भारतीय व्रत उत्सव | 13 | अक्षयतृतीया
भारतीय व्रत उत्सव | 13 | अक्षयतृतीया
समय –> वैशाखशुक्ला तृतीया
कालनिर्णय
यह तृतीया यथासम्भव चतुर्थी' से युक्त लेनी चाहिए, द्वितीया से युक्त नहीं। किन्तु दूसरे दिन यदि छः घड़ी से कम हो तो पूर्व दिन की जा सकती है। इस दिन बुधवार, सोमवार और रोहिणी नक्षत्र का होना प्रशस्त है, किन्तु रोहिणी या बुधवार के लिए पूर्वविद्धा नहीं करनी चाहिए।
विधि
इसदिन गङ्गा स्नान और भगवान् कृष्ण को चन्दन चढ़ाने का विशेष माहात्म्य है। यवदान और यवों (जौ) से विष्णुपूजा का विधान है।
जौ के संन्तू' और दक्षिणासहित जल का घड़ा तथा श्रीष्म ऋतु के उचित सब पदार्थ इस दिन अवश्य दान करने चाहिए ।
१. गौरीविनायकोपेता रोहिणीबुधसंयुता । विनापि रोहिणीयोगात् पुण्यकोटिप्रदा सदा ॥ (निर्णयसिन्धु )
२. त्रिमुहूर्त्ताधिकव्याप्तिसत्त्वे परा, त्रिमुहूर्त्तन्यूनत्वे पूर्वा । (धर्मसिन्धु)
३. वैशाखे शुक्लपक्षे तु तृतीयायां तथैव च । गङ्गातोये नरः स्नात्त्वा मुच्यते सर्वकिल्विषैः ॥ ( निर्णयसिन्धु )
४. यः करोति तृतीयायां कृष्णं चन्दनभूषितम् । वैशाखस्य सिते पच्चे स यात्यच्युतमन्दिरम् ॥ (धर्मसिन्धु)
कालविज्ञान
ऋतु-अक्षयतृतीया वसन्त ऋतु में होती है। इस समय ग्रीष्म ऋतु के सब अनाज-जौ, गेहूँ आदि तयार होकर घर में आ जाते हैं। भारत की प्राचीन तथा धार्मिक प्रथा के अनुसार पहले दान और पीछे भोजन यह नियम है। तदनुसार कृषिप्रधान भारतवर्ष के लिए यह ऋतु दान करने के निमित्त प्रशस्ततर है इस विषय में तो कुछ कहना ही नहीं है।
मास-वसन्त ऋतु में दो मास होते हैं- चैत्र और वैशाख । यह पहले बताया जा चुका है। उनमें से चैत्र में अनाज पक कर सब के घर में नहीं आता। वैशाख में निश्चित रूप से आजाता है। अतः वैशाख मास दान के अधिक अनुकूल है। दूसरे, चैत्रमास में मीनसंक्रान्ति (खरमास) रहती है। मेषसंक्रान्ति जो विषुव संक्रान्ति है वह वैशाख में ही रहती है। दिनरात बराबर हों उस काल को विषुव कहते हैं। सूर्य ठीक पूर्वदिशा में वैशाख अथवा कार्तिक दो ही महीनों में रहता है। धर्मशास्त्रों में विषुव संक्रान्ति का विशेष माहात्म्य है। इसलिए वैशाख में अक्षयतृतीया और कार्तिक में अक्षयनवमी दोनों दिन दान के निमित्त प्रधान माने जाते हैं।
पक्ष- शुक्लपक्ष तो सभी माङ्गलिक और देवकार्यों में प्रशस्त है ही।
१. उदकुम्भान् सच्नकान् सान्नान् सर्वरसैः सह ।
यवगोधूमचणकान् सक्तुदद्ध्योदनं तथा ।
ग्रैष्मिकं सर्वमेवात्र सस्यं दाने प्रशस्यते ॥ ( निर्णयसिन्धु )
२. समरात्रिन्दिवे काले विषुवद् विषुवं च तत् । (अमरकोष)
तिथि
तृतीया जया तिथि है और शुक्लपक्ष की जया तिथि शुभमानी जाती है। दूसरे, तृतीया गौरी' का दिन है और चतुर्थी गणेश जी का और ये ही दोनों सिद्धि देनेवाले तथा विन्ननाश करनेवाले हैं, अतः इनकी तिथि में दान करना उचित ही है।
विधिविज्ञान
गङ्गास्नान- गङ्गाजल के विशेष माहात्म्य का वैज्ञानिक विवेचन तो गङ्गादशहरे के प्रसङ्ग में किया जायगा। यहाँ स्नान-मात्र का विवेचन किया जा रहा है। आयुर्वेद में स्नान के निम्नलिखित गुण बताये गये हैं-
दीपचं वृष्यमायुष्यं स्वानमूर्जाबलप्रदम् । कण्डूमलश्रमस्वेदतन्द्रातृड्दाहपाप्मजित् ॥
(वाग्मट, सूत्रस्थान अ. २ श्लोक १५)
अर्थात् स्नान अग्नि को प्रदीप्त करने वाला, शुक्र बढ़ाने वाला, आयु के लिए हित, उत्साह और बल का देनेवाला, खुजली, मैल, थकावट, पसीना, ऊँघ, प्यास, जलन और पाप को परास्त करने वाला है। स्नान यद्यपि घर, कुआ, तालाब, नदी आदि पर किया जा सकता है, पर उनमें से नदी का स्नान बहुत प्रशस्त है।
चन्दन चढ़ाना
अक्षयतृतीया पर वसन्त की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु का आरम्भ होनेवाला है तथा आयुर्वेद के अनुसार तो श्रीष्म आरम्भ हो भी गया है। ग्रीष्म में वायु का संचय होता है, सूर्य के ताप से दाह बढ़ जाता है, प्यास बढ़ने लगती है और शरीर गरमी के कारण सूखने लगता है। इन सब को नियन्त्रित करने की शक्ति चन्दन में है। जैसा कि आयुर्वेद में कहा गया है:-
चन्दनं शीतलं रूक्षं तिक्तमाह्लादनं लघु । श्रमशोषविषश्लेष्मतृष्णापित्तास्रदाहनुत् ॥
( भावप्रकाश निघण्टु, कर्पूरादिवर्ग १३)
अर्थात् चन्दन ठंडा, रूखा, कडुआ, प्रसन्न करनेवाला और लघु है। उससे थकावट, सूखना, जहर, कफ, प्यास, रक्तपित्त और जलन मिटती हैं। भला ऐसी वस्तु को भगवान् को अर्पण करके ऐसे समय अपने उपयोग में कौन न लेना चाहेगा, अतः विशेष विस्तार की अपेक्षा नहीं है।
१. नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णाः स्युस्तिथयः पुनः ।
पर्यायत्वेन विज्ञेया नेष्टमध्येष्टदा सिते ॥
(पीयूषधारा में नारद का वचन )
२. चतुर्थी गणनाथस्य गौर्यास्तत्पूर्ववासरे।
(पीयूषधारा में अभिपुराण का बचन)
३. 'वैशाखज्यैष्ठौ प्रीष्मः' (सुश्रुत सूत्र०, अ० ६ श्लोक १०।)
४. ता एवौषधयो निदाघे वायोः संचयमापादयन्ति ।
(सु. सूत्र १२)
जल का घड़ा
गरमी में जल के घड़े का दान तो किसी प्रमाण 'या समर्थन की अपेक्षा रखता नहीं ।
जौ और जौ का सत्तू-जौ के विषय में आयुर्वेद कहता है-
यवः कषायो मधुरः शीतलो लेखनो मृदुः...... कण्ठत्वगामयश्लेष्मपित्तमेदः प्रणाशनः ।
पीनसश्वासका सोरुस्तम्मलोहिततृट्प्रणुत् ॥
अर्थात् जौ कसैला, मीठा, ठंडा, खुरचनेवाला और कोमल है। वह कंठ के रोग, चमड़ी के रोग, कफ, पित्त और मेद को नष्ट कस्ता है तथा पीनस्स्र, श्वास, खाँसी, ऊरुस्तम्भ (जाँघों की जकड़न), रुधिर तथा व्यास को मिटाने वाला है।
पूजाविधि में कहा जाता है- 'यवोऽसि धान्यराजोऽसि - अर्थात् तुम जौ हो तुम घान्यों के राजा हो' भगवान् कृष्ण ने भी श्रीमद्भागवत में उद्धव से कहा है- "ओषधीनामहं यवः - फल पकने पर जो पौधे काट लिए जाते हैं उनमें जौ मेरा रूप है" ऐसी पवित्र और ऋतु के अनुकूल वस्तु दान और पूजन में ली जाय इस विषय में कहना ही क्या है।
जौ के सत्तू के विषय में आयुर्वेद कहता है-
यवजाः सक्तवः शीता दीपना लघवः सराः ।
कफपित्तहरा रूक्षा लेखनाश्च प्रकीर्त्तिताः ।
ते पीता बलदा वृष्या बृ हणा भेदनास्तथा ।
तर्पणा मधुरा रूक्षाः परिणामे बलावहाः ।
कफपित्तश्रमक्षुत्तृट्व्रणनेत्रामयापहाः ।
प्रशस्ता धर्मदाहाध्वव्यायामार्त्तशरीरिणाम् ।
( भावप्रकाश निघण्टु कृतान्त्रवर्ग १६६-१६७)
जौ का सत्तू ठंडा, रूखा और खुरचने वाला होता है। सत्तू पीने से वीर्य बढ़ता है, शरीर पुष्ट होता है, सूखा मल कटता है और तृप्ति होती है। वह स्वाद में मधुर और रुचिकारक होता है और परिणाम में बल देता है। सत्तू कफ, पित्त, थकावट, भूख, प्यास, घाव और नेत्ररोगों को मिटाता है और गरमी, जलन तथा व्यायाम से पीडित प्राणियों के लिए प्रशस्त है।
ऐसी वस्तु इस ऋतु के सर्वथा अनुकूल है। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु के उचित पदार्थों जैसे पंखा, शर्बत अथवा ओले के लड्डू आदि का दान भी ऋतु के अनुकूल है इसमें तो किसी को कोई शंका हो नहीं सकती ।
दान
ऊपर बताया जा चुका है कि अक्षयतृतीया स्नान और दान का पर्व है। उसमें से स्नान के गुण ऊपर बताये जा चुके हैं। दान के विषय में कहा जा सकता है कि इस उत्सव में जिन वस्तुओं का दान किया जाता है वे दान लेनेवाले को लाभप्रद हो सकती हैं; दानदाता को उनसे क्या लाभ ? किन्तु बात ऐसी नहीं है। प्रथम तो शास्त्रों का सिद्धान्त है कि जो कुछ दिया जाता है वही दानदाता को भी उसके प्रतिफल रूप में प्राप्त होता है, अतः जो जो प्रिय अथवा हितकारी वस्तुएँ हों उनका अवश्य दान करना चाहिए। दूसरे, भगवान् कृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं कि-
यज्ञो दानं तपश्चैव पवनानि मनीषिणाम् ।
अर्थात् यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानों को पवित्र करने वाले हैं। श्रीमद्भागवत में भी लिखा है कि-
'शुध्यन्ति दानैः सन्तुष्ट्या द्रव्याणि ।'
अर्थात् घन दान और सन्तोष से शुद्ध होता है।
सारांश यह कि यदि अपने पास धन पर्याप्त है तो उसकी शुद्धि दान से होती है और यदि थोड़ा है तो वह सन्तोष से शुद्ध होता है। अतः यथाशक्ति दान अवश्य करना चाहिए। दान में वही वस्तुएँ देनी चाहिए, जो देश, काल और पात्र के अनुकूल हों। इसीलिए तो भगवान् ने दानदाताओं को 'बुद्धिमान्' कहा है। बुद्धिमान् देश, काल और पात्र का निर्णय कर सकता है, मूर्ख ऐसा नहीं कर सकता। वह दान भी देगा और उससे लाभ भी न उठा सकेगा।
इनमें से देश तो उन पवित्र स्थानों का नाम है जहाँ दान देने से फल अधिक होता है, जैसे गङ्गातट, भगवन्मन्द्रि आदि और कालों के लिए ये सब व्रत उत्सव हैं ही। किन्तु पात्र का विचार और कर लेना चाहिए। धर्मशास्त्र कहते हैं:-
गोमूतिलहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम् ।
नापात्रे विदुषा किञ्चित् नहि भस्मनि हूयते ॥
अर्थात् गाय, पृथ्वी, तिल, सोना आदि सत्कारपूर्वक पात्र को देना चाहिए। विद्वान् को चाहिए कि अपात्र को कुछ न दें, क्योंकि राख में होम नहीं किया जाता। कहने का सारांश यह कि अपात्र को दान करना राख में हवन करने के समान है।
अब यह भी समझ लीजिए कि पात्र कौन है। मनु महाराज कहते हैं-
न विद्यया केवलया तपसा वापि पात्रता ।
यत्र वृत्तमिमे चोमे तत् पात्रं ब्राह्मणाः विदुः ।
अर्थात् केवल विद्या अथवा केवल तप से पात्र नहीं होता, किन्तु जिस में सदाचार, विद्या और तप तीनों हों वही पात्र है।'
इस सब लेख का तात्पर्य यह है कि दान बड़ी उत्तम वस्तु है, अतः भारतीयपद्धति के अनुसार उपभोग्य वस्तुओं का पहले दान और पीछे उपभोग करना चाहिए । दान के लिए भी वस्तुओं का गुण अवगुण जानना आवश्यक है, क्योंकि तभी ऋतु के अनुकूल उत्तम वस्तुओं का द्वान में उपयोग किया जा सकता है। और यह तो समझ ही गए हैं कि दान देश, काल और पात्र को समझ कर करना चाहिए ।
परशुरामजयन्ती
इस दिन भगवान् परशुराम की जयन्ती भी मानी जाती है, अतः मन्दिरों में जयन्ती में होनेवाले पञ्चामृतस्नानादि भी किये जाते हैं। इन का विवरण रामनवमी में दिया जा चुका है।
अभ्यास
(१) अक्षयतृतीया किस दिन होती है ?
(२) अक्षयतृतीया का निर्णय कैसे करेंगे ?
(३) अक्षयतृतीया के दिन क्या-क्या होता है ?
(४) ज्ञान और चन्दनलेप के गुण बताइये ?
(५) जौ और जौ के सत्तू में क्या गुण हैं ?
(६) दान क्यों देना चाहिए? यहाँ देश-काल से क्या अभिप्राय है ?
(७) दान किसे देना चाहिए ?
(८) पात्र किन गुणों से होता है ?
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