भारतीय व्रत उत्सव | 23 | B | राम नवमी
भारतीय व्रत उत्सव | 23 | राम नवमी
राम नवमी
समय
चैत्रशुक्ल नवमी
कालनिर्णय
इस उत्सव में मध्याह्रव्यापिनी नवमी ली जाती है। दोनों दिन मध्याह्न में नवमी हो तो दूसरे दिन व्रत करना चाहिए, क्योंकि अष्टमी-विद्धा नवमी का निषेध है। ऐसा लिखा है कि यदि दूसरे दिन मध्याह्न के एकदेश में भी नवमी आ जाती हो तो दूसरी ही लेनी चाहिए।
वैष्णवलोग उद्य-व्यापिनी नवमी ग्रहण करते हैं। इनके यहाँ दूसरे दिन ६ घड़ी से कम होने पर ही पूर्वविद्धा की जाती है। दशमी का क्षय होने पर दूसरे दिन एकादशी का व्रत आ जाने के कारण स्मार्त्तलोग अष्टमीविद्धा ही करते हैं, परन्तु वैष्णवों के यहाँ तो पूर्वोक्त सिद्धान्तानुसार रामनवमी दूसरे ही दिन होती है। रामनवमी के साथ पुनर्वसु नक्षत्र का होना प्रशस्त माना गया है। (देखिए धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु, द्वितीय परिच्छेद, रामनवमीनिर्णय) ।
विधि
(१) रामनवमी के दिन रात्रि में जागरण, दिन में उपवास अथवा व्रत किया जाता है।
(२) मन्दिरों में पञ्चामृत-स्नानादि और महोत्सव होते हैं।
(३) सर्वतोभद्र-मण्डल पर सुवर्ण की रामप्रतिमा स्थापित करके उसका सविधि पूजन हवन आदि करके दान का भी विधान है।
समय-विज्ञान
ऋतु-भारतवर्ष की सर्वोत्तम ऋतुएँ दो हैं- वसन्त और वर्षा; और भगवान् हैं पूर्ण पुरुषोत्तम, उनके उपयोग में सर्वोत्तम वस्तुएं ही आसकती हैं, इसलिए उनका प्रादुर्भाव इन्हीं ऋतुओं में होना उचित है। इसीलिए भगवान् राम का प्राकट्य वसन्त में और भगवान् कृष्ण का प्राकट्य वर्षा में हुआ है।
मास-ऊपर बताया जा चुका है कि वसन्त ऋतु में दो मास होते हैं चैत्र और वैशाख । उनमें से वैशाख कुछ अधिक उष्ण हो जाता है.. और पुष्पों की अपेक्षा उस मास में फलों की ही अधिकता होती है। वसन्त का वह सौरभ और उल्लास वैशाख में कहाँ जो चैत्र में होता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो वास्तव में चैत्र ही कुसुमाकर (वसन्त का एक नाम) है वैशाख तो उसका पिछलगुआ ही है। इसी कारण चैत्र का नाम मधुमास है। सो मधुमय भगवान् राम का प्राकट्य ऐसे ही मास में होना चाहिए यह स्वभावसिद्ध है।
पक्ष एक मास में दो पक्ष होते हैं- कृष्ण और शुक्ल । उनमें से शुक्ल पक्ष ही मास का प्रकाशमय भाग होता है और भगवान् राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं एवं मर्यादा है प्रकाश की वस्तु, क्योंकि मर्यादानुसार किये जानेवाले कामों में अन्धकार को स्थान ही नहीं-वे सब काम तो प्रकाश में ही होते हैं। अतः भगवान् राम का जन्म शुक्ल पक्ष में होना उचित ही है। :
तिथि-कालविज्ञान में बताया जा चुका है कि तिथियों का सम्बन्ध सूर्य और चन्द्रमा से है। सूर्य से चन्द्रमा जितने-जितने अंश पृथक् होता जाता है या यों कहिए कि चन्द्रमा की कलाओं में जितना वृद्धिक्षय होता-जाता है, उसी के अनुसार तिथियों की गणना की जाती है। सारांश यह कि चन्द्रमा का तिथि से अटूट सम्बन्ध है और चन्द्रमा जीवन तथा शांति का प्रतीक है,' अतएव उसे शीतरश्मि ही नहीं किन्तु सुधाकर भी कहा जाता है। अब देखिए कि अष्टमी को चन्द्रमा की अर्धावस्था होती है। वह अर्धावस्था मानो जनता के सुख और शांति का प्रतीक है। पूर्ण अशान्ति में तो जनता का अभाव हो जायगा और पूर्ण शान्ति में जनप्तां को किसी वस्तु की अपेक्षा ही नहीं रहेगी, क्योंकि इन दोनों ही अन्तिम अवस्थाओं में मानव की मनोवृत्ति कार्य करने में असमर्थ हो जाती है। सारांश यह है कि जब शांति और अशान्ति का लगभग बराबर सां भाग होता है या यों कहिए कि सत्पुरुषों और दुष्टों का बराबर सा बल रहता है और शान्ति की वृद्धि का समय होता है उस समय भगवान् का प्रादुर्भाव होता है। अतएव भगवद्गीता में -
'पारित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।'
यह कहा गया है। इसमें आप देखेंगे कि शान्ति और अशान्ति दोनों के पलड़े बराबर सूचित हो रहे हैं। अष्टमी की ठीक यही स्थिति है, क्योंकि उस दिन प्रकाश और अन्धकार दोनों समान-से रहते हैं। अब आइए नवमी पर, शुक्लपक्ष की नवमी के दिन प्रकाश की कला वर्धमान रहती है और अन्धकार की कला क्षीयमाण रहती है, अतः शान्ति के वर्धक और अशांति के विनाशक भगवान् राम का जन्म ऐसी ही तिथि को होना उचित है, जबकि शान्ति और समृद्धि की कला बढ़े और अशान्ति और अभाव की कला क्षीण हो ।
मध्याह्न - भगवान् राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं और मर्यादा प्रकाश की ही बस्तु है, क्योंकि मर्यादा में कोई बात छिपाने की नहीं होती, यह ऊपर कहा जा चुका है, अतः भगवान् राम का प्रादुर्भाव ठीक मध्याह्न के समय, जब कि प्रकाश पूर्ण प्रौढि में रहता है, हुआ, जो सर्वथा युक्त्यनुकूल है।
सारांश
इस काल-विज्ञान का सारांश इन शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्राणी के हृदय को प्रफुल्लित करनेवाली ही नहीं, किन्तु प्रकृति के नये साज-शृङ्गार को रचानेवाली वसन्त ऋतु, उसमें भी सुरभित सुमन-समूह से सुशोभित मधुरता-मय मधुमास और उसका भी चारुतम चन्द्रिका से चमत्कृत शुक्ल पक्ष, एवं उसमें भी चन्द्रमा के प्रकाश की वर्धमान कला के दिन प्रकाशमय मध्याह्न के समय प्रकट होना वास्तव में ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् राम के अनुरूप है। उनके प्राकट्य के लिए इससे अधिक उपयुक्त और कौन सा समय हो सकता था।
विधि-विज्ञान
रामनवमी के दिन की जानेवाली उपर्युक्त विधियों में से उपवास और जागरण तप हैं, पञ्चामृत-स्नान, प्रतिमार्चन तथा हवन यज्ञ हैं और प्रतिमादान, ब्राह्मण-भोजनादि तो दान हैं ही। सो
'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।'
इस भगवद्गीता की प्रतिज्ञा के अनुसार ये तीनों पावन कर्म इस दिन किये जाते हैं। अब इनमें से प्रत्येक पर विचार करिए -
उपवास-कई लोग यह प्रश्न किया करते हैं कि भगवान् के जन्म दिन पर तो खूब माल-ताल उड़ाने चाहिए और मौज करनी चाहिए । उसके बजाय उपवास और जागरण क्यों? इसका उत्तर यह है कि भगवान् राम या कृष्ण को लौकिक पुरुष मानकर ये उत्सव नहीं मन्नाये जाते, किन्तु परब्रह्म परमात्मा समझ कर । परब्रह्म के लिए भगवद्गीता कहती है कि 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म' अर्थात् ब्रह्म (परमात्मा) दोषरहित और सब के लिए समान है। सो उसकी प्राप्ति भी निर्दोष और समत्व में स्थित पुरुष को ही हो सकती है। इसी दोष-निवृत्ति के लिए उपवास है। देहदोषनिवृत्ति के लिए, जिसका मुख्य आधार उद्रशुद्धि है, भोजन न करना आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार दोषाधायक इन्द्रियप्रवृत्ति को रोकने के लिए उपवास में इन्द्रिय-संयम रखना भी आवश्यक है। अतएव उपवास की विधि में कहा जाता है कि-
असकृबलपानाच्च सकृत्ताम्बूलचर्वणात् ।
उपवासः प्रणश्येत दिवास्वापाच्च मैथुनात् ॥
अर्थात् बार-बार जल पीने से, एक बार भी ताम्बूल चबाने से, दिन में सोने और मैथुन से उपवास नष्ट हो जाता है।
इतना ही नहीं, उपवास के दिन झूठ बोलना, जुआ खेलना-इत्यादि अनुचित कार्य भी वर्जित हैं। यह सब इसलिए कि मनुष्य सन, वाणी और शरीर से पवित्र होकर इन उत्सवों को मनावे और वह सब उपवासरूप तप के द्वारा होता है।
इसी प्रकार रात्रि में जागरण भी तप है, क्योंकि निद्रा भी अन्न के समान मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताओं में से है। जिस प्रकार अन्न के त्याग का नाम उपवास है उसी प्रकार निद्रा के त्याग का नाम जागरण है। तपस्त्री के लिए निद्राविजय भी अत्यन्त आवश्यक है। अतएवं कहा जाता है कि-
आसनदृढ आहारदृढ निद्रादृढ जो होय ।
गुरू कहे रे बालका मरे न बूढा होय ॥
अतः भगवत्प्राकट्य के दिन तपस्या की पूर्णतार्थ आसनदृढ और निद्रादृढ होकर भगवत्कीर्तन करना भी बताया गया है।
यहाँ यह भी अवश्य समझ लेना चाहिए कि ऋषियों ने ऐसे तप के लिए किसी को विवश नहीं किया है, किन्तु यथाशक्ति अभ्यास की ओर उनकी दृष्टि है। अतएव उपवास में परिपूर्ण निराहार न कर सके तो फलाहार, दुग्ध-पानादि करे यह विधान है। किन्तु आजकल के कई शौकीनों की तरह उपवास के दिन भी विविध पक्कान खाना तो शास्त्रविहित नहीं माना जा सकता। संयम और सात्त्विकता न रहे तो उपवास करना व्यर्थ है। इसी प्रकार जो पूर्णरात्रि जागरण न कर सके उसे भी प्रहर (तीन घंटे) अथवा आधे प्रहर तो अवश्य ही जागरण कीर्तनादि करने चाहिए ।
पञ्चामृतस्नान- इस कार्य में इन पांच वस्तुओं का उपयोग होता है- (गाय के) दूध, दही, घी तथा मधु (शहद) और शर्करा (मिश्री अथवा चीनी) । इनमें से दूध, दही और घी के गुणों का वर्णन श्रावणी के प्रकरण में पञ्चगव्य के प्रसंग में विस्तृत रूप से किया गयाः है (पाठक वहाँ से देख लें; पुनरुक्तिभय से यहाँ छोड़ दिया गया है।) मधु और शर्करा के गुण संक्षेप से ये हैं।
वातलं गुरु शीतं च रक्तपित्तकफापहम् ।
संधातृ छेदनं रूतं कषायमधुरं मधु ॥
( चरकसंहिता, सूत्रस्थान अ. २७ श्लो. २४४)
अर्थात् शहद वायु करने वाला, भारी, ठंडा, रक्तपित्त और कफ को मिटाने वाला है। वह घावों का जमाने वाला (जमे हुए कफ आदि का) काटने वाला, रूक्ष और कसैला तथा मीठा है।
तृष्णाऽसुक्पित्तदाहेषु प्रशस्ताः सर्वंशर्कराः । (चरक सू. २७ । २४१)
अर्थात् सब शर्कराएँ प्यास, रुधिर, पित्त और दाह (निवृत्त करने) में प्रशस्त हैं। उपवास से पित्त बढ़ता है, अतः उसके निवृत्त करने के लिए ये दोनों आवश्यक हैं। किन्तु शहद वातल है, अतः वायु मिटाने वाला दही ('दधि वातजित्' अष्टाङ्गहृदय सूत्र ५१२६) पश्वामृत में रखा गया है और उपवास करने वालों के लिए दूध तो अमृत है। गाय के दूध और घी का तो कहना ही क्या 'गव्ये क्षीरघृते श्रेष्ठे' (अष्टाङ्ग० सूत्र०५/४१) ।
सारांश यह कि भूलोक के इन पांचों अमृतों को उपवास के दिन प्राशन करने के लिए रखकर ऋषियों ने अत्यन्त लोकोपकार किया है।
प्रतिमार्चन और हवन- ऊपर कहा जा चुका है कि प्रतिमार्चन एक प्रकार का यज्ञ है। इसे अब स्पष्ट करके समझिए । भगवद्गीता के अनुसार यज्ञ की परिभाषा यह होती है कि जो क्रिया प्रसव (नवीन वस्तु के उत्पादन) का साधन है और इष्टकामना को पूर्ण करनेवाली है, वह यज्ञ है। अतएव भगवान् ने कहा है कि-
'अनेव प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ।
अर्थात् यज्ञ के द्वारा तुम प्रसव (नवीन नवीन वस्तुओं का उत्पादन) करोगे और यही तुम्हारे अभीष्ट मनोरथों का पूर्ण करनेवाला हो ।'
भगवत्प्रतिमार्चन भी इन दोनों शर्तों को पूरा करता है, अतः वह भी एक प्रकार का यज्ञ है, क्योंकि भगवत्प्रतिमा भगवान् का प्रतिरूप है, जिस प्रकार कि ध्वन्यात्मक वर्णों का प्रतिरूप लिपिरूप वर्ण हैं। जैसे विना लिपि के केवल ध्वन्यात्मक वर्णों से व्यावहारिक भाषा का काम नहीं चल सकता, उसी प्रकार बिना प्रतिमा के उपासना, आराधना और सेवा-पूजा का भी काम नहीं चल सकता। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि प्रतिमा का अर्चन अपने ही कल्याण के लिए है, न कि भगवान् की आकाङ्क्षा-पूर्ति के लिए, क्योंकि जगत्स्वामी को हम क्या दे सकते हैं ? अतः उनकी सेवा से हम अपना ही भला करते हैं, उसके द्वारा हमारे मनोरथ पूर्ण होते हैं और आध्यात्मिक विकास का प्रसव होता है-यह आराधकों से छिपा नहीं है।
१. उपवासाध्दभाष्यस्नीमारुतातपकर्मभिः ।
क्लान्तानामनुपानार्थ पयः पथ्यं यथाऽमृतम् ॥
(चरकसंहिता सूत्र० २७७३२०)
हवन भी इसी कारण यज्ञ है, क्योंकि वह भी हवन की जानेवाली वस्तु को परमाणुरूप में विभक्त करके उसकी वृद्धि करता है और मनोरथ को भी पूर्ण करता है। अतः ये दोनों यज्ञ इस दिन अवश्य करने चाहिए ।
दान के विषय में तो विशेष लिखना व्यर्थ है। दान की महिमा जगत्प्रसिद्ध है। हाँ, यह अवश्य है कि वह भगवद्गीता के अनुसार -
'दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं विदुः ॥ ।
अर्थात् जो दान, 'देना चाहिए' यह समझकर अनुपकारी के लिए, देश, काल और पात्र में दिया जाता है वह दान सात्त्विक है।'
ऐसा सात्त्विक दान देना चाहिए, राजस-तामस नहीं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सत्पात्र को ही दान देना सफल है, कुपात्र को नहीं।.
कथा
महर्षि अगस्त्य ने कहा- हे सुतीक्ष्ण ! सब अनुष्ठानों का सार, सब दानों में उत्तमोत्तम रहस्य मैं तुमको कहूँगा। चैत्रमास में नवमी के शुक्लपक्ष में दिन के समय पवित्र पुनर्वसु नक्षत्र में, जिस समय लग्न में गुरु और पाँच ग्रह उच्च. के थे उस समय, मेष के सूर्य और कर्कलम में कौशल्या के गर्भ से परब्रह्म परमात्मा प्रकट हुए। (जैसा कि इस श्लोक में लिखा है)
१. यज्ञ, दान, तप के विषय में विशेष विवरण के लिए परिशिष्ट में दिया हुआ लेखक का 'यज्ञ, दान, तप' नामक लेख देखिए ।
सब प्राणी उसकी पूजा करते हैं और वह भी राम के सदृश हो जाता है।
जो मूर्ख और अधम मनुष्य श्रीरामनवमी के दिन भोजन करता है वह त्रिलोक के पाप का भक्षण करता है। जो श्रीरामनवमी का अनादर करके कोई काम करता है वह जब तक सूर्य, चद्रमा और तारा रहते हैं तब तक परम पतितता को प्राप्त होता है ।
जो सब व्रतों में श्रेष्ठ श्रीरामनवमी के व्रत को न करके अन्य व्रतों को करता है, उसको उनका फल प्राप्त नहीं होता। सब व्रतों की सिद्धि के लिए इस रामनवमी का व्रत करना चाहिए। गुप्त तथा प्रगट किए हुए अनेक पाप और महापाप श्रीरामनवमी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं। हे मुनि ! मनुष्य भक्तिपूर्वक एक नवमी का उपवास करके कृतकृत्य हो जाता है। हे मुनिश्रेष्ठ ! जो मनुष्य रामनवमी के दिन विधिपूर्वक श्रीराम की प्रतिमा का दान करता है वह मुक्ति हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं ।
सुतीक्ष्ण ऋषि ने पूछा- हे मुने ! श्रीराम की प्रतिमा के दान का कैसा विधान है? मैं भक्त हूँ, इसलिए आप कृपा करके विस्तार से वर्णन करिए ।
अगस्त्य जी ने कहा-एक पल भर (४ तो०) सोने से, उसके आधे (२ तोले) अथवा उसके भी आधे (१ तोले) से श्रीराम की प्रतिमा बनानी चाहिए। राम के लिए चाँदी का पलंग बनाना चाहिए और वहाँ नील-पीत आदि वर्णवाले असतों से सुन्दर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाना चाहिए । उस घर कमलनयन देवेश श्रीरामचन्द्र की स्थापना करनी चाहिए। फिर पंचामृत से खान कराके प्रतिष्ठा और पूजन करना चाहिए। पश्वपल्लकों से युक्त छिंद्र रहित कुम्भ स्थापन करना चाहिए। वस्त्र और उपवीत सहित उस मृण्मय (मट्टी के) अथवा ताम्रमय (तांबे के) कुम्भः के ऊपर श्रीरामचन्द्र जी की गन्ध-पुष्पादिक से पूजा करनी चाहिए। तब प्रयत्न-पूर्वक नारिकेलादिक फलों से अर्घ्य देना चाहिए । इसके बाद नैवेद्य समर्पण करके आरती उतारनी चाहिए । इस तरह पूजा करने के अनन्तर जागरण करना चाहिए। पूजा के मन्त्र निम्नलिखित हैं-
'राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनामसंतुल्यं रामनाम वरानने ॥
जयति रघुवंशतिलकः कौशल्याहृदयनन्दनो रामः । दशवदननिधनकारी दाशरथिः पुण्डरीकाक्षः ॥
जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः ।
जयतो भरतशत्रुघ्नौ राघवेणानुपालितौ ॥'
इस तरह विधि समाप्त करके वेद वेदाङ्ग के जाननेवाले ब्राह्मण को प्रतिमा सहित उस कुम्भ का दान करे। मन, वाणी और देह के अनेक प्रकार के पापों से ग्रस्त प्राणी भी श्रीरामचन्द्रजी के जागरण को देखकर तत्काल पवित्र हो जाता है। रामनवमी के दिन भगवान् के स्मरण से पाप का नाश होता है, दर्शन से सब मनोरथ पूर्ण होते हैं, नमस्कार से पुष्टि होती है और उपवास से भगवत्पद की प्राप्ति होती है।
हे मुनि ! कार्तिक की पूर्णिमा में स्कन्द-यात्रा करने से जो फल प्राप्त होता है वह श्री रामनवमी के व्रत से प्राप्त होता है। कुरुक्षेत्र, भृगुक्षेत्र, द्वारका और प्रभास की यात्रा में जो फल कहा गया है वह श्रीरामनवमीव्रत से प्राप्त होता है। कुरुक्षेत्र में करोड़ों सूर्य ग्रहणों में हजार बार सुत्रर्ण देने का जो फल होता है, वह श्रीरामनवमी के व्रत से होता है। काशी, प्रयाग और गङ्गा में तथा द्वादशज्योतिर्लिङ्गों की यात्रा में जो फल प्राप्त होता है वह फल इस व्रत से प्राप्त होता है। सैकड़ों और हजारों करोड़ पाप एक रामनवमी के उपवास से दग्ध हो जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं ।
यह रामनवमी यदि सोमवार, बुधवार और पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त हो तो करोड़ कुलों को मुक्ति देनेवाली होती है। निर्धन वैष्णवों को भी, अपनी आत्मा को जोखिम में डाल करके भी, अपनी देह-शुद्धि के लिए यह रामचन्द्रजी का व्रत करना चाहिए। कभी सागर भी सूख जाता है, हिमालय भी क्षीण हो जाता है, परन्तु रामनवमी से प्राप्त लोकों का कभी क्षय नहीं होता ।
रामनवमी के दिन नाचने, गाने, जागरण करने, भक्तिपूर्वक पुस्तक-पाठ करने और रामभक्तों के पूजन करने से राम के लोक की प्राप्ति होती है। जैसे किसान लोग साखों (फसलों) की वृद्धि के लिए वृष्टि चाहते हैं, वैसे पितर लोग श्रीरामनवमी का व्रत चाहते हैं। श्रीरामनवमी का उपवास करने से सैकड़ों, हजारों और करोड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं। जो रामनवमी की कथा का श्रवण, कथन और संस्मरण करता है, वह ऋद्धिमान्, वृद्धिमान्, धर्मवान्, कीर्तिमान् और सुखी होता है।
अभ्यास
(१) रामनवमी कब होती है ?
(२) रामनवमी का निर्णय किस प्रकार करेंगे ?
(३) ईश्वर क्या है और अवतार शब्द का यहाँ क्या अभिप्राय है?
(४) अवतार क्यों होता है और अवतार कितने प्रकार के होते हैं?
(५) रामनवमी का काल-विज्ञान समझाइए ।
(६) भगवान् के जन्मदिवस पर मालटाल न उड़ाकर उपवास क्यों करना चाहिए ?
(७) पश्चामृत में कौन-कौन वस्तुएँ होती हैं? उनके गुण बताइए।
(८) प्रतिमार्चन और हवन का महत्त्व समझाइए ।
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