भारतीय व्रत उत्सव | 15 | गंगा दशहरा

भारतीय व्रत उत्सव | 15 | गंगा दशहरा

समय

ज्येष्ठशुक्ला दशमी

काल-निर्णय

जिस दिन पूर्वाह्न में दशमी और आगे बताये जाने वाले दश योग हों उस दिन करना चाहिए। यदि दशमी दोनों दिन पूर्वाह्न में हो तो जिस दिन अधिक योग हों वह दिन लेना चाहिए। यदि ज्येष्ठ अधिक मास हो तो भी गंगादशमी प्रथम ज्येष्ठ में ही होती है, दूसरे में नहीं। 
दश योग ये हैं- (१) ज्येष्ठमास, (२) शुक्लपक्ष, (३) दशमीतिथि, (४) बुधवार, (५) हस्तनक्षत्र, (६) व्यतीपातयोग, (७) गरकरण, (८) आनन्दद्योग (बुधवार के दिन हस्तनक्षत्र होने से आनन्दयोग माना जाता है), (६) कन्याराशि का चंद्रमा और (१०) वृषराशि का सूर्य। इन दश योगों में से दशमी और व्यतीपातयोग मुख्य हैं। (धर्मसिन्धु )

विधि

संकल्पपूर्वक गङ्गाजी में, अथवा किसी महानदी या नदी में, अन्यथा तालाब में दस बार गोते लगाकर सूखे वस्त्र पहनने के अनन्तर नित्य-नियम करके पितृतर्पण करे। फिर तीर्थ की पूजा करके घी से चुपड़े हुए दस मुट्ठी काले तिल अंजलि में लेकर जल में डाले। इसी तरह गुड़ से बने दस सप्त्तू के लड्डू भी डाले। तब तट पर ताँबे या मट्टी के घड़े पर रखी हुई सोना, चाँदी अथवा मृत्तिका की गङ्गाजी की प्रतिमा का 'पूजन करे। पूजा का मंत्र यह है-
नमो भगवत्यै दशपापहरायै गङ्गायै नगरायययै रेवत्यै शिवायै अमृतायै विश्वरूपिण्ययै नन्दिन्यै ते नमो नमः ।

इस दिन, गङ्गा के साथ नारायण, शिव, ब्रह्मा, सूर्य, भगीरथराजा और हिमालय पर्वत का भी पूजन करना चाहिए ।

गङ्गादशहरे को जो वस्तुएँ उपयोग में ली जायँ उनकी संख्या दस होनी चाहिए। पूजा में दस प्रकार के पुष्प, दशाङ्ग धूप, दस दीपक, दस प्रकार के नैवेद्य, दस ताम्बूत और दस फल होने चाहिए। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए, किन्तु उन्हें दान में दिये जाने वाले जौ और तिल सोलह-सोलह मुट्ठी होने चाहिए। गोदान यदि करें तो, दस अथवा एक, यथाशक्ति हो सकता है। सोने अथवा चाँदी के मछली, कछुए और मेंढक बनाकर उनकी पूजा करके जल में डालने का भी इस दिन विधान है। ये सोने-चाँदी के न बन सकें तो आटे के भी बनाये जा सकते हैं। पूजा के अनन्तर दीपक गङ्गाजल में बहा देने चाहिए ।

गङ्गामाहात्म्य-विज्ञान

भारतवर्ष का कौन हिन्दू ऐसा होगा जो भगवती गङ्गाजी की महिमा से परिचित न हो । गङ्गाजी पतितपावनी हैं। आज भी भारतवर्ष के कोने-कोने से सभी हिन्दू, फिर वे चाहे ब्राह्मण हों अथवा अन्त्यज, गङ्गास्नान के लिए बड़ी श्रद्धापूर्वक आते हैं और स्नान करके अपने को कृतकृत्य समझते हैं। गङ्गा की यह महिमा शास्त्रों से सिद्ध है।

श्रीमद्भागवत में लिखा है कि-
"यस्यां स्वानार्थं चागच्छतः पुंसः पदे पदेऽश्वमेधराजसूयादीनां फलं न दुर्लममिति । 
(श्रीमद्भा० स्कं० ५, अ० १७, श्लो० १०)

अर्थात् गङ्गा में स्नान करने के लिए आने वाले पुरुष के पैर-पैर पर अश्वमेध राजसूय आदि यज्ञों का फल दुर्लभ नहीं है।"

अन्य पुराण, महाभारत, रामायण आदि में। भी गङ्गा का माहात्म्य भरा पड़ा है, जिसे यहाँ उद्धृत करना असंभव है।

आधुनिक विद्वानों ने भी गंगाजल की महिमा को स्वीकार किया है'।

१. गंगाजल की महिमा का कहना भी क्या है। उसके स्पर्शमात्र से कितने पाप दूर हो जाते हैं।

उसके स्वास्थ्यसम्बन्धी गुणों का प्राचीनकाल से उल्लेख मिलता है। चरक ने, जिनका काल आधुनिक विद्वानों द्वारा आज से लगभग दो हजार वर्ष पहले माना जाता है, लिखा हैं- 'हिमालय से निकलने वाले जल पथ्य हैं- हिमवत्प्रभवाः पथ्याः ।' इसमें विशेष रूप से गङ्गाजल का ही संकेत है, क्योंकि इस वचन के आगे ही आता है- 
'पुण्या देवर्षिसेविताः ।' वाग्भटकृत 'अष्टाङ्गहृदय' में, जिसका निर्माणकाल ईसवी सन् की आठवीं या नवीं शताब्दी माना जाता है, इसको स्पष्ट किया गया है- 
'हिमवन्मलयोद्भूताः पथ्यास्ता एव च स्थिराः ।' 

चक्रपाणिदत्त ने भी, जो सन् १०६० के लगभग हुए, लिखा है कि हिमालय से निकलने के कारण गंगाजल पथ्य है- यथोक्तलक्षणहिमालयभवत्वादेव गाङ्ग पथ्यम् ।' '

भण्डारकर ओरियंटल इंस्टीट्यूट, पूना' में अठारहवीं शताब्दी का एक इस्तलिखित ग्रन्थ है 'भोजनकुतूहल'। उसमें कहा गया है कि गङ्गाजल शीतल, स्वादु, स्वच्छ, अत्यन्त रुचिकर, पथ्य, भोजन पकाने योग्य, पाचनशक्ति बढ़ानेवाला, सब पापों को हरनेवाला, प्यास को शान्त तथा मोह को नष्ट करनेवाला, क्षुधा बढ़ानेवाला, और बुद्धि को बढ़ानेवाला होता है-
'शीतं स्वादु स्वच्छमत्यन्तरुच्यं पथ्यं पाक्यं पाचनं पापहारि । तृष्णामोहध्वंसनं दोपनं च प्रज्ञां घचे वारि भागीरथीयम् ॥'

इस तरह गङ्गाजल के स्वास्थ्यसम्बन्धी गुणों पर बराबर अपने यहाँ जोर दिया गया है। इन्हीं गुणों पर मुग्ध होकर विदेशियों और अहिन्दुओं को भी इसे अपनाना पड़ा ।

इब्नबतूता ने सन् १३२५-५४ में अफरीका तथा एशिया के कई देशों की यात्रा की थी। वह भारत भी आया था। वह अपने यात्रा-वर्णन में लिखता है कि "सुलतान मुहम्मद तुगलक के लिए गङ्गाजल बराबर दौलताबाद जाया करता था । इसके वहाँ पहुँचने में ४० दिन लग जाते थे।"

( गिब्स कृत अंग्रेजी अनुवाद पृ० १८३)

मुगल बादशाह अकबर को तो गङ्गाजल से बढ़ा ही प्रेम था। अबुलफजल अपने 'आईने अकबरी' में लिखता है कि "बादशाह गङ्गाजल को 'अमृत' समझते हैं और उसका बराबर प्रबन्ध रखने के लिए उन्होंने योग्य व्यक्तियों को नियुक्त कर रखा है। वे बहुत पीते नहीं हैं, पर तब भी इस ओर उनका बड़ा ध्यान रहता है। घर में या यात्रा में वे गङ्गाजल ही पीते हैं। कुछ विश्वासपात्र लोग गङ्गातट पर इसी लिए नियुक्त रहते हैं कि वे घड़ों में गङ्गाजल भराकर और उस पर मुहर लगाकर बराबर भेजते रहें। जब बादशाह सलामत राजधानी आगरा या फतेहपुर सीकरी में रहते हैं तब गङ्गाजल सोरों से आता है और जब पंजाब जाते हैं तब हरिद्वार से । खाना पकाने के लिए वर्षाजल या यमुनाजल, जिसमें थोड़ा गंगाजल मिला दिया जाता है, काम में लाया जाता है।”

अकबर के धार्मिक विचार दूसरे प्रकार के थे, इसलिए उन्हें यदि गंगाजल में श्रद्धा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। पर सबसे मजे की बात तो यह है कि कट्टर मुसलमान औरंगजेब का भी काम बिना गङ्गाजल के न चलता था। फ्रांसीसी यात्री बर्नियर, जो भारत में सन् १४५९-६७ तक रहा था और जो शाहजादा दारा-शिकोह का चिकित्सक था, अपने 'यात्रा-विवरण' में लिखता है कि "दिल्ली और आगरा में औरङ्गजेब के लिए खाने-पीने की सामग्री के साथ गङ्गाजल भी रहता था। यात्रा में भी इसका प्रबन्ध रहता था। स्वयं बादशाह ही नहीं, दरबार के अन्य लोग भी गङ्गाजल का व्यवहार करते थे।" बर्नियर लिखता है कि "ऊँटों पर लदकर यह बराबर साथ रहता था। प्रतिदिन सबेरे नाश्ते के साथ उसको भी एकः सुराही गङ्गाजल भेजा जाता था। यात्रा में मेवा, फल, मिठाई, गङ्गाजल, उसको ठण्डा करने के लिए शोरा और पान बराबर रहते थे।”

फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर ने भी, जो उन्हीं दिनों भारत आया था, लिखा है कि "इसके स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणों को देखकर मुनलमान नबाब इसका बराबर व्यवहार करते थे।” कप्तान एडवर्ड मूर, जो ब्रिटिश सेना में था और जिसने टीपू सुलतान के साथ युद्ध में भाग लिया था, लिखता है कि "सबन्नर (शाहनवर) के नबाब केवल गङ्गाजल ही पीते थे। इसको लाने के लिए कई ऊंट तथा आबदार रहते थे' (नैरेटिव पृ० २४८)।

श्री गुलामहुसेन ने अपने बंगाल के इतिहास 'रियाजु-स-सलातीन' में लिखा है कि "मधुरता, स्वाद और हल्केपन में गङ्गाजल के बराबर कोई दूसरा जल नहीं है, कितने ही दिनों तक रखे रहने पर भी यह बिगड़ता नहीं है।"

'श्री वेंकटेश्वर ओरियंटल इंस्टीट्यूट, तिरुपती' की पत्रिका (अनाल्स) के खण्ड १ भाग ३ (सित० १९४०) में पूना के श्रीगोडे का 'मुसलमान शासकों द्वारा गङ्गाजल के व्यवहार' पर एक अच्छा लेख है। किसी भाव से सहो, गङ्गाजल के व्यवहार से अहिन्दुओं का भी हित हुआ होगा ।

टैवर्नियर के यात्रा-विवरण से यह भी पता लगता है कि उन दिनों हिन्दुओं में विवाह के अवसर पर भोजन के पश्चात् अतिथियों को गङ्गाजल पिलाने की चाल थी। इसके लिए बड़ी दूर से गङ्गाजल मँगाया जाता था। जो जितना अमीर होता था उतना ही अधिक गङ्गाजल पिलाता था। दूर से गङ्गाजल मँगाने में खर्च भी बहुत पड़ता था। टैवर्नियर का कहना है कि "शादियों में कभी-कभी इसमें दो-तीन हजार रुपये तक खर्च हो जाते थे।"

पेशवाओं के लिए बहँगियों (कावड़ों) में रखकर गङ्गाजल जाया करता था । मराठी पुस्तक 'पेशवाईच्या सावलींत' (पूना १९३७) से पत्ता लगता है कि काशी से पूना ले जाने के लिए एक बहँगी गङ्गाजल का खर्च २० रुपया और पूना से श्रीरामेश्वरम् ले जाने के लिए ४० रुपया पड़ता था, जो बहुत नहीं कहा जा सकता। गढ़मुक्तेश्वर और हरिद्वार से भी पेशवाओं के लिए गङ्गोदक जाता था । श्रीबाजीराव पेशवा को बतलाया गया था "गङ्गाजल के सेवन से ऋण से मुक्त हो जायगे- श्रीतीर्थसेवन करून महाराज चिकर्त परिहार ह्वावा ।"

समय-विज्ञान

ग्रीष्मऋतु, ज्येष्ठमास और शुक्लपक्ष-वैसे तो सामान्य बुद्धि से भी ग्रीष्मऋतु और उसमें भी प्रचण्ड उष्णता से युक्त ज्येष्ठमास शीतल जल मैं साधारण स्नान के लिए स्वभावतः उपयुक्त है, फिर गङ्गाजल में स्नान का तो कहना ही क्या, किन्तु गङ्गाजल वस्तुतः स्वाभाविक रूप में श्रीष्म में ही प्राप्त होता है, क्योंकि ठेठ गङ्गोत्तरी से पिघले हुए हिम का जल इस ऋतु में ही आता है, अन्य ऋतुओं में तो हिम पिघलकर गंगाजी के यावन्मात्र जल में मिल सके यह संभावना ही कम है। ग्रीष्मऋतु के प्रथम मास के अन्त तक वह जल सर्वत्र व्याप्त हो जाता है। आषाढ मास में तो वर्षा का आरम्भ हो जाने से शुद्ध जल पहुँ-चना असंभव है इसलिए ज्येष्ठ मास का अभिवर्धमान चन्द्रमा से युक्त मरते समय गङ्गोदक देने की चाल तो सुदूर दक्षिण में भी थी। विजयनगर के राजा कृष्णराय को, जब वे सन् १५२५ में मृतप्राय थे, गङ्गोदक दिया गया और वे अच्छे हो गये । (विजयनगर, थर्ड डायनिस्टी, १९३५) ।

भूटान युद्ध के अन्त होने पर तिब्बत के तूशी लामा ने वारेन हेस्टिंग्ज के पास एक दूत भेजकर गङ्गातट पर कुछ भूमि माँगी और वहाँ पर एक मठ तथा मन्दिर बनवाया, क्योंकि 'गङ्गा हिन्दुओं के लिए नहीं, बौद्धों के लिये भी पुनीत हैं।' यह मठ और भूमि जो 'भोट बगान' के नाम से प्रसिद्ध है, तूशीलामा ने श्रीपूर्णगिरी को दान की। इसके सम्बन्ध में आजकल कलकत्ता हाईकोर्ट में एक मुकदमा चल रहा है ।

यदि कोई गङ्गा का इतिहास लिखे, जैसा कि श्री लुडविग ने नील नदी का लिखा है, तो कितना रोचक हो ।
- एक किताबी कीड़ा
( 'सिद्धान्त' पत्रिका, वर्ष २ अंक ९)

शुक्लपक्ष ही इसका उपपन्न समय है, क्योंकि चन्द्रमा का जल से तथा सूर्य का अग्नि से सीधा सम्बन्ध है- यह पहले बताया जा चुका है।

दशमी और दश योग- कहा जा सकता है कि यदि अभिवर्धमान

चन्द्र का ही जल की पवित्रता से सम्बन्ध है तो पूर्ण चन्द्रवाली पूर्णिमा इसके लिए उपयुक्त तिथि होनी चाहिए, दशमी नहीं। किन्तु ज्यौतिष शास्त्र के अनुसार यात्रा और सम्पूर्ण मंगल कार्यों के लिए द्वितीया तिथि को प्रशस्त माना गया है; जैसा कि पीयूषघारा में उद्धृत वशिष्ठ के वचन से सिद्ध है-

सप्ताङ्गचिह्नानि नृपस्य वास्तुव्रतप्रतिष्ठाखिलमङ्गलानि । यात्राविवाहा खिलभूषणाद्यं कार्यं द्वितीयादिवसे सदैव ॥

: यही बात तृतीया, पञ्चमी तथा सप्तमी तिथि में भी है और द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी इन शुभ तिथियों में जो-जो काम किये जाते हैं वे सब कार्य दशमी को सिद्ध होते हैं। जैसा कि उन्हीं ने लिखा है-

द्वितीयायां तृतीयायां पश्चम्यां सप्तमीतिथौ । उक्तानि यानि सिध्यन्ति दशम्यां तानि सर्वदा ॥

यह बात पूर्णिमा में नहीं है, अतः तीर्थों में सर्वप्रथम भगवती-गङ्गा की यात्रा इसी दिन होनी चाहिए।

पूर्वोक्त दश योगों में से मास, पक्ष और तिथि का विज्ञान तो ऊपर लिखा ही जा चुका है। बुधवार और हस्तनक्षत्र का योग होने से आनन्दद्योग होता है, जो नामानुसार फलदायक' है। अतः चार योगों की आनन्दप्रदता सिद्ध है। हस्तनक्षत्र स्नान के लिए शुभ है। म 'व्यतीपात योग तो पुण्यकाल प्रसिद्ध ही है। वृष का सूर्य द्वादशराशियों में सबसे तीव्र होता है, क्योंकि मेषराशि तक तो वसंत ऋतु रहता है और मिथुनराशि के सूर्य में प्रायः वर्षा आरम्भ हो जाती है, अतः शुद्ध गङ्गाजल आने का यही समय है। कन्या का चन्द्र सूर्य से त्रिकोण में पड़ता है। सोमरस का अधिदेवता चन्द्र सूर्य से त्रिकोण में स्थित होकर बड़ा शुभ हो जाता है। गरकरण भी नामानुरूप दोषाधायक है, क्योंकि संस्कृत में गर विष को कहते हैं, अतः दोषनिवृत्यर्थ गङ्गास्नान ऐसे ही तिध्यध' में हो यह उचित ही है।

१. फलदाः स्वनाम्ना (मुहूर्त चिन्तामणि, शुभाशुभ प्र० २४)
२. क्षौरवास्त्वमिषेकाथ्व भूषणं कर्म भानुभे (पीयूषधारा में नारद का वचन)

विधि-विज्ञान

यह उत्सव मुख्यतया स्नान का है। गङ्गास्नान का और गङ्गाजल का माहात्म्य ऊपर लिखा जा चुका है। स्नान के आयुर्वेदानुसार गुण-धर्म भी अक्षय तृतीया के प्रसङ्ग में लिखे जा चुके हैं। किसी भी तीर्थ पर पितृतर्पण भी आवश्यक है ही, क्योंकि धर्मशास्त्रानुसार तीर्थयात्री से पितर लोग जलदान की आशा करते हैं। दान तो सभी धार्मिक उत्सवों में है ही। दान के विषय में भी पहले कहा जा चुका है और परिशिष्ट में तो विशेष रूप से लेख दिया गया है। अतः विस्तार व्यर्थ है। दान में तिल बड़े प्रशस्त हैं। याज्ञवल्क्य कहते हैं-
"गो-मू-तिल-हिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम् ।

गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण आदि वस्तुएँ सत्पात्र को सत्कारपूर्वक देनी चाहिए।" अतएव सबसे पूर्व गङ्गाजल में तिल डालने का विधान है। सत्तू तो इस ऋतु की वस्तु है ही यह पहले ही बताया जा चुका है।

प्रतिमापूजन का रहस्य यह है कि धर्मशास्त्रों के अनुसार सभी वस्तुओं के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक स्वरूप होते हैं। गङ्गा का आधिभौतिक स्वरूप जल है और आध्यात्मिक स्वरूप फलदाता है, जिसकी मूर्तिरूप में पूजा की जाती है। आधिदैषिक स्वरूप के तो फलदान के समय प्रकट होने पर ही दर्शन होते हैं, अन्यथा नहीं। इसीलिए आध्यात्मिक और आधिदैविक दोनों को अभिन्न माना जाता है- 'योध्यात्मिकोऽसौ पुरुषः सो सावेवाधिदैविकः'। उसी आध्यात्मिक स्वरूप की भावना से स्वयं गङ्गाजी के आधिभौतिक स्वरूप के विद्यमान रहते भी प्रतिमारूप में उनका पूजन बताया गया है।
१. स्मरण रखिये कि तिथ्यों का नाम ही करण है।

पुराणों के अनुसार गंगाजी ब्रह्माजी के कमण्डलुजल से नारायण (वामन) के चरणप्रक्षालन द्वारा उत्पन्न होकर शिवजी के जटाजूट में घारण करने के अनन्तर सूर्य की किरणों द्वारा हिमालय पर आई हैं और राजा भगीरथ पर कृपा करके भारतभूमि पर प्रकट हुई हैं, अतः इस प्राकट्योत्सव के दिन इन सबका पूजन भी आवश्यक समझा गया है।

पूजा में वस्तुओं की संख्या दस रखने का रहस्य यह है कि मनुष्य के दशविध पाप हैं-तीन कायिक, चार वाचिक और तीन मानसिक; जैसा कि स्कन्दपुराणोक्त गंगास्तोत्र में निरूपण है-
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः ।
परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ॥
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः ।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ॥
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसाऽविष्टचिंतनम् ।
वितथाभिनिवेशश्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ॥

विना दी हुई वस्तु का ले लेना (चोरी), अविधिपूर्वक हिंसा और परस्त्रीसेवन ये कायिक अर्थात् शरीर से होनेवाले पाप हैं; कठोर व्चन, झूठ, चुगली और असम्बद्ध बकवाद ये चार वाचिक अर्थात् काणी से होनेवाले; एवं दूसरों की वस्तुओं की चाहना, मन में किसी की बुराई सोचना और व्यर्थ आग्रह ये तीन मानस पाप हैं।

इन दसों पापों की निवृत्ति अभीष्ट है, अतः सर्वपापहारिणी भगावती भागीरथी को सब वस्तुएँ दस संख्या में ही भेंट की जाती हैं और स्नान में गोते भी दस बार लगायें जाते हैं।

मच्छी, कछुए, मेंढक ये आधिभौतिक गंगाजी के भूषण अर्थात् प्रिय हैं, अतः पूजा के समय आध्यात्मिक गंगाजी के निमित्त उनका गंगाजल में प्रक्षेप बताया गया है, क्योंकि आध्यात्मिक देवता भी आधिभौतिक से ही संबद्ध है, जैसा कि शरीर से आत्मा ।

अभ्यास

(१) गंगादशमी कब होती है ? दस योग कौन-कौन से हैं ? ज्येष्ठ मास हो तो गंगादशमी किस मास में करनी चाहिए ?

(२) गंगादशमी के स्नान की विधि का संक्षेप में वर्णन करिए ।

(३) गंगा का माहात्म्य संक्षेप में कहिए; विदेशी और विधर्मियों का गंगा-जल के विषय में क्या अभिप्राय रहा ?

(४) गंगादशमी के लिए ग्रीष्मऋतु और ज्येष्ठ मास ही क्यों उपयुक्त है ?

(५) दस योगों में से जिनका विज्ञान आपको रुचिकर हो उनका संक्षेप में वर्णन करिए ।

(६) प्रत्यक्ष गंगाजी के सम्मुख रहते हुए भी प्रतिमापूजन क्यों किया जाता है ? ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं का इस दिन पूजन क्यों अभीष्ट है ? गंगाजी की पूजा में पूजा की वस्तुओं की संख्या दस क्यों है ? दस पाप कौन-कौन से हैं?

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