भारतीय व्रत उत्सव | 34 | ग्रहण विज्ञान

भारतीय व्रत उत्सव | 34 | ग्रहण विज्ञान

दूसरे के हाथ से निकाले की अपेक्षा अपने हाथ से निकाला हुआ, निकाले हुए की अपेक्षा जमीन में भरा हुआ, भरे हुए की अपेक्षा बहता हुआ, (साधारण) बहते हुए की अपेक्षा सरोवर का, सरोवर की अपेक्षा नदी का, अन्य नदियों की अपेक्षा गङ्गा का और गङ्गा की अपेक्षा भी समुद्र का जल पवित्र माना जाता है।

तीन दिन अथवा एक दिन उपवास करके स्नान दानादि का ग्रहण में महाफल है, किन्तु संतानयुक्त गृहस्थ को ग्रहण और संक्रान्ति के दिन उपवास नहीं करना चाहिए ।

यद्यपि ग्रहण के समय सभी ब्राह्मण पवित्र माने गए हैं। उनमें पात्रापात्र का विवेक नहीं किया जाता, तथापि सत्पात्र को दान करने से अग्निक पुण्य होता है।

ग्रहण में यदि श्राद्ध करना हो तो आमश्राद्ध अथवा हिरण्यश्राद्ध करना चाहिए ।

ग्रहण में श्राद्ध खानेवाले को महादोष बताया गया है। संपन्न लोगों के लिये ग्रहण के समय तुलादानादि भी करने की विधि है।

ग्रहण में मन्त्रदीक्षा ले तो मुहूर्त्त देखने की आवश्यकता नहीं है।

सूर्यग्रहण में चार प्रहर पूर्व और चन्द्रग्रहण में तीन प्रहर पूर्व स्वस्थ और शक्त लोगों को भोजन नहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व खा सकते हैं। ग्रस्तास्त ग्रहण होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो उस, का पुनः शुद्ध विम्ब देखकर भोजन करना चाहिए ।

ग्रहण क्या है ?

• 'सूर्य पर चन्द्रमा की और चन्द्रमा पर पृथिवी की छाया का नाम ग्रहण है।

बात यह है कि चन्द्रमा पृथिवी का उपग्रह है। वह पृथिवी के चारों तरफ फिरता है। अमावस्या के दिन वह सूर्य और पृथिवी के बीच में रहता है। जहाँ वह दिन के समय सूर्य और पृथिवी के बीच आ जाता है वहाँ सूर्य चन्द्रमा से आच्छादित हो जाता है। तब सूर्य का प्रकाश पृथिवी पर नहीं पड़ता अथवा कम पड़ता है। यही सूर्यग्रहण है और इसी कारण यह अमावस्या के दिन ही होता है।

भूगोल पढ़नेवाले जानते हैं कि चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश ग्रहण करता है। उसका जितना भाग सूर्य के सामने रहता है वह चमकता रहता है और जितने भाग और सूर्य के बीच में पृथिवी की छाया रहती है वह नहीं चमकता । पूर्णिमा की रात को सूर्य-चन्द्रमा दोनों आमने-सामने रहते हैं, अतः चन्द्रमा पूरा चमक उठता है। उस रात को यदि पृथिवी की चन्द्रमा पर छाया पड़ जाती है तो वह चन्द्रग्रहण होता है। पूर्णचन्द्र पूर्णिमा को रहता है अतः चन्द्रग्रहण पूणिमा को ही होता है।

ग्रहण पुण्यकाल क्यों और उस समय अपवित्रता क्यों ?

कहा जा सकता है कि ऐसी साधारण बात के कारण इतना बड़ा पुण्यकाल मानना और स्नानादि का इतना आडम्बर करना क्या उचित है ? बहुतेरे आधुनिक लोग तो इन बातों को छोड़ भी देते हैं। इसका 'सबसे प्रथम तो उत्तर यह है कि पुण्य क्या है और पाप क्या है इसका ज्ञान शास्त्रों द्वारा अर्थात् केवल ऋषिवचनों से होता है। जब तक तपस्या और योग द्वारा बुद्धि निर्मल नहीं हो जाती, जिसे योगदर्शन में ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं वह जब तक प्राप्त नहीं होती तब तक इन अलौकिक पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, अतः साधारण मानव को तर्क के चक्कर में न पड़कर शास्त्राज्ञा के अनुसार ही पुण्य-पाप का निर्णय करना चाहिए । अतएव भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा है कि-

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ

( १६।२४)

अर्थात् कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। इसलिए यद्यपि ऐसी बातों में केवल युक्ति के द्वारा निर्णय उचित नहीं है, तथापि आधुनिक विचारों से विप्लुत आस्तिकों के समाधानार्थ शास्त्रानुसार विचार किया जाता है-

पहले (संवत्सरोत्सव के प्रसंग में) बताया जा चुका है कि समस्त प्राणियों के जीवनाधार अग्नि और सोम हैं और उनके मूलाधार हैं सूर्य और चन्द्र । सूर्य और चन्द्र का प्रकाश यथावत् मिलते रहने से जीवन की सब प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं। उनके कार्यों में यदि विघ्न्न होगा तो उसका प्राणियों पर भी असर होगा ही। जब ग्रहण होता है तब सूर्य और चन्द्रमा की किरणों का प्रभाव पृथ्वी पर पड़ना थोड़ी देर के लिए बंद हो जाता है। इस का प्रभाव अग्नि-सोम द्वारा संचालित प्राणिजगत् पर भी पड़ता है और सूर्य चन्द्र को किरणों द्वारा जो सूक्ष्म तत्त्वों में हलचल होती रहती है वह भी उस समय बन्द हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि जो अच्छे-बुरे कार्य मनुष्य करता है, जिनसे पवित्रता और अपवित्रता बढ़ती है उनमें भी परिवर्तन नहीं होता, अतः ऐसे समय जो पुण्य अथवा पाप कार्य किये जाते हैं वे स्थिर हो सकते है। एतदर्थ सूर्य-चन्द्र-ग्रहण में पवित्र होकर पुण्यकार्य किये जाते हैं और अपवित्रता-सम्पादक अथवा शारीरिक क्रियाओं में संचलन करनेवाले भोजमादि कर्म छोड़ दिये जाते हैं। यदि इसके विरुद्ध आचरण किया जाय तो शारीरिक तथा मानसिक सभी क्रियाओं में विघ्न्न-बाधा हो सकती है। ऊपर बताया जा चुका है क्रि ग्रहण शारीरिक तत्त्वों के अपरिवर्त्तन का समय है। ऐसे समय जो अपवित्र तत्त्व शरीरादि पर पड़ गए हों वे स्थिर न हो जाँय, इसलिये उसके अनन्तर सचैल स्नानादिक विहित हैं।

कहा जायगा कि तब ऐसी छाया तो बादल आने पर भी हो ही जायगी और किरणों में प्रतिबन्ध भी हो ही जायगा, फिर बादल हो जाय तब भी शास्त्रानुसार ग्रहण क्यों न माना जाय ? और बादल हो जाने पर ग्रहण क्यों माना जाय ? पर ऐसी बात नहीं है। बादल भाप आदि तरल और विरल पदार्थों से बनते हैं, अतः वे न किरणों के सूक्ष्म प्रभाव को रोक सकते हैं, न उसकी रुकावट में पुनः संचार पैदा कर सकते हैं, अतः शास्त्रों ने बादल आदि के कारण ग्रहण न मानने का निषेध उचित ही किया ।

अब यह प्रश्न रह जाता है कि जब चन्द्रमा के और पृथ्वी के आच्छादन का नाम ही ग्रहण है तब चन्द्रमा और सूर्य राहु के ग्रास हो जाते हैं इस कथन का क्या अर्थ है ? यह बात भी शास्त्रों पर अच्छी तरह विचार करने से समझ में आ जाती है। ज्यौतिषशास्त्र के अनुसार नौ ग्रहों में से सात प्रकाशग्रह हैं और दो (राहु और केतु) तमोग्रह हैं। वास्तव में सब प्रकाश सूर्य का है। अन्य ग्रह उसी से प्रकाश प्राप्त करके पृथिवी को प्रदान करते हैं। किन्तु सूर्यसहित ये सातों ग्रह प्रकाशप्रद हैं अतः इन्हें प्रकाशग्रह कहा जाता है और राहु तथा केतु (जो एक ही ग्रह के दो भाग हैं) केवल अन्धकार-रूप हैं। उनका काम प्रकाश को रोकना मात्र है, अतः उन्हें तमोग्रह कहा जाता है। चन्द्रमा पर पृथिवी की छाया और सूर्य पर चन्द्रमा की छाया भी प्रकाश 'का प्रतिबन्ध करती है, अतः उसे भी राहुरूप माना जाता है। राहु शब्द का अर्थ भी यही है कि जो चन्द्र और सूर्य को तेजरहित करे। उनमें से चन्द्रमा की छाया गोल पड़ती है अतः उसे शिररूप और पृथिवी की छाया लंब-त्रिकोण-रूप पड़ती है, अतः उसे धड़रूप कहा जा सकता है। यही राहु के दो भाग राहु और केतु-रूप कहे जाते हैं। तदनुसार ही पुराणों की कथा है। अतः शास्त्रवचनों में व्यर्थ संदेह नहीं करना चाहिए ।

कथा

जिन (शिवजी) के चरणों को देवताओं के मुकुटों ने (नित्य प्रणाम करने में मुकुटों का चरण से स्पर्श होते रहने के कारण) घिस रक्खा है वे शिवजी भी जिन्हें उदय और अस्त होते समय हाथ जोड़ते हैं उन तेजोनिधि सूर्य की जय हो ।

श्वेतवर्ण चन्द्रमा और काले रंग के राहु की शरीर-कान्तियों से गंगा और यमुना के जल के समान आकाश की वह कांति हमारा कल्याण करे जो समग्र जगत् की पापराशि का नाश करनेवाली है।

भौरों के झुण्ड के समान नीला, कोयल के समान काला, जल भरे हुए मेघ के समान वर्णवाला, सर्प और वैदूर्य मणि की सी कांतिवाला तथा चन्द्र-सूर्य का मर्दन करनेवाला वह राहु तुम्हारी रक्षा करे, जो ऐसा ग्रह है कि जिसका स्वरूप चरणहीन है।

ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान और जप करना चाहिए, मध्य में होम और देवपूजन करना चाहिए और सूर्य-चन्द्रमा का मोक्ष होते समय दान देना चाहिए। ग्रहण के निवृत्त होने पर सरसों आदि पदार्थों से स्नान करना चाहिए। ग्रहण का दोष निवारण करने के लिए सरसों, कुष्ठ, दोनों प्रकार की हल्दी, लोध, चण्डा, रामा, जवासा, प्रियङ्गु और देवदारु से युक्त स्नान करिए। ऐसा स्नान करने से सूर्यादिक सब ग्रह शुभप्रद हो जाते हैं।

चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण के दिन पत्र, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ना चाहिए; केश व वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिएँ तथा दन्तधावन नहीं करना चाहिए। ग्रहण के समय सोने से अंधा होता है, विष्ठा-मूत्र करने से गाँव का सूअर होता है, मैथुन से कोढ़ी होता है और भोजन करनेवाला वंशद्दीन हो जाता है।

ग्रहण के समय गोदान करने से सूर्यलोक में जाता है, बछड़ा दान करने से शिवलोक में जाता है, घोड़ा दान करने से बैकुण्ठ में जाता है, हाथी दान करने से निधियों का स्वामी होता है। सुवर्ण दान करने से ऐश्वर्य और बहुत धन प्राप्त होता है, वस्त्र दान करने से राज्य प्राप्त होता है, पृथ्वी दान करने से इन्द्रलोक में जाता है और भैंस दान करने से यमलोक में नहीं जाता ।

जब सूर्य का ग्रहण हो उस समय सब जल गंगाजल के समान हैं, सब ब्राह्मण व्यासजी के समान हैं और सब दान सोने के समान हैं। अन्य देश की अपेक्षा शुभ तीर्थ में ग्रहण के समय रहने से त्रिगुण या द्विगुण पुण्यवृद्धि होती है।

चन्द्रग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में करोड़गुना पुण्य होता है और सूर्यग्रहण के समय उससे भी दसगुना पुण्य होता है।

ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए। ऐसा करने से देनेवाले को उसका फल प्राप्त होता है और लेनेवाले को उसका दोष नहीं लगता ।

ग्रहण के समय ताला खोलना आदि कार्य नहीं करना चाहिए। यदि स्त्री गर्भयुक्त हो तो शङ्का रहती है कि ग्रहण की छाया पड़ने से संतान अंगहीन होगी, अतः नारियल, पञ्चरत्न, सुवर्ण और सातों धान्य संकल्प करके दान करना चाहिए । इस दान से वन्ध्या को भी पुत्र होता है।

सूर्यग्रहण में ग्रहण से पूर्व चार पहर और चन्द्रग्रहण में तीन पहर भोजन नहीं करना चाहिए। किन्तु बालक, वृद्ध और रोगी के लिए यह नियम नहीं है।

जिस दान का पहले से संकल्प किया हो वह ग्रहण से पहले दे दिया जातां है। यदि लोभ के कारण न दे तो हजारगुना हो जाता है। सत्पात्र ब्राह्मण को जो दान वाणी या मम से दिया हो उस दान को ऋण के समान चुकां देना चाहिए, अन्यथा नरक में जाता है।

(व्रतार्क में आदित्यपुराण से)

i

अभ्यास

(१) ग्रहण का पुण्यकाल कब होता है ?

(२) ग्रस्तोदय और ग्रस्तास्त होने के समय आँखों से न दिखाई देने पर उतने समय तक क्यों नहीं माना जाता और बादल होने पर आँखों से न दिखाई देने पर भी क्यों माना जाता है ?

(३) ग्रहण क्या है ?

(४) ग्रहण पुण्यकाल क्यों और उस समय अपवित्रता क्यों ?

(५) राहु-केतु क्या हैं और पुराणों में उनसे ग्रहण का संबन्ध क्यों माना गया है ?

१६ भा० ब्र०

: १. 'रहयति भुक्त्वा चन्द्राकौं राहुः' (क्षीरस्वामी)



Comments

Popular posts from this blog

लो शू अंकज्योतिष 02 | Ch. 20 Number, Missing Number, Remedies and Repeat Numers

400 वर्षों में उत्तरी चुंबकीय ध्रुव के बदलाव