व्रत एवं पर्वों के निर्धारण में पंचांग की भूमिका

व्रत एवं पर्वों के निर्धारण में पंचांग की भूमिका

ज्योतिष शास्त्र के तीन प्रमुख स्कंध हैं - सिद्धांत, संहिता व होरा।
समय (काल) का ज्ञान सिद्धांत आधारित है। इसलिए सिद्धांत शास्त्रों के आधार पर ही कालबोधक पत्र (पंचांग) का निर्माण होता है।

तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण ये पंचांग के पांच प्रमुख अंग है। 

भारतीय व्रत एवं पर्वों के निर्धारण में पंचांग की भूमिका अहम होती है।
सभी श्रौत-स्मार्त कर्मों की सिद्धि शुभ मुहूर्त पर आधारित है। अतः शुभ कार्यों के शुभारंभ के लिए शुभ मुहूर्त हेतु भी पंचांग आवश्यक है।

ज्योतिषीय सिद्धांत शास्त्रों में मतभेद होने के कारण विभिन्न पंचांगें में न्यूनाधिक अंतर देखा जाता है। पंचांगों में बहुत से व्रत-पर्वों को श्रौत-स्मार्त या वैष्णव-निंबार्क अथवा गृहस्थ-संन्यासी के भेद के आधार पर अलग-अलग दिनों को प्रदर्शित किया जाता है। अर्थात एक ही त्योहार दो बार हो जाता है, जो उचित नहीं है, क्योंकि वास्तव में श्रौत-स्मार्त या वैष्णव-निंबार्क का कोई सुस्पष्ट भेद दिखाई नहीं देता है।

ऐसे में तिथियों में भेद और पर्व त्योहारों में एकरूपता की कमी स्वाभाविक है। त्योहार की एकरूपता के लिए तिथियों की एकरूपता जरूरी है |

प्राचीन काल में पंचांग निर्माण दो सिद्धांतों के आधार पर होता था -
सूर्य सिद्धांत, चंद्र/आर्य सिद्धांत
कालांतर में मिश्रित पद्धतियों का विकास हुआ, जिनमें उक्त दोनों ही सिद्धांतों के समन्वय का प्रयास किया गया था।
पंचांगों में सबसे बड़ी विसंगति तिथि और नक्षत्र के भोगमान से संबंधित है। तिथियों व नक्षत्रों के प्रारंभ व समाप्ति काल विभिन्न पंचांगों में अलग-अलग लिखे जाते हैं। इस विभेद के कारण ही व्रत-पर्वों में अंतर आ जाता है। फलतः हिंदुओं के व्रत-पर्व दो बार हो जाते हैं।

हिंदुओं के अधिकांश व्रत-पर्व चांद्रमास और शुक्ल पक्ष की तिथियों से संबद्ध हैं। जो पंचांग तिथियों का आरंभ जल्दी से या पूर्व में ही कर देते हैं, उनके अनुसार व्रत-पर्व एक दिन पहले और जो पंचांग तिथियों का आरंभ देर से बताते हैं, उनके अनुसार एक दिन बाद आते हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि सभी पंचांगों में तिथियों के प्रारंभ व समाप्ति काल में एकरूपता लाने का प्रयास किया जाए। ऐसे में यह निर्णय करना मुश्किल होता है कि किस पंचांग का ग्रहस्पष्ट सही है जबकि सभी पंचांगों में निरयण ग्रह स्पष्ट ही लिखा जाता है। पंचांग के ग्रहस्पष्ट वास्तविक स्थिति में प्रदर्शित नहीं किए जाते हैं। वेधशाला (ऑब्जर्वेट्री) के अभाव में पंचांग के ग्रह वेधसिद्ध नहीं होते हैं। बीज संस्कार के माध्यम से ग्रहों को दृक्कतुल्य बनाकर उन्हीं राशि अंशों पर लिखा जाना चाहिए, जहां वे वास्तव में गोचर कर रहे हों।नवीन ग्रंथों में उद्धृत उन सिद्धांतों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए जो वैदिक सिद्धांतों के प्रतिकूल हैं।

व्रत- पर्वों के निर्णय में धर्म सिंधु और निर्णय सिंधु का मूल मत ही ग्रहण किया जाए। कुछ व्रत-पर्वों का निर्णय सूर्योदय कालीन तिथि के आधार पर और कुछ का रात्रि व्यापिनी तिथि के आधार पर किया जाता है। यद्यपि उदया तिथि ही प्रधान होती है, तथापि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का निर्णय रात्रिव्यापिनी अष्टमी के आधार पर किया जाता है। पूर्णिमा व्रत, संकष्ट चतुर्थी व्रत, करक चतुर्थी व्रत आदि का निर्णय चन्द्रोदय कालीन तिथि (पूर्णिमा व चतुर्थी) और शिव प्रदोष का निर्णय प्रदोषकालीन (संध्याकालीन) त्रयोदशी के आधार पर किया जाता है। 

कहा गया है :
 ''देवार्थे पौर्णमास्यंतो दर्शातः पितृकर्मणि।''
अर्थात व्रत-पर्वादि का निर्णय पूर्णिमांत मास के आधार पर करना चाहिए। पितृ संबंधी कार्य दर्श अमावस्या को करना उचित है।

व्रत / उपवास निर्णय

'सर्व कालकृतं मन्येइस सूत्र के अनुसार सूर्य ब्रह्माण्ड की प्राण शक्ति का केंद्र हैऔर चन्द्रमा ब्रह्माण्ड की मन: शक्ति का सर्वस्व ' |
इन दोनों ( सूर्य-चन्द्रमा) भौतिक पिंडों की विभिन्न कक्षाओं में अवस्थिति ही तिथि शब्द से जानी जाती है, जैसे अमावस्या तिथि को चंद्र-पिण्डसूर्य की कक्षा में विलीन रहता है  और पूर्णिमा को यह दोनों पिण्ड क्षितिज पर आमने सामने उदित दिखते हुए समान रेखा पर अवस्थित रहते हैं|

इसी प्रकार दोनों पक्षों की अष्टमी तिथि को ये अर्ध सम रेखा पर ही अवस्थित रहते हैं| इससे यह सिद्ध होता है कि सूर्य - चंद्र का आन्तरिक तारतम्य ही 'तिथि' है और स्थूल तथा सूक्ष्म जगत् पर तिथिजन्य प्रभाव का सन्निपात ही तत्तत् तिथियों के अधिष्ठाताओं का उन पर आधिपत्य है , जबकि स्थूल जगत पर भी उक्त पिंडों की अवस्थिति का प्रभाव तत्तत ऋतुओं के रूप में वर्षा, ग्रीष्म, शीत, एवं इनके गुण, आंधी, तूफ़ान, भूकम्प, समुद्रीय ज्वार-भाटा, सुनामी, डीन, रीटा, ओलापात, ज्वालामुखी, बाढ़, मनोरोग, दावानल, और दिग्दाह के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है|

इसके बावजूद सूक्ष्म जगत् ( दृश्य संसार ) पर उनकी अवस्थिति के प्रभाव को शंका की दृष्टि से देखना पदार्थ विज्ञान से अनभिज्ञ लोगों का ही काम हो सकता है|

सनातन ( हिंदुओं के ) शास्त्रों में काल (समय) को प्रधान कारण माना गया है | कोई अनभिज्ञ भले ही 'काल' को निष्क्रिय मान कर उसकी कारणता में संदेह करे,परन्तु वास्तव 'काल' ही –
"अस्ति, जायते, वर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते और विनश्यति"
इन छः प्रकार के मूल विकारों का प्रधान / प्रमुख कारण है | 'काल' का मुख्य उद्भावक 'सूर्य' है और उसके सहकारी उद्भावक अन्य ग्रह-पिण्ड हैं, जिनमें पृथ्वी के अति निकटवर्ती होने के कारण चंद्र-पिण्ड का 'पार्थिव निर्माण काल ' में सर्वोपरि सहयोग है |

इसी कारण से सनातनियों (हिन्दुवों) के सभी सकाम ( जो व्रतादि किसी मनोकामना की पूर्ति आदि के लिए किये जाते हैं वे 'सकाम' , और जिन व्रतादि में , 'मुझे कोई कामना नहीं है मैं तो यूँ ही कर रहा हूँ उसे 'निष्काम /नि:काम व्रत कहते हैं ) निर्णय चांद्र-तिथियों से करने का स्पष्ट आदेश हमारे धर्म-शास्त्रों / स्मृतियों में मिलता है |

निष्कर्ष – पंचांग में सर्व साधारण की सुविधा के लिए वहाँ 'स्मार्त या वैष्णव शब्द से उल्लेख किया जाता है| अर्थात जहां 'स्मार्त लिखा हो वह व्रतादि ही (गृहस्थों- बाल बच्चेदार ) के करने योग्य होता हैजहां वैष्णव का उल्लेख हो वहाँ दंडी सन्यासीमठ-मंदिरमहाभागवतनिम्बार्कचक्रांकित महाभागवतआश्रमसरस्वतीआदि के करने योग्य होता है|
गृहस्थों को स्मार्त निर्णय ही ग्रहण करना चाहिए |

व्रत और उपवास में भेद:- सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच व्रत और उपवास यह दो प्रसिद्ध हैं  
१- कायिक २- वाचिक ३- मानसिक ४- नित्य ५- नैमित्तिक ६- काम्य ७- एकभुक्त ८- अयाचित ९- मितभुक् १० - चान्द्रायण ११- प्राजापत्य के रूप में किये जाते हैं |

वास्तव में व्रत और उपवास में केवल यह अंतर है किव्रत में भोजन किया जा सकता हैकिन्तु उपवास में निराहार रहना पडता है|

इनके कायिकादि ३ भेद हैं
१- शस्त्राघातमर्माघातऔर कार्य हानि आदिजनित हिंसा के शमन हेतु " कायिक  
२- सत्य बोलने और प्राणिमात्र में निर्वैर रहने से " वाचिक"
३- मन को शांत रखने की दृढता हेतु " मानसिक" व्रत किया जाता है |


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