भारतीय व्रत उत्सव | 4 | काल-विज्ञान

भारतीय व्रत उत्सव | 4 | काल-विज्ञान

काल विज्ञान 

उपक्रम

सारे संसार के व्रत, उत्सव, पर्व अथवा त्यौहार किसी नियत समय पर किये जाते हैं, अतः तत्तद्देशीय व्रतोत्सवादि के समझने के • लिये उन-उन देशों में प्रचलित काल-विभाग का समझना आवश्यक है। इस नियम के अनुसार जब तक भारतीय काल-विज्ञान यथार्थ रूप से न समझ लिया जावे तब तक भारतीय व्रतोत्सवादिक की वैज्ञानिकता को समझना सम्भव नहीं है, इस कारण सबसे पहिले यहाँ भारतीय काल-विज्ञान पर विचार किया जाता है।

काल के भेद

भारतीय उत्सवादि में ८ प्रकार का काल, काम में आता है-१. संवत्सर, २. अयन, ३. ऋतु, ४. मास, ५. पक्ष, ६. तिथि, ७. वार और ८. नक्षत्र । आगे इनका क्रमशः यथाविधि विवरण दिया जा रहा है।

1-संवत्सर

संब¹ ऋतुओं के पूरे एक चक्र को संवत्सर कहते हैं। अर्थात् किसी ऋतु से आरम्भ करके ठीक उसी ऋतु के पुनः आने तक जितना समय लगता है उसका नाम एक संवत्सर है ।
(¹ सर्वर्तुपरिवर्त्तस्तु स्मृतः संवत्सरो बुधैः । (क्षीरस्वामिकृतायाममरकोशव्यां-ख्यायां भागुरिवचनम्; कालवर्गः श्लो० 20)

संवत्सर के मेद

भारतीय संवत्सर यद्यपि पाँच प्रकार के हैं- सावन, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और बार्हस्पत्य । तथापि इनमें से नाक्षत्र और बार्हस्पत्य संवत्सर केवल ज्यौतिष में ही काम आते हैं, इसलिये उनका विवरण यहाँ नहीं दिया जायगा। शेष तीन संवत्सरों का विवरण निम्नलिखित हैः-

सावन-३६० दिन का। संवत्सर की स्थूल गणना इसी के अनुसार होती है। इसमें एक महीना पूरे तीस दिन का होता है।

चान्द्र- प्रायः ३५४ दिन का। अधिक मास इसी संवत्सर के अनुसार माना जाता है। अधिक मास होने पर इसमें १३ मास, अन्यथा १२ मास होते हैं। इसमें एक मास शुक्ल प्रतिप्रदा से अमावस्या तक अथवा कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक माना जाता है। पहले मास को अमान्त मास और दूसरे को पूर्णिमान्त मास कहते हैं। दक्षिण भारत में अमान्त मास प्रचलित है। उत्तर भारत में पूर्णिमान्त ।

सौर-३६५ दिन का। यह सूर्य की मेषसंक्रान्ति के आरम्भ से प्रारम्भ होता है और पुनः मेषसंक्रान्ति आने तक चलता है।

भारत के व्रत-उत्सवादि में प्रायः चान्द्र संवत्सर ही काम में आता है। किन्तु कई प्रान्तों में (जैसे बंगाल, पंजाब, नेपाल आदि में और कहीं-कहीं अन्यत्र भी) सौर वर्ष भी व्यवहार में आता है।

भारतवर्ष में प्रायः चान्द्र और सौर यही दो संवत्सर उपयोग में आते हैं, तथापि मोटे तौर पर जो ३६० दिन के संवत्सर की बात की जाती है वह सावन वर्ष के हिसाब से है, परन्तु व्यवहार में यह लगभग नहीं आता ।

संवत्सर-विज्ञान

ऊपर बताया जा चुका है कि ऋतुओं के परिवर्त्त (चक्कर) को संवत्सर या वत्सर कहते हैं। अर्थात् सारी ऋतुएं जब एक बार समाप्त हो लेती हैं और उनका जब दुबारा चक्कर आरम्भ होता है तब एक संवत्सर पूरा होकर दूसरा संवत्सर आरम्भ होता है। अतएव यह कहा जाता है कि संवत्सर के अन्दर सब ऋतुएं रहती हैं। इसी प्रकार सब प्राणियों की आयु की गणना भी इन्हीं संवत्सरों के द्वारा होती है, अतः यह भी कहा जाता है कि जिसमें सेब प्राणी रहते हैं उस समय-विभाग का नाम संवत्सर है ।

उपर्युक्त दोनों व्युत्पत्तियों का सम्मिलित सारांश यह हुआ कि जो काल-विभाग सब ऋतुओं का और सब प्राणियों का आधार है उसका नाम संवत्सर है। तात्पर्य यह है कि यदि मानव को संवत्सर का ज्ञान न होता तो वह न ऋतु-विभाग को समझता और न प्राणियों की आयु की गणना ही हो सकती। लोगों को पता ही नहीं लगता कि कब शीत • आरम्भ होगा, कब गरमी और कब वर्षा; और न यही पता लगता कि कोई प्राणी कब तक बालक रहेगा, कब युवा होगा और कब वृद्ध हो है और दक्षिणायन में रात्रि बड़ी होने के कारण अन्धकार की अधिकता रहती है। शास्त्रों में प्रकाश को देवतत्त्व और अन्धकार को असुरतत्त्व माना गया है, अतः उत्तरायण को देवताओं का दिन' और दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि मानते हैं। इस कारण देवता, बाग-बगीचा, कुएँ आदि की प्रतिष्ठा उत्तरायण में ही की जाती है, क्योंकि उत्तरायण दक्षिणायन की अपेक्षा प्रकाश-प्रधान होने से शुभ कार्यों के लिये प्रशस्ततर है।

[१. संवसन्ति ऋतवोऽस्मिन् संवत्सरः (क्षीरस्वामी, अमरकोश, कालवर्ग २०)
२. संवत्सरः संवसन्तेऽस्मिन् भूतानि (निरुक्त अ० ४ पा० ४ खं० २७)]

३-ऋतु

ऊपर लिखा जा चुका है कि ऋतुओं के परिवर्त्त का नाम ही संवत्सर है। इसका अर्थ यह हुआ कि ऋतुएँ ही संवत्सर या काल की पहिचान हैं। यदि हमें ऋतुओं का ज्ञान न होता तो समय या काल को पहिचानना सर्वथा असम्भव हो जाता। इसलिये यदि यह कहा जाय कि ऋतुएँ ही समय का स्वरूप अथवा लक्षण हैं तो कोई अत्युक्ति न होगी।

ऋतु-भेद

ऋतुएँ वास्तव में तीन हैं। ग्रीष्म (गर्मी), वर्षा (बरसात) और हेमन्त (जाड़ा)। बाद में इन तीनों के दो-दो विभाग होकर ६ ऋतुएँ मानी जाने लगीं। आजकल यही ६ ऋतुएँ शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं। उनके नाम हैं- वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरदू, हेमन्त और शिशिर । चैत्र-वैशाख इन दो महीनों को वसन्त, ज्येष्ठ-आषाढ़ को ग्रीष्म, श्रवण-

[१. 'अहस्तत्रोदगयनम्' (मनु० ११६६)
२. 'रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम् ।' (मनु० १।६७)
३. 'देवतारामवाप्यादिप्रतिष्ठोदच्मुखे रवौ ।' मदनरत्ने सत्यव्रतः (निर्णयसिन्धु)
४. ऋग्वेद के (२-३-१४) 'त्रिनाभिचक्रम्' पद की व्याख्या करते हुए निरुक्त ने लिखा है कि 'व्यूतुः संवत्सरो ग्रीष्मो वर्षा हेमन्त इति' (४।४।२७)]

भाद्रपदं को वर्षा, आश्विन-कार्तिक को शरदू, मार्गशीर्ष पौष को हेमन्त और माघ-फाल्गुन को शिशिर कहते हैं।

वेदों में कहीं कहीं हेमन्त और शिशिर को एक ऋतु मान कर पाँच' ऋतुएँ भी मानी गई हैं।

ऋतु-विज्ञान

ऋतु शब्द 'ऋ गतौ' धातु से बना है। इसकी व्युत्पत्ति है 'इयर्तीति ऋतुः' अर्थात् जो सर्वदा चलती रहे उसे ऋतु कहते हैं। ऋतु ही काल की गति (चाल) है अतएव शास्त्रों में ऋतु के अनुसार ही वस्तुओं का परिणाम बताया गया है। प्रत्येक प्राणी, वृक्ष, लता इत्यादि का विकास ऋतु के अनुसार ही होता है। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो ऋतुएँ ही काल हैं। वेदों में चन्द्रमा को ऋतुओं का विधाता (निर्माण-कर्त्ता) बताया गया है। जैसा कि निन्नलिखित ऋचा में लिखा है-

पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परियातो अध्वरम् । विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्टे ऋचूँरन्यो विदधजायते पुनः ॥ (ऋग्वेद १०-८५-१०)

कश्चित्पूर्वं गच्छति सूर्यः । अन्यस्तमनुचरति चन्द्रमाः। एवं पूर्वापरं पौर्वापर्येण मायया स्वप्रज्ञानेन एतो आदित्यचन्द्रौ चरतः गच्छतो दिवि । तौ शिशु । शिशुवद्भ्र-मणाब्जायमानत्वाद्वा शिशू इत्युच्येते । शिशू सन्तौ क्रीडन्तौ अन्तरिक्षे विहरन्तौ अध्वरं परियातः यज्ञं प्रति गच्छतः । तयोः अन्यः आदित्यः विश्वाचि भुवना भुवनावि अभिचष्टे अभिपश्यति । ऋतून् वसन्तादीन्, अन्यः चन्द्रमाः, विदधत् कुर्वन् मासावर्ध- मासांश्च कुर्वन् पुनः जायते । यद्यप्युभयोरपि पुनर्जनिरस्ति तथापि सूर्यस्थ सर्वदा प्रवृद्धेरुदयो नाभिप्रेतः । चन्द्रस्य तु हासवृद्धि-सद्भावात्पुनः पुनर्जायत इत्युक्तियुक्ता । 'चन्द्रमा वै जायते पुनः' इत्यादिश्रुतेः । 
(सायणभाष्य )

[१. 'पञ्च्चारे चक्रे परिवर्त्तमान इति' (ऋ० सं० २-३-१६-३) इति पश्वर्तु तया । 'पञ्चर्तवः संवत्सरस्ये'ति च ब्राह्मणम् । हेमन्त शिशिरयोः समासेन । (नि. ४।४।२७७)
२. 'इयर्ति ऋतुः' (अमरकोश की टीका में क्षीरस्वामी) 'अर्तेश्व तुः' (उणादि १-७१)]

भाष्यानुसार इस मन्त्र का अर्थ यह है कि ये दोनों बालक अर्थात् सूर्य और चन्द्रमा अपने प्रज्ञान के द्वारा आकाश में पूर्व से पश्चिम अथवा आगे-पीछे चलते हैं। बालक इनको इसलिए कहा गया है कि ये दोनों ही बालक की तरह (खेलते हुए) भ्रमण करते हैं अथवा उदय होते ही घूमने लगते हैं। ये दोनों बालक बनकर खेलते हुए यज्ञ में जाते हैं। इन दोनों में से एक अर्थात् सूर्य सब लोकों को देखता है और दूसरा अर्थात् चन्द्रमा वसन्तादि ऋतुओं को बनाता हुआ बार-बार उत्पन्न होता रहता है। यद्यपि सूर्य-चन्द्रमा दोनों बार-बार उत्पन्न होते हैं तथापि सूर्य सदा एकरूप रहता है और चन्द्रमा बढ़ता-घटता रहता है, अतः उसकी बार-बार उत्पत्ति कही गई है।

परन्तु इस ऋचा का वास्तविक तात्पर्य समझने से सूर्य और चन्द्रमा दोनों ऋतुओं के विधाता हैं; क्योंकि सूर्य की ऋताग्नि में चन्द्र के सोमरस का मिश्रण होने से ही ऋतुएं बनती हैं। बात यह है कि चन्द्रमा पृथिवी का उपग्रह है, अतः सोमरस तो चन्द्रमा की गति के अनुसार पृथिवी को प्रतिदिन समान रूप में प्राप्त होता रहता है, पर सूर्य का प्रभाव पृथिवी पर सदा एक-सा नहीं पड़ता। उत्तरायण में सीधी पड़ने के कारण सूर्य की तीव्र किरणें सोम के प्रभाव को क्रमशः कम करती चली जाती हैं, अतः क्रमशः उष्णता बढ़ती जाती है; और दक्षिणायन में क्रमशः सूर्य के दूर होते जाने के कारण सोम का प्रभाव अधिक होता जाता है, अतः उष्णता क्रमशः कम होती जाती है। इस उष्णता तथा शीत की घटा-बढ़ी के 'कारण ही ऋतुएँ बनती हैं। यह है ऋतुओं का सामान्य विज्ञान । अब आगे ऋतुओं के विशेष विज्ञान पर विचार किया जायगा ।

तीन ऋतुओं का पक्ष

तीन ऋतुओं के पक्ष में तो एक-एक ऋतु का एक-एक चातुर्मास्य होता है। फाल्गुन से लेकर ज्येष्ठ तक चार महीनों की ग्रीष्म ऋतु, आषाढ़ से लेकर आश्विन तक वर्षा ऋतु और कार्तिक से लेकर माघ तक हेमन्त ऋतु होती है। इनमें से प्रत्येक का विज्ञान इस प्रकार है।

ग्रीष्म -जिस ऋतु में रस (जल) सूखता है उस ऋतु को ग्रीष्म कहते हैं।

वर्षा- जिसमें पर्जन्य अर्थात् गरजता बादल अथवा इन्द्र जल सींचता है, उसे वर्षा कहते हैं।

'हेमन्त - जिस ऋतु में हिम (शीत अथवा बर्फ) रहता है उसे हेमन्त कहते हैं। हिम शब्द हिंसार्थक 'हन्" धातु से अथवा वृद्धचर्थक 'हि' धातु से बनता है। पहली व्युत्पत्ति के अनुसार कमल आदि कई लताओं के विनाशक होने से और दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार जौ, गेहूँ आदि का पोषक होने से ठण्ड या ओस हिम कहा जाता है और वह जिसमें हो उस ऋतु को हेमन्त कहते हैं।

इस तरह यह सिद्ध हुआ कि एक संवत्सर में चार-चार महीने के तीन समय ऐसे आते हैं जिनमें क्रमशः जल सूखता है, जल बरसता है और धान्य तथा प्राणी आदि सभी पुष्टि प्राप्त करते हैं, वेही तीनों समय क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा और हेमन्त नामक तीन ऋतुएँ कहलाती हैं।

१. ग्रीष्मो ग्रस्यन्तेऽस्मिन् रसाः (निरुक्त ४।४।२७७)
२. 'वर्षा वर्षत्यासु पर्जन्यः' (निरुक्त ४।४।२७७)
३. 'पर्जन्यौ रसदब्देन्द्रौ' (अमर० नानार्थवर्ग १४६ )
४. 'हेमन्तो हिमवान्' (निरुक्त ४।४।२७।)
५. 'हन्तेर्हि च' (उणादि १-१-४७) इति मक् ।
६. 'हिमं पुनर्हन्तेर्वा हिनोतेर्वा ।' (निरुक्त ४।४।२७७)

छः ऋतुओं का पक्ष

छः ऋतुओं के पक्ष में एक-एक ऋतु दो-दो मासों की होती है। ऊपर उन मासों के प्रचलित नाम लिखे जा चुके हैं। इन्न प्रचलित नामों का विज्ञान मास-प्रकरण में बतलाया जायगा। यहाँ केवल मासों के उन वैदिक नामों पर विचार किया जाता है जो ऋतुओं से सम्बन्ध रखते हैं।

वसन्त में मधु (चैत्र) और माधव (वैशाख) मास, ग्रीष्म में शुक्र (ज्येष्ठ) और शुचि (आषाढ़) मास, वर्षा में नभस् (श्रावण) और नभस्य (भाद्रपद) मास, शरत्” में इष१२ (आश्विन) और ऊर्ज' (कार्तिक) मास, हेमन्त में सहस् (मार्गशीर्ष) और सहस्य (पौष) मास और शिशिर में तपस् (माघ) और तपस्य (फाल्गुन) मास होते हैं।

पाठक, देखेंगे कि उपर्युक्त महीनों के नामों में मधु-माधव, शुक्र-शुचि, नभस्-नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस्-सहस्य और तपस्तपस्य इन नामों में इष और ऊर्ज, के अतिरिक्त (जिनमें केवल अर्थ-साम्य है) और सर्वत्र एक-एक ऋतु के दो-दो मासों में शब्द और अर्थ दोनों की समानता है। इस पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने से यह बात सिद्ध होती है कि वसन्त का मधु से, ग्रीष्म का शुक्र से, वर्षा का नभस् से, शरद् का इष् और ऊर्जा से, हेमन्त का सहस् से और। शशिर का तपस् से अवश्यमेव कोई सम्बन्ध है। आगे वैज्ञानिक सरणि से इन्हीं तत्त्वों के अनुसार प्रत्येक ऋतु का विचार किया जाता है।

१. 'द्वौ द्वौ मार्गादिमासौ स्यादृतुः' (अमर० काल वर्ग १३)
२. 'मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू' (यजुःसंहिता १३।२५।)
३. 'स्याच्चैत्रे चैत्रिको मधुः ।' (अमरकोश, कालवर्ग १५)
४. 'वैशाखे माधवो राधः ।' (अमरकोश, कालवर्ग १६)
५. 'शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू ।' (यजुः संहिता १४।६ )
६. 'ज्येष्ठे शुक्रः' (अमरकोश, कालवर्ग, १६ )
७. 'शुचिस्त्वयमाषादै'।' (अमरकोश, कालवर्ग, १६)
८. 'नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृत्' (यजुः संहिता १४।१५)
९. 'श्रावणे तु स्यात् नभाः' (अमरकोश, कालवर्ग, १६)
१०. 'स्युर्नभस्यप्रौष्ठपदभाद्रभाद्रपदाः समाः' (अमरकोश, कालवर्ग, १७०)
११. 'इषश्वोर्जश्च शारदावृतू' (यजुः संहिता १४।१६)
१२. 'स्यादाश्विन इषोऽप्याश्वयुजोऽपि' (अमरकोश, कालवर्ग १७)
१२. 'कातिके बाहुलोजौँ' (अमरकोश, कालवर्ग, १७)
१४. 'सहश्व सहस्यश्व हैमन्तिकान्वृतू' (यजुः संहिता १०।२७)
१५. 'मार्गशीर्षः सहाः' (अमरकोश, कालवर्ग, १४)

वसन्त

मधु और माधव दोनों शब्द मधु से बने हैं। मधु" का अर्थ एक प्रकार का. रस है जो वृक्ष, लता तथा प्राणियों को मत्त करता है। उस रस की जिस ऋतु में प्राप्ति होती है, उस ऋतु को वसन्त ऋतु कहते हैं। अतः हम यह देखते हैं कि इस ऋतु में विना ही वृष्टि के वृक्ष, लता आदि पुष्पित होते हैं और प्राणियों में भी मदन-विकार का प्रादुर्भाव देखा जाता है। इसी कारण क्षीरस्वामी ने वसन्त शब्द की 'वसन्त्यस्मिन् सुखम् अर्थात् जिसमें प्राणी सुख से रहते हैं' ऐसी व्युत्पत्ति की है। तात्पर्य यह है कि जिस ऋतु में प्राणियों को ही नहीं, किन्तु वृक्ष, लता आदि को भी आह्लादित करने वाला मधुरस प्रकृति द्वारा प्राप्त होता है उस ऋतुको वसन्त कहते हैं।

१. 'पौषे तैषसहस्यौ द्वौ' (अमरकोश, कालवर्ग, १५)
२. 'तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू' (यजुः संहिता १५।५७)
३. 'तपा माधे' (अमरकोश, कालवर्ग, १५)
४. 'स्यात् तपस्यः फाल्गुनिकः' (अमरकोश, कालवर्ग, १५)
५. 'मधु सोममित्यौपमिकम् । माव्यतेरिदमपीतरन्मध्वेतस्मादेव' (निरुक्त ४।१।८)

ग्रीष्म

इसी प्रकार शुक्र और शुचि शब्द 'शुच्' शब्द से बने हैं। 'शुच्' का अर्थ है जलना या सूखना। जिस ऋतु में पृथ्वी का रस (जल) सूखता या जलता है, उस ऋतु का नाम ग्रीष्म है। अतएव हम देखते हैं कि ग्रीष्म ऋतु में वसन्त के उत्पन्न फल, पुष्प आदि में जल की अधिकता से जो कोमलता होती है उसे छोड़कर वे परिपक्क हो जाते हैं और पृथ्वी भी शुष्क हो जाती है। सारांश यह है कि वसन्त में वृक्ष, लतादि को जो मधुरस अथवा सोमरस मिलता है वह ग्रीष्म में अग्नितत्त्व की उग्रता से परिपक्क अथवा शुष्क हो जाता है। अतः ग्रीष्म उस ऋतु का नाम है जो पदार्थों को सुखाती अथवा परिपक्क करती है।

वर्षा

इसी प्रकार नभा और नभस्य शब्द 'नभस्' से बने हैं। 'नर्भस्' शब्द के यद्यपि यास्क ने अनेक विग्रह किये हैं, तथापि उन सबका तात्पर्य यही होता है कि रसों के अथवा प्रकाश के पहुँचानेवाले आदित्य को किंवा जिस के कारण प्रकाश का प्रतिबन्ध होता है उस तत्त्व (तम) को नभस् कहते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जिस पदार्थ के द्वारा रस अर्थात् जल पहुँचाया जाता है अथवा जो प्रकाश को

१. 'शुक् शोचतैः । शुचिः शोचतेर्ध्वलतिकर्मणः' (निरुक्त २।५।१४)
२. 'नभ आदित्यो भवति । नेता रसानाम् । नेता भासाम् । ज्योतिषां प्रणयः ।
अमिः वा भन एवं स्याद्विपरीतः । न न भातीति वा ।' (निरुक्त २।४।१४)

आच्छादित करता है उस तत्त्व का नाम नभस् है। वह तत्त्व जिस ऋतु में प्रधान रहता है उस ऋतु को वर्षा ऋतु कहते हैं। सारांश यह है कि आठ महीने तक जो जल सूर्य की किरणों से भाप बनकर आकाश में अव्यक्तरूप से स्थित था उस को व्यक्तरूप में लाकर जल का स्वरूप देने वाले तत्त्व को अथवा सूर्य को आच्छादित करने वाले तत्त्व को 'नभस्' कहते हैं। यह तत्त्व जिस ऋतु में काम करता है उस ऋतु का नाम वर्षा है।

शरद्

इष् और ऊर्जा इन दोनों शब्दों का यद्यपि निघण्टु, (२।७।१४) में अन्न ही अर्थ किया है तथापि व्याख्याकारों ने 'इष्' का अर्थ अन्न और 'ऊर्जा' का अर्थ दुग्ध, घृत आदि रस माना है। इन्हीं 'इष्' और 'ऊर्जा' शब्दों से इष और ऊर्ज बने हैं। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जिस ऋतु में अन्न और घृत-दुग्धादि का परिपाक और प्राप्ति होती है उस ऋतु को शरद् कहते हैं। शरद् शब्द की निरुक्त में जो व्युत्पत्ति की गई है, उससे उपर्युक्त वस्तु के अतिरिक्त यह भी सिद्ध होता है कि जिस ऋतु में ओषधियाँ (फसलें) पक जाती हैं अथवा जल (मैल को छोड़कर) शीर्ण हो जाता है अर्थात् स्वच्छ हो जाता है उसे शरद् ऋतु कहते हैं ।

१. अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याचोदमयं वसु ।
स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते । (श्रीमद्भागवत १००२००५)
२. 'सा नो मन्द्रेषमूर्ज दधाना' (ऋ० ६१७७५) की व्याख्या' इषम् अन्नम्, ऊर्जम् पयोधृतादिरूपं रसं च' (निरुक्तविवृति पृ० ४८२, मुकुन्दझाबख्शीकृत, निर्णयसागरसंस्करण )।
३. शरच्छ्रता अस्यामोषधयो भवन्ति, शीर्णा आप इति । (निरुक्त ४।४।२५)

हेमन्त

'सहस् शब्द' का अर्थ निघण्टु (२।६।१७) में बल किया गया है, क्योंकि सहन करना भी एक प्रकार से बल का कार्य है। सहाः और सहस्य शब्द इसी 'सहस्' शब्द से बने हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जिस ऋतु में अन्न-पानादि के उपयोग से बल की वृद्धि होती है उस ऋतु को हेमन्त कहते हैं। हम प्रत्यक्ष ही देखते हैं कि अन्न-पानादि, अन्य ऋतुओं की अपेक्षा, हेमन्त में अधिक बल-प्रद होते हैं और प्राणियों की कार्यक्षमता भी हेमन्त में अधिक हो जाती है।

शिशिर

इसी प्रकार तपाः और तपस्य शब्द 'तपस्' शब्द से बने हैं। 'तपस्' शब्द 'तप सन्तापे' धातु से बना है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस ऋतु में बढ़ी हुई गरमी वृक्षों के पत्रादिक को पकाकर गिराती' है, अथवा शीत को शमन करती है, वह ऋतु शिशिर कहलाती है। अतएव शिशिर की व्युत्पत्ति 'शीर्यन्ते पर्णानि अस्मिन्निति शिशिरः यह भी की जाती है।

सारांश

इस तरह यह सिद्ध हुआ कि काल अथवा समय के द्वारा जो भिन्न-भिन्न परिणाम वर्ष के विभिन्न विभागों में प्रतीत होते हैं वे इन्हीं ऋतु-नामक काल के अवयवों के कारण होते हैं। वे सब परिणाम जब अपना-अपना रूप दिखाकर अपनी पुनरावृत्ति करने लगते हैं तब सब ऋतुएँ समाप्त हो जाती हैं और नवीन संवत्सर का आरम्भ हो जाता है। अतः काल के स्वरूप को यथार्थ रूप में प्रकट करने वाली ऋतुएँ ही हैं। अतएव भारतीय व्रतोत्सवादि में ऋतुओं को प्रधानता दी गई है। कोई व्रतोत्सवं

१. 'शिशिरं ऋणातेः शम्नातेर्वा' (निरुक्त १।३।१०)

ऐसा नहीं होता जो एक वर्ष एक ऋतु में हो और दूसरे वर्ष किसी दूसरी ऋतु में, जैसे कि 'मुहर्रम' आदि मुसलमानी त्योहार कभी किसी ऋतु में होते हैं और कभी किसी में।

४-मास

मास' शब्द का अर्थ होता है चन्द्र-सम्बन्धी। इससे यह भी सिद्ध होता है कि चान्द्रमास ही मुख्य है और चन्द्रमा से ही मास का ज्ञान होता है। अतएव वेद में चन्द्रमा को मास का बनाने वाला बताया गया है। इसी चन्द्रवाचक 'मास्' शब्द का 'स्' को 'ह' होकर फारसी का चन्द्रवाचक 'माह' शब्द बना है।

इसी कारण मासों के चैत्रादि प्रचलित नाम पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर रहता है उसके अनुसार बनाए गये हैं। जैसा कि अमरकोश के निम्न्न श्लोक से स्पष्ट है-

पुष्ययुक्ता पौर्णमासी पौषी मासे तु यत्र सा । 
नान्ना स पौषो माधाद्याश्चैवमेकादशापरे ॥

अर्थात् जिस पूर्णिमा के दिन पुष्य नक्षत्र रहता है उस पूर्णिमा का नाम पौषी है और वह पूर्णिमा जिस मास में हो उस मास को पौष मास कहते हैं। इसी तरह माघादिक अन्य ग्यारह मास भी हैं।

१. 'माश्चन्द्रस्तस्यायं मासः' (क्षीरस्वामी)
२. 'अरुणो मासकृद्धृकः' (ऋक्संहिता १।७।२३) 'वृकश्चन्द्रमा भवति, विवृत-ज्योतिष्को वा, विकृतज्योतिष्को वा, विक्रान्तज्योतिष्को वा' (निरुक्त ५।४।२०)
३. 'सास्मिन् पौर्णमासीति' (पाणिनि सू० ४।२।२१) इत्यनेन पौषीशब्दात् अण्प्रत्यये विहिते पौषशब्दः सिध्यति ।

इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि- 

चैत्र-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर हो ।

वैशाख-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा विशाखा नक्षत्र पर हो।

ज्येष्ठ (जेठ) - उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र पर हो ।

आषाढ-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा उत्तराषाढा नक्षत्र पर हो।

श्रावण-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर हो ।

भाद्रपद उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र पर हो ।

आश्विन उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अश्विनी नक्षत्र पर हो।

कार्तिक उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र पर हो।

मार्गशीर्ष-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा मृगशिरा नक्षत्र पर हो।

पौष-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर हो ।

माघ-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा मधा नक्षत्र पर हो ।

फाल्गुन-उस मास को कहते हैं जिसकी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर हो ।

यह तो है चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार मासों का निरूपण ।

किन्तु ऋतुओं के पूर्वोक्त वैदिक विज्ञान के अनुसार मासों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से होना चाहिये-

चैत्र-इसका नाम मधु है; क्योंकि इस मास में मधुरस उत्पन्न होता है, जिससे वृक्षादि पुष्पित एवं फलित होते हैं।

वैशाख-इसका नाम माधव है; क्योंकि इस मास में चैत्र मास से प्राप्त मधु का परिपाक होता है।

जेठ- इसका नाम शुक्र है; क्योंकि इस मास में सन्ताप (सूर्य की उष्णता) बढ़ता है।

आषाढ़-इसका नाम शुचि है; क्योंकि इस मास में सूर्य के सन्ताप से उत्पन्न परिणाम की प्रतीति होती है अर्थात् आम्रादि फल पक जाते हैं और उष्णता अतिमात्रा में बढ़कर वृष्टि के आरम्भ की सूचना देने लगती है। 7

श्रावण-इसका नाम नभस् है; क्योंकि इस मास में जल के प्रतिबन्धक तत्त्वों का विनाश होता है।

भाद्रपद- इसका नाम नभस्य है; क्योंकि इस मास में जल के प्रतिबन्धक तत्त्वों के विनाश का परिणाम प्रतीत होता है।

आश्विन - इसका नाम इष है; क्योंकि इस मास में नवीन अन्न परिपक्क होता है।

कार्तिक- इस मास का नाम ऊर्ज है; क्योंकि इस मास में परिपक्क • अन्न-तृण आदि की प्राप्ति से गौ-आदि प्राणियों में घृत-दुग्ध आदि रसों का परिपाक होता है।

मार्गशीर्ष- इस मास का नाम सहस् है; क्योंकि इस मास में बल की अभिवृद्धि होती है।

पौष- इस मास का नाम सहस्य है; क्योंकि इस मास में प्राणियों का बल स्थिर होता है।

माघ- इस मास का नाम तपस् है; क्योंकि इस मास में ताप की क्रमशः

वृद्धि होती है जिससे शीत-काल के शस्य (फसल) का परिपाक आरम्भ होता है।

फाल्गुन-इस मास का नाम तपस्य है; क्योंकि इस मास में अन्न-परिपाक का स्पष्ट परिणाम (जौ, गेहूँ, चने आदि का परिपाक) होता है।

५-पक्ष

पक्ष दो हैं-शुक्ल और कृष्ण । शुक्लपक्ष को पूर्वपक्ष और कृष्णपक्ष को अपरपक्ष भी कहते हैं।

पक्ष-विज्ञान

यद्यपि शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों में विचार करने से अँधेरा और उजेला समान ही रहता है; जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-

'सम प्रकाश तम पाख दोउ'

अर्थात् महीने के दोनों पखवाड़ों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, तथापि जिस पक्ष में चन्द्रमा की कलाओं की वृद्धि होने से प्रकाश प्रतिदिन अधिकाधिक होता जाता है उस पक्ष को स्वच्छता की वृद्धि के कारण शुक्लपक्ष कहते हैं और जिस पक्ष में चन्द्रमा की कलाओं के ह्रास के कारण प्रतिदिन अन्धकार की वृद्धि होकर कालिमा अधिकाधिक होती जाती है उस पक्ष को कृष्णपक्ष कहते हैं, इस बात को सभी लोग जानते हैं।

६-तिथि

आरम्भ में लिखा जा चुका है कि भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ काम में आती हैं- सौर तिथि और चान्द्र तिथि ।

सौर तिथि- सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। एक प्रकार यह है कि जिस दिन सूर्य की संक्रान्ति लगती है, उस दिन प्रथम तिथि मानी जाय । दूसरा प्रकार यह है कि संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथम तिथि मानी जाय। ये तिथियाँ बंगाल और पंजाब में विशेषरूप से काम आती हैं और अन्यत्र भी शास्त्रीय दिनांक अथवा सौर तिथि के नाम से चलती हैं। परन्तु व्रतोत्सव आदि में इन तिथियों का उपयोग नहीं होता। अतः प्रकृत पुस्तक में सौर तिथियों पर विशेष लिखना ग्रन्थ-विस्तार मात्र होगा ।

चान्द्र तिथि-धार्मिक कार्यों में चान्द्र तिथि ही सारे भारतवर्ष में काम में आती है। प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया आदि के नाम से जिनको हम पहिचानते हैं वे ये ही चान्द्रतिथियाँ हैं।

तिथि-विज्ञान

तिथियों का विज्ञान समझने के लिए पहले यह जानना आवश्यक है कि जिस दिन सूर्य और चन्द्रमा एक बिन्दु पर आजाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं और जिस तिथि को सूर्य और चन्द्रमा बिल्कुल आमने सामने रहते हैं उस तिथि को पूर्णिमा या पौर्णमासी कहते हैं। साधारण गणना के अनुसार इन तिथियों में (अमावस्या और पूर्णिमा में) पूरे पन्द्रह दिन का अन्तर रहना चाहिए, किन्तु प्रत्येक तिथि पूरे एक-एक अहोरात्र अर्थात् २४ घंटे या ६० घड़ी में समाप्त नहीं होती । इस कारण कभी तो अमावस्या से पूर्णिमा और पूर्णिमा से अमावस्या १५ दिनों में आती है, कभी १४ दिनों में और कभी १६ दिनों में। कभी-कभी १३ दिनों में भी आ जाती है।

१. अमा सह वसतोऽस्यां चन्द्राकौं' (अमरकोश की टीका में क्षीरस्वामी)
अमावस्यदन्यतरस्याम् (पा० सू० ३।१।२२२)

कारण यह है कि ऊपर लिखे अनुसार तिथियाँ सूर्य और चन्द्रमा की गति से सम्बन्ध रखती हैं। अतः जब सूर्य और चन्द्रमा की नाति का अन्तर अधिक रहता है तब चन्द्रमा १५ दिनों की अपेक्षा १४ दिनों में ही सूर्य के सामने से साथ अथवा साथ से सामने आजाता है और यदि गति का अन्तर मन्द रहता है तो १६ दिन ले लेता है। यही तिथियों का बढ़ना अथवा घटना कहलाता है।

अब इस बात को और भी स्पष्ट करके समझिए । पहले कहा जा चुका है कि अमावस्या के दिन चन्द्रमा और सूर्य एक राशि पर समान अंशादि में रहते हैं, अतएव अमावस्या को सूर्येन्दुसंगम भी कहते हैं। चन्द्रमा को पुनः उसी स्थान पर पहुँचने में लगभग २७ दिन लगते हैं। इधर प्रायः इतने ही दिनों में सूर्य अपनी एक राशि समाप्त कर पाता है। इस तरह सूर्य की दूसरी राशि पर जाकर चन्द्रमा पुनः उसके साथ संमिलित होता है। अर्थात् जैसे चैत्र की अमावस्या को दोनों मीन राशि पर थे तो वैशाख की अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा दोनों मेषः राशि पर होने चाहिए। अब आप समझ सकते हैं कि सूर्य से दुबारा मिलने के लिए चन्द्रमा को पूरी तेरह राशियों का चक्कर लगाना पड़ेगा, जो उपर्युक्त प्रकार से लगभग ३० दिन में पूरा होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखिए कि एक राशि में तीस अंश होते हैं। इस तरह अमावस्या से अमावस्या अथवा पूणिमा से पूर्णिमा तक चन्द्रमा को (१२ + ३० -३६०) तीन सौ साठ अंश चलना पड़ता है। इन ३६० अंशों को यदि तीस तिथियों में विभक्त करें तो एक तिथि के हिस्से में लगभग १२ अंश आते हैं। सारांश यह है कि चन्द्रमा के सूर्य से १२ अंश हटने का नाम एक तिथि है। यह १२ अंश कभी तो, जब चन्द्रमा शीघ्र चलता है तब, ५४ घड़ी में ही समाप्त हो जाते हैं और कभी, जब चन्द्रमा मंद चलता है, तो ६५ घड़ी तक ले लेते हैं। अर्थात् कभी तो २४ घंटे के बजाय १२ अंश साढे इक्कीस या बाईस घंटों में ही समाप्त हो जाते हैं और कभी चौबीस के बजाय छबीस घंटों में समाप्त होते हैं।

१. 'अमावस्या त्वमावास्या दर्शः सूर्येन्दुसंगमः' (अमरकोश, काल वर्ग)

इस तरह यह सिद्ध हुआ कि सूर्य से चन्द्रमा जब १२ अंश आगे बढ़ा तब शुक्कु पक्ष की प्रतिपदा समाप्त हुई, जब २४ अंश आगे बढ़ा तब द्वितीया समाप्त हुई, इत्यादि क्रम से अहोरात्र की जितनी घड़ियों पर प्रत्येक १२ अंश समाप्त होते रहते हैं, तद‌नुसार ही प्रतिपदा, द्वितीयादि तिथियाँ भी समाप्त होती रहती हैं। इसी को बोलचाल की भाषा में कहते हैं कि आज प्रतिपदा इतनी घड़ी है, आज द्वितीया इतनी घड़ी है-इत्यादि ।

तिथियों की क्षय-वृद्धि

अब यदि चन्द्रमा शीघ्र चलता रहा और उसने दो-दो घण्टे अपनी गति में न्यून किये तो १२ दिनों में २४ घण्टे कम होंगे और इसी तरह एक अहोरात्र के पूर्व, बारहवें दिन ही चन्द्रमा की गति का (१२ अंश चाला) १३वाँ भाग समाप्त हो जायगा और १३ वें दिन चौदहवाँ भाग आरम्भ हो जायगा। इसको हम त्रयोदशी का क्षय कहेंगे, क्योंकि साधारण गणना के अनुसार तो प्रत्येक अहोरात्र में चन्द्रमा के १२ अंश ही समाप्त होने चाहिये और इस तरह १३वें अहोरात्र में १३वाँ भाग आना चाहिए, किन्तु जब हम देखते हैं कि १३वें भाग को १३वें अहोरात्र में कोई स्थान नहीं है, उस दिन तो प्रातःकाल से ही १४वाँ भाग आरम्भ हो गया है, तब १२वें अहोरात्र में ही १३वें भाग के समाप्त हो जाने के कारण त्रयोदशी का क्षय कहा जाता है।

इसी तरह यदि चन्द्रमा मन्दगति से चला और उसने अपना एक १२-१२ अंश वाला भाग २४ घण्टों के बजाय २६ घण्टों में समाप्त किया तो ये दो-दो घण्टे बचते-बचते अपने यथासंख्य अहोरात्र से आगे बढ़ जायेंगे । उदाहरणार्थ-यदि १२-१२ अंशों का चतुर्थ भाग चौथे अहोरात्र के सूर्योदय के समय आरम्भ होकर भी चौथे अहोरात्र में समाप्त न होकर ५वें अहोरात्र में कुछ अवशिष्ट रह जायंगा तो इसे माप्त न होकर श्वं अहोरात्र में कुछ अवशिष्ट रह जायगा तो इसे

हम चतुर्थी की वृद्धि कहेंगे, क्योंकि वह भाग चतुर्थ अहोरात्र में ता रहा ही, किन्तु पञ्चम अहोरात्र के सूर्योदय के समय भी वही रहा और यह नियम है कि सूर्योदय के समय १२-१२ अंशों वाले भाग में से जिस संख्या का भाग चल रहा होगा वही उस दिन की तिथि मानी जाती है, इस दृष्टि से पहले सूर्योदय में भी चतुर्थी रही और दूसरे दिन के सूर्योदय में भी चतुर्थी रही। इस तरह दो चतुर्थियाँ हो गईं। इसका नाम तिथि-वृद्धि है।

क्षय-वृद्धि क्यों ?

यहाँ साधारण लोग यह शंका कर सकते हैं कि इतने सूक्ष्म विज्ञान में प्रविष्ट होकर तिथियों की क्षय-वृद्धि मानने की अपेक्षा इस मंझट को छोड़ ही दिया जाय और तारीखों से काम लिया जाय तो क्या हानि है ? भारतीय व्रतोत्सवों की वैज्ञानिक महत्ता को न समझनेवाले मोटी बुद्धि के लोग ही नहीं, किन्तु पाश्चात्त्य काल गणना के पक्षपाती कई एक अंग्रेजीदां भी ऐसी शंकाएँ करके लोगों को चक्कर में डाल देते हैं।

इस शंका का कारण यह है कि उन्हें पता नहीं कि भारतीयों के समस्त व्रतों और उत्सवों में यह बात ध्यान में रक्खी गई है कि सूर्य और चन्द्रमा दोनों की स्थिति प्रतिवर्ष उस-उस व्रत और उस-उस उत्सव के समय जैसी-की-तैसी ही रहे, क्योंकि ये दोनों अग्नि और सोम के आकर हैं और सारा जगत् अग्नीषोमात्मक है, अतः इन दोनों की अनुकूलता प्रतिकूलता पर ही प्राणियों के इष्ट-अनिष्ट (भला-बुरा) आधार रखते हैं, अतएव ऋषियों ने ज्यौतिषसम्बन्धी सब निर्णय प्रायः इन्हीं दोनों के आधार पर किये हैं।

आप देख सकते हैं कि इस तिथि-विज्ञान के प्रभाव से ही हमारी कोई जन्माष्टमी ऐसी नहीं होती, जिसमें अर्धरात्रि के समय चन्द्रोदय न हो, कोई होली या राखी ऐसी कोई दिवाली ऐसी नहीं होती दीपावली करनी पड़े, इत्यादि । नहीं होती जिस दिन पूर्णचन्द्र न हो, जिसमें चन्द्र-दर्शन होता रहे और यह बात भारतीयों के अतिरिक्त और किसी भी देश के व्रत-उत्सवों में नहीं पाई जाती। उदाहरणार्थ कोई एक्समस (ईसाई त्यौहार बड़ा दिन, जो जनवरी की २५ तारीख को होता है) ऐसा नहीं हो सकता कि जिसमें चन्द्रमा की अवस्था निश्चित हो। अर्थात् सन् १६४८ में एक्समस के दिन चन्द्रमा जिस स्थिति में था (खण्डित अथवा पूर्ण) वैसा ही सन् १६४६ में भी रहे। दूसरे त्यौहारों की भी यही दशा है।

इतना ही नहीं, हमारे इस तिथि-विज्ञान के कारण एक अपढ़ ग्रामीण भी बता सकता है कि आज अमावस्या है-चन्द्रमा नहीं उगेगा, आज अष्टमी है-चन्द्रमा आधा होगा, आज पूर्णिमा है-चन्द्रमा पूरा होगा-इत्यादि । परन्तु तारीखों के अनुसार यह बात किसी भी दशा में नहीं बताई जा सकती ।

अब यदि तिथियों की क्षय-वृद्धि न मानी जाय तो चौदह दिन में होने वाली अथवा सोलह दिन में आने वाली अमावस्या अथवा पूर्णिमा को कोई नहीं बता सकेगा और धार्मिक कार्य जो पूर्णचन्द्र की तिथि में करने के हैं (शरत्पूर्णिमा आदि) वे कभी आधे चन्द्र की स्थिति में और कभी विना चन्द्र-दर्शन के ही होंगे तथा जो विना चन्द्र-दर्शन के करने के कार्य हैं (दिवाली आदि) वे पूरी चाँदनी में करने पड़ेंगे ।

इसलिये भारतीय व्रतोत्सवों को समझने के लिए तिथियों की क्षय-वृद्धि के इस विज्ञान को समझना अत्यावश्यक है, अन्यथा सुधार के स्थान में बिगाड़ हो जावेगा। 'विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्' = बनाने गए थे गणेश जी और बन गया बन्द' वाली दशा होगी ।

वार शब्द का अर्थ अवसर अर्थात् 'नियमानुसार' प्राप्त समय' होता है। राजस्थान में 'ओसरा और 'वारा' शब्द ठीक इसी, के अर्थ के द्योतक हैं। तद्‌नुसार प्रकृत में 'वार' शब्द का अर्थ यह हुआ कि जो अहोरात्र (सूर्योदय से आरम्भ करके २४ घंटे अथवा ६० घड़ी-अर्थात् पुनः सूर्योदय पर्यन्त) जिस ग्रह के लिए नियमानुसार प्राप्त है, या यों कहिए कि जो ग्रह जिस अहोरात्र का स्वामी है, उसी ग्रह के नाम से वह दिन पुकारा जाता है। जैसे जिस अहोरात्र का स्वामी रवि है वह रविवार, जिस अहोरात्र का स्वामी सोम है वह सोमवार इत्यादि ।

वारविज्ञान

अब विचार यह करना है कि अहोरात्रों के स्वामियों का रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि यह क्रम किस प्रकार निश्चित हुआ और वे उस अहोरात्र के स्वामी क्यों माने जाते हैं ? क्रम के विषय में यह तो कहा नहीं जा सकता कि यह क्रम खगोल (आकाश ) में ग्रहों की स्थिति के अनुसार है, क्योंकि खगोल में इन ग्रहों की स्थिति का क्रम इस प्रकार है- सबसे ऊपर शनि, उसके नीचे गुरु, गुरु के नीचे मंगल, मंगल के नीचे सूर्य, सूर्य के नीचे शुक्र, शुक्र के नीचे बुध और बुध के नीचे चन्द्रमा। सारांश यह है कि चन्द्रमा पृथिवी से सर्वाधिक समीप है और शनि पृथ्वी से सर्वाधिक दूर । सूर्य सबका मध्यवर्ती है । तद्‌नुसार यदि पृथिवी की ओर से गिना जाय तो चन्द्र, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, गुरु और शनि यह क्रम होता है और शनि की ओर से गिना जाय तो शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा यह क्रम होता है, किन्तु वारों का उक्त क्रम इन दोनों में से किसी प्रकार का नहीं है।

१. देखिए 'वारोङ्गराजस्वसुः' (साहित्यदर्पण)
१.२. मन्दा-मरेज्य-भूपुत्र-सूर्य-शुक्रे-न्दुजे-न्दवः ।
पस्त्रिमन्त्यधोऽधःस्थाः सिद्धविद्याधरा घनाः ॥
: (सूर्यसिद्धान्त, भूगोलाध्याय, श्लो. ११)

इस शंका का समाधान यह है कि खगोलीय क्रम के अनुसार ग्रहों की होराएँ होती हैं, पूरा अहोरात्र नहीं। प्रत्येक होरा' २३ घड़ी अथवा ६० मिनट की होती है। होरा शब्द से ही इंगलिश (Hour आवर) शब्द बना है, जिसे आजकल हिन्दी में 'घंटा' और गुजराती में 'कला' के नाम से बोलने लगे हैं। इस तरह एक अहोरात्र में २४ होराएँ होती हैं। उनमें से पहली होरा उस अहोरात्र के स्वामी की होती है और बाद में उसी पूर्वोक्त खगोलीय क्रम के अनुसार क्रमागत निम्नवर्ती ग्रह की होरा आती रहती है। जैसे यदि पहली होरा शनि की हुई तो उसके निम्नवर्ती ग्रहों के हिसाब से शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्र इस प्रकार होराएँ होती चली जावेंगी। तद्‌नुसार तीसरे पर्याय की समाप्ति के बाद (७० ३ = २१) बाईसवीं होरा पुनः शनि की होगी । तदनन्तर उसी क्रम से तेईसवें और चौबीसवें घंटे में गुरु और मंगल की होराएँ रहेंगी और पचीसवें घंटे में अर्थात् दूसरे दिन के प्रातःकाल सूर्य की होरा होगी। इस होराक्रम के अनुसार शनि के दूसरे दिन सूर्य की, तीसरे दिन चन्द्र वा सोम की, चौथे दिन मंगल की, पांचवें दिन बुध की, छठे दिन गुरु की, सातवें दिन शुक्र की और तब फिर आठवें दिन प्रातःकाल पुनः शनि की होरा आ जावेगी। यही है वारों का क्रम । बात यह है कि जिस दिन प्रातःकाल जिस ग्रह की होरा होती है वही उस अहोरात्र का स्वामी होता है और वह अहोरात्र उसीका वार (अर्थात् नियमप्राप्त अवसर ) होने के कारण उसके नाम से पुकारा जाता है।

१. वारप्रवृत्तिसमयाद्धोराः सार्धघटीद्वयम् । (सूर्यसिद्धान्त को टीका में सुधाकर द्विवेदी द्वारा उद्धृत प्राचीन कारिका)
२. सात-सात की आवृत्ति के चौथे पर्याय में आई हुई यह पचीसवीं संख्या उक्त खगोलक्रम से चौथे-चौथे के हिसाब से पड़ती है। अतएव लिखा है-
'सूर्यादधः क्रमेण स्युश्चतुर्थी दिवसाधिपाः ।' (सू. सि. भूगोलाध्याय श्लो. ७०)

खगोलीय क्रम में ऊपर से नीचे वाले ग्रह का क्रम प्राप्त होना भी उपपत्तियुक्त है, क्योंकि जब ऊपर का ग्रह अपना समय समाप्त कर लेगा तो गोल दायरे में उससे नीचे के ग्रह का समय अपने आप ही आ जाता है और उक्त क्रम की बात भी ठीक हो जाती है।

अब एक प्रश्न और अवशिष्ट रह जाता है कि उक्त क्रम मान लेने पर भी यदि ऊपर से चलें तो पहला वार शनि होना चाहिए और नीचे से चलें तो चन्द्र होना चाहिए, रवि तो किसी प्रकार पहला वार नहीं होता, किन्तु ज्यौतिष की गणना में रवि को ही प्रथम वार माना गया है। यह क्यों ?

इसका उत्तर भास्कराचार्य ने यह दिया है-

लङ्कानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारे प्रथमं बभूव ।
मधोः सितादेर्दिनमासवर्षंयुगादिकानां युगपत् प्रवृत्तिः ॥ (सि. शि.)

अर्थात् लक्ङ्का नगरी (दक्षिणी निरक्ष' वृत्त अथवा दक्षिणी ध्रुव) में सर्वप्रथम सूर्योदय हुआ सूर्यवार को इस कारण चैत्रशुक्ल प्रतिपदा से दिन, मास, वर्ष और युगादिकों की एक साथ प्रवृत्ति हुई है। तात्पर्य यह कि काल-गणना का आरम्भ ही रविवार से आरम्भ हुआ है, अतः यह सर्वप्रथम वार माना जाय तो इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं होनी चाहिये।

सूर्यवार का सृष्टि का आरम्भ-दिवस होना उक्त आप्तवाक्य के अतिरिक्त युक्तिसिद्ध भी है, क्योंकि इस जड (शीतप्रधान) प्रकृति में जीवन संचार करने वाला सूर्य ही है- सूर्य की गर्मी पाकर ही सारे प्राणी उत्पन्न होते हैं और जीवित रहते हैं, अतः प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाली काल-शक्ति द्वारा सृष्टि के आरम्भक भगवान् सूर्य के अतिरिक्त और किसको प्रथम वार (अवसर) दिया जा सकता है। अतः वार-गणना का रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि यह क्रम सर्वथा वैज्ञानिक है।

१. इसके विशेष विवरण के लिए देखिये - विद्यावाचस्पति श्री मधुसूदन जी ओझा का 'इन्द्रविजय' नामक ग्रन्थ । 

इसी वैज्ञानिकता के कारण धार्मिक व्रतोत्सवों और शुभ कार्यों में तिथियों और नक्षत्रों के साथ वारों को भी प्राशस्त्यसूचक माना जाता है और अनिष्ट ग्रहों के लिए तत्तद्वारों का व्रत और श्रावण आदि में सोमवारादि के व्रत भी किए जाते हैं।

८-नक्षत्र

२७ नक्षत्रों के नाम ये हैं:- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, खाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तरा भाद्रपदा, रेवती।

उत्तराषाढ़ा के चौथे चरण (अन्तिम चौथे भाग) और श्रवण के पहले पन्द्रहवें भाग को अभिजित् नक्षत्र के नाम से पुकारते हैं। । इसकी गणना पञ्चशलाकाचक्र, सप्तशलाकाचक्र तथा अन्य कई कार्यों में की जाती है। इसको मिलाने से नक्षत्रों की संख्या २८ हो जाती है। इसका स्थान उत्तराषाढ़ा और श्रवण के बीच में है।

नक्षत्र-विज्ञान

ज्यौतिषी लोग जानते हैं कि प्रत्येक ग्रह खगोल की परिधि में पूरा चक्कर लगाने के बाद पुनः उसी स्थान पर आ जाता है, जहाँ से वह चला है। इस तरह एक-एक ग्रह की गति का एक अण्डाकार मार्ग बन जाता है, जिसे उस ग्रह का क्रान्तिवृत्त कहते हैं। इस वृत्त के १२ विभागों क़ा नाम मेषादि १२ राशियाँ हैं। इस वृत्त में स्थान स्थान पर कुछ ऐसे ताराओं के झुण्ड आते हैं जो अपनी कक्षा में स्थिर रहते हैं। उन्हीं तारा-समूहों को अश्विनी आदि नक्षत्रों के नाम से पुकारते हैं।

प्रत्येक ग्रह को इन ताराओं के झुण्डों के पास होकर गुजरना पड़ता है, इस बात को प्रत्येक खगोलवेत्ता भली प्रकार जानता है।

पञ्चाङ्ग में जो प्रतिदिन नक्षत्र लिखे रहते हैं वे इन्हीं, तारा-व्यूहों के पास चन्द्रमा की स्थिति के परिचायक होते हैं, अर्थात् जिस दिन चन्द्रमा जिस ताराव्यूह के समीप होता है उस दिन वह उसी नक्षत्र पर समझा जाता है।

सुविधा के लिये ग्रहों के उक्त पूरे वृत्त को अश्विनी आदि सुपरिचित २७ तारा-व्यूहों के हिसाब से २७ विभागों में विभक्त कर लिया गया है। चन्द्रमा की गति के अनुसार पूर्वोक्त पूरे वृत्त का एक २७ वाँ भाग जितने समय में समाप्त होता है अथवा यों कहिए कि चन्द्रमा अपने वृत्त के २७ वें भाग को जितने समय में समाप्त कर लेता है और एक ताराव्यूह से द्वितीय ताराव्यूह तक जाता है, उसे उस-उस नक्षत्र का भाग कहते हैं। यह भाग भी तिथि के समान कभी २४ घण्टे या ६० घड़ियों से अधिक समय में पार किया जाता है और कभी कम समय में । इस तरह जब उक्त सत्ताईसों भाग समाप्त हो जाते हैं तब चन्द्रमा आकाश में पुनः उसी स्थान पर आ जाता है।

पहले यह बताया जा चुका है कि चन्द्रमा और सूर्य का ही प्राणियों के जीवन पर अधिक प्रभाव पड़ता है और नक्षत्रों के अनुसार ही खगोल में चन्द्रमा की ठीक-ठीक स्थिति प्रतीत होती है; अतः चन्द्रमा के वर्तमान प्रभाव को जानने के लिये पञ्चाङ्ग के नक्षत्रों का जानना अत्यावश्यक है और इसीलिये भारतीयों के प्रत्येक धार्मिक कार्य में वेदों के समय से लेकर अब तक इन चान्द्र नक्षत्रों की प्रधानता मानी जाती रही है। नक्षत्र-शुद्धि के बिना विवाहादि नहीं होते। अनेक व्रतोत्सव मी नक्षत्रों के अनुसार होते हैं। आगे आप देखेंगे कि कई भारतीय अतोत्सवों में नक्षत्रों की भी वैसी ही प्रधानता है जैसी तिथियों की।

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