भारतीय व्रत उत्सव | 14 | नृसिंह चतुर्दशी

भारतीय व्रत उत्सव | 14 | नृसिंह चतुर्दशी

समय

वैशाखशुक्ल चतुर्दशी

समयनिर्णय

नृसिंहचतुर्दशी सूर्यास्त के समय चतुर्दशी तिथि हो उस दिन करनी चाहिए। दोनों दिन सूर्यास्त के समय चतुर्दशी हो या दोनों दिन न हो तो दूसरे दिन करना चाहिए। इस दिन शनिवार और स्वातिनक्षत्र हो तो अत्यन्त प्रशस्त है।

समयविज्ञान

वसन्त ऋतु के विषय में रामनवमी के प्रसंग में लिखा जा चुका है। उसका अन्तिम मास नृसिंह भगवान् के अवतार में इसलिए है कि भगवान् राम शान्त हैं और भगवान् नृसिंह उम्र हैं, अतः भगवान् के पालक स्वभाव के कारण परमरम्य वसन्त ऋतु के रहते हुए भी ग्रीष्म की उग्रता के आरम्भ के समीप उनका प्रादुर्भाव है। शुक्लपक्ष के विषय में तो रामनवमी के प्रसंग में कहा ही जा चुका है। शुक्लपक्ष की अन्तिम तिथि से पूर्व तिथि इसलिए है कि प्रकाश की पूर्णता होने के समय थोड़ा भी अन्धकार असह्य है। ऐसे समय अर्थात् सत्ययुग में तमोमय असुर का विनाश आवश्यक है- एतदर्थ कुछ अन्धकारयुक्त दिन लिया गया और रिक्वातिथियों (चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी) की अन्तिम तिथि तो हिरण्यकशिपु के कारण उस समय संसार की परमरिक्तता ( खाली हाथ हो जाने की सूचना देती है, शनिवार और स्वाति नक्षत्र दुष्ट की समाप्ति के आवश्यक दिन हैं, क्योंकि ज्यौतिष के अनुसार 


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आरम्भ और समाप्ति शनिवार को ही करनी चाहिए और स्वातिनक्षत्र अपुनरागमन का दिन है। उस दिन गया हुआ फिर लौटता नहीं ।

नृसिंहावतार

भगवान् के दस अथवा चौबीस अवतारों में से चार प्रधानतया अनुग्रहावतार हैं- राम, कृष्ण, नृसिंह और वामन। इसीलिए वैष्णवों में ये चार जयन्तियाँ विशेष मान्य हैं। इनमें से राम के चरित्र रामायण में और कृष्ण के चरित्र भागवत तथा महाभारत में वर्णित हैं। नृसिंह-चरित्र भी श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में विस्तार से वर्णित है। भगवान् नृसिंह भक्त प्रह्लाद की रक्षा और दुष्ट दैत्य हिरण्यकशिपु के वध के लिए अवतीर्ण हुए थे। प्रह्लाद की कथा से जनता अपरिचित नहीं है, अतः विस्तारभय से वह यहाँ नहीं लिखी जाती ।

विधिविज्ञान

पञ्चामृतस्नानादि, पूजन सामग्री तथा उपवासादि का विज्ञान राम-नवमी के प्रसंग में लिखा जा चुका है। वही यहाँ भी समझें।

कथा

सुतजी ने कहा-देवताओं के देव, जगत् के गुरु और जगत् के

स्वामी विष्णुभगवान् हिरण्यकशिपु को मारने के बाद शान्तकोप होकर सुख से बैठे थे। उस समय ज्ञानियों में श्रेष्ठ प्रह्लाद उनकी गोदी में जा बैठे और हाथ जोड़कर नृसिंह भगवान् से कहने लगे ।

प्रह्लाद ने कहा- भगवान् विष्णु ! नृसिंह स्वरूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। हे सर्वश्रेष्ठ ! हे जगद्‌गुरु ! मैं आपका भक्त हूँ

१. 'स्थाप्यं समाप्यं शनिभौमवारे'

२. 'चित्रास्वातिगता मेघाश्वित्रास्वातिगता नराः । न पुनर्ग्रहमायान्ति ।'

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अतः आपं से पूछता हूँ। हे स्वामिन्, मेरी आप में अनन्य भक्ति किस कारण हुई और मैं आपका प्रिय कैसे हो गया ? इसका कारण बताइए ।

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा- हे महामति वत्स ! मेरी भक्ति और

मेरे प्रियत्व का जो कारण है उसे मैं कहता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ।

पूर्वकल्प में तुम एक ब्राह्मण थे, किन्तु पढ़ें नहीं थे। तुम्हारा नाम वासुदेव था और तुम वेश्यागामी थे। उस जन्म में केवल मेरे व्रत को छोड़कर तुमने कुछ भी सुकृत नहीं किया। तुम्हें हमेशा वेश्या के संग की इच्छा रहती थी, किन्तु मेरे व्रत के प्रभाव से तुम्हारी मुझ में भक्ति हुई और तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो गये ।

प्रह्लाद ने पूछा- हे श्रीविष्णु ! मेरे पूर्वजन्म की चेष्टा वर्णन करिए । मैं किस कुल में उत्पन्न हुआ था, किस ब्राह्मण का लड़का था तथा वेश्या में आसक्त होते हुए वह व्रत मैंने कैसे किया? हे जगदीश्वर ! यह सब विस्तार से मुझे बताइये ।

श्रीनृसिंह ने कहा- पहले अवन्तिपुरी में वेदपारगामी एक ब्राह्मण

था। उसका नाम था वसुशर्मा। वह तीनों लोकों में विख्यात था। वह ब्राह्मणश्रेष्ठ नित्य होम करता और सदा सब ब्राह्मणकर्मों में तत्पर रहता था । वसुशर्मा ब्राह्मण ने अग्निष्टोमादि यज्ञों के द्वारा सब देवताओं का यजन किया और किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं किया। उसकी स्त्री बड़ी सुशील थी और त्रिलोकी में विख्यात थी। वह बड़ी पतिव्रता, सदाचा-रिणी और पति की भक्ति में तत्पर थी। उस ब्राह्मण से उस स्त्री को पाँच पुत्र उत्पन्न हुए जो सदाचारी, विद्वान् और पिता की भक्ति में तत्पर थे। उन पाँचों लड़कों में तुम सबसे छोटे थे। तुम्हें वेश्या की सङ्गति की लालसा उत्पन्न हुई। वेश्या के संग के कारण तुमने मदिरापान किया और धनवानों के यहाँ से सोना भी चुराया ।


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है। स्त्रियों के लिए यह व्रत पुत्र और सौभाग्य देनेवाला है, अवैधव्य करने वाला और पुत्रशोक का नाश करने वाला है। यह व्रत धन-धान्य देनेवाला और सब इच्छाओं का पूरा करनेवाला है। जिनने यह उत्तम व्रत किया है, उनको सब भूमि के स्वामी होने का सुख प्राप्त हुआ है। स्त्री हो अथवा पुरुष जो इस उत्तम व्रत को करते हैं उनको मैं इस लोक में भक्ति देता हूँ और परलोक में मुक्ति देता हूँ। हे वत्स ! इस व्रत का फल अधिक क्या कहा जाय; क्योंकि मेरे व्रत के फल को न मैं कह सकता हूँ और न शिवजी कह सकते हैं। चतुर्मुख ब्रह्माजी भी इसका पार नहीं पा सकते, अतः मैंने थोड़ा सा कह दिया है। तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

प्रह्लाद ने कहा- भगवन् ! आप की कृपा से यह व्रत और इसका

श्रेष्ठ फल सुना, जो कि आप में मेरी भक्ति का कारण है। अब मैं इस व्रत की विधि सुनना चाहता हूँ। यह व्रत किस मास, किस पक्ष और किस तिथि को होता है ?

श्रीविष्णु भगवान् ने कहा- हे महामति ! बहुत अच्छा, बहुत

अच्छा, इस व्रत की सब विधि मैं कहता हूँ। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। वैशाख में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन मेरी जयन्ती का यह पापनाशक व्रत करना चाहिए। संसार से डरनेवाले मनुष्यों को प्रतिवर्ष यह व्रत करना चाहिए। यह व्रत मुझे संतोष देनेवाला, गुप्त से गुप्त और अतिश्रेष्ठ है। इसके करने से मनुष्यों को सहस्र द्वादशी व्रत का फल होता है। मैं झूठ नहीं कहता। स्वाति नक्षत्र का संयोग होने से यह व्रत करोड़ों हत्याओं को नष्ट कर देता है। इस योग के बिना भी यह दिन पाप का नाश करने वाला है। मेरी जयन्ती के दिन व्रत अवश्य करना चाहिए, अन्यथा जब तक चन्द्र सूर्य रहेंगे तब तक नरक में जाना पड़ता है। जैसे-जैसे कलियुग में पाप की प्रवृत्ति अधिक होगी वैसे-वैसे मेरे व्रत को लोग नहीं करने लगेंगे, क्योंकि जो नित्य पाप में लगे हुए 


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और विरुद्ध कर्म करने वाले पुरुष हैं उन दुरात्माओं की मेरा व्रत करने में बुद्धि होती ही नहीं ।

वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को यह सर्वपापनाशक मेरा व्रत करना चाहिए । हे वत्स ! जिस मनुष्य को व्रत करना हो उसे दन्तंधावन करके नीचे लिखे मन्त्र से नियम ग्रहण करना चाहिए-

नृसिंह देवदेवेश तव जन्मदिने शुभे ।

उपवासं करिष्यामि सर्वभोगविवर्जितम् ॥ श्रीनृसिंह महोग्रस्त्वं दयां कृत्वा ममोपरि । अद्याहं प्रविधास्यामि व्रतं निर्विघ्नतां नय ॥

व्रत करने वालों को उस दिन पापियों के साथ वार्तालाप नहीं करना चाहिए और झूठ नहीं बोलना चाहिए। उस दिन व्रत करनेवाले महात्मा को स्त्री और जुआ का त्याग करके सब दिन मेरे स्वरूप का स्मरण करना चाहिए । तब मध्याह्न के समय नदी आदि के विमल जल में अथवा घर में, किंवा देवखात (प्रकृति के बनाए सरोवर) अथवा तालाब में स्नान करना चाहिए। स्नान करते समय मट्टी, गोबर, आँवले और सर्वपापनाशक तिल शरीर में लगाने चाहिए। फिर पवित्र वस्त्र पहन कर नित्यकर्म करे और भक्तिपूर्वक मेरा स्मरण करता हुआ घर आवे ।

वहाँ गोबर से लीपकर अष्टदल कमल बनावे। उस पर रत्नसहित तांबे का घड़ा रक्खे, उसके ऊपर चावल भरा हुआ पात्र रक्खे, उस पात्र में लक्ष्मी जी सहित मेरी स्वर्ण की मूत्ति स्थापित करे। मूर्त्ति चार तोले, दो तोले, एक तोले अथवा आघे तोले की शक्ति के अनुसार बनानी चाहिए। तब पञ्चामृत स्नान करवाके पूजन करना चाहिए । लोभरहित कुलशील से युक्त, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय अपने आचार्य ब्राह्मण को बुलाकर उसी से शास्त्र के अनुसार पूजन करवाने की प्रार्थना करे। आचार्य के वचन से यथाविधि स्वयं पूजन करे। पुष्पों के गुच्छों

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से सुशोभित मण्डप बनावे । ऋतुकाल में उत्पन्न पुष्पों से मेरी षोडशो-पचार पूजा करे । पूजन के समय मन्त्र अथवा भगवन्नाम इन दोनों में से कुछ भी कहा जा सकता है। पुराण के निम्नलिखित मंत्रों द्वारा गन्ध-पुष्पादि से पूजन करना चाहिए ।

चन्दनं दिव्यकस्तूरीचन्द्रकुङ्कुममिश्रितम् । ददामि तेस्तु तुष्टयर्थं नृसिंह परमेश्वर ॥

पुष्पैः कालोद्भवै रम्यैस्तुलसीप्रमुखैः प्रभो । पूजयामि नृसिंह त्वां लक्ष्म्या सह नमोस्तु ते ॥ इस मंत्र से गंध दान करे।

इस मन्त्र से पुष्प चढ़ावे । कालागुरुमयं घृपं सर्वदैवतवल्लभम् । समर्पयामि ते विभो सर्वकामसमृद्धये ॥

इस मंत्र से धूप दे । दीपः पापहरः प्रोक्तस्तमोरात्रिविनाशकः । दीपेन लभ्यते तेजस्तस्मादोपं ददामि ते ॥

इस मंत्र से दीपदान करे । नैवेद्यं बेह्यसंचोष्यभक्ष्यभोज्यसमन्वितम् । ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु ॥

इस मंत्र से नैवेद्य चढ़ावे । नृसिंहाच्युतदेवेश लक्ष्मीकान्त जगत्पते । अनेनार्घप्रदानेन तुष्टो भव ममोपरि ॥

इस मंत्र से अर्घ दे ।

पीताम्बर महाबाहो प्रह्लादभयनाशकृत् । अनया पूजया देव यथोक्तफलदो भव ॥

इस मंत्र से प्रार्थना करे ।

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इस मंत्र से प्रार्थना करे।

रात्रि में गाने-बजाने के साथ जागरण करना चाहिए। पुराण की कथा पढ़नी अथवा सुननी चाहिए । तदनन्तर प्रातःकाल के समय आल-स्यरहित हो स्नान करके उपर्युक्त विधि से मेरी फिर पूजा करनी चाहिए । मेरे आगे विष्णुश्राद्ध करे और दोनों लोकों की विजय की इच्छा से निम्न-लिखित दान करे। सुवर्ण का सिंह देने से मुझे बड़ा संतोष होता है। फल की कामना वालों को गाय, पृथ्वी, तिल तथा सुवर्ण का दान करना चाहिए और सप्तधान्यसहित तथा बिछौनासहित शय्या दान करना चाहिए। मेरे संतोष के लिए शक्ति के अनुसार और भी दान देनी चाहिए। भक्ति से ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा देना चाहिए । निर्धनों को भी यह व्रत करना चाहिए। उनको दानादि शक्ति के अनु-सार करना चाहिए ।

मेरे व्रत में सब वर्णों को अधिकार है। मेरे भक्तों को तो यह व्रत तत्पर होकर विशेष रूप से करना चाहिए ।

मद्वंशे ये नरा जाता ये जनिष्यन्ति चापरे ।

तांस्त्वमुद्धर देवेश दुःखदाद्भवसागरात् ॥

पातकार्णवमग्वस्य महादुःखगतस्य मे ।

करावलम्बनं देहि शेषशायिन् जगत्पते ॥

श्रीनृसिंह रमाकान्त भक्तानां भयनाशक ।

व्रतेनानेन मे देव मुक्तिमुक्तिप्रदो भव ॥

इन मन्त्रों से प्रार्थना करके देव का यथाविधि विसर्जन करे। फिर आचार्य को भेंट दे और ब्राह्मण को भी दक्षिणा से संतुष्ट करके विसर्जन करे । तदनंतर मेरा ध्यान करता हुआ बान्धवों के साथ भोजन करे ।

इस पापनाशक व्रत (की कथा) को जो भक्ति से सुनता है उसकी

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ब्रह्महत्या भी श्रवणमात्र से नष्ट हो जाती है। इस परमपवित्र और गुप्त व्रत का जो मनुष्य कीर्तन करता है उसकी सब इच्छाएँ पूर्ण होती हैं और उसे व्रत का फल प्राप्त होता है।

(व्रतार्क में नृसिंहष्वराण से उद्धृत)

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अभ्यास

(१) नृसिंहचतुर्दशी कब होती है ?

(२) नृसिंहावतार वैशाख मास शुक्लपक्ष और चतुर्दशी के दिन क्यों हुआ?

(३) उस दिन शनिवार और स्वातिनक्षत्र क्यों प्रशस्त हैं ?

(४) चार जयन्तियाँ कौन-कौन सी हैं ?

(५) कथा का सारांश कहो ।

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