भारतीय व्रत उत्सव | 23 | A | अवतार विज्ञान
भारतीय व्रत उत्सव | 23 | अवतार-विज्ञान
अवतार-विज्ञान
रामनवमी भगवान् राम के जन्मदिवस का उत्सव है। भगवान् राम परब्रह्म के अवतार माने जाते हैं। इसलिए जब तक अवतार-विज्ञान समझ में न आवे तब तक इस उत्सव का महत्त्व नहीं समझा जा सकता ।
अवतार शब्द का अर्थ- संस्कृत में ऊपर से नीचे उतरने को अवतार कहते हैं। किन्तु यहाँ अवतार का अर्थ ईश्वर का उतरना है-जिसका अभिप्राय यह है कि व्यापकरूप में विद्यमान परमेश्वर जब प्रकट रूप में हमारी आँखों के सामने उतर आता है तो उसे हम ईश्वर का अवतार कहते हैं।
इस बात को समझने के लिए प्रथम तीन बातों के समझने की आवश्यकता है (१) ईश्वर क्या है, (२) उसका उतरना अथवा प्रकट होना क्या है और (३) उसके प्रकट होने का प्रयोजन क्या है।
ईश्वर क्या है
इस परिदृश्यमान जगत् के मूलतत्त्व के विषय में अनेक मत हैं। उन सब का विवरण न तो यहाँ सम्भव है और न इस लघुग्रन्थ के लिए उपयुक्त ही है, किन्तु वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता और वेदान्तदर्शन के ऊपर भिन्न-भिन्न आचार्यों के विचार-विमर्शों से यह बात पूर्णतया सिद्ध है कि इस जगत् का मूलतत्त्व सर्वशक्तिसम्पन्न ' अनादि अनन्त सत्य ज्ञान और आनन्दस्वरूप" अथवा सच्चिदानन्द-स्वरूप है। अतएव वह चेतन' है, जड़ नहीं। उसी का अंश जीव है।
१. 'परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च' । श्वेताश्वतर (६।८)
२. 'स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ।' श्वेताश्वतर (६।९) 'अनादि मत्परं ब्रह्म।' गी० (१३।१२)
३. 'नित्यो नित्यानाम् ।' श्वेताश्वतर (६।१३)
४. 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।' तैत्तिरीयोपनिषद् (ब्रह्मानन्दवल्ली १)
५. 'एतमानन्दमय मान्मानमुपसंक्रामति।' (तै० उ० ब्र० ब० ८)
जीव का और उस मूलतत्त्व का वही सम्बन्ध है जो दीपक आदि में विद्यमान प्रकट अग्नि का और पृथ्वी, काष्ठ, पाषाणादि में व्याप्त अप्रकंट अग्नि का अथवा बल्ब में विद्यमान बिजली का और सब संसार में व्याप्त बिजली का, यद्वा एक लोटे में भरे पानी का और. आकाश में अप्रकटरूप से विद्यमान बाष्परूप जल का ।
सारांश यह है कि जीवात्मा में जो कुछ थोड़ी-बहुत शक्ति दिखाई देती है वह सब उसी अनन्तशक्तिसम्पन्न परमात्मा का अंश होने के कारण है और जो इस शक्ति का मूलस्रोत है, सब प्राणी जिससे पैदा होते हैं, जिससे जीते हैं और जिसमें अन्त में फिर मिल जाते हैं वही परमात्मा या ईश्वर है।
अवतार क्या है ?
ऊपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि जीव में परिमित शक्ति है और परमात्मा में अपरिमित । इसलिए जीव के समस्त कार्य अपनी शक्ति के अनुसार कभी सफल और कभी असफल देखे जाते हैं और सफल होते भी हैं किसी हद तक परिमितरूप में ही, किन्तु परमात्मा के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि जिसकी शक्ति अनन्त है उसके लिए असफलता का प्रश्न ही. क्या ? असफलता तो इसीलिए होती है कि हमारा ज्ञान अथवा क्रिया सीमित होने से हम या तो भूल कर बैठते हैं अथवा अल्पशक्ति होने के कारण थक जाते हैं। अतएव जीव के द्वारा सफलतापूर्वक किये जाने-वाले कार्यों को संसार में संभव कहा जाता है और जिनको जीव या तो नहीं कर सकता या जिनमें सफलता प्राप्त नहीं कर सकता उनको असंभव कहा जाता है।
. १. 'चेतनश्वेतनानाम्' (श्वे० ६।१३)
'ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यम्' (गी० १३।१७)
२. 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' (गीता १५।७)
'अंशी नानाव्यपदेशात्' (ब्रह्मसूत्र )
'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' (गो० तुलसीदास) इत्यादि
३. यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।"
(तैत्तिरीय उपनिषत्)
इस सिद्धान्त के अनुसार जहाँ तक जीव की शक्ति से काम हो सकता है अथवा यों कहिए कि जहाँ तक संभव कार्यों का सम्बन्ध है तहाँ तक महान् से महान् पुरुष को भी पुरुष ही माना जाता है, अवतार नहीं। किन्तु जो काम पुरुष की शक्ति से बाहर हैं, जिनको पुरुष असंभव मानता है, उन कामों को भी मानव-इतिहास ने कभी-कभी संभव होते हुए देखा है। जब कभी किसी के ऐसे असंभव काम दृष्टिगोचर होते हैं तो उन कामों के कर्त्ता को अवतार कहा जाता है, क्योंकि उसके वे कार्य ऐसे होते हैं जिनकी किसी पुरुष के कार्यों से तुलना नहीं हो सकती और उससे उत्कृष्ट कार्य करने की तो बात ही उठाना व्यर्थ है। अतएव श्रीमद्भागवत में लिखा है कि-
यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः ।
तैस्तैरतुल्यातिशयैवीर्येदें हिष्वसंगतैः ॥
( श्रीमद्भागवत स्कन्ध १० अ० १० श्लो० ३४)
अर्थात् शरीररहित परमात्मा के शरीरधारियों में अवतार उन-उन पराक्रमों से जाने जाते हैं, जिनसे किसी दूसरे के कार्य की तुलना अथवा अधिकता नहीं हो सकती और अतएव जो पराक्रम देहधारियों में संगत नहीं होते । सारांश यह है कि जिन कार्यों को कोई भी देहधारी किसी भी प्रकार करने में असमर्थ है, उनके कर्त्ता को अवतार कहा जाता है।
अतएव हमारे यहाँ बड़े-बड़े आचार्यों, बड़े-बड़े विद्वानों चक्रवर्ती राजाओं तथा अन्य महापुरुषों को भी कभी अवतार नहीं माना गया ।
अवतार केवल उन्हीं को माना जाता है जो मानव की शक्ति से सर्वथा परे के कार्य करते हैं। जैसे भगवान् राम के अवतार में अहल्या का उद्धार, समुद्र पर सेतुबन्धन आदि और भगवान् कृष्ण के अवतार में गोर्धनो-द्वारण, मृत गुरुपुत्र का आनयन आदि। इसी मानव-शक्ति को अतिक्रान्त करने वाली शक्ति के कारण हम उन अवतारों की आराधना, उपासनाः आदि करते हैं, न कि महापुरुषों की, क्योंकि जो मानवोचित परिमित शक्ति रखते हैं वे पुरुष हमें शक्ति प्रदान कर सकें यह तो संभव है नहीं, फिर उनकी आराधना या उपसना करके हम क्या लाभ उठा सकते हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि मानवरूप में प्रतीत होने पर भी जिनमें उस अनन्तशक्तिमान् परब्रह्म की अलौकिक, अतएव मानवदृष्टि में असम्भव कार्य करनेवाली शक्तियाँ प्रकट होती हैं, वे ही अवतार कहलाते हैं।
अवतारों के मेद
ये अवतार पूर्ण, अंश, कला, आवेश और अधिकारी इस तरह पाँच प्रकार के होते हैं।
१. पूर्णावतार
उसे कहते हैं, जिसकी शक्ति की परमात्मा के ही समान कोई मर्यादा अथवा सीमा न हो। ऐसे अवतार के चारित्रों में समय-समय पर असंभव और साधारण मानव के लिए अनुचित-सी प्रतीत होनेवाली लीलाओं का भी अपरिमित रूप में समावेश रहता है, जैसे कि कृष्णलीलाओं में ।
राम भी पूर्णावतार हैं, परन्तु वे मर्यादास्थापनार्थ अवतीर्ण हुए हैं, उन्हें मानव-जीवन का आदर्श स्थापित करना है, अतः उनमें असंभव और अनुचित-सी प्रतीत होनेवाली घटनाएँ बहुत कम हैं, किन्तु हैं अवश्य; जैसे- समुद्र बन्धन, ताडका वध, बालि-वध आदि ।
२. अंशावतार
उसे कहते हैं जिसमें किसी विशेष कार्य मात्र के लिए विशेष प्रकार की शक्ति का उद्भव होता है; जैसे नृसिंह, वामन आदि ।
३. कलावतार
उसे कहते हैं, जिसमें अंशावतारों से भी कम शक्ति का आविर्भाव होता है- जैसे सनकादि, मनु, कश्यप आदि ।
४. आवेशावतार
उसे कहते हैं जिसमें रहता तो मानवत्व ही है, किन्तु कभी-कभी ईश्वरावेश के कारण उनके द्वारा अद्भुत काम मी किये जाते हैं- जैसे नारद, पृथु आदि ।
५. अधिकारी अवतार
उन्हें कहते हैं जो अपने नियत कार्य के लिए ही ईश्वरत्व का प्रयोग करते हैं, उसके अतिरिक्त नहीं। जैसे वेदव्यास का पुराणादिनिरूपण में ही ईश्वरत्व का अधिकार है, अन्यत्र वे महापुरुष रूप में ही दिखाई देते हैं।
६. कहीं-कहीं इन भेदों का मिश्रण भी रहता है।
अवतार क्यों होते हैं ?
अवतार प्रकट होने का सर्वप्रसिद्ध प्रयोजन तो वही है जो भगवद्गीता में बताया गया है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
तात्पर्य यह है कि जब धर्मग्लानि होती है और अधर्म उठ खड़ा होता है तब सत्पुरुषों की रक्षा और दुष्कर्मकर्त्ताओं के विनाश के लिए भगवान् का अवतार होता है। परन्तु श्रीमद्भागवत में इस बात को अधिक स्पष्ट रूप में निरूपण किया गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार अवतार के मुख्य चार प्रयोजन हैं- प्रथम भक्तयशःस्थापन, दूसरा भक्त-प्रार्थना से जगत् का कल्याण और असुरों का वध, तीसरा पृथ्वी का भार उतारना और चौथो इस जगत् में अविद्या, काम और कर्मों के द्वारा क्लेश पानेवाले लोगों के लिए श्रवण और स्मरण के योग्य लीलाएँ कर जाना-जिनके श्रवण स्मरण से जीवों के उक्त क्लेश निवृत्त हों।
१. 'केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये । यदोः प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥
२. अपरे वासुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात् । अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥
इनमें से भी भक्तलोग तो अवतार का प्रयोजन चतुर्थ ही मानते हैं; क्योंकि भगवान् के लिए भूभार-हरण, दुष्ट-वध आदि कोई ऐसे कार्य नहीं हैं; जिन्हें वे प्रकट हुए विना न कर सकें। भगवान् की काल-शक्ति इतनी प्रबल है कि सर्वदा अपना कार्य करती रहती है। उसके सामने कोई टिक नहीं पाता, अतः मुख्य प्रयोजन भगवान् के अवतार का यही है कि यदि वे प्रकट न होते तो भक्तजन न उनके चरितों को सुन पाते और न स्मरण ही कर पाते, क्योंकि मूलरूप में तो भगवान् का वर्णन वाणी और मन की शक्ति से परे है, फिर उनका श्रवण और किसी प्रकार भी होना सम्भव नहीं है। यही बात भगवद्गीता के 'परित्राणाय साधूनाम्' इस पद से सूचित होती है, अन्यथा साधुओं का शारीरिक परित्राण तो भगवान् अपनी अनन्त-शक्ति से भी कर सकते हैं, परन्तु वास्तव में साधुओं के साधुत्व की रक्षा विना भगवान् के प्रकट हुए नहीं हो सकती। कारण, जब भगवान् प्रकट न हों तो साधु किनका ध्यान करें, किनका पूजन करें और किनका गुणगान करें।
१. भारावतारणायान्ये भुवो नाम इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवाऽर्थितः ॥
२. भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः ।
श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन ॥'
(श्रीमद्भागवत स्कं० १ अ० ८ श्लो० ३२ से ३५)
३. 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ॥' (तैत्तिरीयोपनिषद् ४११)
अतः यह सिद्ध है कि वे अपने भक्तों के आराधन, पूजन और गुण-गान आदि के विषय बन सकें, जिससे साधु सचमुच साधुजन हो सकें इसी के लिए भगवान् के अवतार हुआ करते हैं।
Comments
Post a Comment