भारतीय व्रत उत्सव | 16 | नाग-पंचमी
भारतीय व्रत उत्सव | 16 | नाग-पंचमी
समय
: श्रावण शुक्ला पंचमी। कहीं श्रवण कृष्णा पंचमी को भी यह उत्सव मनाते हैं। मयूखकार नीलकण्ठभट्ट के पुत्र शंकरभट्ट ने अपने बनाये व्रतों की' पुस्तक में यह उत्सव भाद्रपद शुक्ला पंचमी को बताया है।
काल-निर्णय
यह पंचमी सूर्योदय से कम से कम ६ घड़ी जिस दिन हो और षष्ठी-सहित हो वह लेनी चाहिए। दूसरे दिन पंचमी ६ घड़ी से कम हो और पहले दिन चतुर्थी भी ६ घड़ी से कम हो तो पहले दिन करनी चाहिए, परन्तु यदि चतुर्थी छः घड़ी से अधिक हो तो दूसरे दिन ही करनी चाहिए।
विधि
इस दिन चाँदी, सोने, लकड़ी अथवा मट्टी के बने यद्वा दीवार पर लिखे हुए नाग पूजे जाते हैं। जिनके यहाँ जैसी विधि चली आती हो वही विधि करनी चाहिए। पूजन में सुगन्धित पुष्प और हो सके तो कमल लेने चाहिए । नैवेद्य और ब्राह्मणभोजन में दूध अथवा खीर होनी चाहिए ।
१. मासि भाद्रपदे याऽपि शुक्लपक्षे तु पंचमी ।
सातिपुण्यतमा प्रोक्ता देवानामपि दुर्लभा ॥
२. भूरिचन्द्रमयं नागमथवा कलधौतजम् ।
कृत्वा दारुमयं वापि अथवा मृण्मयं प्रिये ॥
पञ्चम्यामर्चयेद् भक्त्या नागः पश्चफणः स्मृतः ।
(शंकरभट्ट : व्रतार्क)
३. अस्यां भित्त्यादिलिखिता सृण्मया वा नागा यथाचारं पूज्याः । (धर्मसिंधु)
समय-विज्ञान
वर्षा ऋतु और श्रावण-भाद्रपदमास - यह सभी जानते हैं कि वर्षाऋतु ही नागों के निकलने का समय होता है। शीतकाल में तो सर्प निकलते ही नहीं। प्रायः गर्मी में निकलते हैं और वर्षा में तो बिलों में जल भर जाने के कारण विवश होकर उन्हें बाहर निकल जाना पड़ता है इसलिए प्रत्यक्ष नागपूजनार्थ वही समय उचित है। उस समय कहीं-न-कहीं वे मिल ही जाते हैं।
शुक्लपक्ष और पंचमी- यद्यपि नागजाति अन्धकारप्रिय है, अतः कृष्ण पक्ष ही उनके अर्चन के लिए उपयुक्त होना चाहिए और इसी कारण कहीं-कहीं उत्सव कृष्णपक्ष में भी मनाया जाता है, पर शास्त्रानुसार शुक्रुपक्ष ही उचित है। सामान्यबुद्धि से भी शुक्लपक्ष ही उचित प्रतीत होता है; क्योंकि कृष्णपक्ष की पंचमी को तो आरम्भ के कुछ घंटों में ही अन्धकार रहता है, फिर तो प्रकाश ही हो जाता है, किन्तु शुक्लपक्ष की पंचमी को उसके विपरीत स्थिति रहती है- अर्थात् अन्धकार ही अधिक रहता है। सो शुक्लपक्ष ही ठीक है।
पंचमी तो नागों की तिथि है, क्योंकि ज्योतिष के अनुसार पंचमी के तिथि के स्वामी नाग हैं। अग्निपुराण तो स्पष्ट ही कहता है कि-
शेषादीनां फणीशानां पञ्चम्यां पूजनं भवेत् ।
( पीयूषधारा में अग्निपुराण का वचन )
अर्थात् शेष आदि सर्पराजों का पूजन पञ्चमी को होना चाहिए।
विधि-विज्ञान
विधि-विज्ञान में सबसे पहले तो यही प्रश्न है कि जिन सर्पों से जनता का अनिष्टमात्र होता है उन सर्पों का पूजन क्यों ? इसका उत्तर तो आधुनिक लोग यही देते हैं कि लिङ्गपूजा तथा नागपूजा जैसी वस्तुएँ अनार्यों से आई हैं। आर्यसंस्कृति से इनका कोई सम्बन्ध नहीं, किन्तु यह उत्तर विना सोचा-समझा है। सर्पों का भी पूजाविधान हमारे यहाँ सदा से है। 'नमोऽस्तु सर्पेभ्यः१० यह वैदिक मंत्र है, जिसमें स्पष्ट ही सर्पों को नमस्कार है। नारायणबलि आदि में इन मंत्रों से होम का विधान भी है। पुराणों में तो सर्पों की महिमा भरी पड़ी है।
बात यह है कि वैदिक सनातन धर्म में ईश्वरनिर्मित वस्तुओं के प्रति राग-द्वेष नहीं है। उनके द्वारा जो अनिष्ट होता है वह ईश्वरकृत है। यदि ईश्वर को उनके द्वारा किसी की मृत्यु अभीष्ट नहीं होती तो वह उनमें जहर उत्पन्न ही क्यों करता। इससे सिद्ध है कि वे भी जो कुछ करते हैं उसमें ईश्वरप्रेरणा है ही। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं -
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽमावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा मूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ (१०-४५)
अर्थात् बुद्धि (सूक्ष्म अर्थों के समझने का सामध्ये), ज्ञान, असंमोह (सूझने में रुकावट न होना), क्षमा (गाली देने और पीटने पर भी चित्त में विकार न होना), सत्य (सुने और देखे को जैसा का तैसा कहना), दम (बाहरी इन्द्रियों की शान्ति), शम (भीतरी इन्द्रियों की शान्ति), सुख, दुःख, भव (उत्पत्ति), अभाव (न होना), भय, अभय, अहिंसा (किसी को दुःख न पहुँचाना), समता (समान चित्त होना), शंसंतोष, तप, दान, यश और अयश ये नाना प्रकार के भाव प्राणियों में मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।
ऐसी स्थिति में भगवान् जिस प्रकार सुख और अभय के देनेवाले हैं उसी प्रकार दुःख और भय के देनेवाले हैं। किसी बेचारे प्राणी का क्या सामर्थ्य है कि वह हमें दुःख अथवा भय पहुँचावे । अतः उसी भगवान् की शक्ति उन भयप्रद कीड़ों में भी समझकर शास्त्रकारों ने उनकी भी पूजा बताई है। अतः इसमें अनार्यभावना का कोई संबन्ध नहीं है।
प्रतिमापूजा का विज्ञान तो पहले लिखा ही जा चुका है। प्रत्यक्ष सर्प में भय, द्वेष आदि हो सकते हैं, पर प्रतिमा में यह कुछ नहीं है, अतः प्रतिमापूजन बताया गया है।
सुगन्धित पुष्प और दूध तो उपपत्ति की आवश्यकता नहीं । सर्पों के प्रिय हैं ही। इसमें किसी
कथा
शिवजी ने कहा- भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो पंचमी होती है। वह अत्यन्त पवित्र कही गई है। वह देवताओं को भी दुर्लभ है। हे वरानने ! इस पंचमी का व्रत बारह वर्षों तक करना चाहिए। चतुर्थी के दिन (मध्याह्न में) एक बार खाना चाहिए और पंचमी के दिन नक्त-व्रत (सायंकाल भोजन) करना चाहिए। हे प्रिये! चाँदी, सोना, लकड़ी अथवा मट्टी का नाग बनाकर पंचमी के दिन पूजन करना चाहिए । नाग पाँच फणवाला बताया गया है। करवीर, शतपत्र (सौ पंखुरीवाला कमल), जाति और कमल पुष्पों से तथा सुगन्ध और धूपों से नागों की पूजा करनी चाहिए। फिर ब्राह्मणों को घी, खीर और मोदक (लड्डू) जिमाने चाहिए ।
शंखपाल, कालिय, तक्षक और पिंगल ये बारह नाग एक-एक महीने में कहे गये हैं।
व्रत के अन्त में पारण करना चाहिए और दूध से ब्राह्मण-भोजन करवाना चाहिए। सुवर्ण के भार से बनाया गया नाग, गौ तथा वस्त्र अपरिमित तेजस्वी व्यासजी के निमित्त दान करने चाहिए। इस तरह सदा भक्ति से युक्त होकर नागों का पूजन करे। पंचमी के दिन नागों *की पूजा विशेषरूप से दूध और दूध की बनी वस्तु से करे ।
(व्रतार्क में स्कन्दपुराण के प्रभासखण्ड से )
अभ्यास
(१) नाग-पञ्चमी कब होती है ?
(२) नाग किस वस्तु के बनाने चाहिए ? नागपूजन की क्या विधि है ?
(३) नागपूजन वर्षाऋतु और श्रावणशुक्ला पंचमी को क्यों होता है ?
(४) जगत् के अनिष्ट करने वाले सर्पों का पूजन क्यों ?
(५) बारह नाग कौन-कौन से हैं?
(६) इस दिन ब्राह्मणभोजन किस पदार्थ से करवाना चाहिए ।
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