भारतीय व्रत उत्सव | 18 | उपाकर्म

भारतीय व्रत उत्सव | 18 | उपाकर्म

समय-निर्णय

ऋग्वेदियों का उपाकर्म - श्रावण शुक्ल पक्ष में श्रवण नक्षत्र में होता है। यह मुख्य समय है।

उसमें न हो सके तो श्रावण शुक्ला पञ्चमी या हस्त नक्षत्र में करना चाहिए। श्रवण नक्षत्र यदि पहले दिन ६० घड़ी हो और दूसरे दिन ६ घड़ी या उससे अधिक हो तो पहले दिन न करके दूसरे दिन करना चाहिए, किन्तु यदि पहले दिन सूर्योदय में न हो और दूसरे दिन ६ घड़ी से कम हो तो केवल पंचमी या केवल हस्त नक्षत्र में ही करना चाहिए, क्योंकि इस कर्म में उत्तराषाढा के वेध का निषेध है। पञ्चमी और हस्त भी सूर्योदय के बाद कम-से-कम ६ घड़ीवाले लेने चाहिए और उससे कम हो तो पूर्व दिन करना चाहिए। श्रवण की पंचमी को न हो सके तो यह कर्म भाद्रपद की पञ्चमी अथवा हस्त नक्षत्र में भी किया जा सकता है। ऋग्वेदियों को यह कर्म पूर्वाह्न में ही करना चाहिए।

यजुर्वेदि‌यों के उपाकर्म - का श्रावण की पूर्णिमा मुख्य समय है। पूर्णिमा यदि पहले दिन सूर्योदय से २ घड़ी बाद आरम्भ हो और दूसरे दिन १२ घड़ी या उससे अधिक हो तो दूसरे दिन ही करना चाहिए। दोनों दिन सूर्योदय में पूर्णिमा हो तो पहले दिन ही करना चाहिए । पहले दिन २ घड़ी के बाद आरम्भ हो और दूसरे दिन ६ घड़ी से कम हो या क्षय हो गया हो तो भी पहले दिन करना चाहिए। यदि पहले दिन पूर्णिमा २ घड़ी बाद आरम्भ हो और दूसरे दिन ४ या ६ घड़ी हो तो तैत्तिरीय शाखावालों को दूसरे दिन और शेष सब यजुर्वेदियों को पहले दिन करना चाहिए ।

सामवेदियों के उपाकर्म का मुख्य काल भाद्रपद शुक्ल में हस्त-नक्षत्रं है। संक्रान्ति-आदि के कारण उसमें न हो सके तो श्रावण के हस्त नक्षत्र में अथवा श्रवण की पूर्णिमा तिथि को करना चाहिए। यदि पहले दिन पूरे अपराह्न में हस्त नक्षत्र हो तो पहले दिन करना चाहिए, अन्यथा दूसरे दिन । सामवेदियों का उपाकर्मकाल अपराह्न है।

अथर्ववेदियों के उपाकर्म- का श्रावण की पूर्णिमा अथवा भाद्रपद की पूर्णिमा मुख्य समय है। उन्हें यह कर्म उदय से ६ घड़ी के बाद तक रहनेवाली पूर्णिमा को करना चाहिए ।

उपाकर्म ग्रहण या संक्रान्ति के दिन नहीं होता। जिस दिन उपाकर्म करना हो उसकी पहली आधीरात से पिछली आधी रात तक के समय (आठ प्रहर = २४ घंटे) के अन्दर ग्रहण या संक्रान्ति नहीं होनी चाहिए।

उपाकर्म क्या है ?

धर्मज्ञ लोगों को यह तो विदित ही है कि वैदिक युग में द्विजों के लिए वेद-पठन अनिवार्य था। जो लोग वेद-पठन करते थे वे वेदाध्ययन¹ के आरम्भ का उत्सव प्रतिवर्ष किया करते थे। यह उत्सव नवीन ओषधियों (जो फल पकने पर काट लिए जाते हैं अथवा सूख जाते हैं उन सब पौधों को ओषधियाँ कहते हैं) के उत्पन्न होने पर वर्षा ऋतु² में श्रवणमास³ में किया जाता था। अतएव मिताक्षरा में लिखा है कि-
यदा तु श्रावणे मासि ओषधयो न प्रादुर्भवन्ति । 
तदा भाद्रपदे मासि श्रवणनदात्रे कुर्यात् ॥'

इसका तात्पर्य यह है कि यह उत्सव श्रावण में किया जाना चाहिए, किन्तु यदि (वर्षा के अभाव से) ओषधियाँ उत्पन्न न हुई हों तो भाद्रपद में किया जाना चाहिए ।

1. 'अधीयन्त इत्यध्याया वेदास्तेषामुपाकर्म उपक्रमम्' 'अध्यायानामुपा-कर्म' (याज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याय, १४२ की मिताक्षरा )।
2. 'तद्वार्षिकमित्याचक्षते' (आश्वलायन गृह्यसूत्र ३।५) 'वर्षौं भवं वार्षिकम्'
3. 'अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां श्रवणेन वा ।
( निर्णयसिन्धुः)
हस्तैनौषधिभावे वा पञ्चम्यां श्रावणस्य तु ॥' (या. स्मृ. आचारा. १४२ )
'श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि ।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोऽर्घपश्चमान् ॥' (मनु ४।९५)

इसी वेदाध्ययन के आरम्भ के उत्सव का नाम उपाकर्म है। इसके बाद⁴ साढ़े चार महीने तक प्रतिदिन वेदों का अध्ययन करके पौष या माघ मास के रोहिणी नक्षत्र में जल के तट पर जाकर वेदों का उत्सर्जन⁵ (अध्ययनसमाप्ति का उत्सव) किया जाता था। जो लोग पौष या माघ में उत्सर्जन नहीं कर पाते थे वे उपाकर्म के दिन ही आरम्भ में उत्सर्जन करके तब उपाकर्म करते थे। आजकल⁶ यही क्रम चल गया है। उत्सर्जन और उपाकर्म दोनों एक ही दिन कर लिए जाते हैं।

प्रायः यह कर्म गुरु अपने शिष्यों के साथ किया करते थे । उनके अभाव में अन्य ब्राह्मणों के साथ भी किया जाता था ।

4. 'तत ऊर्ध्वं सार्धचतुरो मासान् वेदानधीयीत ।'
(पूर्वोक्त या. स्मृ. के श्लोक की मिताक्षरा )
5. 'पौषमासस्य रोहिण्यामष्टकायामथापि वा ।
जलान्ते छन्दसां कुर्यादुत्सर्गं विधिवद्वहिः ॥' (या. स्मृ. आचा. १४३)
पौषे तु छन्दसां कुर्याद्वहिरुत्सर्जनं द्विजः ।
माधशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्न प्रथमेऽहनि ॥ (मनु. ४।९६ )
6. उत्सर्जनकालस्तु नेह प्रपञ्च्यते । 'उपाकर्मदिनेऽथवा' इति वचनानुसारेण सर्वशिष्टानामिदानीमुपाकर्मदिन एवोत्सर्जनकर्मानुष्ठानाचारेण तन्निर्णयस्यानुपयोगात्।'
(धर्मसिन्धु, २ परिच्छेद)

यह कर्म द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों) के लिए इस कारण अनिवार्य माना जाता था कि द्विज वेदों को भूल न जाँय । सालभर में कम-से-कम एक आवृत्ति तो अपने-अपने वेद की शाखा की हो जावे । अतएव उपाकर्म के संकल्प में भी 'अधीतानामध्येष्यमाणानां च छन्दसां यातयामतानिरा सेनाप्यायनद्वारा' यह बोला जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि 'जो वेद मैंने पढ़े हैं और जो पहूँगा उनकी पर्युषि-तता (बासीपन) निवृत्त करने और पुष्टि के लिए यह कर्म करता हूँ।' दुर्भाग्य से आज तो द्विजों की क्या बात, क्योंकि उनमें से क्षत्रिय और वैश्य तो प्रायः यज्ञोपवीत लेना ही छोड़ बैठे हैं, किन्तु ब्राह्मणों में से भी अनेक ऐसे हैं जो यह भी नहीं जानते कि उनके पूर्वज किस वेद की किस शाखा के अध्येता थे। ऐसी स्थिति में भी यह एक उत्सत्र ऐसा रह गया है कि जो द्विजों के वेदाध्ययन का और आश्रमों के उस पवित्र जीवन का स्मारक है।

इस उत्सव के विषय में लोग यह कह सकते हैं कि जब आज द्विजों में द्विजत्व का अभाव-सा हो गया है और वेदाध्ययन भी लुप्त-सा है, तब यह उत्सव क्यों मनाया जावे ? इसका उत्तर यह है कि 'चित्तौड़ का किला' आदि कई युद्धस्मारक आज वर्तमान काल के युद्धादि में अनुपयोगी हैं तथापि स्मारकरूप में उनकी रक्षा आज भी हमारे प्राचीन पौरुष और महत्त्व का स्मरंण करवाती है। यदि वे न होते तो आज हम शायद कुम्भा, सांगा और प्रताप आदि को भी भूल जाते अथवा राम-कृष्ण को तरह विदेशियों को यह कहने का अवसर आ जाता कि ये लोग केवल कवि-कल्पनामांत्र हैं। इतना ही नहीं, इन स्मारकों के देखते ही हमारे हृदय में उस युग के दिव्यभाव पुनः ओजस्विता उत्पन्न करने लगते हैं। :

ठीक इसी प्रकार यह उपाकर्मदिवस, हमारे उस प्राचीन आध्या त्मिक ऋषि-जीवन का दिव्य चित्र कम-से-कम एक दिन तो अवश्यमेव उपस्थित कर देता है। यही बात अन्य राष्ट्रीय उत्सवों के विषय में भी लागू होती है। अतः प्राचीन भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रति जिनकी किञ्चिन्मात्र भी श्रद्धा है उन्हें वेदाध्ययनादि न करते हों तब भी, अवश्यमेव इन उत्सवों को सुरक्षित रहने देने की चेष्टा करनी चाहिए। ये उत्सव हजारों वर्षों से हमारी प्राचीन स्मृति को जागरित करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे, अतः इनकी रक्षा ही नहीं, किन्तु इनका यथार्थरूप से मनाना हमारा परम धर्म होना चाहिए।

विधि-विज्ञान

ऊपर बताया जा चुका है कि उपाकर्म वेद‌पारायण के आरम्भ और उत्सर्जन का उत्सव है। इसमें सबसे पहिले उपर्युक्त कामना से संकल्प करके शरीर, वाणी और मन की शुद्धि के लिए पंचगव्यप्राशन (गाय से सम्बन्ध रखनेवाली पाँच वस्तुओं का आचमन) किया जाता है। पंचगव्य की पाँच वस्तुएँ ये हैं- दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोमय । इसके अतिरिक्त उसमें कुशा का जल भी मिलाया जाता है। ऐसा भी विधान है कि-संभव हो तो पीली गाय का दूध, नीली गाय का दही, काली गाय का घी, लाल गाय का गोमूत्र और सफेद गाय का गोमय ग्रहण करना चाहिए ।

गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोमय के गुण इस प्रकार हैं-दूध-गाय के दूध के चरकसंहिता में दस गुण बताये गये हैं-

स्वादु शीतं मृदु स्विग्धं बहलं श्लक्ष्णपिच्छिलम् ।
गुरु मन्दं प्रसन्नं च गव्यं दशगुणं पयः ॥
तदेवंगुणमेवौजः सामान्यादभिवर्धयेत् । 
प्रवरं जीवनीयानां क्षीरमुक्तं रसायनम् ॥
(चरक० सूत्र० २७, २१७-२१८)

अर्थात् गाय के दूध में दस गुण होते हैं। गाय का दूध स्वादिष्ट, ठण्डा, कोमल, घी वाला, गाढ़ा, चिकना, लिपटनेवाला, भारी, ढीला और स्वच्छ होता है। इन गुणों से युक्त गाय का दूध साधारणतया ओज (इन्द्रियों के बल) को बढ़ानेवाला तो है ही, परन्तु जीवन बढ़ाने वाली चीजों में सबसे श्रेष्ठ और रसायन (आयु, बल और बुद्धि को बढ़ानेवाला) है।

दही-दही के विषय में चरकसंहिता में लिखा है कि-

रोन्चन दीपनं वृष्यं स्नेहनं बलवर्धनम् । 
पाकेऽम्लमुष्णं वातघ्नं मङ्गल्यं बृंहणं दधि ॥ 
पीनसे चातिसारे च शीतके विषमज्वरे । 
अरुचौ मूत्रकृच्छ्रे च काश्र्थे च दधि शस्यते ॥
(च. सू. २७, २२५-२२६)

अर्थात् दही रुचि पैदा करनेवाला, अग्नि बढ़ानेवाला, शुक्र बढ़ाने वाला, चिकनाई लानेवाला, बल बढ़ानेवाला, पाचन के समय खटाई और गर्मी लानेवाला, मङ्गल करनेवाला और पुष्ट करनेवाला है और विशेष रूप से पीनस, अतिसार (दस्त लगना), शीतक, पुराने ज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ (सुजाक) और दुर्बलता के लिए प्रशस्त है।

घी-गाय के घी के विषय में लिखा है-

घीकान्तिस्मृतिकारकं बलकरं मेधाकरं शुद्धिकृद् वातन्नं श्रमनाशनं स्वरकरं पित्तापहं पुष्टिदम् ।
वह्नेर्वृद्धिकरं विपाकमधुरं वृष्यं वपुःस्थैर्यदं सेव्यं गव्यधृतोत्तमं बहुगुणं सद्यः समावर्त्तितम् ॥
सर्पिर्गवां चामृतकं विषघ्नं चक्षुष्यमारोग्यकरं च वृष्यम् । रसायनं मन्दमतीव मेध्यं स्नेहोत्तमं चेति बुधाः स्तुवन्ति ॥ (योगरत्नाकर)

अर्थात् गाय का उत्तम घृत बुद्धि, कान्ति, स्मरणशक्ति को देनेवाला बल देनेवाला, बुद्धि देनेवाला, शुद्धि करनेवाला, वायु नाश करने-वाला, थकावट मिटानेवाला, स्वर को ठीक करनेवाला, पित्त मिटाने-वाला, पुष्टि देनेवाला, अग्नि बढ़ानेवाला, विपाक में मधुर, शुक्र बढ़ाने-वाला, शरीर की स्थिरता करनेवाला और तत्काल निकाला हुआ बहुत. गुणकारी होता है।

गायों का घी अमृत है, जहर का नाश करनेवाला, नेत्रों का हितकारी, आरोग्य करनेवाला, शुक्र बढ़ानेवाला आयु, बल, बुद्धि. बढ़ानेवाला, अत्यन्त स्मरणशक्ति बढ़ानेवाला और स्नेहों (चिकने पदार्थों) में अत्यन्त उत्तम है इस प्रकार विद्वान् लोग प्रशंसा करते हैं।

गोमूत्र की चरकसंहितादि सभी आयुर्वेद के ग्रन्थों में बड़ी प्रशंसा है। यहाँ 'भावप्रकाश' से गुणवर्णन उद्धृत किया जाता है, क्योंकि अर्वाचीन ग्रन्थ होने से उसमें सब का संग्रह प्रायः हो गया है।

गोमूत्रं कटु तीक्ष्णोष्णं क्षारं तिक्तं कफापहम् । लध्वग्निदीपनं मेध्यं पित्तकृत् कफवातहत् ॥ शूलगुल्मोदरानाहकण्ड्वक्षितमुखरोगजित् । किलासगदवातामवस्तिरुक्कुष्ठनाशनम् ॥ 
कासश्वासापहं शोथकामलापाण्डुरोगहृत् । कण्डूकिलासगुदशूलमुखाक्षिरोगान् गुल्मातिसारमख्दामयमूत्ररोधान् । 
कासं सकुष्ठजठरकृमिपांडुरोगान् गोमूत्रमेकमपि पीतमपाकरोति ॥

[१. यकृत् और प्लीहा के बढ़ने से उदर रोग हो गया हो तो पुनर्नवा के. काढ़े में आधा गोमूत्र मिलाकर पिलाया जाय, इससे उदर रोग अच्छा हो जायगा । इस सम्बन्ध में अक्कलकोट के डाक्टर चाटी अपना अनुभव इस प्रकार बतलाते हैं- 'अपनी चालीस वर्ष की नौकरी में मैंने कितने ही जलोदर के रोगियों का इलाज किया है। उन्हें अंग्रेजी दवायें पिलायीं और पेट चीर कर दो, तीन, चार बार भी पेट का पानी निकाल दिया; परन्तु उनमें से अधिकांश रोगियों की मृत्यु' हो गयी। मैंने सुना और आयुर्वेदिक ग्रन्थों में पढ़ा भी था कि 'इस रोग पर गोमूत्र का उपयोग बहुत ही लाभकारी है।' परन्तु मुझे विश्वास नहीं होता था। एक बार एक साधु महात्मा ने गोमूत्र के गुणों का बहुत वर्णन करके कहा कि इसका जलोदर पर बहुत अच्छा उपयोग होता है। तदनुसार चार रोगियों पर मैंने गोमूत्र का प्रयोग कर देखा। उनमें से तीन चङ्गे हो गये। जो चौथा मर गया वह मुमूर्षु अवस्था में ही मेरे पास आया था। जो अच्छे हो गये, उनमें से एक का ब्यौरा इस प्रकार है- सन् १९१० में जब मैं अक्कलकोट राज्य में 'चीफ मेडिकल. अफसर' था, तब मुझे जुन्नर गाँव में जरूरी काम से बुलाया गया। वहाँ अप्पण्णा नामक एक तीस वर्ष का बढ़ई जलोदर से आसन्नमरण हो रहा था, उसी का इलाज करना था। रोगी का सब शरीर फूल गया था। न वह कुछ निगल सकता था, न हिल सकता था और बड़े कष्ट से साँस लेता था। उसके जीने की कोई आशा नहीं बच रही थी। उसे इंजेक्शन देकर शक्तिवर्धक ओषधि खिलायी और पेट चीर कर १६ पौण्ड पानी निकाल दिया, जिससे वह श्वासोच्छ्वास ठीक तरह से करने लगा। पन्द्रह दिन बाद फिर ऑपरेशन कर १४ पौण्ड पानी उसके पेट से निकाला। अब वह अच्छा हो गया और उसके पेट में फिर पानी जमा नहीं हुआ। पहले दिन से ही उसे मैं एक नीरोग और बलिष्ठ गाय का मूत्र शहद के साथ दिया करता और १ पौण्ड गोदुग्ध पिलाया करता था। पन्द्रह दिन बाद दो पौण्ड दूध देने लगा। इस इलाज से एक ही महीने में वह चंगा हो गया। मैंने इलाज बन्द कर दिया। यद्यपि अब गोमूत्र सेवन के लिये उससे मैंने नहीं कहा था, तथापि वह बराबर गोमूत्र पीया करता था। उसका विश्वास हो गया या कि गोमूत्र से ही मेरे प्राण बचे हैं, इस कारण गोमूत्र सेवन से वह विरत नहीं हुआ और धीरे-धीरे हट्टा कट्टा हो गया। (कल्याण, गो-अङ्क)]

सर्वेष्वपि च मूत्रेषु गोमूत्रं गुणतोऽधिकम् । 
अतोऽविशेषात् कथितं मूत्रं गोमूत्रमुच्यते ॥
प्लीहोदरश्वासकासशोथवर्चीग्रहापहम् ।
शूलगुल्म रुजानाह कामला पाण्डुरोगहृत् ।
कषायं तिक्ततीक्ष्णं च पूरणात् कर्णशूलहृत् ॥ 
(मावत्र. निघण्टु, मूत्रवर्ग)

गोमूत्र चिरका (तीता), तीखा, गरम, खारा, कडुआ और कफ मिष्टानेवाला है। हलका, अग्नि बढ़ानेवाला, बुद्धि और स्मरण-शक्ति बढ़ानेवाला, पित्त करनेवाला तथा कफ और वात को दूर करने-वाला है। शूल (दर्द), गुल्म (वायुगोला), उद (जलोद आदि), अफरा, खुजली, आँखों के रोग तथा मुखों के रोगों को परास्त करने-वाला है। किलास (एक प्रकार का कुष्ठ) आमवात, पेडू के दर्द और कुष्ठ का नाशक है। खांसी, दद्मा को मिटानेवाला तथा सूजन, पीलिया और रक्त की कमी को दूर करता है।

अकेले गोमूत्र मात्र के पीने से खुजली, किलास, गुदा का दर्द, मुख और आँख के रोग, गोला, दस्त लगना, वायु रोग, मूत्र रुकना, खांसी, कोढ़, पेट के कीड़े और पाण्डुरोग (रक्त की कमी) की निवृत्ति होती है।

सब (प्राणियों) के मूत्रों में गोमूत्र गुणों से अधिक है। इस कारण जहाँ (आयुर्वेद में) सामान्य मूत्र कहा हो वहाँ गोमूत्र लिया जाना चाहिए ।

गोमूत्र प्लीहा, उद, खांसी, दमा, सूजन और मलरोध को निवृत्त करता है। शूल, गोला की पीडा, अफारा, पीलिया और रक्त की कमी को मिटाता है। कसैला, कडुआ और तीखा होता है। कान में भरने से कान की पीडा को मिटाता है।

याद रखना चाहिए कि 'गो' शब्द संस्कृत में बैल और गाय दोनों के लिए आता है, पर मूत्र गाय का ही लेना चाहिए, बैल का नहीं। अतएव लिखा है कि-
गोऽजाविमहिषीणां तु स्त्रीणां मूत्रं विशिष्यते । 
खरोष्ट्रमनराश्वानां पुंसां मूत्रं हितं स्मृतम् ॥

अर्थात् गाय, बकरी, भेड़ और भैंस का स्री-जाति का मूत्र विशिष्ट होता है। गधे, ऊँट, हाथी, मनुष्य और घोड़े का मूत्र (औषधों में) पुरुष जाति का हितकारी होता है।

गोमय (गोबर) - पञ्चगव्य बनाते समय गोबर डालने का यह मन्त्र पढ़ा जाता है-

अग्रमग्रं चरन्तीनामोषधीनां वने वने । 
तासामृषभपत्नीनां पवित्रं कायशोधनम् ॥' 
तन्मे रोगांश्च शोकांश्च नुद गोमय सर्वदा ।

अर्थात् जंगलों में ओषधियों के ऊपर-ऊपर के भाग को चरनेवाली गायों का गोमय । पवित्र और शरीर को शुद्ध करनेवाला होता है। हे गोमय ! वह तू मेरे रोगों और शोकों को सर्वदा दूर कर ।

यह केवल प्रशंसा ही नहीं है।
"इटलो में अब भो हैजा या अतिसार के रोगी को ताजे पानी में ताजा गोबर घोल कर पिलाते हैं ओर जिस तालाब के पानी में हैजे के जन्तु उत्पन्न हो गये हों उसमें गोबर डालते हैं। उनका अनुभव है कि इससे हैजे के जन्तु तुरन्त मर जाते हैं।"
( कल्याण, गो-अङ्क १० ४३१)

"मद्रास के सुप्रसिद्ध किंग कहते हैं - यह अब प्रयोगों से सिद्ध हो गया है कि गाय के गोबर में हैजे के जन्तु का संहार करने की विचित्र शांति है।.... डाक्टरों ने अब सिद्ध कर दिया है कि रोगजन्तुनाश के लिए गोमय का बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपयोग है।"
(कल्याण गो. अङ्क ५० ४३१)

पञ्चगव्य स्वयं एक औषध है- योगरत्नाकर में लिखा है-

गोशकृद्रसदध्यम्लक्षीरमूत्रैः समैघृतम् । 
सिद्धं चतुर्थकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् ॥ 
अपस्मारे ज्वरे कासे श्वयथावुदरेषु च । 
गुल्मार्शः पाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमके । 
अलक्ष्मीग्रहरक्षोघ्नं चतुर्थकविनाशनम् ॥

गाय के गोबर का रस, दही का खट्टा पानी, दूध और गोमूत्र बराबर लेकर उनसे तयार किया हुआ घृत चौथिया (चार-चार दिन में आने वाला ज्वर), पागलपन, भूत-प्रेत और अपस्मार (मिर्गी) का नाशक है। यह अपस्मार, ज्वर, खांसी, सूजन, उदर नामक रोगों में, गोले, बवासीर और तीनों तरह के पीलिया रोगों में (हितकारी है)। अलक्ष्मी, भूतप्रेत और राक्षसों का तथा चौथिया का नाशक है।

पञ्चगव्य में जो कुश का जल मिलाया जाता है वह भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। कुशों के लिए वेद कहते हैं- 'वर्हि वैं देवसदनम्'- अर्थात् कुश देवों का निवास है। देवतत्त्वत्र उसके अन्दर भरे हैं। जल का यह स्वभाव हैं कि वह जिस वस्तु के साथ मिलता है उसके गुण-धर्मों को ग्रहण कर लेता है। इसीलिए शतपथ ब्राह्मण में 'मेध्या वा आपः' कहा गया है। सो देवतत्त्वों से पवित्र जल पञ्चगव्य में मिल जाने से वह और भी उत्कृष्ट गुणत्राला हो जाता है।

पञ्चगव्यप्राशन के अनन्तर उस दिन दशविध अथवा अष्टविध स्नान किए जाते हैं। दशविध स्नान में पांच तो वही वस्तुएँ हैं जो पञ्चगव्य में हैं। उनके गुण-धर्म ऊपर विस्तार से बताये जा चुके हैं। शेष पाँच हैं मृत्तिका, भस्म, गोमय, कुशजल और शुद्ध जल । इनमें से गोमय की तो पुनरावृत्ति है और कुशजल तथा शुद्ध जल के गुण भी जो पहले बताए जा चुके हैं वे ही हैं। शेष मृत्तिका और भस्म दो वस्तुएँ हैं। इन दोनों के गुणों से प्रायः सभी परिचित हैं। भारतवर्ष में कौन ऐसा होगा जो मृत्तिका अथवा भस्म से बरतन न मांजता हो। बरतन मांजते समय प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि ये दोनों वस्तुएँ चिकनाई तथा चिकनाई के साथ जमे मल को साफ करती हैं उसी प्रकार शरीर में भी जब पहले चिकनाई में जल लगने से मल फूल जाता है तब उसे इन दोनों के द्वारा निवृत्त कर दिया जाता है। इस तरह भौतिक दृष्टि से भी ये दशविध स्नान उपकारक हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से पाप-निवृत्ति तो है ही।

रहा ऋषिपूजन सो वह तो इस दिन होना ही चाहिए, क्योंकि यह उत्सव वेदाध्ययनसंबन्धी है और वेदों के वे ही द्रष्टा हैं। वेदाध्ययन हमारे यहाँ ऋषि-ऋण ही माना जाता है। अतः इस दिन भी यदि उनका पूजन न हो तो फिर हो ही किस दिन ? इसलिए इसमें विशेष उपपत्ति की आवश्यकता नहीं ।

अभ्यास
(१) प्रत्येक वेद के अनुसार उपाकर्म का समय बताइए तथा कालनिर्णय समझाइए ।
(२) उपाकर्म क्या है ? अब बेदों के अध्ययन का हास हो रहा है फिर यह उत्सव क्यों मनाया जाय ?
(३) उपाकर्म की सामान्य विधि समझाइए ।
(४) पश्चगव्य के गुण बताइए और यह समझाइए कि क्या गोमूत्र और गोमय जैसी वस्तुएँ भी अवश्य. प्राह्य हैं ?
(५) गोमूत्र के विषय में डाक्टर चाटी का अनुभव निरूपण करिए। (टिप्पणीमें)
(६) कुशोदक, दशविध स्नान और ऋषिपूजन का महत्त्व समझाइए ।

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