भारतीय व्रत उत्सव | 02 | विषय-विमर्श
भारतीय व्रत उत्सव | 02 | विषय-विमर्श
विषय-विमर्श
विज्ञान शब्द का अर्थ और काल-विज्ञान
इस पुस्तक में सर्वप्रथम 'काल-विज्ञान' नामक प्रकरण है। उसमें काल के इन आठ विभागों का वर्णन है- संवत्सर, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार और नक्षत्र । भारतीय व्रतोत्सवों में इनका उपयोग होता है और साधारणतया लोग इनके विषय में जानते नहीं। अतः इनका विवरण विशेष रूप से दिया गया है।
इस विषय में यह स्मरण रखना चाहिए कि - विज्ञान शब्द का अर्थ यहाँ साइन्स नहीं है, किन्तु 'विविच्य ज्ञान-विवेचन करके समझना' है। इसको विशिष्ट ज्ञान अथवा सविशेष ज्ञान भी कह सकते हैं। ऐसे विज्ञान के विना वस्तु का यथार्थ बोध नहीं होता और यथार्थ बोध न होने से विधर्मियों अथवा विदेशियों की बातें सुनकर मनुष्य बहक जाता है, अतः इस पुस्तक में यथासम्भव वर्णनीय विषयों को युक्ति और प्रमाणों द्वारा विवेचन करके समझाया गया है, जिसे काल-विज्ञान, विधि-विज्ञान इत्यादि के नाम से लिखा गया है।
तदनुसार काल-विज्ञान प्रकरण में काल के पूर्वोक्त विभागों का विवेचन किया गया है। इसके पढ़ने से भारतीयों में भारतीय संस्कृति की विचार-पूर्णता पर और प्राचीन तत्त्वों के विवेचन पर श्रद्धा उत्पन्न होगी ऐसी आशा है ।
निरूपण-पद्धति
व्रतोत्सवों का विवेचन करते समय इस पुस्तक में इन विषयों का विचार किया गया है- (व्रत अथवा उत्सव का समय, काल-निर्णय, विधि, समय-विज्ञान, विधि-विज्ञान, कथा और अभ्यास । इनके अतिरिक्त जिन विषयों को विवेचनसापेक्ष समझा गया है उनका भी विवेचन किया गया है, जैसे अवतार-विज्ञान, माहात्म्य आदि। आगे इनमें से प्रत्येक पर पृथक्पृथक् विचार किया जाता है।
1. समय
'यह विशेष विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि इसमें केवल यही दिखाया गया है कि कौन व्रत अथवा उत्सव किस समय होता है और वह इसलिए आरम्भ में ही पृथक् दिया गया है, जिससे पाठक को यह आवश्यक वस्तु आगे ढूँढ़नी न पड़े ।
2. काल-निर्णय
यह भारतीय धर्मशास्त्रोंका बड़ा विवादग्रस्त विषय है। धर्मसिन्धु, निर्णय सिन्धु तो प्रसिद्ध ही हैं; किन्तु उनके अतिरिक्त इस विषय में हेमाद्रि, कौस्तुभ, काल-माधव, मयूख आदि अन्य भी बड़े-बड़े ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त तत्तत् सम्प्रदायों के निर्णय-ग्रन्थ भी हैं। इस पुस्तक में विवादग्रस्त विषयों का तो सारांश देना भी कठिन था। यदि उस झंझट में पढ़ते तो इतनी बड़ी पुस्तक तो उसके एक अंश में ही समाप्त हो जाती और जिनके लिए यह लिखी गई है उनके लिए अनुपयोगी भी हो जाती। इसलिए किसी वाद-विवाद में न पड़कर यथासम्भव संक्षेप से काल-निर्णय का विचार किया गया है।
यह विषय छोड़ देना भी उचित नहीं था। यदि इसे सर्वथा छोड़ दिया जाता तो आरम्भिक तत्त्वों को भी न जानने के कारण साधारण मनुष्य वड़े चक्कर में पड़ जाते ।
सारांश यह कि काल-निर्णय के विषय में जो कुछ इसमें दिया गया है वह वाद-विवाद के लिए नहीं, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञान के लिए है। आशा है, आस्तिक भारतीय इसका यथाविधि उपयोग करेंगे ।
3. विधि
व्रत या उत्सव के विषय में उसकी शास्त्रीय विधि जानना बहुत आवश्यक है। आजकल शास्त्रीय विधि न जानने के कारण व्रतों और उत्सवों का वास्तविक स्वरूप ही बिगड़ता जा रहा है। यद्यपि परम्परा के कारण व्रत और उत्सव चल रहे हैं, पर उनमें बुढ़िया-पुराण ही आधार हो रहा है। शास्त्र में क्या लिखा है इसे बहुत ही कम मनुष्य जानते हैं। शास्त्र-विधि को यथार्थ रूप में जान लिया जाय एतदर्थ ही यह उद्योग है।
4. समय-विज्ञान
इस विज्ञान की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आजकल भारतीय संस्कृति खिचड़ी हो रही है। उसमें कुछ बातें प्राचीन, कुछ अर्वाचीन, कुछ मुसलमानी युग की और कुछ अंग्रेजी युग की सम्मिलित हो रही हैं और होती जा रही हैं। हमारी काल-पद्धति भी इस स्थिति से अछूती नहीं है। बहुतेरे आधुनिक शिक्षित तो पुरानी परम्पराओं का सर्वथा उन्मूलन ही सुधार समझते हैं। हमें ऐसे अनेक लोगों के सम्पर्क में आना पड़ा है जो कहते हैं कि अब इन पुराने तिथि-नक्षत्रादि को समाप्त कर दिया जाना चाहिए और अंग्रेजी तारीखों के अनुसार ही सब धार्मिक कार्य भी करने चाहिएँ। ऐसे लोगों के दो विभाग किये जा सकते हैं। एक वे हैं जो आग्रही हैं और पुरानी बातों का सर्वथा उच्छेद चाहते हैं। उनसे तो कुछ भी कहना व्यर्थ है' किन्तु जो लोग अज्ञान के कारण बहक जाते हैं उनको इस विषय को यथार्थ रूप में समझ लेने से यह ज्ञान तो हो सकेगा कि व्रतों और उत्सवों को हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार बहुत सोच-विचारकर तत्तत् समयों पर निश्चित किया है और उन समयों को बदल देना मूर्खतापूर्ण और हानिकर है।
5. विधिविज्ञान
इसमें यह दिखाया गया है कि उत्सवों की विधियाँ कितनी वैज्ञानिक हैं। उनसे आध्यात्मिक लाभ तो है ही, क्योंकि उसी के लिए उनका विधान है, परन्तु भौतिक लाभ भी कम नहीं है। शारीरिक लाभ उनसे कितना अधिक है इसे समझाने के लिए इस प्रसंग में हमने आयुर्वेद शास्त्र का यथेष्ट उपयोग किया है, जिससे यह विदित हो सके कि भारतीय विधियाँ कितनी ऋतुओं के अनुकूल और स्वास्थ्योपयोगी हैं।
भारतीय चिकित्साविधि और पाश्चात्त्य चिकित्साविधियों में भेद
इस प्रसंग में हमें यह भी समझा देना आवश्यक प्रतीत होता है कि पाश्चात्त्य चिकित्साविधि कीटाणुओं पर आश्रित है, किन्तु भारतीय चिकित्साविधि त्रिदोष-वाद पर आश्रित है। पाश्चात्त्य चिकित्सकों ने तत्तत् रोगों के कीटाणुओं का अन्नुसंधान किया है और उनके नष्ट कर देने को ही वे रोग को चिकित्सा समझते हैं, किन्तु भारतीय पद्धति रोगाणुओं के उत्पन्न न होने देने की विधि को प्रधानता देती है। अतएव उसमें ऋतुचर्या, दिनचर्या आदि भी वर्णित हैं। यह पद्धति बड़ी ही व्यापक है। कीटाणु-वादपद्धति भी इसी के अन्तर्भूत हो जाती है, किन्तु कीटाणु-वादपद्धति से यह गतार्थ नहीं होगी ।
बात यह है कि शरीर में जो कीटाणु उत्पन्न होते हैं वे चेतन हैं अतएव जीवित पदार्थ हैं। इनकी भिन्न-भिन्न प्रकृतियाँ हैं। कितने ही ठण्डक में ही पैदा होते हैं और ठण्डक में ही जी सकते हैं, कितने ही गरमी में ही पैदा होते हैं और गरमी में ही जी सकते हैं और कितने ही सरदी-गरमी के अमुक परिमाण में बढ़ सकते हैं, अमुक परिमाण में कम होने लगते हैं और अमुक परिमाण में नष्ट हो जाते हैं। उस शरीर के अन्दर की सरदी गरमी का नाम ही त्रिदोष है। गरमी को पित्त कहते हैं और सरदी के दो भेद हैं- एक रूक्ष तथा दूसरा चिक्कण । उनमें से रूक्ष सरदी को वात कहते हैं और चिक्कण सरदी को कफ। ये जब शरीर में साम्या-वस्था में रहती हैं-अर्थात् घटी-बढ़ी स्थिति में नहीं, तब प्राणी स्वस्थ रहता है।
इसी बात को आयुर्वेद कहता है- 'दोषसाम्यमरोगिता' (वाग्भट, सूत्रस्थान, १-१) इनके आधार पर ही शरीर में रोग के कीटाणु भी पनपते हैं। जब वात बढ़ जाता है तो वातप्रकृति के कीटाणु, पित्त बढ़ जाता है तो पित्तप्रकृति के कीटाणु और कफ बढ़ जाता है तो कफप्रकृति के कोटाणु जोर पकड़ने लगते हैं। उनके विरुद्ध वस्तु शरीर में पहुँचने पर वे शान्त हो जाते हैं। यद्यपि भारतीय शास्त्रों और आयुर्वेद में भी इन कीटाणुओं का विशेषरूपेण वर्णन नहीं है, तथापि शास्त्रकारों ने कीटाणुओं के उत्पादक तथा उपजीव्य उक्त दोषों को ही शान्त करने की विधि पर बल दिया है। यदि अनुकूल परिस्थिति न होगी तो कीटाणु या तो उत्पन्न ही न हो सकेंगे और किसी कारणवश उत्पन्न होंगे भी तो जीवित तो रह ही नहीं सकेंगे। फिर पाश्चात्त्य पद्धति के अनुसार भी रोगोत्पादन नहीं होगा। इस 'दोषसाम्य' को भी ध्यान में रखकर हमारी व्रतोत्सव-विधि है और संचित दोषों तथा कीटाणुओं का भी विनाश उसके कारण होता है। यही समझाने के लिए इस पुस्तक में यथास्थान आयुर्वेद के उद्धरण दिए गए हैं।
आशा है यह प्रकरण जिज्ञासु जर्नी के लिए उपयोगी होगा।
6. कथा
कथाभाग के विषय में संवत्सरोत्सव की कथा के प्रसंग में जो लिखा गया है वह यहाँ पुनः उद्धत कर दिया जा रहा है। यद्यपि यह एक पुनरुक्तिमात्र है, पर इस भाग के पढ़ने के लिए वहाँ के पृष्ठों को टटोलने का प्रयास न करना पड़े इस लिए यह चेष्टा है। यह लेख यों है –
इस पुस्तक में व्रतों और त्योहारों की कथाएँ भी सरल भाषा में दी जा रही हैं। इस विषय में हम इतना निवेदन करना चाहते हैं कि पुराणों की यह शैली है कि साधारण जनों की प्रवृत्ति बढ़ाने के लिए इन कथाओं में प्रायः 'रोचनार्था फल-श्रुतिः' के न्याय से प्रत्येक व्रत अथवा उत्सव की अत्यन्त प्रशंसा रहती है। आधु-निक शिक्षित इससे उद्विग्न-से हो जाते हैं, पर शिक्षित पाठकों को भी तात्पर्य पर दृष्टि रखनी चाहिए। उन्हें सोचना चाहिए कि कथा लेखक जिस कार्य में प्रवृत्त कर रहे हैं वह पूर्ण धार्मिक और विज्ञानानुमोदित है। साधारण जनता को मनो-वैज्ञानिक दृष्टि से प्रशंसा की अधिकता हो उत्तम कार्यों की ओर आवर्जित कर सकती है, अतः आधुनिक शिक्षितों को कार्य के फल पर विचार कर कथा के नाम से घबड़ाना नहीं चाहिए ।
7. अभ्यास
इस पुस्तक में प्रत्येक व्रतोत्सवों के अन्त में उस प्रसंग में आये विषयों के विषय में प्रश्न भी दिए गये हैं। इससे दो लाभ हैं- एक तो यह कि छात्र भी इस पुस्तक का उपयोग कर सकें और दूसरा यह कि जिज्ञासुओं को भी उस व्रत या उत्सव की विशेषता संक्षेप में विदित हो सके और उनकी जिज्ञासा जामरित हो ।
8. अतिरिक्त
इन विषयों के अतिरिक्त इस पुस्तक में अवतार विज्ञान, गंगा-माहात्म्य, यमुना-माहात्म्य इत्यादि के विषय में भी विचार किया गया है। आशा है, यह भी पाठकों को लाभप्रद होगा ।
परिशिष्ट
भारतीय व्रतोत्सवों में भगवद्गीतोक्त, यज्ञ, दान तथा तप की ही प्रधानता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यही सब धर्मों का सार है। इसीलिए भगवद्गीता में इन पर बार-बार बल दिया गया है। वह आध्यात्मिक दृष्टि भी सुज्ञ पुरुषों की दृष्टि में आ सके एतदर्थ मेरे एक प्राचीन लेख को पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट रूप में जोड़ दिया गया है। आशा है भारतीय व्रतोत्सवों की आध्यात्मिक उपयोगिता के बोध में यह भी उपयोगी होगा।
क्षमायाचना
अन्त में हम अपनी भूलों और भ्रमों के लिए विद्वानों से क्षमा चाहते हैं और आर्थना करते हैं कि मानव सुलभ दोषों पर दृष्टि न देते हुए जो त्रुटियाँ रह गई हों उन्हें सुधारकर पुस्तक का सदुपयोग करें ।
मकरसंक्रान्ति विक्रम संवत् 2013
विनीत
पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी
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