श्राद्ध पक्ष

श्राद्ध के प्रकार

मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए हैजिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य के नाम से जाना जाता है।
यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक,काम्य,वृद्धि और पार्वण के नाम से जाना जाता है।
विश्वामित्र स्मृतिनिर्णय सिन्धु तथा भविष्य पुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं

1- नित्य श्राद्धः प्रतिदिन की क्रिया को ही 'नित्यकहते हैं। अर्थात् रोज-रोज किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। अत्यंत आवश्यकता एवं असमर्थावस्थामें केवल जल से इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति अन्नजलदूधकुशापुष्प  फल से प्रतिदिन श्राद्ध करके अपने पितरों को प्रसन्न कर सकता है।
2- नैमित्तक श्राद्धदूसरा नैमित्तिक श्राद्ध है जो किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है एक पितृ के उद्देश्य से किया जाता हैयह श्राद्ध विशेष अवसर पर किया जाता है। जैसेपिता आदि की मृत्यु तिथि के दिन|इसे एकोदिष्ट भी कहा जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाहएकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता। इसमें विश्वदेवा की पूजा नहीं की जाती हैकेवल मात्र एक पिण्डदान दिया जाता है।
3- काम्य श्राद्धः किसी कामना विशेष या सिद्धि की प्राप्ति के लिए यह श्राद्ध किया जाता है। जैसेपुत्र की प्राप्ति आदि। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
4- वृद्धि श्राद्धः यह श्राद्ध सौभाग्य वृद्धि के लिए किया जाता है। इसमें वृद्धि की कामना रहती है जैसे संतान प्राप्ति या परिवार में विवाह आदि मांगलिक कार्यो में । इसे नान्दीश्राद्धया नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है।
5- सपिंडन श्राद्धसपिण्डन शब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। दरअसल शास्त्रों के अनुसार जब जीव की मृत्यु होती हैतो वह प्रेत हो जाता है। प्रेत से पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डन है। अर्थात् इस प्रक्रिया में प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जा सकता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं। मृत व्यक्ति के 12 वें दिन पितरों से मिलने के लिए किया जाता है। इसमें प्रेत  पितरों के मिलन की इच्छा रहती है। ऐसी भी भावना रहती है कि प्रेतपितरों की आत्माओं के साथ सहयोग का रुख रखें। इसे स्त्रियां भी कर सकती है।
6- पार्वण श्राद्धः जो अमावस्या के विधानके अनुरूप किया जाता है। पिताादापरदादासपत्नीक और दादीपरदादी सपत्नीक के निमित्त किया जाता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्षअमावास्या अथवा पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। इसमें दो विश्वदेवा की पूजा होती है।
7- गोष्ठी श्राद्धः गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
8- कर्मांग श्राद्धः यह श्राद्ध किसी संस्कार के अवसर पर किया जाता है। कर्मांग का सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता हैअर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं। जैसेसीमन्तोन्नयनपुंसवन आदि संस्कारों के सम्पन्नता हेतु किया जाने वाला श्राद्ध इस श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
9- शुद्धयर्थ श्राद्धः शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। यह श्राद्ध परिवार की शुद्धता के लिए किया जाता है।
10- तीर्थ श्राद्धः यह श्राद्ध तीर्थ में जाने पर किया जाता है।
11- यात्रार्थ श्राद्धः यह श्राद्ध यात्रा की सफलता के लिए किया जाता है। यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। यह घी द्वारा सम्पन्न होता है। इसीलिए इसे घृतश्राद्ध की भी उपमा दी गयी है।
12- पुष्टयर्थ श्राद्धः पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न होजैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है। शरीर के स्वास्थ्य  सुख समृद्धि के लिए त्रयोदशी तिथिमघा नक्षत्रवर्षा ऋतु  आश्विन मास का कृष्ण पक्ष इस श्राद्ध के लिए उत्तम माना जाता है।
सात से बारहवें प्रकार के श्राद्ध की प्रक्रिया सामान्य श्राद्ध जैसी ही होती है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के निमित्त दो यज्ञ किए जाते हैं जो पिंडपितृयज्ञ तथा श्राद्ध कहलाते हैं।
वर्णित सभी प्रकार के श्राद्धों को दो भेदों के रूप में जाना जाता है।
श्रौत तथा स्मा‌र्त्त।
पिण्ड पितृयाग को श्रौतश्राद्ध कहते हैं तथा एकोद्दिष्ट पार्वण आदि मरण तक के श्राद्ध को स्मा‌र्त्तश्राद्ध कहा जाता है।
श्राद्धैर्नवतिश्चषट् – धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं।
एक वर्ष की
बारह (12) अमावास्याएं
चार  (4)पुणादितिथियां,
चौदह (14) मन्वादि तिथियां
बारह (12) संक्रान्तियां
बारह (12) वैधृति योग
बारह (12) व्यतिपात योग
पंद्रह (15) पितृपक्ष
पांच  (5) अष्टकाश्राद्ध
पांच  (5) अन्वष्टका तथा
पांच  (5) पूर्वेद्यु:
 मिलाकर कुल 96अवसर श्राद्ध के हैं।

श्राद्ध पक्ष - श्रद्धाभाव से पितरों के निमित्त किया गया दान

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। अपने स्वर्गवासी पूर्वजों की शान्ति एवं मोक्ष के लिए किया जाने वाला दान एवं कर्म ही श्राद्ध कहलाता है। इन्हें सोलह(16) श्राद्ध भी कहते हैं। श्राद्ध का अर्थ हैश्रद्धाभाव से पितरों के लिए किया गया दान  
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌  
शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी से ऊपर सात लोक माने गये है- (सत्यतपमहाजनस्वर्गभुवःभूमि)। इन सात लोकों में से भुवः लोक को पितरों का निवास स्थान अर्थात पितृलोक माना गया है।
अतः पितृलोक को गये हमारे पितरों को कोई कष्ट  होइसी उद्देश्य से श्राद्धकर्म किये जाते है। भुवः लोक 
में जल का अभाव माना गया हैइसीलिए सम्पूर्ण पितृपक्ष में विशेष रूप से जल तर्पण करने का विधान है। इस पितृपक्ष में सभी पितर भुवः अर्थात पितृलोक से पृथ्वीलोक की ओर प्रस्थान करते हैं तथा विना निमंत्रण अथवा आवाहन के भी अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ पहुँच जाते हैं तथा उनके द्वारा किये होमश्राद्ध एवं तर्पण
से तृप्त होउन्हें सर्वसुख का आर्शीवाद प्रदान करते हैं।
 पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ 
पितृपक्ष के दौरान अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पिंडदानतिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैउनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं।  
शास्त्रों में मनुष्यों पर तीन प्रकार के ऋण कहे गये हैं – देव ऋण ,ऋषि ऋण  एवम पितृ ऋण 
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करके पितृ ऋण को उतारा जाता है |श्राद्ध में  तर्पण ,ब्राहमण भोजन एवम दान का विधान है |
जो लोग दान श्राद्धतर्पण आदि नहीं करतेमाता पिता और बडे़ बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करतेपितृ गण उनसे  
हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगीदुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। वे निःसंतान भी हो सकते हैं अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है।  जब 
तक पितर श्राद्धकर्ता  पुरुष की तीन पीढ़ियों तक रहते हैं पिता ,पितामह ,प्रपितामह तब तक उन्हें स्वर्ग और नर्क में भी भूख प्याससर्दी गर्मी का अनुभव होता है पर कर्म  कर सकने के कारण वे अपनी भूख - प्यास  आदि स्वयं मिटा सकने में असमर्थ रहते हैं इसी लिए श्रृष्टि के आदि काल से ही पितरों के निमित्त श्राद्ध का विधान हुआ देव लोक  पितृलोक में स्थित पितर तो श्राद्ध काल में अपने सूक्ष्म शरीर से श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मणों के शरीर में स्थित हो कर श्राद्ध का सूक्ष्म भाग ग्रहण करते हैं तथा अपने लोक में वापिस चले जाते हैं श्राद्ध काल में यमप्रेत तथा पितरों को श्राद्ध भाग ग्रहण करने के लिए वायु रूप में पृथ्वी लोक में जाने की अनुमति देते हैं लेकिन जो पितर किसी योनी में जन्म ले चुके हैं, उनका 
भाग सार रूप से  अग्निष्वातसोमपआज्यपबहिर्पद ,रश्मिपउपहूतआयन्तुन श्राद्धभुक्नान्दीमुख  नौ दिव्य 
पितर जो नित्य एवम सर्वज्ञ हैंग्रहण करते हैं तथा जीव जिस शरीर में होता है वहाँ उसी के अनुकूल भोग प्राप्ति करा कर उन्हें तृप्त करते हैं |  मनुष्य मृत्यु के बाद अपने कर्म से जिस भी योनि में जाता है उसे श्राद्ध अन्न उसी योनि के आहार के रूप में प्राप्त होता है |
श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उस से पिशाच योनि में स्थित पितर ,
स्नान से भीगे वस्त्रों से गिरने वाले जल से वृक्ष योनि में स्थित पितर,
पृथ्वी पर गिरने वाले जल  गंध से देव  योनि में स्थित पितर
ब्राह्मण के आचमन के जल से पशु कृमि  कीट योनि में स्थित पितर,
अन्न  पिंड से मनुष्य योनि में स्थित पितर तृप्त होते हैं |
श्राद्ध में कुतुप काल का विशेष महत्त्व है सूर्योदय से आठवाँ मुहूर्त( दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीचका समय)कुतुप काल कहलाता है इसी में पितृ तर्पण  श्राद्ध करने से पितरों को तृप्ति मिलती है और वे संतुष्ट हो कर आशीर्वाद 
प्रदान करते हैं |
श्राद्ध के आरम्भ  अंत में तीन तीन बार निम्नलिखित अमृत मन्त्र का उच्चारण करने से श्राद्ध का अक्षय फल प्राप्त होता है।


देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव  |
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ||
श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता हैजैसे:-
जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई होउनका श्राद्ध केवल पितृपक्ष की त्रियोदशी  अथवा अमावस्या को किया जाता है।
जिन व्यक्तियों की अकाल मृत्यु  (दुर्घटनासर्पदंशहत्याआत्महत्या आदिहुई होउनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि 
को ही किया जाता है।
सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है।
नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है।
 संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है।
पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा अथवा आश्विन कृष्ण अमावस्या को किया जाता है।
नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को किया जाता है।
यात्रा में जा रहे व्यक्तिरोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने की छूट दी गई है।
    पुत्राभावे वधु कूर्यात भार्याभावे  सोदनः।
    शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥
    ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके।
    श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः॥ ('गरुड़पुराण'  --अध्याय ग्यारह)

अर्थात "ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहूपत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित  हो तो सगा भाई अथवा भतीजाभानजानातीपोता आदि कोई भी यह कर 
सकता है। इन सबके अभाव में शिष्यमित्रकोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस
 प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध  तर्पण और तिलांजली 
देकर मोक्ष कामना कर सकती है। 
'वाल्मीकि रामायणमें सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है।
परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।
पितरों के श्राद्ध के लिए गया’ को सर्वोत्तम माना गया हैइसे तीर्थों का प्राण’ तथा पाँचवा धाम’ भी कहते है। माता के 
श्राद्ध के लिए काठियावाड़’ में सिद्धपुर’ को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को मातृगया’ के नाम से भी 

जाना जाता है। गया’ में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा सिद्धपुर’ (काठियावाड़) में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है।
विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है।

श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करनापान खानातेल लगानाऔषधसेवनक्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग) ,  पराये का अन्न खानायात्रा करनाक्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है।
                
 यह बात सुनने में थोड़ी अटपटी लग सकती है  लेकिन यह सच है कि बुंदेलखंड में अब भी पूर्वजों के श्राद्ध में कौवे’ को आमंत्रित करने की परम्परा है। यहां पितृ पक्ष में इस पक्षी को दाईबाबा’ के नाम से पुकारा जाता है। लोगों का मानना है कि पूर्वज कौवे’ का भी जन्म ले सकते हैं।
बुंदेलखंड में लोग पूर्वज के श्राद्ध की पूर्व संध्या पर ऊंची आवाज में कौवे’ को दाई-बाबा’ कह कर आमंत्रित करते हैं। श्राद्ध के दिन पूर्वजों के नाम हवनपूजा के बाद बनाए गए पकवान घरों के छप्पर पर फेंके जाते हैंजिन्हें कौवे झुंड में आकर खाते हैं।

श्राद्ध का महत्व

देवता और पितर गंध तथा रस तृण से तृप्त होते हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न हैपशुओं का आहार तृण हैवैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार तत्व है। स्कंद पुराण के अनुसार पितरों और देवताओं की योनि एक ऐसी योनि है जो दूर से की गई  पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से की गई स्तुति से भी संतुष्ट हो जाते हैं। अपने पितरों का तिथि अनुसार श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देते हैं। साथ ही धन धान्यपुत्र-पौत्र तथा यश प्रदान करते हैं। 
महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपनी याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है
आयु: प्रजांधनं विद्यां स्वर्गंमोक्षं सुखानि च।
प्रयच्छान्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितां महा:॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति 1/270)

अर्थात पितर लोग श्राद्ध से तृप्त होकर आयुपूजाधनविद्यास्वर्गमोक्षराज्य एवं अन्य सभी सुख प्रदान करते हैं।
श्राद्धविवेक” का कहना है कि
श्राद्धं नाम वेदबोधित पात्रालम्भनपूर्वक प्रमीत
पित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष: ||( श्राद्धविवेक )
अर्थात  वेदोक्त पात्रालम्भनपूर्वक पित्रादिकों के उद्देश्य से द्रव्यत्यागात्मक कर्म ही श्राद्ध है—-

श्राद्ध चंद्रिका में कर्म पुराण के माध्यम से वर्णन है कि श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याण कर वस्तु है ही नहीं इसलिए समझदार मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए।
श्राद्धकल्पता” अनुसार
पित्रयुद्देश्येन श्रद्दया तयक्तस्य
द्रव्यस्य  ब्राह्मणैर्यत्सीकरणं तच्छ्राद्धम ||

अर्थात  पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा एवं आस्तिकतापूर्वक पदार्थ-त्याग का दूसरा नाम ही श्राद्ध है.
ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि
देशे काले च पात्रे च श्राद्धया विधिना चयेत।
पितृनुद्दश्य विप्रेभ्यो दत्रं श्राद्धमुद्राहृतम

पितरों को भोज्य पदार्थो का श्रद्धापूर्वक अर्पण ही श्राद्ध है।
स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में कहा गया है कि श्राद्ध की कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं जातीअतएव श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
श्राद्धतत्व में पुलस्त्य जी कहते हैं कि श्राद्ध में संस्कृत व्यंजनादि पकवानों को दूधदहीघी आदि के साथ श्राद्धापूर्वक देने के कारण ही  इसका नाम श्राद्ध पड़ा,
संस्कृत व्यज्नाद्यं च पयोदधिद्यतान्वितम्’ श्राद्धया दीयते यस्माच्छाद्ध तेन प्रकीर्तितम् 
” गौडीय श्राद्धप्रकाश” अनुसार भी देश-काल-पात्र पितरों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक हविष्याण,तिल,कुशा तथा जल आदि का त्याग-दान श्राद्ध है
देशकालपात्रेषु पित्रयुद्देश्येन हविस्तिलदर्भमन्त्र श्रद्धादिभिर्दानं श्राद्दम||
 मत्स्य पुराण में श्राद्ध का सर्वाधिक उपयुक्त समय दोपहर के बाद 24 मिनट का माना गया है।
श्राद्ध के दौरान तीन गुण जरूरी हैं,
 पहला क्रोध न हो,
दूसरा पवित्रता बनी रहे,
तीसरा जल्दबाजी न हो।
श्राद्धकर्ता को ताम्बूलतेल मालिशउपवासऔषधि तथा परान्न भक्षण आदि से वर्जित किया गया है।
श्राद्ध भोजन ग्रहण करने वाले को भी पुनभरेजनयात्राभार ढोनादान लेनाहवन करनापरिश्रम करना और हिंसा आदि से वर्जित किया गया है।
श्राद्ध में काला उड़दतिलजौसांवाचावलगेहूंदुग्ध पदार्थमधुचीनीकपूरबेलआंवलाअंगूरकटहलअनारअखरोटनारियलखजूरनारंगीबेरसुपारीअदरखजामुनपरवलगुड़कमलगट्टानींबूपीपल आदि प्रयोज्य बताए गए हैं।
वृहत्पराशर में श्राद्ध की अवधि में मांस भक्षण और मैथुन कार्य आदि का निषेध किया गया है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार श्राद्ध के सात्विक अन्न व फलों से पितरों की तृप्ति करनी चाहिए।
शंखस्मृतिमत्स्य पुराण में कदम्बकेवड़ामौलसिरीबेलपत्रकरवीरलाल तथा काले रंग के सभी फूल एवं उग्र गंध वाले सभी फूल वर्जित किए गए हैं।
इसके साथ ही श्राद्ध में कमलमालतीजूहीचम्पा और सभी सुगंधित श्वेत पुष्प तथा तुलसी व भृंगराज प्रयोज्य बताए गए हैं।
श्राद्ध चंद्रिका में केले के पत्ते का भोजन के उपयोग में वर्जित किया गया है। पत्तल से काम लिया जा सकता हैपरंतु भोजन के सर्वाधिक उपयुक्त सोनेचांदीकांसे और तांबे के पात्र बताए गए हैं।
श्राद्ध भोजन ग्रहण करने वालों के लिए रेशमी वस्त्रकम्बलऊनकाष्ठतृणकुश आदि के आसन श्रेष्ठ कहे गए हैं। काष्ठ आसनों में भी कदम्बजामुनआममौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ बताए गए हैं परंतु इनके निर्माण में लोहे की कोई कील नहीं होनी चाहिए।
जिन आसनों का श्राद्ध में निषेध किया गया है उनमें पलाशवटपीपलगूलरमहुआ आदि के आसन हैं।
श्राद्ध भोजन करने वालों में उनकी प्रज्ञाशील एवं पवित्रता देखकर उन्हें आमंत्रित करने का विधान है। अपने इष्ट मित्रों तथा गोत्र वालों को खिलाकर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।
श्राद्ध में चोरपतितनास्तिकमूर्खमांस विक्रेताव्यापारीनौकरशुल्क लेकर शिक्षण कार्य करने वालेअंधेधूर्त लोगों को नहीं आमंत्रित किया जाना चाहिए (मनुस्मृतिमत्स्य पुराण और वायु पुराण)। श्राद्ध में तर्पण को दायें हाथ से करना चाहिए। तिल तर्पण खुले हाथ से होना चाहिए। तिल को हाथरोओं में तथा हस्तबुल में नहीं लगे रहना चाहिए। 
यह सच है कि हमारे पितृ यानी पूर्वज श्राद्ध कर्म से संतृप्त होते हैं। अत: श्राद्ध की विधि को श्रद्धापूर्वक संपन्न किया जाना चाहिए। पक्ष के दौरान यदि निष्ठा के साथ पूर्वजों को सिर्फ जल भी अर्पित किया जाएतो सहज ही प्रसन्न हो जाता हैं। 
वैदिक पंरपरा मे श्राद्ध की विधि में चार कर्म बताए गए हैं :
पिंडदानहवनतर्पण और ब्राह्मण भोजन
 ‘हवन पिंड दानश्च श्राद्धकाले कृताकृतम
इस नियम के अनुसार यदि संभव होतो श्राद्ध में पिंडदान और हवन किया जा सकता है। यदि संभव न हो तोपिंडदान भी छोड़ा जा सकता है। लेकिन दर्पण और ब्राह्मण भोज श्राद्ध का मुख्य अंग हैं। इनके करने से पूर्वजों को तृप्ति मिलती है। इसलिए इस कर्म को अवश्य करें।
श्राद्ध में एकतीन या पांच सदाचारी एवं धार्मिक स्वभाव के ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान हैं। भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों को वस्त्रद्रव्य और दक्षिणा देने की परंपरा हैं। अत: भोजन के बाद ब्राह्मणों को तिलक लगाकर दक्षिणा अवश्य देनी चाहिएक्योंकि इसके बिना श्राद्ध के उद्धेश्य पूरे नहीं होते।

फिर श्राद्धकर्ता को अपने बंधु-बांधवों के साथ श्राद्धान्न का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार विधिवत श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट होकर धन और वंश की वृद्धि का आर्शीवाद देते हैं।

आश्विन कृष्ण पक्ष -श्राद्ध पक्ष

आश्विन मास - अश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को और शुक्ल पक्ष माँ भगवती को समर्पित है


श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌


मान्यता अनुसार सूर्य के कन्या राशि में आने पर पितृ परलोक से उतर कर अपने पुत्र -पौत्रों के साथ रहने आते हैं, अतः इसे कनागत भी कहा जाता है। प्रत्येक मास की अमावस्या को पितरों की शांति के लिये पिंड दान या श्राद्ध कर्म किये जा सकते हैं, परंतु पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का महत्व अधिक माना गया है। पितृ पक्ष श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध भी कहा जाता है तीन पीढि़यों तक का श्राद्ध करने का विधान बताया गया है। कहा जाता है कि यमराज हर वर्ष श्राद्ध पक्ष में सभी जीवों को मुक्त कर देते हैं, जिससे वह अपने स्वजनों के पास जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। तीन पूर्वज में पिता को वसु के समान, रुद्र देवता को दादा के समान तथा आदित्य देवता को परदादा के समान माना जाता है। श्राद्ध के समय यही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं।

ब्रह्म पुराण के श्राद्ध प्रकाश में श्राद्ध पक्ष के महत्व का वर्णन मिलता है जिसमें कहा गया है कि जो उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार, शास्त्रोचित विधि से पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध है।


भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ 2 प्रकार के होते हैं एक दिव्य पितृ और दूसरे पूर्वज पितृ। दिव्य पितृ ब्रह्मा के पुत्र मनु से उत्पन्न हुए ऋषि हैं। पितरों में सबसे प्रमुख अर्यमा हैं जिनके बारे में गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि पितरों में प्रधान अर्यमा वे स्वयं हैं। ऋग्वेद में गणों की तीन श्रेणियां बताई गयी हैं – निम्न, मध्यम और उच्च तो वहीं तीन तैतरीय ब्राह्मण में इस बात का उल्लेख है कि पितृ लोग जिस लोक में निवास करते हैं, वह भू-लोक और अंतरिक्ष के बाद है।

सृष्टि की शुरुआत में दिशाएं देवताओं, मनुष्यों और रुद्रों में बंट गई थीं, इसमें दक्षिण दिशा पितरों के हिस्से में आई थी। तैत्रीय संहिता के अनुसार, पूर्वजों की पूजा हमेशा, दाएं कंधे में जनेऊ डालकर और दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके ही करनी चाहिए।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन तक पितृपक्ष में पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। 
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।


अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।

बौधायन धर्मसूत्र में के अनुसार जो व्यक्ति पितृ कर्म करता है, उसे लंबी आयु, स्वर्ग, यश और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

वशिष्ठ धर्मसूत्र में इस बात को स्पष्टता के साथ कहा गया है कि जैसे एक किसान अच्छी बारिश से प्रसन्न होता है, वैसे ही गया में पिण्डदान से पितर प्रसन्न होते हैं।


नारद पुराण के उत्तर भाग में वर्णन है कि जो पितृ कर्म का अधिकार रखता हो, गया के दर्शन व वहां श्राद्ध करने से ब्रह्मलोक पा जाता है।’


मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है | त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।

नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।

नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।

पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं।
एक वर्ष की अमावास्याएं' -12
पुण्यादि तिथियां - 4,
'मन्वादि तिथियां - 14
संक्रान्तियां - 12
वैधृति योग - 12,
व्यतिपात योग -12
पितृपक्ष - 15
अष्टकाश्राद्ध  -5
अन्वष्टका  -5 तथा
पूर्वेद्यु: - 5
कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं। 'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पितृ-कर्म का विधान है।
शास्त्रों में श्राद्ध को दोपहर में करने का विधान है व इसके लिए तीन मुहूर्त बताए गए हैं। पहला कुतुप महूर्त, दूसरा रौहिण महूर्त व तीसरा अपराह्न काल। शास्त्रों ने कुतुप को सर्वोत्तम, रौहिण को श्रेष्ठ व अपराह्न को साध्य बताया है।

श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना है। अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है। इसी प्रकार अन्य दिनों में भी ऐसा ही किया जाता है। इस विषय में कुछ विशेष मान्यता भी है जो निम्न हैं।

किस तिथि पर किसका श्राद्ध करें

भाद्रपद की पूर्णिमा तिथि जिसे प्रोष्ठपदी पूर्णिमा भी कहा जाता है, से पितृपक्ष शुरू हो जाता है और उसके आगे 16 दिनों तक अर्थात आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पितरों / पूर्वजों का तर्पण किया जाएगा।
जिन सम्बन्धियों की मृत्यु पूर्णिमा तिथि को हुई हो उनके निमित श्राद्ध भाद्रपद पूर्णिमा को ही किया जाता है। कुछ लोग यह श्राद्ध आश्विन कृष्ण अमावस्या को करते हैं । यह पार्वण श्राद्ध है जिसे भाद्रपद अपराह्न व्यापिनी पूर्णिमा में किया जाता है इसमें पिता, पितामह, प्रपितामह एवं मातामह, प्रमातामह, वृद्ध प्रमातामह एवं मातामही, प्रमातामही, वृद्ध प्रमातामही का पार्वण श्राद्ध किया जाता है इस दिन उनका भी श्राद्ध किया जाता है जिनकी मृत्यु तिथि पूर्णिमा हो

अश्विन कृष्ण प्रतिपदा - यह तिथि नाना-नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है।

आश्विन कृष्ण पंचमी - इस तिथि में  परिवार के उन पितृों का श्राद्ध करना चाहिए, जिनकी अविवाहित अवस्था में ही मृत्यु हुई हो।

आश्विन कृष्ण नवमी - यह तिथि माता एवं परिवार की अन्य महिलाओं के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है।

एकादशी व द्वादशी - आश्विन कृष्ण एकादशी व द्वादशी को उन पितृों का श्राद्ध किया जाता है, जिन्होंने सन्यास ले लिया हो।

आश्विन कृष्ण चतुर्दशी - इस तिथि को उन पितृों को श्राद्ध किया जाता है जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो।

आश्विन कृष्ण अमावस्या - इस तिथि को सर्व पितृ अमावस्या भी कहते हैं। इस दिन सभी पितृों को श्राद्ध किया जाना चाहिए।

पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाता है।

जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हुई जो यानि किसी दुर्घटना या आत्महत्या के कारण हुई हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।

साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है।

जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।  इस दिन को सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है।

भीष्म अष्टमी व्रत -पितृ्दोष से मुक्ति और गुणवान संतान एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए

#भीष्म_अष्टमी_व्रत-
#पितृ्दोष_से मुक्ति और गुणवान संतान एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए

माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि भीष्म अष्टमी के रूप में मनाई जाती है | इस दिन महाभारत के पौराणिक पात्र भीष्म पितामह को अपनी इच्छा अनुसार मृ्त्यु प्राप्त हुई थी। धर्म शास्त्रों के अनुसार भीष्म पितामह ने बाणो की शय्या पर लेट कर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी ताकि वह अपने प्राणो को उत्तरायण में त्याग सकें। महाभारत में वर्णन है कि भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था।
संतान की कामना पूर्ति तथा पितृ्दोष से मुक्ति के लिए भीष्म अष्टमी व्रत करना चाहिए 
इस दिन भीष्म के नाम से पूजन और कुश, तिल, जल से  तर्पण करने से वीर और सत्यवादी संतान की प्राप्ति होती है।  तेजस्वी आत्मा संतान के रूप में आती है





शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम्।
संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।।

महाभारत के अनुसार जो मनुष्य माघ शुक्ल अष्टमी को भीष्म के निमित्त तर्पण, जलदान आदि करता है, उसके वर्ष भर (संवत्सर) के पाप नष्ट हो जाते हैं |


भीष्म अष्टमी को भीष्म श्राद्ध के रूप में जाना जाता है | 
माना जाता है कि भीष्म अष्टमी के दिन भीष्म पितामह की स्मृति के निमित्त जो श्रद्धालु कुश, तिल, जल के साथ श्राद्ध, तर्पण करता है, उसे संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है और पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को करने से पितृ्दोष से मुक्ति मिलती है और संतान की कामना भी पूरी होती है|

भीष्म अष्टमी को अगर भीष्म के नाम से सूर्य को अर्घ्य दिया जाये तो संतान हीन को संतान मिल सकती है

माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम्।
श्राद्धं च ये नरा: कुर्युस्ते स्यु: सन्ततिभागिन:।। (हेमाद्रि)


आज के दिन निम्न मन्त्र से सूर्यदेव को तथा भीष्म पितामह को अर्घ्य दें  

"वसूनामवताराय शंतनोरात्मजाय च अर्घ्यं ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे"

इस मन्त्र से सूर्यदेव को अर्घ्य देने से आरोग्य की तथा भीष्म पितामह को अर्घ्य देने से गुणवान सन्तान की प्राप्ति होती है

भीष्म अष्टमी के दिन सुबह नित्यकर्म से निवृत्त होकर यदि संभव हो तो किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर स्नान करना चाहिए। यदि नदी या सरोवर पर न जा पाएं तो घर पर ही विधिपूर्वक स्नानकर भीष्म पितामह के निमित्त हाथ में तिल, जल आदि लेकर अपसव्य (जनेऊ का कंधा बदलकर) तथा दक्षिणाभिमुख होकर निम्नलिखित मंत्रों से तर्पण करना चाहिए-


वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।
गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे।।

भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रिय:।
आभिरभिद्रवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम्।।

इसके बाद पुन: सव्य होकर निम्न मंत्र से गंगापुत्र भीष्म को अध्र्य देना चाहिए-

वसूनामवताराय शन्तरोरात्मजाय च।

तिथि के अनुसार श्राद्ध का पुण्य फल:

श्राद्ध तिथि
तिथि के अनुसार श्राद्ध का पुण्य फल
प्रोष्ठपदी/पूर्णिमा श्राद्ध
.
प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध
 धन लाभ
 द्वितीया तिथि का श्राद्ध
 आरोग्य
 तृतीया तिथि का श्राद्ध
संतति प्राप्ति
 चतुर्थी तिथि का श्राद्ध
शत्रु नाश
 पंचमी तिथि का श्राद्ध  
लक्ष्मी प्राप्ति
षष्ठी तिथि का श्राद्ध  
पूज्यता प्राप्ति
सप्तमी तिथि का श्राद्ध  
गणों का आधिपत्य प्राप्ति
अष्टमी तिथि का श्राद्ध  
उत्तम बुद्घि की प्राप्ति
नवमी तिथि का श्राद्ध
उत्तम स्त्री की प्राप्ति
 दशमी तिथि का श्राद्ध
 कामना पूर्ति
एकादशी का श्राद्ध/द्वादशी तिथि/संन्यासियों का श्राद्ध
एकादशी तिथि वेद ज्ञान की प्राप्ति और द्वादशी तिथि श्राद्ध से सर्वत्र विजय
 त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध
 दीर्घायु  ऐश्वर्य प्राप्ति
चतुर्दशी का श्राद्ध - अपघात (शस्त्रविषदुर्घटनासे हुए मृतकों की तृप्ति -चाहे उनकी मृत्यु किसी अन्य तिथि में हुई हो।
अमावस्याअज्ञात तिथि वालों का श्राद्ध  सर्वपितृ श्राद्ध  
कामना पूर्ति  स्वर्ग की प्राप्ति
 नाना/नानी का श्राद्ध

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