध में विस्तार से बताया गया है।

अत्रिमुनि थे सूर्य ग्रहण का ज्ञान प्राप्त करने वाले पहले आचार्य

ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि और उनके परिवार को ग्रहण का बेहतर ज्ञान था। महर्षि अत्रि मुनि ग्रहण का ज्ञान को देने वाले पहले आचार्य माने जाते हैं। इसके बाद खगोल शास्त्र के रहस्य वेद-पुराणों में खुलते चले गए। जिसमें आसमान में टिमटिमाते तारों से लेकर अज्ञात ग्रहों का अध्ययन शामिल था। ऋग्वेद के एक मन्त्र में सूर्य ग्रहण का वर्णन करते हुए लिखा है कि हे सूर्यदेव असुर राहु ने हमला कर आपको अंधकार के आगोश में ले लिया है और मनुष्य आपको देख नहीं पा रहा है। उस समय महर्षि अत्रि ने अपने ज्ञान के दम पर छाया को हटाकर सूर्य का उद्धार किया। एक अन्य मंत्र में बताया गया है कि कैसे इन्द्र ने अत्रि मुनि की सहायता से ही राहु की सीमा से सूर्य की रक्षा की थी।

महर्षि अत्रि के पास इस तरह की काबिलियत कैसे आई इसको लेकर दो मत प्रचलित है। पहला मत यह है कि वह कठिन तपस्या कर सूर्य ग्रहण के प्रभाव पर असर डालने में समर्थ हुए, तो दूसरा मत यह है कि उन्होंने एक यंत्र बनाया था, जिसकी मदद से वह सूर्य ग्रहण को दिखालाने और उसके अध्ययन में सक्षम हुए थे।

महाभारत में है सूर्य ग्रहण का वर्णन

महाभारत में भी सूर्य ग्रहण का उल्लेख मिलता है। महाभारत महाकाव्य में मनु और देवगुरु वृहस्पति के बीच अध्यात्म तथा दर्शन के उपदेश की चर्चा का उल्लेख है । इस चर्चा में ग्रहण के संबंध में भी चर्चा की गई। इन दो श्लोंको में सूर्यग्रहण के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।

यथा चन्द्रार्कसंयुक्तं तमस्तदुपलभ्यते ।

तद्वच्छरीरसंयुक्तः शरीरीत्युपलभ्यते ।।२१।।

जिस तरह चंद्रमा और सूर्य के संयोग होने पर ही चंद्रमा से संबद्ध अंधकार के अस्तित्व का अहसास होता है, उसी तरह भौतिक शरीर से संयुक्त होने पर ही आत्मा है यह पता चलता है (

यथा चन्द्रार्कनिर्मुक्तः स राहुर्नोपलभ्यते ।

तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः शरीरी नोपलभ्यते ।।२२।।

चंद्र-सूर्य के परस्पर अलग हो जाने पर जिस तरह वह अंधकार रूपी राहु अदृश्य हो जाता है, उसी तरह शरीर केछोड़ने पर आत्मा अदृश्य हो जाती है । यानी वह लुप्त हो जाती है।

महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २०३

सूर्य या चन्द्र ग्रहण तभी हो सकता है , जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा लगभग एक सीधी रेखा में हों । चूँकि चंद्रमा का कक्षा का तल पृथ्वी की कक्षा के तल से झुका हुआ है, इस लिए हर पूर्णिमा और अमावस्या को ग्रहण नहीं होते। ये दोनों कक्षाएँ जिन बिंदुओं पर मिलती हैं उन्हें चन्द्रपात कहते हैं। पृथ्वी के अपनी कक्षा में घूमने के प्रभाव को सूर्य के आभासी मार्ग द्वारा भी समझा जा सकता है , इसको सूर्यपथ या क्रांतिवृत्त कहते है।

ग्रहण तभी हो सकता है जब सूर्य और चन्द्रमा चन्द्रपातों के निकट हों । ऐसा वर्ष में दो बार होता है । एक कैलेंडर वर्ष में चार से सात ग्रहण हो सकते हैं , एक ग्रहण वर्ष या ग्रहण युग में ग्रहणों की पुनरावृत्ति होती है।

ग्रहण परिमाण सूर्य के व्यास का वह अंश है जो चंद्रमा द्वारा ढका हुआ है। पूर्ण ग्रहण के लिए, यह मान हमेशा एक से अधिक या उसके बराबर होता है। आंशिक और पूर्ण दोनों ग्रहणों में ही ग्रहण परिमाण चंद्रमा के और सूर्य के कोणीय आकार का अनुपात है। [5]

सूर्य ग्रहण अपेक्षाकृत संक्षिप्त घटनाएँ हैं जिन्हें केवल अपेक्षाकृत संकीर्ण पथ के साथ पूर्णता में देखा जा सकता है। सबसे अनुकूल परिस्थितियों में, पूर्ण सूर्य ग्रहण 7 मिनट , 31 सेकंड तक रह सकता है और 250 किलोमीटर तक के ट्रैक के साथ देखा जा सकता है किमी चौड़ा। हालाँकि, वह क्षेत्र जहाँ आंशिक ग्रहण देखा जा सकता है, बहुत बड़ा है। चंद्रमा की छाया का केंद्र पूर्व की ओर 1,700  किमी/घंटा की दर से आगे बढ़ेगा, जब तक कि यह पृथ्वी की सतह से दूर नहीं निकल जाता।


चंद्रग्रहण

चंद्र ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया से होकर गुजरता है। यह केवल पूर्णिमा के दौरान होता है, जब चंद्रमा सूर्य से पृथ्वी के सबसे दूर होता है। सूर्य ग्रहण के विपरीत, चंद्रमा का ग्रहण लगभग पूरे गोलार्ध से देखा जा सकता है। इस कारण से किसी स्थान से चंद्र ग्रहण दिखाई देना अधिक आम बात है। एक चंद्र ग्रहण लंबे समय तक चलता है, पूरा होने में कई घंटे लगते हैं, पूर्णता के साथ आमतौर पर लगभग 30 मिनट से लेकर एक घंटे तक भी औसत होता है। [6]

चंद्र ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं: उपछाया ग्रहण , जब चंद्रमा केवल पृथ्वी के उपछाया को पार करता है; आंशिक ग्रहण , जब चंद्रमा आंशिक रूप से पृथ्वी की छाया की प्रच्छाया (छाया का गर्भ या केंद्र ) में आ जाता है ; और पूर्ण ग्रहण , जब चंद्रमा पूरी तरह से पृथ्वी की छाया की प्रच्छाया में आ जाता है। पूर्ण चंद्र ग्रहण तीनों चरणों से होकर गुजरता है। हालांकि, पूर्ण चंद्र ग्रहण के दौरान भी, चंद्रमा पूरी तरह से प्रकाशहीन नहीं होता है। पृथ्वी के वायुमंडल के माध्यम से अपवर्तित सूर्य का प्रकाश प्रच्छाया में प्रवेश करता है और एक फीकी रोशनी प्रदान करता है। सूर्यास्त के समय की तरह ही , वायुमंडल कम तरंग दैर्ध्य के प्रकाश को का प्रकीर्णन अधिक करता है, इसलिए शेष बचे अपवर्तित प्रकाश से चंद्रमा में एक लाल आभा होती है, [7] पश्चिमी समाज के प्राचीन वर्णनों में 'ब्लड मून' वाक्यांश के प्रयोग अक्सर ऐसे ही चाँद के विषय में है। [8]

सूर्य या चन्द्रमा के साथ राहु का सम्बन्ध ग्रहण बनाता है. सूर्य के ग्रहण योग का प्रभाव अलग होता है और चन्द्रमा के ग्रहण योग का प्रभाव बिलकुल अलग होता है.

ज्योतिष में दो ग्रह प्रकाशमान माने जाते हैं, सूर्य और चन्द्रमा. सूर्य और चन्द्रमा के साथ ही ग्रहण योग का संयोग बनता है. सूर्य या चन्द्रमा के साथ राहु का सम्बन्ध ग्रहण बनाता है.

सूर्य के ग्रहण योग का प्रभाव अलग होता है और चन्द्रमा के ग्रहण योग का प्रभाव बिलकुल अलग होता है. ग्रहण योग होने से जीवन की शुभता पर ग्रहण लग जाता है.


सूर्य का ग्रहण योग

- सूर्य और राहु का संयोग ग्रहण योग बनाता है.

- सूर्य ग्रहण योग व्यक्ति के नाम और यश पर सीधा असर डालता है.

- सूर्य ग्रहण होने पर व्यक्ति के जीवन में काफी बाधाएं आती हैं.

- इसके अलावा व्यक्ति को अपयश का सामना भी करना पड़ता है.

- यह योग शिक्षा और संतान उत्पत्ति में भी समस्याएं पैदा करता है.

सूर्य का ग्रहण योग होने पर क्या करें ?

- नित्य प्रातः सूर्य को जल अर्पित करें.

- प्रातः ही "ॐ आदित्याय नमः" का जप करें.

- लाल चन्दन का तिलक लगाएं.

- संभव हो तो लाल चन्दन की माला या एक मुखी रुद्राक्ष धारण करें.

- नियमित रूप से गुड़ का सेवन करें.

- पिता के साथ सम्बन्ध मधुर रखने का प्रयास करें.


चन्द्र का ग्रहण योग

- चन्द्रमा और राहु के सम्बन्ध से ग्रहण योग बनता है.

- इससे व्यक्ति को काल्पनिक और मानसिक समस्याएं हो जाती हैं.

- व्यक्ति को बीमारियों का वहम होने लगता है.

- कभी कभी बुरे सपने आते हैं, नींद में समस्या होने लगती है.

- वैवाहिक जीवन में शक और वहम पैदा हो जाता है.

चन्द्रमा का ग्रहण योग होने पर क्या करें ?

- नियमित रूप से शिव जी की उपासना करें.

- सोमवार को शिव जी को जल अर्पित करें, इस दिन खीर जरूर खाएं.

- पूर्णिमा का, जल ग्रहण करके, उपवास रखें.

- सफेद चन्दन का टुकड़ा नीले धागे में बांधकर गले में धारण करें.




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