भारतीय व्रत उत्सव | 19 | जन्माष्टमी
भारतीय व्रत उत्सव | 19 | जन्माष्टमी
जन्माष्टमी
समय
जन्माष्टमी का उत्सव भाद्रपद कृष्ण (दाक्षिणात्यों के हिसाब से श्रावण कृष्ण) अष्टमी को होता है।
काल-निर्णय
इस व्रत में सप्तमी-सहित अष्टमी का ग्रहण निषिद्ध है। जन्माष्टमी का कालनिर्णय धर्मशास्त्रों में बड़े विस्तार से किया गया है। जिनको इस विषय की विशेष जिज्ञासा हो वे धर्मसिन्धु, निर्णयसिन्धु आदि तथा तत्तत्सम्प्रदायों के ग्रन्थों में देख सकते हैं। यहाँ हम ग्रन्थ को जटिलता से बचाने के लिये तथा विस्तार के भय से उन सब का सारांश देने में भी असमर्थ हैं। अतः केवल मोटी बातें ही यहाँ दी जा रही हैं।
-साधारणतया आजकल इस व्रत के विषय में दो मत हैं। स्मार्त लोग अर्धरात्रि का स्पर्श होने पर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं, किन्तु वैष्णवलोग सप्तमी का किञ्चिन्मात्र स्पर्श भी सहन नहीं करते। उनके यहाँ सप्तमी का स्पर्श होने पर द्वितीय दिवस ही उपवास होता है, चाहे अष्टमी कला-काष्ठा मात्र ही हो। निम्बार्कसम्प्रदायी वैष्णव तो पूर्वदिन अर्धरात्रि से कुछ पल भी सप्तमी अधिक हो तो भी अष्टमी को उपवास न करके नवमी में ही उपवास करते हैं। प्रायः यही मत रामानन्द सम्प्रदायियों को भी मान्य है। रामानुज सम्प्रदायवाले नक्षत्र को ही प्रधानता देते हैं। उनके यहाँ सिंह संक्रान्ति में रोहिणी नक्षत्र जब आता है तभी जन्माष्टमी मनाई जाती है, तिथि का उनके यहाँ विशेष आद नहीं है। शेष वैष्णवों में उद्यव्यापिनी अष्टमी को प्रधानता दी जाती है। विशेष निर्णय तत्तत्सम्प्रदायग्रन्थों से समझना चाहिए ।
विधि
इस दिन भगवान् का प्रादुर्भाव होने के कारण धर्मशास्त्रों में पलंग पर देवकी-सहित श्रीकृष्ण¹ के पूजन का विधान है। प्रथम देवकी का पूजन करके फिर श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। देवकी के पूजन का मन्त्र यह है-
गायद्भिः किन्नराद्यैः सततपरिवृता वेणुबीणानिनादैः, श्रृङ्गारादर्शकुम्भप्रवरकृतकरैः किङ्करैः सेव्यमाना ।
पर्यङ्के स्वास्तृते या मुदिततरमुखी पुत्रिणी सम्यगास्ते, सा देवी देवमाता जयति सुतनया देवकी कान्तरूपा ॥
किन्तु आजकल सभी मन्दिरों में अथवा भगवद्भक्तों के घरों में भी अर्धरात्रि के समय पञ्चामृतस्नान और विशिष्ट रूप से सेवा शृङ्गारादि ही इस उत्सव का प्रधान विधान माना जाता है। उपवास तो ऐसे उत्सवों का मुख्य अङ्ग है ही, जैसा कि रामनवमी के विधि-विज्ञान में लिखा जा चुका है। पश्ञ्चामृतस्नान के अनन्तर षोडशोपचार से अथवा यथा-लब्ध उपचारों से पूजन किया जाता है।
धर्मशास्त्रों में पूजन के बाद इस दिन शंख से चन्द्रमा और श्रीकृष्ण के लिए अर्घ्यदान का विधान है। रात्रि में जागरण और भगवत्कीर्तन भी इस उत्सव का प्रधान अङ्ग है। श्रीनाथद्वारा और ब्रज (मथुरा वृन्दावन) में
1. पर्यकस्यां किन्नरा (किङ्करा) धैर्युतां ध्यायेत्तु देवकीम् ।
श्रीकृष्णं बालकं ध्यायेत्पर्यङ्के स्तनपायिनम् ॥
श्रीवत्सवक्षसं शान्तं नीलोत्पलदलच्छविम् ।
संवाहयन्तीं देवक्याः पादौ ध्यायेच्च तां श्रियम् ॥
(धर्मसिन्धु, द्वि० प०, जन्माष्टमी-निर्णय )
यह उत्सव बड़े विशिष्टरूप से होता है। वैसे तो जन्माष्टमी समग्र भारत-वर्ष का सर्वमान्य उत्सव है, किन्तु वल्लभ, चैतन्य और निम्बार्क संप्रदाय का यह सबसे बड़ा उत्सव है ।
इसके द्वितीय दिन (अर्थात् नवमी को) नन्दमहोत्सव किया जाता है। इस उत्सव में दही, दूध, घी, जल और हरिद्रा, तैल आदि से परस्पर सेचन तथा विलेपन किया जाता है। जैसा कि-
'हरिद्राचूर्ण तैलाद्भिः सिञ्चन्त्योऽ जनमुज्जगुः ।'
(श्रीमद्भागवत १०।५।१२)
और-
'गोपाः परस्परं हृष्टा दधिक्षीरघृताम्बुभिः ।
आसिश्वन्तो विलिम्पन्तो नवनीतैश्च चिक्षिषुः ।'
श्रीमद्भागवत (१०।५।१०)
इन श्लोकों में वर्णन है।
काल-विज्ञान
ऋतु-रामनवमी के काल-विज्ञान में यह बताया जा चुका है कि भारतवर्ष की सर्वोत्तम ऋतुएं दो ही हैं- एक वर्षा और दूसरी वसन्त । उनमें से भगवान् कृष्ण का प्रादुर्भाव वर्षा ऋतु में हुआ है। वसन्त में यद्यपि बाग-बगीचे कुसुमित और सुरभित होते हैं, अतएव वसन्त को ऋतुराज कहा जाता है, तथापि सर्वसाधारण को लाभ पहुँचानेवाली और पृथ्वी के चप्पे-चप्पे को नयन-मनोहारिणी हरियाली से तथा जलप्लावन से क्षालित करके 'धोये धोये पातन की लुनाई' लानेवाली, सकल-जन-सुखदायी ऋतु वर्षा ही है। अतएव राजा राम के ऋतुराज में प्रकट होने पर भी गोकुल के ग्वाल-बालों में बाल्य-जीवन व्यतीत करनेवाले भगवान् ने तो वर्षा ऋतु को ही पसन्द किया। यह उचित भी है, क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम के प्रकट होने पर भूमि का कोई भी भाग उल्लास-शून्य कैसे रह सकता है। जिस तरह भगवान् पूर्ण पुरुषोत्तम विश्वम्भर हैं, उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी विश्वम्भर है। वसन्त से चाहे [ ११६ ]
गंगा, यमुना, सिन्धु, गोदावरी और कावेरी के प्रचुर सलिल से प्लावित वनों और उपवनों की मालाएं पल्लवित, पुष्पित और फलित हो सकती हैं, और इसमें कोई सन्देह नहीं कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्म की ऋतु मर्यादानुसार किसी भी वृक्ष और लता को अनुपम शोभा और सौरभ दान कर सकती है, किन्तु निर्जलमरुस्थल की बीहड़ भूमि भी जिस ऋतु में अन्न-जल से परिपूर्ण और फलित-पुष्पित होती है वह ऋतु तो वर्षा ही है। इस ऋतु में जहाँ पुण्यसलिला सरिताओं के और हरित-भरित पर्वतों के परिसर आमोद-प्रमोद से दर्शकों को प्रमुदित करते हैं वहाँ ८ महीने अत्यन्त शीत और उष्ण से क्लान्त रहनेवाले सिकतामय मरुस्थल के प्रदेश भी सस्य-सम्पत्ति से आबाल-वृद्ध जनता का केवल मनोरंजन ही नहीं करते, किन्तु धन-धान्य की अभिवृद्धि का आश्वासन देकर परम सुखित कर सकते हैं। इसलिए पूर्ण पुरुषोत्तम विश्वम्भर प्रभु का प्रादुर्भाव इस ऋतु में ही होना चाहिए। यह उचित ही है ।
मास-वर्षा ऋतु में दो मास होते हैं- श्रावण और भाद्रपद् । उनमें से भाद्रपद अन्तिम मास है। श्रावण में आरम्भ होने पर भी वर्षा की कार्य-क्षमता भाद्रपद में ही प्रतीत होती है। श्रावण तो एक प्रकार से कृषकों के लिए आशा और निराशा के बीच का समय है, किन्तु भाद्रपद वर्षाऋतु का निर्णायक मास है। यदि इस मास तक उत्तम वृष्टि हो गई तो सुभिक्ष है, अन्यथा दुर्भिक्ष ।.
भगवान् का प्रादुर्भाव भी निराशा में आशा संचार का निर्णायक है। उनके प्राकट्य के बाद भक्तों और भगवान् के अनुयायियों की आशाएं फलोन्मुख हो गई हैं, जिस प्रकार कि भाद्रपद में कृषकों की आशाएं फलोन्मुख हो जाती हैं। इसी कारण श्रीमद्भागवत में ठीक ही लिखा है कि-
मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनामसुर द्रुहाम् ।
अर्थात् असुरों के द्रोही सत्पुरुषों के मन प्रसन्न हो गए।' सो भगवान् श्रीकृष्ण ने कृषिप्रधान भारत के आशापूर्ण अवसर भाद्रपद मास में ही प्रकट होना उचित समझा ।
पक्ष-साधारणतया यह कहा जा सकता है कि निर्दोष और प्रकाश-रूप प्रभु का प्राकय्य पूर्णचन्द्र की चन्द्रिका से चतुर्दिक् प्रकाशित शुक्लपक्ष में ही होना चाहिए, जैसा कि भगवान् राम का प्रादुर्भाव हुआ है। फिर भगवान् कृष्ण का प्रादुर्भाव अन्धकारमय कृष्ण-पक्ष में क्यों ? परन्तु ऐसी शंका करनेवालों ने कदाचित् विचार नहीं किया है कि भगवान् का प्रादुर्भाव अन्धकार के समय प्रकाश देने के लिए ही हुआ करता है। अतएव श्रुति भगवती भगवान् से प्रार्थना करती है कि 'तमसो मा ज्यो-तिर्गमय-अर्थात् मुझे अन्धकार में से प्रकाश में पहुँचाओ' । कृष्णपक्ष अन्धकार का समय है और जब कोई मार्ग नहीं सूझता तभी पूर्णब्रह्म परमात्मा की आवश्यकता अनुभूत होती है। भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य इसी कारण कृष्णपक्ष में हुआ है। भगवान् राम मर्यादापुरुषो-त्तम हैं, अतएव वे मर्यादानुसार यथासमय कार्य करते हैं, किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम का तो प्राकट्य ही असम्भव को सम्भव करने के लिए हुआ करता है। सो अन्धकारमय कृष्ण पक्ष उनके प्रकाश-मय प्रादुर्भाव के अनुरूप ही है।
तिथि-कहा जा सकता है कि अन्धकार में प्रकाश करने को ही यदि प्रभु का प्राकट्य होता है तो फिर अमावस्या को जबकि पूर्ण अन्धकार हो जाता है तभी प्रभु का प्राकट्य क्यों न हुआ ? अष्टमी को ही क्यों ? इसका उत्तर यह है कि प्रभु यद्यपि सर्वसमर्थ हैं, तथापि वे यथासम्भव अपने बनाये हुए नियमों का परिपालन ही उचित समझते हैं। जब सर्वथा प्रकाश का समय नहीं होता तब आसुरी वेला होती है। ऐसे समय अन्धन्तम के अथवा नरक के अधिकारी जीवों का ही प्राधान्य होता है और जब केवल आसुर जीव ही संसार में रहते हैं, तब प्रभु का प्राकट्य नहीं होता, किन्तु जब प्रकाशमय दैवी जीवों पर तमोमय आसुर जीवों का आक्रमण होता है और दोनों भाग समान से होते हैं, परन्तु असुरों अथवा असाधुओं के प्रबल होने का और सुरों तथा साधुओं के निर्बल होने का समय होता है तब ही भगवान् का प्राकट्य होता है जैसा कि भगवद्गीता में कहा है-
'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
अर्थात् भगवान् सत्पुरुषों की रक्षा और दुष्कर्म करनेवालों के विनाश के लिए (प्रादुर्भूत होते हैं)।'
अब प्रकृत में देखिए, असुरों के प्रतीक अन्धकार और साधुओं अथवा सुरों के प्रतीक प्रकाश की यह स्थिति कृष्णपक्ष की अष्टमी को ही होती है। उस दिन यद्यपि अर्धरात्रि को चन्द्रोदय होने के कारण रात्रि में अन्धकार और प्रकाश का भाग समान-समान सा रहता है तथापि अन्धकार प्रवर्धमान और प्रकाश क्षीयमाण होता है। अतः भगवान् ने अष्टमी ही अपने प्राकटच के लिए उचित दिवस समझा ।
दूसरा कारण यह भी है कि भगवान् परम दयालु हैं। वे अपने भक्तों अथवा साधुओं की सर्वथा अन्धकार में पहुँचने तक की स्थिति को नहीं सहन कर सकते । आधे डूबते-डूबते ही वे उद्धार के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं। इस स्वभाव को सूचित करने के लिए भी भगवान् का प्राकट्य अष्टमी तिथिको है, जिस दिन अर्धरात्रि के समय ही प्रकाश का प्रारम्भ हो जाता है।
अर्धरात्रि के समय का विज्ञान भी उपर्युक्त विवेचन से गतार्थ है, क्योंकि अन्धकार की निवृत्ति और सुख-शान्ति के प्रतीक चन्द्रोदय का आरम्भ उसी समय होता है। अतएव -
निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्या देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वंगुहाशयः ॥
नादुरासीद्यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः ।
( श्रीमद्भागवत १००३।८)
अर्थात् अर्धरात्रि के समय, जब कि अन्धकार ऊपर उठ रहा था (बिदा हो रहा था) अर्थात् अविद्या निवृत्त हो रही थी और चन्द्रोद्य हो रहा था, किंवा मनुष्यों की तरफ से प्रार्थना हो रही थी, उस समय देवरूपिणी देवकी में सब के अन्तःकरण में विराजमान (व्यापक परब्रह्म) विष्णु यथार्थरूप से प्रकट हुए, जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्र प्रकट हुआ ।
यह कहा गया है।
विधि-विज्ञान
उपवास, जागरण और प्रतिमा-पूजन का विज्ञान तो रामनवमी में लिखा ही जा चुका है। शेष वस्तुओं का और इस उत्सव की विशेषताओं का कुछ विवेचन अब यहाँ किया जा रहा है।
पञ्चामृत गाय के दूध, दही, घी, शहद और चीनी इन पाँच वस्तुओं का नाम पञ्चामृत है। इन पाँचों को अमृत की पदवी ऋषियों ने वास्तव में यथार्थ ही दी है। भूलोक में यदि अमृत कुछ भी हो सकता है तो यही पाँच हैं। इन पाँचों में से गाय के दूध, दही और घृत के गुण पहले (उपाकर्म प्रकरण में) लिखे जा चुके हैं। शर्करा के विषय में चरकसंहिता में लिखा है-
'तृष्णाऽसुक्पित्तदाहेषु प्रशस्ताः सर्वशर्कराः ।
अर्थात् प्यास, रुधिरप्रवाह, पित्त तथा जलन में सब प्रकार की शर्कराएँ प्रशस्त हैं, उनके प्रयोग से ये सब दोष शान्त होते हैं।'
पाठकों को कदाचित् यह बताना अनुपयोगी होगा कि उपवास के कारण प्रायः यही दोष पैदा होते हैं और इनको शान्त करने में शर्करा बहुत ही उपयोगी है।
शहद के विषय में आयुर्वेद में लिखा है कि-
'नाचाद्रव्यात्मकत्वाच्च योगवाहि परं मधु ।
अर्थात् शहद अनेक द्रव्यों से बनता है, अतः वह योगवाही है। तात्पर्य यह है कि शहद जिन चीजों के साथ रहता है वैसा ही गुण करता है। इसका प्रकृत अर्थ यह हुआ कि मधु मिला देने से उन चारों अमृतों के गुण और भी बढ़ जाते हैं।'
इसी प्रकार दूसरे दिन होनेवाले नन्दमहोत्सव में जो दही, दूध आदि उछाला जाता है वह भी वास्तव में पित्तादि विकारों को शान्त करनेवाला है।
इस उत्सव की सबसे बड़ी विशेषता तो विनोदमयता है। सौन्दर्य और विनोद का जैसा संयत संयोग इस उत्सव में होता है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं। आनन्दमय नन्दनन्दन का यह जन्मदिन वास्तव में सौन्दर्यमय और आनन्दमय है। इसके वास्तविक स्वरूप का अनुभव उन्हीं भावुक भक्त हृद्यों को होता है जिनने इन उत्सवों में श्रद्धापूर्वक सहयोग दिया है। इसलिए यह वस्तु विवेचनसापेक्ष न होकर अनुभवैकगम्य है।
कथा
युधिष्ठिरं ने पूछा- हे कृष्ण ! कृपाकर जन्माष्टमी का वर्णन करिए । यह कब से चालू हुई है, इससे क्या पुण्य होता है और इसकी क्या विधि है ?
श्रीकृष्ण ने कहा- हे युधिष्ठिर ! जब मथुरा में दुष्ट कंसासुर मर चुका तब माता देवकी ने मेरा आलिंगन करके मुझे गोद में बैठा लिया और रोने लगी। वहाँ रंगस्थल के मार्ग में लोगों की भीड़ मंचों पर आरूढ़ थी। मल्लयुद्ध समाप्त हो चुका था। याद्यलोग स्वजन-बान्धव, प्रेमीजन और स्त्रियों से घिरे हुए खड़े थे। वसुदेवजी उनके बीच में बार-बार मेरा आलिंगन करते हुए गद्गदवाणी से 'पुत्र, पुत्र' पुकार कर अत्यन्त हर्षित होते हुए आनन्द से अनुपात करने लगे और कहने लगे कि-आज मेरा जन्म सफल हुआ तथा जीवन सु-जीवन हो गया, जो दोनों पुत्रों के साथ आज मेरा समागम हो रहा है।
इस तरह दोनों स्त्री-पुरुषों (देवकी वसुदेव) को हर्षयुक्त देखकर सबलोग हर्षित हुए और प्रणाम करके मुझसे कहने लगे - हे जनार्दन ! आज हमको अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। बड़े आनन्द की बात है कि आपने मल्लयुद्ध द्वारा कंस को मार डाला। हे मधुसूदन, अब आपके जन्म-महोत्सव को समाज में (प्रचलित) देखकर जनता आपकी कृपा चाहती है। अतः कृपा करके जिस दिन देवकीजी ने आपको प्रकट किया उस दिन को भक्ति द्वारा शरणागत लोगों के समक्ष वर्णन करिए ।
लोगों के इस वाक्य को सुनकर वसुदेवजी ने मुझसे कहा कि-तुम जनता को ठीक-ठीक अपना प्राकट्य समय बताओ। तब पिताजी की आज्ञा से मैंने जनता के समक्ष मथुरा में जन्माष्टमीव्रत प्रकाशित किया ।
मैंने कहा कि जब सूर्य सिंहराशि पर थे, आकाश में बादल मँडरा रहे थे, भाद्रपद का महीना था, कृष्णपक्ष की अष्टमी और आधीरात का समय था, चन्द्रमा वृषराशि पर था और रोहिणी नक्षत्र था, उस समय वसुदेवजी के द्वारा देवकी में मैं प्रकट हुआ। यह जन्माष्टमी व्रत मैंने आपको वर्णन किया । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और सब धार्मिक लोग मथुरा में यह महोत्सव करें। बाद में यह व्रत संसार में विख्यात हो जायग्गा । इस व्रत के द्वारा संसार में सुख शान्ति हो और लोग नीरोग रहें। यह मेरा आशीर्वाद है।
हे युधिष्ठिर, इस तरह मैंने तुम्हें जन्माष्टमी का दिन वर्णन किया । युधिष्ठिर ने पूछा- हे देव ! सब लोगों ने जिस पवित्र जन्माष्टमीनामक व्रत को किया वह किस प्रकार का है? जिस जन्माष्टमी व्रत के करने से आप प्रसन्न होते हैं और जिसके श्रवण मात्र से सात जन्मों का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है उस जन्माष्टमी व्रत को आप प्रधानरूप से वर्णन करिए ।
श्रीकृष्ण ने कहा- पापों से निवृत्त होना और गुणों के साथ सर्व भोगों से रहित होकर निवास करना इसको उपवास समझना चाहिए । यह तो हुआ उपवास शब्द का अर्थ (जो इस व्रत का महत्त्वपूर्ण अङ्ग है)।
इसके बाद जन्माष्टमी (के उत्सव) की विधि वर्णन करता हूँ। उसे तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। व्रत करनेवाला मध्याह्न समय नदी आदि के विमल जल में स्नान करके देवकी देवी का शुभ सूतिकागृह निर्माण करे। उसे वस्त्रों और रस्सियों से सुशोभित करे। घण्टा, झाँझ आदि बजावे । मंगल कलश स्थापित करे। दरवाजे पर मुसल स्थापित करे। रक्षकों से रक्षित करके धूप, दीप तथा विविध नैवेद्य सजावे । इसी प्रकार उसके समीप गोप-गोपीजन सहित यशोदा का सूतिका-गृह बनावे ।
इस तरह यथाशक्ति सूतिकागृह बनाकर उसके मध्य में प्रतिमा स्थापित करे । प्रतिमा आठ प्रकार की होती है। सोने की, चाँदी की, ताँबे की, पीतल की, मृत्तिका की, मणि की, स्फटिक की अथवा चित्र-लिखित । उस प्रतिमा में सब लक्षणों से सम्पूर्ण, पलंग पर आधी सोई हुई तप्तसुवर्ण की सी कान्तिवाली हर्षयुक्त तत्क्षण प्रसूत मेरे सहित माता देवकी और मैं स्तन पीता हुआ तथा पलंग पर सोया हुआ बनाया जाऊँ । मेरे वक्षःस्थल पर श्रीवत्स हो और मेरा रंग नील-कमल की पंखड़ी के समान श्याम हो। देवी यशोदा के पास तत्कालप्रसूत श्रेष्ठ कन्या होनी चाहिए। देवता, ग्रह, नाग, यक्ष, विद्याधर और मनुष्य उसके चारों तरफ पुष्प-मालाएँ हाथों में लिए हुए, आकाश में संचार करते हुए अथवा परकोटे पर चढ़े हुए और प्रणाम करते हुए दिखाये जाने चाहिए । ढाल, तलवार लिए हुए वसुदेवजी भी वहीं होने चाहिए ।
वसुदेव जी कश्यप का, यशोदा जयन्ती देवी का, देवकी अदिति का, बलभद्र शेषनाग का, नन्द्राय जी दक्ष प्रजापति का, गर्गाचार्य बृहस्पति का और कंस कालनेमि का अवतार हैं।
सूतिका-गृह के पास कंस के नियुक्त किये हुए विविध आयुधों से युक्त पहरेदार दानव सभी सोते हुए और निद्रा से मोहित बनाने चाहिए। पास में गायें, हाथी, घोड़े और शस्त्र हाथ में लिए हुए दानव भी दिखाये जाने चाहिए। हर्षयुक्त नाचती हुई अप्सराएँ, गायन में तत्पर गन्धर्व और यमुना जी के दह में कालियनाग भी लिखा जाना चाहिए। इस तरह माता देवकी का सूतिका-गृह बना कर परमभक्ति से गन्ध, पुष्प, अक्षत, फल, कूष्माण्ड, नारियल, छुहारे, अनार, बिजोरे, सुपारी और लीची आदि तथा उस देश-काल में उत्पन्न होने वाले फल-पुष्पों से पूजन करना चाहिए। पूर्वोक्त अवतार का ध्यान करके इस मन्त्र से पूजन करे ।
'गायद्भिः किन्नराद्यैः सततपरिवृता वेणुवीणानिनादैः, भृङ्गारादर्शकुम्मप्रवरयुतकरैः सेव्यमाना मुनीन्द्रैः ।
पर्यङ्के राजमाना प्रमुदितवदन्ना पुत्रिणी सम्यगास्ते, सा देवी-देवमाता जयति सुरमुखा देवकी कान्तरूपा ॥'
देवकी जी के चरणों के पास यशोदा जी की शय्या बनावे और उस पर (पुत्री सहित) यशोदा जी को विराजमान करके 'नमो देव्यै श्रियै' इस मन्त्र से पूजा करे, क्योंकि यशोदा जी जयन्तीरूप हैं। फिर -
ॐ देवक्यै नमः, ॐ वसुदेवाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ सुभ-द्रायै तमः, ॐ कृष्णाय नमः, ॐ यशोदायै नमः, ॐ नन्दाय नमः ।
इत्यादिक नामों को पृथक् पृथक् बोलकर द्विजाति लोग पूजा करें। स्त्री, शूद्र बिना ही मन्त्र के पूजा करें।
इस उत्सव में कुछ विद्वान् दूसरी विधि भी मानते हैं। उनके अनु-सार चन्द्रोदय होने पर भगवान् का स्मरण करते हुए चन्द्रमा को अर्घ्यदान करना चाहिए। भगवान् के स्मरण करने के मन्त्र निम्न-लिखित हैं-
अनादिं वामनं शौरिं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम् ।
वासुदेवं हृषीकेशं माधवं मधुसूदनम् ॥
वाराहं पुण्डरीकाचं नृसिंहं मुरमर्दनम् ।
दामोदरं पद्मनाभं केशवं गरुडध्वजम् ॥
गोविन्दमच्युतं कृष्णमनन्तमपराजितम् ।
अधोक्षजं जगद्वीजं सर्गस्थित्यन्तकारकम् ॥
अनादिनिधनं विष्णुं त्रैलोक्येशं त्रिविक्रमम् ।
नारायणं चतुर्बाहुं शंखचक्रगदाधरम् ॥
पीताम्बरधरं नित्यं वनमाला-विभूषितम् ।
श्रीवत्सांकं जगत्सेतुं श्रीधर श्रीपतिं हरिम् ॥'
स्मरण करने के बाद भगवान् को स्नान करावे । स्नान का मन्त्र यह है-
'योगेश्वराय योगसंभवाय, योगपतये गोविन्दाय नमो नमः ॥' अनुलेपन (गन्ध), अर्घ्य, आचमन का मन्त्र यह है -'यज्ञेश्वराय यज्ञसंमवाय यज्ञपतये गोविन्दाय नमो नमः ।'
नैवेद्य का मन्त्र यह है-
'विश्वेश्वराय विश्वसंभवाय विश्वपतये नमः ।'
दीपक का मन्त्र यह है-
'धर्मेश्वराय धर्मसंभवाय धर्मपतये गोविन्दाय नमः ।'
चन्द्र के अर्घ्य-दान का मन्त्र यह है -
क्षीरोदार्णवसंमृत ! अत्रिनेत्रसमुद्भव ।
गृहाणाध्य शशाङ्क ! त्वं रोहिण्या सहितो मम ॥
वेदी बनाकर उस पर भगवान् कृष्ण, रोहिणी सहित चन्द्रमा, देवकी-वसुदेव, यशोदा-नन्द और बलदेव को स्थापित करके पूजा करे । इससे सब पापों से मुक्त हो जाता है। अर्धरात्रि के समय गुड़ और घी से वसोर्धारा करे। फिर चावलों से वर्धापन करे, यह मुझे बहुत प्रिय है।
दूसरे दिन नवमी को प्रातःकाल जैसे मेरा वैसे ही भगवती का महोत्सव करे। शक्ति-अनुसार ब्राह्मण भोजन करावे। उनको चाँदी, सोना, गौ और अनेक प्रकार के वस्त्र आदि दक्षिणा रूप में दान करे और भी जो-जो अपने को प्रिय हों, उन सब वस्तुओं का 'भगवान् मुझ पर प्रसन्न हों' यह संकल्प करके दान करे। फिर -
यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् ।
भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यै तस्मै श्रीब्रह्मणे नमः ॥
सुजन्मवासुदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु ॥
यह मंत्र बोलकर विसर्जन करे ।
हे धर्मनन्दन ! इस तरह जो मेरा भक्त प्रतिवर्ष देवकी देवी का और मेरा महोत्सव करता है वह, स्त्री हो या पुरुष, यथोक्त फल को प्राप्त होता है। उसे पुत्र, संतान, आरोग्य, धन-धान्य की ऋद्धि से युक्त उत्तम भवन प्राप्त होता है। जहाँ मेरी पूजा होती है वह राष्ट्र चावल, गन्ने, जौ आदि धान्यों से सम्पूर्ण रहता है। (वहाँ की जनता) दीर्घायु होकर मनोवांछित फलों को प्राप्त करती है। उस राष्ट्र में शत्रुओं का भय नहीं रहता । इन्द्र यथेष्ट वर्षा करता है और ईतियों (तोते, चूहे और टिड्डे आदि) का भय नहीं होता ।
जिस घर में यह देवकी जी का चरित्र लिखित रहता है वहाँ मुर्दे का निकलना, गर्भ गिरना, रोग का भय नहीं होता। उस घर में विधवा-पन, भाग्यहीनता और दन्तकटाकट नहीं होती ।
हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह विष्णु-लोक को प्राप्त होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं ।
यह जन्माष्टमी की कथा मनुष्य के मन और कानों को प्रसन्न करने वाली है और इससे नन्द्राय जी तत्काल ही प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे ही देवकी जी की कथा को जो सुनता है अथवा पढ़ता है उसे पुत्रों की प्राप्ति होती है और अन्त में वह भगवान् विष्णु के लोक को जाता है।
(व्रतार्क में ब्रह्माण्डपुराण से उधृत )
अभ्यास
(१) जन्माष्टमीके कालनिर्णय के विषय में आप क्या जानते हैं ?
(२) जन्माष्टमी के उत्संव की विधि का निरूपण करिए ।
(३) भगवान् कृष्ण का प्रादुर्भाव वर्षाऋतु, कृष्णपक्ष की अष्टमी और अर्धरात्रिके समय क्यों हुआ ?
(४) पश्चामृत के गुणवर्णन करिए ।
(५) कथा का सरांश कहिए ।
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