श्राद्ध पक्ष
श्राद्ध के प्रकार
मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य के नाम से जाना जाता है।
यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक,काम्य,वृद्धि और पार्वण के नाम से जाना जाता है।
विश्वामित्र स्मृति, निर्णय सिन्धु तथा भविष्य पुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं
1- नित्य श्राद्धः प्रतिदिन की क्रिया को ही 'नित्य' कहते हैं। अर्थात् रोज-रोज किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। अत्यंत आवश्यकता एवं असमर्थावस्थामें केवल जल से इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति अन्न, जल, दूध, कुशा, पुष्प व फल से प्रतिदिन श्राद्ध करके अपने पितरों को प्रसन्न कर सकता है।
2- नैमित्तक श्राद्ध- दूसरा नैमित्तिक श्राद्ध है जो किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है एक पितृ के उद्देश्य से किया जाता है, यह श्राद्ध विशेष अवसर पर किया जाता है। जैसे- पिता आदि की मृत्यु तिथि के दिन|इसे एकोदिष्ट भी कहा जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता। इसमें विश्वदेवा की पूजा नहीं की जाती है, केवल मात्र एक पिण्डदान दिया जाता है।
3- काम्य श्राद्धः किसी कामना विशेष या सिद्धि की प्राप्ति के लिए यह श्राद्ध किया जाता है। जैसे- पुत्र की प्राप्ति आदि। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
4- वृद्धि श्राद्धः यह श्राद्ध सौभाग्य वृद्धि के लिए किया जाता है। इसमें वृद्धि की कामना रहती है जैसे संतान प्राप्ति या परिवार में विवाह आदि मांगलिक कार्यो में । इसे नान्दीश्राद्धया नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है।
5- सपिंडन श्राद्ध- सपिण्डन शब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। दरअसल शास्त्रों के अनुसार जब जीव की मृत्यु होती है, तो वह प्रेत हो जाता है। प्रेत से पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डन है। अर्थात् इस प्रक्रिया में प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जा सकता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं। मृत व्यक्ति के 12 वें दिन पितरों से मिलने के लिए किया जाता है। इसमें प्रेत व पितरों के मिलन की इच्छा रहती है। ऐसी भी भावना रहती है कि प्रेत, पितरों की आत्माओं के साथ सहयोग का रुख रखें। इसे स्त्रियां भी कर सकती है।
6- पार्वण श्राद्धः जो अमावस्या के विधानके अनुरूप किया जाता है। पिता, दादा, परदादा, सपत्नीक और दादी, परदादी, व सपत्नीक के निमित्त किया जाता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या अथवा पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। इसमें दो विश्वदेवा की पूजा होती है।
7- गोष्ठी श्राद्धः गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
8- कर्मांग श्राद्धः यह श्राद्ध किसी संस्कार के अवसर पर किया जाता है। कर्मांग का सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं। जैसे- सीमन्तोन्नयन, पुंसवन आदि संस्कारों के सम्पन्नता हेतु किया जाने वाला श्राद्ध इस श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
9- शुद्धयर्थ श्राद्धः शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। यह श्राद्ध परिवार की शुद्धता के लिए किया जाता है।
10- तीर्थ श्राद्धः यह श्राद्ध तीर्थ में जाने पर किया जाता है।
11- यात्रार्थ श्राद्धः यह श्राद्ध यात्रा की सफलता के लिए किया जाता है। यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। यह घी द्वारा सम्पन्न होता है। इसीलिए इसे घृतश्राद्ध की भी उपमा दी गयी है।
12- पुष्टयर्थ श्राद्धः पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है। शरीर के स्वास्थ्य व सुख समृद्धि के लिए त्रयोदशी तिथि, मघा नक्षत्र, वर्षा ऋतु व आश्विन मास का कृष्ण पक्ष इस श्राद्ध के लिए उत्तम माना जाता है।
सात से बारहवें प्रकार के श्राद्ध की प्रक्रिया सामान्य श्राद्ध जैसी ही होती है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के निमित्त दो यज्ञ किए जाते हैं जो पिंडपितृयज्ञ तथा श्राद्ध कहलाते हैं।
वर्णित सभी प्रकार के श्राद्धों को दो भेदों के रूप में जाना जाता है।
श्रौत तथा स्मार्त्त।
पिण्ड पितृयाग को श्रौतश्राद्ध कहते हैं तथा एकोद्दिष्ट पार्वण आदि मरण तक के श्राद्ध को स्मार्त्तश्राद्ध कहा जाता है।
श्राद्धैर्नवतिश्चषट् – धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं।
एक वर्ष की
बारह (12) अमावास्याएं
चार (4)पुणादितिथियां,
चौदह (14) मन्वादि तिथियां
बारह (12) संक्रान्तियां
बारह (12) वैधृति योग
बारह (12) व्यतिपात योग
पंद्रह (15) पितृपक्ष
पांच (5) अष्टकाश्राद्ध
पांच (5) अन्वष्टका तथा
पांच (5) पूर्वेद्यु:
मिलाकर कुल 96अवसर श्राद्ध के हैं।
श्राद्ध पक्ष - श्रद्धाभाव से पितरों के निमित्त किया गया दान
प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। अपने स्वर्गवासी पूर्वजों की शान्ति एवं मोक्ष के लिए किया जाने वाला दान एवं कर्म ही श्राद्ध कहलाता है। इन्हें सोलह(16) श्राद्ध भी कहते हैं। श्राद्ध का अर्थ है, श्रद्धाभाव से पितरों के लिए किया गया दान श्रद्धया इदं श्राद्धम् ।
शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी से ऊपर सात लोक माने गये है- (सत्य, तप, महा, जन, स्वर्ग, भुवः, भूमि)। इन सात लोकों में से भुवः लोक को पितरों का निवास स्थान अर्थात पितृलोक माना गया है।
अतः पितृलोक को गये हमारे पितरों को कोई कष्ट न हो, इसी उद्देश्य से श्राद्धकर्म किये जाते है। भुवः लोक
में जल का अभाव माना गया है, इसीलिए सम्पूर्ण पितृपक्ष में विशेष रूप से जल तर्पण करने का विधान है। इस पितृपक्ष में सभी पितर भुवः अर्थात पितृलोक से पृथ्वीलोक की ओर प्रस्थान करते हैं तथा विना निमंत्रण अथवा आवाहन के भी अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ पहुँच जाते हैं तथा उनके द्वारा किये होम, श्राद्ध एवं तर्पण
से तृप्त हो, उन्हें सर्वसुख का आर्शीवाद प्रदान करते हैं।अतः पितृलोक को गये हमारे पितरों को कोई कष्ट न हो, इसी उद्देश्य से श्राद्धकर्म किये जाते है। भुवः लोक
में जल का अभाव माना गया है, इसीलिए सम्पूर्ण पितृपक्ष में विशेष रूप से जल तर्पण करने का विधान है। इस पितृपक्ष में सभी पितर भुवः अर्थात पितृलोक से पृथ्वीलोक की ओर प्रस्थान करते हैं तथा विना निमंत्रण अथवा आवाहन के भी अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ पहुँच जाते हैं तथा उनके द्वारा किये होम, श्राद्ध एवं तर्पण
पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ
पितृपक्ष के दौरान अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं।
शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं – देव ऋण ,ऋषि ऋण एवम पितृ ऋण |
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है |श्राद्ध में तर्पण ,ब्राहमण भोजन एवम दान का विधान है |
जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता पिता और बडे़ बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे
हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। जब
तक पितर श्राद्धकर्ता पुरुष की तीन पीढ़ियों तक रहते हैं ( पिता ,पितामह ,प्रपितामह ) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास, सर्दी गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख - प्यास आदि स्वयं मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं | इसी लिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ | देव लोक व पितृलोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं | श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं | लेकिन जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं, उनका
भाग सार रूप से अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बहिर्पद ,रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन , श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य
पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहाँ उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं | मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है |
हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। जब
तक पितर श्राद्धकर्ता पुरुष की तीन पीढ़ियों तक रहते हैं ( पिता ,पितामह ,प्रपितामह ) तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्यास, सर्दी गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख - प्यास आदि स्वयं मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं | इसी लिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ | देव लोक व पितृलोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं | श्राद्ध काल में यम, प्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं | लेकिन जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं, उनका
भाग सार रूप से अग्निष्वात, सोमप, आज्यप, बहिर्पद ,रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन , श्राद्धभुक्, नान्दीमुख नौ दिव्य
पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैं, ग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहाँ उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं | मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है |
श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर ,
स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर,
पृथ्वी पर गिरने वाले जल व गंध से देव योनि में स्थित पितर,
ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु , कृमि व कीट योनि में स्थित पितर,
अन्न व पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं |
श्राद्ध में कुतुप काल का विशेष महत्त्व है | सूर्योदय से आठवाँ मुहूर्त( दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीचका समय)कुतुप काल कहलाता है इसी में पितृ तर्पण व श्राद्ध करने से पितरों को तृप्ति मिलती है और वे संतुष्ट हो कर आशीर्वाद
प्रदान करते हैं |
प्रदान करते हैं |
श्राद्ध के आरम्भ व अंत में तीन तीन बार निम्नलिखित अमृत मन्त्र का उच्चारण करने से श्राद्ध का अक्षय फल प्राप्त होता है।
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च |
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ||
श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे:-
जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृपक्ष की त्रियोदशी अथवा अमावस्या को किया जाता है।
जिन व्यक्तियों की अकाल मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि
को ही किया जाता है।
को ही किया जाता है।
सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है।
नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है।
संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है।
नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है।
संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है।
पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को किया जाता है।
नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है।
यात्रा में जा रहे व्यक्ति, रोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने की छूट दी गई है।
यात्रा में जा रहे व्यक्ति, रोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने की छूट दी गई है।
पुत्राभावे वधु कूर्यात भार्याभावे च सोदनः।
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके।
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः॥ ('गरुड़पुराण' --अध्याय ग्यारह)
अर्थात "ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर
सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस
प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली
देकर मोक्ष कामना कर सकती है।
'वाल्मीकि रामायण' में सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है।
सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस
प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली
देकर मोक्ष कामना कर सकती है।
'वाल्मीकि रामायण' में सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है।
परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।
पितरों के श्राद्ध के लिए ‘गया’ को सर्वोत्तम माना गया है, इसे ‘तीर्थों का प्राण’ तथा ‘पाँचवा धाम’ भी कहते है। माता के
श्राद्ध के लिए ‘काठियावाड़’ में ‘सिद्धपुर’ को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को ‘मातृगया’ के नाम से भी

श्राद्ध के लिए ‘काठियावाड़’ में ‘सिद्धपुर’ को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को ‘मातृगया’ के नाम से भी

जाना जाता है। ‘गया’ में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा ‘सिद्धपुर’ (काठियावाड़) में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।
विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है।
श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषधसेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग) , पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।
यह बात सुनने में थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन यह सच है कि बुंदेलखंड में अब भी पूर्वजों के श्राद्ध में ‘कौवे’ को आमंत्रित करने की परम्परा है। यहां पितृ पक्ष में इस पक्षी को ‘दाईबाबा’ के नाम से पुकारा जाता है। लोगों का मानना है कि पूर्वज ‘कौवे’ का भी जन्म ले सकते हैं।बुंदेलखंड में लोग पूर्वज के श्राद्ध की पूर्व संध्या पर ऊंची आवाज में ‘कौवे’ को ‘दाई-बाबा’ कह कर आमंत्रित करते हैं। श्राद्ध के दिन पूर्वजों के नाम हवनपूजा के बाद बनाए गए पकवान घरों के छप्पर पर फेंके जाते हैं, जिन्हें कौवे झुंड में आकर खाते हैं।
श्राद्ध का महत्व
देवता और पितर गंध तथा रस तृण से तृप्त होते हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार तत्व है। स्कंद पुराण के अनुसार पितरों और देवताओं की योनि एक ऐसी योनि है जो दूर से की गई पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से की गई स्तुति से भी संतुष्ट हो जाते हैं। अपने पितरों का तिथि अनुसार श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देते हैं। साथ ही धन धान्य, पुत्र-पौत्र तथा यश प्रदान करते हैं।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपनी याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है
‘आयु: प्रजां, धनं विद्यां स्वर्गं, मोक्षं सुखानि च।
प्रयच्छान्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितां महा:॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति 1/270)
अर्थात पितर लोग श्राद्ध से तृप्त होकर आयु, पूजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, राज्य एवं अन्य सभी सुख प्रदान करते हैं।
“श्राद्धविवेक” का कहना है कि
श्राद्धं नाम वेदबोधित पात्रालम्भनपूर्वक प्रमीत
पित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष: ||( श्राद्धविवेक )
अर्थात वेदोक्त पात्रालम्भनपूर्वक पित्रादिकों के उद्देश्य से द्रव्यत्यागात्मक कर्म ही श्राद्ध है—-
“श्राद्ध चंद्रिका” में कर्म पुराण के माध्यम से वर्णन है कि श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याण कर वस्तु है ही नहीं इसलिए समझदार मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए।
“श्राद्धकल्पता” अनुसार
पित्रयुद्देश्येन श्रद्दया तयक्तस्य
द्रव्यस्य ब्राह्मणैर्यत्सीकरणं तच्छ्राद्धम ||
अर्थात पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा एवं आस्तिकतापूर्वक पदार्थ-त्याग का दूसरा नाम ही श्राद्ध है.
ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि
‘देशे काले च पात्रे च श्राद्धया विधिना चयेत।
पितृनुद्दश्य विप्रेभ्यो दत्रं श्राद्धमुद्राहृतम’॥
पितरों को भोज्य पदार्थो का श्रद्धापूर्वक अर्पण ही श्राद्ध है।
स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में कहा गया है कि श्राद्ध की कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती, अतएव श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
श्राद्धतत्व में पुलस्त्य जी कहते हैं कि श्राद्ध में संस्कृत व्यंजनादि पकवानों को दूध, दही, घी आदि के साथ श्राद्धापूर्वक देने के कारण ही इसका नाम श्राद्ध पड़ा,
‘संस्कृत व्यज्नाद्यं च पयोदधिद्यतान्वितम्’ श्राद्धया दीयते यस्माच्छाद्ध तेन प्रकीर्तितम्’।
” गौडीय श्राद्धप्रकाश” अनुसार भी देश-काल-पात्र पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक हविष्याण,तिल,कुशा तथा जल आदि का त्याग-दान श्राद्ध है—
देशकालपात्रेषु पित्रयुद्देश्येन हविस्तिलदर्भमन्त्र श्रद्धादिभिर्दानं श्राद्दम||
मत्स्य पुराण में श्राद्ध का सर्वाधिक उपयुक्त समय दोपहर के बाद 24 मिनट का माना गया है।
श्राद्ध के दौरान तीन गुण जरूरी हैं,
पहला क्रोध न हो,
दूसरा पवित्रता बनी रहे,
तीसरा जल्दबाजी न हो।
श्राद्धकर्ता को ताम्बूल, तेल मालिश, उपवास, औषधि तथा परान्न भक्षण आदि से वर्जित किया गया है।
श्राद्ध भोजन ग्रहण करने वाले को भी पुनभरेजन, यात्रा, भार ढोना, दान लेना, हवन करना, परिश्रम करना और हिंसा आदि से वर्जित किया गया है।
श्राद्ध में काला उड़द, तिल, जौ, सांवा, चावल, गेहूं, दुग्ध पदार्थ, मधु, चीनी, कपूर, बेल, आंवला, अंगूर, कटहल, अनार, अखरोट, नारियल, खजूर, नारंगी, बेर, सुपारी, अदरख, जामुन, परवल, गुड़, कमलगट्टा, नींबू, पीपल आदि प्रयोज्य बताए गए हैं।
वृहत्पराशर में श्राद्ध की अवधि में मांस भक्षण और मैथुन कार्य आदि का निषेध किया गया है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार श्राद्ध के सात्विक अन्न व फलों से पितरों की तृप्ति करनी चाहिए।
शंखस्मृति, मत्स्य पुराण में कदम्ब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के सभी फूल एवं उग्र गंध वाले सभी फूल वर्जित किए गए हैं।
इसके साथ ही श्राद्ध में कमल, मालती, जूही, चम्पा और सभी सुगंधित श्वेत पुष्प तथा तुलसी व भृंगराज प्रयोज्य बताए गए हैं।
श्राद्ध चंद्रिका में केले के पत्ते का भोजन के उपयोग में वर्जित किया गया है। पत्तल से काम लिया जा सकता है, परंतु भोजन के सर्वाधिक उपयुक्त सोने, चांदी, कांसे और तांबे के पात्र बताए गए हैं।
श्राद्ध भोजन ग्रहण करने वालों के लिए रेशमी वस्त्र, कम्बल, ऊन, काष्ठ, तृण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ कहे गए हैं। काष्ठ आसनों में भी कदम्ब, जामुन, आम, मौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ बताए गए हैं परंतु इनके निर्माण में लोहे की कोई कील नहीं होनी चाहिए।
जिन आसनों का श्राद्ध में निषेध किया गया है उनमें पलाश, वट, पीपल, गूलर, महुआ आदि के आसन हैं।
श्राद्ध भोजन करने वालों में उनकी प्रज्ञा, शील एवं पवित्रता देखकर उन्हें आमंत्रित करने का विधान है। अपने इष्ट मित्रों तथा गोत्र वालों को खिलाकर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।
श्राद्ध में चोर, पतित, नास्तिक, मूर्ख, मांस विक्रेता, व्यापारी, नौकर, शुल्क लेकर शिक्षण कार्य करने वाले, अंधे, धूर्त लोगों को नहीं आमंत्रित किया जाना चाहिए (मनुस्मृति, मत्स्य पुराण और वायु पुराण)। श्राद्ध में तर्पण को दायें हाथ से करना चाहिए। तिल तर्पण खुले हाथ से होना चाहिए। तिल को हाथ, रोओं में तथा हस्तबुल में नहीं लगे रहना चाहिए।
यह सच है कि हमारे पितृ यानी पूर्वज श्राद्ध कर्म से संतृप्त होते हैं। अत: श्राद्ध की विधि को श्रद्धापूर्वक संपन्न किया जाना चाहिए। पक्ष के दौरान यदि निष्ठा के साथ पूर्वजों को सिर्फ जल भी अर्पित किया जाए, तो सहज ही प्रसन्न हो जाता हैं।
वैदिक पंरपरा मे श्राद्ध की विधि में चार कर्म बताए गए हैं :
पिंडदान, हवन, तर्पण और ब्राह्मण भोजन
‘हवन पिंड दानश्च श्राद्धकाले कृताकृतम’।
इस नियम के अनुसार यदि संभव हो, तो श्राद्ध में पिंडदान और हवन किया जा सकता है। यदि संभव न हो तो, पिंडदान भी छोड़ा जा सकता है। लेकिन दर्पण और ब्राह्मण भोज श्राद्ध का मुख्य अंग हैं। इनके करने से पूर्वजों को तृप्ति मिलती है। इसलिए इस कर्म को अवश्य करें।
श्राद्ध में एक, तीन या पांच सदाचारी एवं धार्मिक स्वभाव के ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान हैं। भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों को वस्त्र, द्रव्य और दक्षिणा देने की परंपरा हैं। अत: भोजन के बाद ब्राह्मणों को तिलक लगाकर दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना श्राद्ध के उद्धेश्य पूरे नहीं होते।
फिर श्राद्धकर्ता को अपने बंधु-बांधवों के साथ श्राद्धान्न का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार विधिवत श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट होकर धन और वंश की वृद्धि का आर्शीवाद देते हैं।




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