व्रत और पर्व निर्णयों में मतभिन्नता



व्रत और पर्व निर्णयों में मतभिन्नता

सामान्यजन के सामान्यज्ञान को बढ़ाने और भ्रम से बचाने हेतु एक लेख लिखना चाह रहा था। बहुधा व्रत-पर्वों के निर्णय में द्वैत या मतभिन्नता रहती है यह क्यों होता है स्यात इसका कारण इसे पढ़ कर सुधीजनों की समझ में आये, अस्तु !

खगोलीय या ज्योतिषीय घटनाओं का अध्ययन ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्त या गणित स्कंध के अंतर्गत किया जाता है और इसकी सर्वमान्यता या कहें स्वीकार्यता गणित होने के कारण स्वतःसिद्ध और प्रामाणिक है। इसके बिना त्रिस्कन्ध ज्योतिष के अग्रिम दो स्कन्ध संहिता और होरा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी से मुहूर्त, शुभाशुभ विवेचन, व्रत-पर्व इत्यादि का सम्यक ज्ञान हो सकता है। गणित सिद्धांत के बिना इनकी कल्पना करना ही असम्भव है और जैसे ज्योतिष शास्त्र वेद पुरुष का नेत्र और मूर्धन्य कहा गया है, वैसे ही ज्योतिष में गणित सिद्धान्त की मूर्धन्यता है।

किसी भी व्रत-पर्व-त्यौहार इत्यादि के निर्णय के लिए २ बातों की जानकारी आवश्यक है प्रथमतः उसके आधारभूत ज्योतिषीय घटना और द्वितीयतः उस व्रत-पर्व-त्यौहार के मनाने के लिए धर्मशास्त्र की सम्मति। यहां ज्योतिषीय घटना से तात्पर्य विशुद्ध खगोलीय पिण्ड की गति इत्यादि से संबद्ध है और इसमें धर्मशास्त्र की सम्मति आवश्यक नहीं है, ज्योतिषीय गणित सिद्धांत ही इसके प्रमाण हैं। अपरव्य व्रत-पर्व-त्यौहार का मनाना-मानना धर्मशास्त्र का विषय है, गणित उसमें विस्तृत विवरण तो दे सकता है, परन्तु सम्मति नहीं अतः व्रत-पर्व-त्यौहार का मनाना-मानना विशुद्ध धर्मशास्त्र का निर्णय है। इसमें धार्मिक सम्मति सम्प्रदाय या परम्परागत भेद से विभिन्न हो सकती है, परन्तु गणित पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता। इसी को आगे ले जाएँ तो संहिता और होरा में भी फल निर्णय के लिये गणित आधार है।

ज्योतिषीय घटनाओं के उदाहरण में सूर्य का राशि संक्रमण (संक्रांति), ग्रहों का उदयास्त, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, तिथियों, चन्द्रमा का नक्षत्र संचरण इत्यादि है। ये सभी घटनाएं गणित सिद्धांत से ही प्रामाणिक रूप से जानी जाएंगी। धार्मिक सम्मति के उदाहरण में दो दिन त्रयोदशी तिथि पड़ने पर प्रदोष व्रत कब होगा या इसी प्रकार एकादशी व्रत का निर्णय, होलिका दहन किस समय होगा, ग्रहण का धार्मिक कार्यकलापों पर कोई प्रभाव होगा या नहीं, या कितने समय पहले से, संक्रान्ति का पुण्यकाल इत्यादि हैं। इन व्रत-पर्व-त्यौहार में क्या करना है, कैसे करना है यह धर्मशास्त्र बताएंगे। यहां यह भी ध्यान रखना होता है कि सम्प्रदाय ही नहीं अपितु क्षेत्र विशेष के अनुसार परम्पराएं विभिन्न हो सकती हैं यथा श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत-पर्व, स्मार्त और वैष्णव सम्प्रदाय भेद से एकादशी इत्यादि, और क्षेत्रानुसार वट-सावित्री, नाग-पञ्चमी इत्यादि के लिए सम्मति।

एक उदाहरण लेते हैं पूर्णिमा (वैशाख पूर्णिमा तदनुसार ५-जून-२० रात्रिकालीन) के चन्द्र-ग्रहण का और इस पर विवेचना करेंगे। ऊपर लिखे अनुसार पहले इस ग्रहण का ज्योतिषीय पक्ष जान लेते हैं।

प्रकार: यह चन्द्र-ग्रहण पृथ्वी की उपच्छाया (penumbra) के कारण हो रहा है, छाया के कारण नहीं अतः चन्द्र-मालिन्य (धुंधलापन) ही दिखेगा और चन्द्रमा का कोई भाग कटा हुआ नहीं दिखेगा (शृङ्ग-नति नहीं दिखेंगे) इसे मान्द्य चन्द्रग्रहण कहते हैं। समय : यह गाजियाबाद में (स्थान से समय में भेद आता है) ५-जून-२० की रात्रि २३:१६ से प्रारम्भ हो कर ६-जून-२० के २:३४ तक रहेगा (ग्रहण और मोक्ष समय) आज के उपकरणों से खगोलीय गणितीय अन्वेषण करने वाली सर्वमान्य संस्था NASA के अनुसार इसका प्रसार इस लिंक पर उपलब्ध है। जिसके अनुसार यह मान्हा चंद्र-ग्रहण भारतवर्ष में दृश्य (चन्द्र-मालिन्य / धुंधलापन मात्र) है।

अब इसका धर्मशास्त्रीय पक्ष देखते हैं, धर्मसिन्धु/ निर्णयसिंधु जैसे सङ्कलन ग्रंथों में मिलता है -

१. चन्द्रग्रहण यदि मांद्य हो, या सामन्यतया दृष्टिगोचर न हो (दर्शनाभाव हो) तो इस ग्रहण का कोई पुण्यकाल नहीं होता।

२. उदय से पूर्व या अस्त के उपरांत हुआ ग्रहण दृष्टिगोचर न होने के कारण इसका भी कोई पुण्यकाल नहीं होता।

अतो प्रस्तास्तस्थले अस्तोत्तरं द्वीपान्तरे ग्रहणसत्त्वेऽपि दर्शनयोग्यत्वाभावान्न पुण्यकालः। एवं ग्रस्तोदये उदयात्पूर्व न पुण्यकालः। - धर्मसिन्धु

३. हालांकि मेघ इत्यादि से दृष्टिगोचर न होने पर भी ज्योतिष (गणित-सिद्धांत) के अनुसार पुण्यकाल होता है।

मेधादिप्रतिबन्धेन चाक्षुषदर्शनासंभवे शास्त्रादिना स्पर्शमोक्षकाली ज्ञात्वा स्नानदाद्याचरेत्। - धर्मसिन्धु

४. पुण्यकाल का अर्थ है जब तक ग्रहण नेत्रों से दृश्य हो तब तक का समय पुण्यकाल है। 

चन्द्रसूर्यग्रहणं यावच्चाक्षुषदर्शनयोग्यं तावान् पुण्यकालाः।
- धर्मसिन्धु

संक्रान्तौ पुण्यकालस्तु षोडशोभयतः कलाः। 
चन्द्रसूर्योपरागे तु यावद्दर्शनगोचरे ॥

- जाबालिःयावद्दर्शनगोचरे - यावति काले चाक्षुषज्ञानयोग्य उपरागः तावान्काला पुण्यकालाः ॥ ५. 

यदि ग्रहण का पुण्यकाल है तो उसके वेध का विचार करना होता है और उस से कर्तव्याकर्तव्य सूतक इत्यादि का सूर्य-चन्द्र भेद से सूतकादि का ज्ञान होता है।

अब इन दोनों पक्षों के ज्ञात हो जाने के पश्चात् निर्णय करते हैं कि कर्त्तव्याकर्त्तव्य क्या है।

ज्योतिष (शास्त्र) बताता है कि मांद्य चंद्रग्रहण की घटना हो रही है, वहीं धर्मशास्त्र बताता है कि मांद्य या किञ्चित चन्द्र-मालिन्य मात्र होने के कारण इस का कोई पुण्यकाल नहीं होगा। अतः इसका कोई वेध-विचार भी नहीं होगा। वेध-विचार न होने से कर्तव्याकर्तव्य का भी कोई कारण नहीं है। अर्थात सभी धार्मिक कृत्य यथावत रहेंगे, इस मांद्य चंद्रग्रहण के कारण कोई धार्मिक व्यवधान या व्यवस्था परिवर्तन सूतकादि उपयोज्य नहीं है। परिणाम और विवेचनामूलक कह सकते हैं -

१. हम यह नहीं कह सकते कि चन्द्रग्रहण नहीं है, वह है और उपच्छाया में होने से मान्ा प्रकार का है। 

२. हम यह नहीं कह सकते कि चन्द्रग्रहण है और इसके लिए सूतक इत्यादि लगेंगे।

३. धार्मिक दृष्टि से इस ग्रहण का होना-न होना समान है, क्योंकि इस प्रकार के ग्रहण को धर्मशास्त्र मान्यता नहीं देता। और इसके लिए कोई सूतक या ग्रहण नियम उपयोज्य नहीं होंगे।

इसी प्रकार की विवेचना और मति से सधैर्य सभी व्रत-पर्व-त्यौहार का निर्णय किया जाना उचित और सैद्धांतिक है, मात्र टीवी, NASA, यूट्यूब, "धर्मभीरुओं" से शास्त्रीय निर्णय नहीं हो सकते।

इत्यलम् !

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