भारतीय व्रत उत्सव | 01 | लेखक कि वक्तव्य

भारतीय व्रत उत्सव  | 01 | लेखक कि वक्तव्य

वक्तव्य

[ पुस्तक लिखने का हेतु तथा कृतज्ञता-प्रकाशन ]

जिस समय मैं मेयो कालेज (अजमेर) में धर्मोपदेशक और संस्कृताध्यापक था उस समय मुझको प्रति रविवार और प्रत्येक त्यौहार पर छात्रों के समक्ष भाषण देना होता था । वह अंग्रेजों की संस्था थी। यद्यपि वहाँ भारतीयों के संतोषार्थ भगवन्मंदिर तथा धर्मोपदेश को भी विद्यालय में स्थान दिया गया था तथापि अंग्रेजों की प्रवृत्ति यही थी कि बालकों की रुचि इन बातों की निस्सारता दिखाकर इस ओर से हटा दी जाय। संयोगवश जब मेरी वहाँ नियुक्ति हो गई तो मुझे उनकी यह प्रवृत्ति खटकी। मैंने अपने भाषणों में भारतीय धर्म और भारतीय संस्कृति का सोपपत्तिक विवेचन प्रारम्भकिया । यद्यपि अधिकारियों को मेरी यह प्रवृत्ति खटकती थी और इसके लिये मुझे बहुत कुछ सहना भी पड़ा तथापि वे स्पष्टतया तो इसका विरोध कर नहीं सकते थे, क्योंकि मेरी नियुक्ति ही इस कार्य के लिये हुई थी। एक-दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जायगी ।

मेयो कालेज में मेरी नियुक्ति विक्रम संवत् १६६१ के आषाढ़ मास (जुलाई सन् १६३४.८) में हुई थी। रविवारीय भाषणों के अतिरिक्त मैंने सर्वप्रथम भारतीय त्योहार संबंधी भाषण रक्षाबन्धन और उपाकर्म पर दिया। भाषण में मैंने पहले तो रक्षाबन्धन और उमाकर्म की उपयोगिता समझाई और तदनन्तर कहा कि -

“विद्यार्थी शंका कर सकतें हैं कि - उपाकर्म वेद-पारायण के आरम्भ का उत्सव है और वर्तमान काल में भारतीयों में वेद के अध्येता विरले ही रह गये हैं। वे भी - अधिकांश ब्राह्मण ही। क्षत्रियों और वैश्यों में से तो अधिकांश लोग जनेऊ ही नहीं पहनते, फिर वेदाध्ययन की बात ही क्या है। ऐसी अवस्था में यह उत्सव क्यों मनाया जाय ?

"इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व मैं आपसे पूछेंगा कि चित्तौड़ का किला इस समय युद्ध के लिये अनुपयुक्त है। (यद्यपि उस समय एटमबम का आविष्कार नहीं हुआ था तथापि साधारण) बमों के द्वारा यह किला सहज ही अधीन किया जा सकता है। फिर इस किले को क्यों न नष्ट कर दिया जाय, क्योंकि आधुनिक युद्धों में ऐसे किले का कोई उपयोग नहीं।"

इस पर श्रोता चुप रहे । तब मैंने कहा कि - "आप लोग जो चुप हैं, इसका कारण यह है कि आष चित्तौड़ के किले को तोड़ने की संमति नहीं दे सकते । क्यों ? इसलिये कि वह आपके पूर्वजों का स्मारक है। यदि उसे आज तोड़ दिया गया तो राणा प्रताप और सांगा भी कहानियों के वीर-मात्र रह जायेंगे। भावी लोग कहेंगे कि मेवाड़ की वीरगाथा केवल कल्पित है । अतः युद्धोपयोगी न होने पर भी चित्तौड़ के किले का दर्शन हमारे पूर्वजों की वीरता का स्मारक है और आज भी हमारे रक्त में स्फूर्ति ला देता है। इसी प्रकार ये हमारे त्यौहार भी हैं। उपाकर्म को देखकर हमें स्मरण होता है कि हमारे पूर्वज कितने धार्मिक थे। वेदों का उनके हृदय में कितना संमान था। यदि यह उत्सव न रहे तो हम अपने पूर्वजों की वेदों के प्रति श्रद्धा और मक्ति को भूल जाँय ।”- इत्यादि

इस भाषण को सुनकर प्रधानाध्यापक, जो उस दिन छात्रों के निरीक्षणार्थ नियत थे, लौटते समय मार्ग में मुझसे कहने लगे कि- 'पंडितजी, आपका मेयो कालेज में टिकना कठिन प्रतीत होता है।' मैंने कहा- 'क्यों ? मैंने ऐसा क्या अपराध किया'। उन्होंने कहा- 'रक्षाबंधन की छुट्टी प्रिंसिपल ने बंद कर दी है और आ उस पर अपने भाषण में इतना बल दे रहे हैं। इसे अँगरेज कैसे सहन कर सकता है ?? मैंने कहा- 'मैंने भाषण में किसी की निन्दा नहीं की। केवल इस पर्व की आवश्यकता का समर्थन किया है। यदि यह मैं नहीं कर सकता तो मुझे धर्मोपदेशक के पद से त्यागपत्र दे देना चाहिये।' यह सुनकर वे चुप हो गये ।

इसी प्रकार जब नवरात्र का आरम्भ आया तो मैंने उस पर भी भाषण दिया । संयोगवश स्थापना के दिवस पर कुछ छात्रों ने उपवास किया। उस समय जयपुर-हाउस में मेरा एक ट्यूशन भी था। रात्रि में मैं वहाँ एक छात्र को पढ़ाने जाया  करत था । उस हाउस का हाउसमास्टर एक अंग्रेज था। प्रधानाध्यापक ने तो पूर्व भाषण की प्रिंसिपल को सूचना दी अथवा नहीं, पर उस अंग्रेज ने तो प्रिंसिपल को लिखकर दिया कि 'यह धर्मोपदेशक धर्मप्रचारक भी है। छात्रों को छात्रालयों मैं जाकर उपवासादि के लिये उद्यत करता है।' इत्यादि। दूसरे दिन जब मैं अध्यापन के लिये विद्यालय पहुँचा तो प्रधानाध्यापक कहने लगे कि- 'आज तो आपकी शिकायत आई है।' मैंने कहा- 'क्या ?' उन्होंने वह पत्र मेरे सामने रखा। मैंने कहा- 'छात्रालयों में जाकर छात्रों को बहकाने को बात तो सर्वथा मिथ्या है। हाँ, मन्दिर में भाषण मैंने इसी विषय पर दिया था। यदि उसके फलस्वरूप कुछ छात्रों ने उपवास कर लिया तो क्या अपराध किया।' यह सच्ची बात थी। प्रिंसपल को जब यह विदित हुआ तो उसने फिर उस बात पर कोई कार्यवाही नहीं की ।

ऐसे विरोधों की तो मैंने कभी परवाह नहीं की, किन्तु एक रिटायर्ड फौजी अंग्रेज किसी विषय को पढ़ाने के लिये वहाँ नियत किया गया। उसने एक दिन पढ़ाते समय प्रसंगवश छात्रों से कहा- 'आप लोगों के हिन्दू पञ्चाङ्ग को धिक्कार !' लड़कों ने पूछा- 'क्यों ?' उसने कहा- 'इस पञ्चाङ्ग के कारण आपके त्योहार कभी नियत तारीख को नहीं होते । कभी महीना २६ दिन का होता है तो कभी ३१ दिन का । पंडित बिना कारण आप लोगों को चक्कर देते रहते हैं।' लड़कों को यह बात बहुत खटकी । वे सदा मेरा भाषण सुनते थे, अतः उनको मुझ पर विश्वास था। उन्होंने मुझसे आकर यह सब कथा कही। तब मैंने कई रविवार के व्याख्यानों में भारतीय कौलविज्ञान पर व्याख्यान दिए। लड़कों ने जब जाकर उस अंग्रेज से फिर वह सब कहना आरम्भ किया तो उस फौजी अंग्रेज ने कहा कि 'सौरी', अर्थात् मैं अपने कथन पर खिन्न हूँ।' और चुप हो गया। तब से छात्रों को भारतीय विद्याओं पर विश्वास होने लगा और वे व्रतोत्सव पर मेरे व्याख्यान बड़े ध्यान से सुनने लगे।

एक दिन एक उत्सव पर मेरा व्याख्यान हो रहा था। उस समय मूतपूर्व शाहपुरा-नरेश स्व० श्रीउमेदसिंहजी, जो आर्यसमाजी थे, अकस्मात् आ पहुँचे। उन्हें मेरा व्याख्यान बढ़ा प्रिय लगा और वे मुझसे कहने लगे कि 'आप भारतीय व्रतोत्सवों पर एक  पुस्तक लिखिए । मैं उसे प्रकाशित करूँगा ।' उनके अनुरोध से यह पुस्तक लिखी गई, पर वे इसे आर्यसमाजानुकूल कुछ बातों से परिपूर्ण देखना चाहते थे और तदनुसार इसमें कुछ काट-छाँट भी करना चाहते थे। उन्होंने इस विषय में कुछ सूचनाएँ दी भी,, किन्तु मैं उनको स्वीकार नहीं कर सका। अतः यह पुस्तक विद्यार्थियों के अनुरोध से लिख ली जाने पर भी बरसों मेरे बस्ते में ही पड़ी रही। तदनन्तर इसमें बहुत कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन हुआ। उस समय इसमें कुछ ही व्रतोत्सव लिखे गये थे, पर अब इसमें यथासंभव सभी व्रतोत्सवों का समावेश कर दिया गया है। व्रतोत्सवों की यथालब्ध कथाएँ भी संमिलित कर दी गई हैं। शेष सब पाठकों को पुस्तक से विदित होगा। अब यह 'चौखम्बा संस्कृत सीरिज' वालों के विशेष अनुरोध के कारण प्रकाशित हो रही है, अतः उन्हें सविशेष धन्यवाद । आशा है- विद्वान् और आस्तिक बन्धु इसे स्वीकार करेंगे ।

इस कार्य में मेरे प्रिय शिष्य गोविन्ददास 'काव्यमनीषी' (अजमेर) तथा पं० दीनानाथ साहित्याचार्य (जयपुर) ने जो लिपिकरणादि में सहायता की है तदर्थं उनको अनेक शुभाशीर्वाद ।

अन्त में मैं अपने प्रिय शिष्य और अपने महाराज श्री विमृतिनारायण सिंह एम० ए० को व्याख्यानों के श्रोता काशीनरेश धन्यवाद तथा शुभाशीर्वाद देता हूँ कि संयोगवश यह पुस्तक उनके ही आश्रय में प्रकाशित हो रही है। भगवान् उनको चिरायु और सुखी करें ।

मकरसंक्रान्ति

विक्रम संवत् २०१३ }

पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी रामनगर (काशी)

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