भारतीय व्रत उत्सव | 22 | अनंत चतुर्दशी
भारतीय व्रत उत्सव | 22 | अनंत चतुर्दशी
अनन्त चतुर्दशी
समय
भाद्रशुक्ला चतुर्दशी
काल-निर्णय
सूर्योदय से छः घड़ी चतुर्दशी जिस दिन हो उस दिन यह व्रत करना चाहिए- यह मुख्य पक्ष है। ऐसा न हो तो उदय से ४ घड़ी तक भी चतुर्दशी हो वह लेनी चाहिए। दो चतुर्दशी हों तो संपूर्ण होने के कारण पहली चतुर्दशी ही लेनी चाहिए। दूसरे दिन चार घड़ी से कम हो तो पहले दिन करनी चाहिए। इसका मुख्य काल पूर्वाद्ध है। पूर्वाद्ध में न हो सके तो मध्याह्न भी चल सकता है।
विधि
'अनन्त' यह कालरूप भगवान् कृष्ण और काल का नाम है, जैसा कि अनन्त कथा के-
अबन्त इत्यहं पार्थ मम रूपं निबोधय ।
और
योऽयं कालो यथा ख्यातः सोऽनन्त इति विश्रुतः ।
इन वचनों से सिद्ध है। किन्तु वास्तव में यह शेषशायी समुद्रस्थित विष्णु भगवान की पूजा है, अतएव कथा में पूजा विधान के अन्त में-अवन्तः सर्ववागानामधिपः सर्वकामदः । सदा भूयात् प्रसन्नो मे भक्तानामभयंकरः । इस मन्त्र से शेषनाग से भी प्रार्थना की गयी है। यहाँ विष्णु कृष्णरूप हैं और शेषनाग कालरूप हैं, अतः दोनों की सम्मिलित पूजा हो जाती है। इसमें पूजा की अन्य विधि तो उसी प्रकार है जो अन्य सब विष्णुव्रतों में है। विशेष यह है कि पूजा यथासंभव नदीतट पर करनी चाहिए। गाय के चमड़े जितनी भूमि को गोमय से लीपकर वहाँ सोना, चाँदी, ताँबा या मिट्टी का घड़ा स्थापित करे। उस पर विष्णुमूर्ति के साथ चौदह गाँठ वाला डोरा रखकर उसकी पूजा करनी चाहिए । अनन्त के डोरे बाजार में तयार भी मिलते हैं, पर हो सके तो घर पर ही बनाना चाहिए। नैवेद्य में पुंल्लिङ्ग नाम वाले पक्वान्न ही देने चाहिए। अतएव उस दिन पूरी नहीं, पूआ चढ़ाए जाते हैं। साधारण लोग उस दिन रोटी का नैवेद्य न लगाकर रोट (मोटी रोटी) और खीर का भोग लगाते हैं। खीर यद्यपि हिन्दी में स्त्रीलिङ्ग है, किन्तु संस्कृत में उसका नाम पायस है, जो हिन्दी के हिसाब से पुंल्लिग ही हो जाता है, क्योंकि हिन्दी में नपुंसकलिंग नहीं है, अतः खीर भी इस दिन नैवेद्य में आती है।
कालविज्ञान
इस ऋतु और इस मास का विज्ञान तो जन्माष्टमी के प्रसंग में विस्तार से लिख दिया गया है। सर्वजनप्रिय वर्षाऋतु का यह अन्तिम उत्सव है। कृषि प्रधान भारतवर्ष फसल पकने के समीप के समय में जगन् के पालनकर्त्ता विष्णु भगवान् की प्रार्थना करे यह उचित ही है।
चतुर्दशी तिथि रिक्ता तिथियों (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) में अन्तिम है। रिक्ता का अर्थ है खाली। सृष्टि के पालनकर्त्ता से प्रार्थना रिक्त होने पर की जाती है, इसीलिए भगवान् को दीनबन्धु कहा भी जाता है। अतः प्रकाशमय शुक्ल पक्ष की अन्तिम रिक्ता तिथि को प्रभु से प्रार्थना करना उचित ही है। जिसका अभिप्राय यह है कि ऐसी उत्तम ऋतु के प्रकाशमय पक्ष में भी रिक्तता द्यामय की दयालुता को अवश्य ही प्रदीप्त करेगी ।
विधि-विज्ञान
विधि में अन्य सब तो पूर्ववत् ही है। पूजा नदीतट पर इसलिए रखी गई है कि वहाँ पवित्रता की भावना स्वाभाविक होती है, पर नदीतट अनिवार्य नहीं है। गोमय के गुण तो उपाकर्म के प्रसंग में लिख ही दिये गए हैं। चौदह गाँठ वाले डोरे का विधान इसलिए है कि इस व्रत में चौदह ग्रन्थिदेवताओं का पूजन है, जैसा कि कथा के इस श्लोक में कहा गया है-
नव्यदोरे विष्णुर ग्निस्तथा सूर्यः पितामहः । चन्द्रः पिचा की विघ्नेशः स्कन्दः शक्रस्तथैव च ॥ वरुणः पवनः ११ पृथ्वी १२ वसवो १३ ग्रंथिदेवताः ।
तथा
सूत्रग्रन्थिषु संस्थाय अनन्ताय नमो नमः ॥
इनमें से आदि में जगत् के पालनकर्त्ता विष्णु और अन्त में धरणीधर अनन्त (शेष) तो सृष्टिपालक हैं ही, मध्य में १२ देवता भी सृष्टिसंचालक हैं। वे हैं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, सृष्टि के संहारक शिव, सृष्टि के निर्वाहक अग्नि, सोम और सूर्य (जिनका विवरण पहले दिया जा चुका है) विघ्न विनाशक गणेश, देवताओं के सेनापति स्कन्द, देवताओं के राजा इन्द्र, जीवन के मुख्य साधन जल, वायु और अन्न के अधिष्ठाता वरुण, पवन और पृथ्वी तथा सृष्टि के बसानेवाले वसु¹ । सो इस तरह सृष्टिसञ्चालक सब देवताओं से सभी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति का इस पूजन के फल से सम्बन्ध है।
1. वसु शब्द के अर्थ के विषय में वृहदारण्यक उर्पानषद् के भाष्य में श्री सङ्कराचार्य कहते हैं- '
प्राणिनां कर्मफलाश्रयत्वेन कार्यकरणसंघातरूपेण तन्निवास-त्वेन च विपरिणमन्तो जगदिदं सर्वं वासयन्ति वसन्ति च, ते यस्माद् वासयन्ति तस्माद् वसव इति' ।
(वृह० ३ अध्याय, ९ ब्राह्मण, ३ मन्त्र)
इस दिन पुरुष नामवाले ही पक्वान्नों के निवेदन करने का यह अभिप्राय है कि यह व्रत दुःख-दारिद्रय की निवृत्ति के लिए है जो बिना बल के नहीं हो सकती और बल पुरुष का ही कार्य है, स्त्री का नहीं। अतः स्त्रीलिङ्ग को इसमें प्रधानता नहीं दी गई है। इस विधि से यह सार निकलता है कि दुःख-दारिद्रय की निवृत्ति के लिए पुरुषों को अनन्त भगवान् का आश्रय लेकर आगे बढ़ना चाहिए। बल के कार्य के लिए स्त्रियों को आगे करना पुरुषों की कायरता है। अतः पुरुष को बलकार्य के लिए भगवान् के सामने भी स्त्रियों को उपस्थित न करके स्वयं ही उपस्थित होना चाहिए ।
कथा
सूतजी ने कहा-पाण्डव¹ लोग आज भी दुःख से दुर्बल थे। महात्मा कृष्ण को देखकर उन्होंने यथाविधि प्रणाम किया । कुन्तीपुत्र महाराज युधिष्ठिर ने विनय से नम्र होकर देवकीपुत्र कृष्ण से पूछा ।
1. स्मरण रखिए - यह कथा वनवास के समय की है।
युधिष्ठिर ने कहा- भाइयों सहित मैं दुखी हूँ। आप बताइये कि हमारी इस अनन्त दुःखसागर से कैसे मुक्ति होगी ?
श्रीकृष्ण ने कहा- सब पापों का हरण करनेवाला एक शुभ अनन्त-व्रत है। हे युधिष्ठिर ! वह पुरुष और स्त्री दोनों को सब कामनाओं का देनेवाला है। शुभ भाद्रपद्द्मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को उस व्रत के करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
युधिष्ठिर ने पूछा- हे कृष्ण! आप जिसे 'अनन्त' इस नाम से कहते हैं वह कौन है ? क्या शेषनाग अथवा तक्षकनाग को अनन्त कहा जाता है ? यद्वा अनन्त परमात्मा है ? किंवा ब्रह्म ? अनन्त नाम से कौन अभिहित है ? हे केशव, यह मुझे ठीक-ठीक बतलाने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पार्थ ! अनन्त यह मेरा नाम है। इसे तुम मेरा रूप समझो। आदित्यादिक वारों में जो काल सिद्ध है और कला-काष्ठा-मुहूर्त्त आदि तथा दिन-रात्रि जिसके शरीर हैं और पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष आदि तथा युगों के काल की जिससे व्यवस्था होती है यह जो काल मैंने तुम्हें बताया है वही अनन्त इस नाम से विख्यात है। वही कालरूप मैं पृथ्वी का भार उतारने के लिए यहाँ अवतीर्ण हुआ हूँ। दानवों के विनाश के लिए वसुदेव जी के कुल में उत्पन्न मुझको, हे पार्थ ! अनन्त समझो । मैं ही कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, ब्रह्मा, सुरेश और सर्वव्यापी ईश्वर हूँ। मेरा न आदि है, न मध्य है, न अन्त है। मैं तीनों गुणों से परे अव्यय पुरुष हूँ। यह विश्व मेरा रूप है। मैं महाकाय तथा जगत् की सृष्टि, स्थिति और अन्त करनेवाला हूँ। हे पार्थ ! मैंने तुम्हारे विश्वास के लिए योगियों के ध्यान करने योग्य सर्वश्रेष्ठरूप पहले ही दिखाया था। वही विश्वरूप अनन्त है, जिसके अन्द्र चौदह इन्द्र, आठ वसु, बारह आदित्य, एकादश रुद्र, सप्त ऋषि, समुद्र, पर्वत, नदी, वृक्ष, भास्वर और तुषित नाम के देवताओं के गण, तेरह विश्वेदेवा, नक्षत्र, दिशा, पृथ्वी, पाताल, भूर्भुवः आदि लोक ये सब हैं। हे पार्थ! इसमें सन्देह न करो, वही मैं हूँ।
युधिष्ठिर ने पूछा- हे विज्ञों में श्रेष्ठ ! अनन्त के व्रत की विधि मुझे वर्णन करिए। इसके करनेवाले मनुष्यों को क्या पुण्य और क्या फल प्राप्त होता है। मनुष्यलोक में इसको किसने प्रकाशित किया । हे माधव ! आप मुझे यह सब विस्तार से कहने योग्य हैं।
श्रीकृष्ण ने कहा- (पूजा के समय) पहले चतुर्भुज भगवान् को. मूलमन्त्र से नमस्कार करके -
नवाम्रपल्लवा मासं पिंगभ्रूश्मश्रुलोचनम् ।
पीताम्बरधरं देवं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
अलंकृतं समुद्रस्थं तत्स्वरूपं विचिन्तयेत् ।
इस मंत्र से ध्यान करे।
'आगच्छानन्त देवेश तेजोराशे जगत्पते ।
इमां मया कृतां पूर्जा गृहाण सुरसत्तम ।
इस मन्त्र से आवाहन करे ।
नानारत्नसमायुक्तं कार्त्तस्वरविभूषितम् ।
आसनं देवदेवेश ! गृहाण पुरुषोत्तम ॥
इस मन्त्र से आसन दे ।
गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्यो मया प्रार्थनया हृतम् ।
तोयमेतत्सुखस्पर्श पाद्यार्थं प्रतिगृह्यताम् ।।
इस मन्त्र से पाद्य (पादोदक) दान करे ।
अनन्तदेवदेवेश अनन्तगुण सागर ।
अनन्तरूप अव्यक्त गृहाणार्थं नमोस्तु ते ॥
इस मन्त्र से अर्घ दे ।
गङ्गाजलं मयानीतं सुवर्णकलशे स्थितम् ।
आचम्यतां हृषीकेश त्रैलोक्यव्याविनाशच ॥
इस मन्त्र से आचमन प्रदान करे ।
अनन्तगुणरत्वाय विश्वरूपधराय च ।
नमो महात्मने तुभ्यमनन्ताय नमो नमः ॥
इस मन्त्र से स्नान करावे ।
नारायण नमस्तुभ्यं चरकार्णवतारक ।
त्रैलोक्यव्यापकानन्त त्राहि मां मधुसूदन ॥
इस मन्त्र से वस्त्र दान करे ।
लक्ष्मीपते जगन्नाथ मक्तानुग्रहकारक ।
नानारत्नोज्ज्वलानन्त मूषणं परिगृह्यताम् ॥
इस मन्त्र से भूषण पहिरावे ।
दामोदर नमस्तेस्तु त्राहि मां भवसागरात् ।
यज्ञसूत्रं मया दत्तं गृहाण पुरुषोत्तम ॥
इस मन्त्र से यज्ञोपवीत धारण करावे ।
श्रीखण्डं कुङ्कुमं दिव्यं कर्पूरेण विमिश्रितम् ।
विलेपनं सुरश्रेष्ठ प्रीत्यर्थ प्रतिगृह्यताम् ॥
इस मन्त्र से चन्दन चढ़ावे ।
माल्यानि च सुगन्धीनि तुलस्यादीनि माधव ।
मयाहृतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
इस मन्त्र से पुष्प चढ़ावे ।
वनस्पतिरसोद्भूतः सुगन्धो गन्धवत्तरः ।
आत्रेयः सर्वदेवानां धूपोयं प्रतिगृह्यताम् ॥
इस मन्त्र से धूप अर्पण करे ।
आज्यत्रिर्वत्र्त्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं प्रियम् ।
गृहाण दीपर्क देव त्रैलोक्यतिमिरापह ॥
इस मन्त्र से दीपदान करे ।
चन्द्रादित्यौ च रश्मिश्च विद्युदग्निस्तथैव च ।
त्वमेव ज्योतिषां सर्वमार्त्तिकं प्रतिगृहाताम् ॥
इस मन्त्र से आरती करे।
सर्वभक्ष्यं समादाय सर्वग्राससमन्वितम् ।
सर्वगन्धसमाहारं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥
इस मन्त्र से नैवेद्य समर्पण करे ।
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव ।
तेन मेस्तु फलावाप्तिर्देव जन्मनि जन्मनि ॥
इस मन्त्र से फल चढ़ावे ।
पूगीफलप्समायुक्तं नागवल्लीदलैर्युतम् ।
सचूर्णं गृह्यतां देव अनन्ताय नमो नमः ॥
इस मन्त्र से ताम्बूल दे ।
हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः ।
अनन्तपुण्यफलद अतः शांतिं प्रयच्छ मे ॥
इस मन्त्र से दक्षिणा दान करे।
नमोस्त्ववन्ताय सहस्रमूर्त्तये सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे । ... सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ॥
इस मन्त्र से नमस्कार करे ।
अनन्तकामदानन्त सर्वकामफलप्रद ।
अनन्तदोररूपेण पुत्रपौत्रप्रदो भव ॥
- अनन्तगुणरत्नाय विश्वरूपधराय च ।
सुत्रग्रन्थिषु संस्थाय अनन्ताय नमो नमः ॥
इस मन्त्र से पुराने डोरे को कलश में डालकर ।
नव्यदोरे विष्णुरग्निस्तथा सूर्यः पितामहः ।
चन्द्रः पिनाकी विघ्नेशः स्कन्दः शुक्रस्तथैव च ॥
वरुणः पवनः पृथ्वी वसवो ग्रन्थिदेवताः ।
संपूज्य देवदेवेश नमस्ते धरणीधर ॥
सूत्रग्रन्थिषु संस्थाय अनन्ताय नमो नमः ॥
इस मन्त्र से प्रणाम करके 'संसारगहरं गुहा' इस मन्त्र से डोरा मेरे समीप ले जाकर ।
अनन्तसंसारसमुद्रमध्ये मग्नं समभ्युद्धर वासुदेव ।
अनन्तरूपे विनियोजयस्व अचन्तसूत्राय नमो नमस्ते ॥
यह मन्त्र बोलकर दाहिने हाथ में बाँधे ।
अनन्तः प्रतिगृह्नाति अनन्तो वै ददाति च ।
अनन्तकामान् मे देहि अवन्ताय नमो नमः ॥
इस मन्त्र से कणिकदान और पुराने दोरक की पूजा करनी चाहिए ।
* न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटावि यानीह कर्माणि मया कुखानि ।
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व प्रयाहि तुष्टः पुनरागमाय ॥
इस मन्त्र से पुराने दोरक खोले ।
संसारसागरगुहासु सुखं विहर्तुं वांछन्ति वे कुरुकुलोद्भव शुद्धसत्त्वताः ।
संपूज्य च त्रिभुवनेशमचन्तदेवं बध्वन्ति दक्षिणकरे बरदोरकं ते ॥
इस मन्त्र से नवीन डोरा बाँधे ।
नमस्ते देवदेवेश विश्वरूपधराय च।
सूत्रग्रन्थिषु संस्थाय अवन्ताय नमो नमः ॥
इस मन्त्र से पुराने दोरक का विसर्जन करे ।
अनन्तः सर्वनागानामधिपः सर्वकामदः ।
सदा भूयात्प्रसन्नो मे मक्तानामभयंकरः ॥
इस मंत्र से प्रार्थना करे ।
हे नृपशार्दूल ! अब मैं तुमको महापापों का नष्ट करनेवाला पुराना इतिहास कहता हूँ। हे पाण्डव ! पहले सत्ययुग में वशिष्ठगोत्री, वेद् और वेदाङ्ग का पारगामी सुमन्त नाम का विद्वान् था । हे नराधीश ! उसने वेदोक्त विधान से सब लक्षणों से युक्त दीक्षा नामक भृगु की पुत्री से विवाह किया। समय होने पर उसके अनन्त शुभ लक्षणों से युक्त पुत्री उत्पन्न हुई। उसका नाम शीला था और वह बड़ी सुशील थी । पिता के घर में वह बढ़ने लगी। समय आने पर उसकी माता ज्वर के दाह से पीड़ित हुई और मर गई। वह नदी के तीर पर मरी और स्वर्ग में गई ।
उसके बाद सुमन्त ने दूसरी स्त्री धर्मपुत्र की पुत्री जिसका नाम कर्कशा था उससे विधिपूर्वक विवाह कर लिया। वह कर्कशा बड़ी दुश्शीला, अत्यन्त क्रोधिनी, नित्य क्लेश करनेवाली, निर्दय, स्नेहरहित कुरूपा और कटुभाषिणी थी ।
शीला पिता के घर में सदा घर को सजाती रहती थी। दीवार, खम्भे, घर के दरवाजे, देहली और तोरण आदि को नीले, पीले, श्वेत्त और काले इन चार रंगों से बार-बार स्वस्तिक और शंखपद्मादिक से चर्चित करती रहतो थी ।
जब पिता सुमन्त ने देखा कि अपनी पुत्री वर योग्य हो गई है तो उसने बार-बार विचार किया कि मुझे कन्या किसको देनी चाहिए । त्रिचार करके उसने महात्मा मुनिराज कौंडिन्य के साथ शीला का गृह्यसूत्रोक्त विधि से विवाह कर दिया ।
विवाह का सब कार्य समाप्त करके सुमन्त ने कर्कशा से कहा कि विवाह के अनन्तर जामाता को विवाह के निमित्त पारितोषिक देना चाहिए । यह सुनकर कर्कशा क्रुद्ध हुई। उसने घर के मण्डप को उखाड़ कर पेटी में अच्छी तरह बाँध दिया और कहा- जाइये। रास्ते में भोजन के लिए भोजन की अवशिष्ट सामग्री बाँध दी ।
कौंडिन्य विवाह के बाद नवीन विवाहिता सुशीला शीला को लेकर बैलों के रथ पर चढ़ाकर रास्ते में धीरे-धीरे जाने लगे। मध्याह्न में भोजन की बेला पर नदी के तट पर उतरे ।
वहाँ शीला ने स्त्रियों का समूह देखा, जो लाल वस्त्र पहने हुए चतुर्दशी के दिन भक्तिपूर्वक पृथक् पृथक् स्थित होकर देव की पूजा कर रही थीं। धीरे-धीरे वह स्त्रियों के पास गई और स्त्रियों के समूह से पूछने लगी- हे आर्याओ! यह क्या कर रही हो ? मुझे बताओ-इस व्रत का नाम क्या है ? स्त्रियों ने उससे कहा- भगवान् का अनन्त नाम विख्यात है। हे भद्रे ! हम उनका यह व्रत कर रही हैं।
... शीला ने कहा- ऐसा व्रत मैं भी करूँगी। इसका विधान कैसा है ? इस दिन क्या दान किया जाता है और किसका पूजन किया जाता है ?
स्त्रियों ने कहा-नदी के तट पर अनन्त की उत्तम पूजा सदा करनी चाहिए। गाय के चमड़े जितनी भूमि को लीपकर शुभ मण्डल बनाना चाहिए। उसके ऊपर सोने का, चाँदी का, तांबे का अथवा बाँस का पात्र रखना चाहिए । उस पर सदा अनन्त फल देनेवाले, सब देवों के स्वामी अनन्त की पूजा करनी चाहिए। अपने शरीर के बराबर परिमाणवाले चौदह डोरों से बनाया हुआ और दक्षिण की तरफ जाने वाली चौदह अच्छी गाँठों से युक्त डोरे को शुभ केसर और गन्ध आदि से रँगना चाहिए। फिर एक सेर आटे का पुल्लिंग नामवाला और घृतयुक्त पक्वान्न बनाना चाहिए। उसमें से आधा ब्राह्मण को देना चाहिए और आधा अपने रखना चाहिए।
हे शुभे ! यह व्रत नदी के तट पर करना चाहिए। स्नान करके हरि की शुभ कथा सुननी चाहिए ।
पूर्वोक्त विधि से अनन्त भगवान् की धूप, दीप, नैवेद्य और सुन्दर पीत वस्त्र से पूजा करनी चाहिए। उनके आगे ही केसर से रँगे हुए चौदह गाँठों से युक्त अनन्त के सुन्दर डोरे को पुरुष दाहिने हाथ में और स्त्री बाएँ हाथ में बाँधे। यह डोरा एक वर्ष तक बँधा रहना चाहिये।
श्रीकृष्ण ने कहा- शीला ने यह सुनकर व्रत किया। हाथ में डोरा बाँधा । फिर रास्ते के भोजन में से पहले किसी ब्राह्मण को दिया और बचा हुआ खाया। फिर प्रसन्न होकर स्त्रियों की आज्ञा लेकर उनसे प्रणाम कर पति के पास आई। बैलों के रथ पर बैठकर पति सहित धीरे-धीरे हर्षयुक्त अपने घर गई ।
उस व्रत पर उसे उसी क्षण विश्वास हो गया। पेटी में सौतेली माँ ने जो घर का मण्डप उखाड़ कर भरा था वे दीवार के ढेले अच्छी वस्तुओं के रूप में परिणत हो गए। (घर जाकर) जब शीला ने पेटी उघाड़ी तो उनको देखकर उसे बड़ा कौतूहल हुआ। उसने सोचा कि मेरी क्रूर माता ने, जो रोज क्रोध में भरी रहती थी, पिता जी की आज्ञा से क्रुद्ध होकर घर का मण्डप, स्वस्तिक और शंख पद्म उखाड़ कर पेटी में रखें थे वह सब भगवान् ने कृपा करके उसी रंग के सुवर्ण और रत्न आदि कर दिये । इसलिए उसी क्षण से उसको भगवान् पर विश्वास हो गया ।
अनन्त भगवान् के प्रभाव से उसका गृहाश्रम गोधन से और लक्ष्मी से युक्त तथा धन-धान्य से व्याप्त हो गया। उसके घर में अच्छे भवनों की माला हो गई। तोरण सुशोभित था, उस पर ध्वजा का अग्रभाग वायु से हिल रहा था और सब जगह अतिथि पूजा होती थी। शीला माणिक्य की करधनी, मोतियों के हार, रेशमी वस्त्र और बजते हुए नूपुरों से सुशोभित थी, चमकते हुए सोने के भुजबन्द और सब आभूषणों से भूषित थी । पातिव्रत्य से युक्त वह नित्य सावित्री के समान रहती थी ।
एक दिन कौंडिन्य वहाँ बैठा था। उसने शीला के हाथ के मूल में बँधा हुआ डोरा देखा । उस पापी और मूर्ख ने आक्षेपपूर्वक यह कहते हुए कि 'अनन्त कौन है' उसके मना करने पर भी क्रोध से वह डोरा तोड़ दिया और यह साहस तथा पाप किया कि उसको ज्वालाकुल वह्नि. में डाल दिया। शीला 'हाय-हाय' करके दौड़ी, उस डोरे को उसने ले लिया और दूध में डाला ।
कौडिन्य के उस कर्म के फलरूप उसकी वह लक्ष्मी क्षय को प्राप्त हुई। गोधन को चोर ले गए और घर आग से जल गया। किसी के घर से जो-जो आता था, वह वहाँ आकर प्रलय को प्राप्त हो जाता था। निल्य स्वजनों से झगड़ा होता, तर्जन और भर्त्सन होता । अनन्त के डोरे. के जला डालने के दोष से घर में दारिद्रय आ पड़ा । हे युधिष्ठिर ! उसके साथ कोई बात भी नहीं करता था ।
तब कौंडिन्य ने शीला से कहा- मुझे बताओ। मेरे घर में धन-धान्य और चौपाये क्यों नष्ट हो गए ?
अब शीला ने कहा- हे प्रिय ! मेरी बात सुनिए । आप ने अनन्त भगवान् के ऊपर आक्षेप किया, इससे हमारे घर में दारिद्रय आ पड़ा।
तब कौंडिन्य को विरक्ति हुई और मन में अनन्त का ध्यान करके यह सोचता हुआ कि भगवान् केशव का मैं कहाँ दर्शन करूँगा, गहरेः वन में चला गया। हे युधिष्ठिर उसने अनशन व्रत किया, ब्रह्मचारी. रहा और हरि का स्मरण करते हुए विह्वल होकर निर्जन वन में प्रयाण किया ।
उस निर्जन वन में उसने एक बड़ा आम का वृक्ष देखा जो खूब फूल रहा था और फल रहा था, किन्तु उस पर न कोई पक्षी आकर बैठता था, न कोई कीड़ा-मकोड़ा चढ़ता था। कौंडिन्य ने उससे पूछा-हे महाद्रुम ! क्या तुमने अनन्त को देखा है? उस वृक्ष ने कहा-हे. ब्राह्मण ! मैं अनन्त को नहीं जानता ।
इस तरह उससे तिरस्कृत होकर कौंडिन्य ने एक बछड़े सहित गाय देखी । हे युधिष्ठिर ! वह गाय घास के बीच इधर-उधर दौड़ रही थी। कौंडिन्य ने गाय से पूछा- हे घेनु ! बताओ तुमने अनन्त को देखा है ?" गाय ने कौंडिन्य से कहा- ब्राह्मण ! मैं अनन्त को नहीं जानती ।
तब आगे जाते हुए उसने हरी घास पर बैठे एक बैल को देखा और उससे पूछा- हे गायों के स्वामी ! क्या तुमने अनन्त को नहीं देखा ? बैल ने उससे कहा- मैंने अनन्त को नहीं देखा ।
फिर आगे जाते हुए उसने दो सुन्दर तलैयाएँ देखीं। उनमें परस्पर जल की लहरें आ रही थीं, लहरों के चलने से वे बड़ी शीतल थीं, कमल और कल्हार से आच्छन्न थीं, जलजीवों से सुशोभित थीं, भौंरे, हंस, चकवे, कारण्डव और बगुले उनका सेवन कर रहे थे। ब्राह्मण ने उन तलैयों से पूछा-तुमने अनन्त को नहीं देखा ? उन तलैयों ने कहा-हमने प्रभु के दर्शन नहीं किये ।
तब आगे जाते हुए कौंडिन्य ने एक हाथी और एक गदहा देखा । ब्राह्मण ने उनसे भी पूछा। उन्होंने भी ब्राह्मण का तिरस्कार किया और कहा- हमने प्रभु को नहीं देखा। यह सुनकर कौंडिन्य बैठ गया।
ब्राह्मणोत्तम कौंडिन्य इस समय घबरा उठा था, अतः कृपा करके अनन्त देव प्रत्यक्ष हुए उन्होंने वृद्ध ब्राह्मण के वेष में कौडिन्य से कहा-इधर आइये । वे उसका दाहिना हाथ पकड़ कर अपनी पुरी में ले गए। उन्होंने कौंडिन्य को अपनी पुरी दिखाई, जो दिव्य स्त्री-पुरुषों से युक्त थी। उस पुरी में अनन्त भगवान् श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे थे। पास में स्थित शंख, चक्र, गदा, पद्म और गरुड से वे शोभित थे। फिर उस ब्राह्मण ने कौंडिन्य को पूर्वोक्त विश्वरूपी परमेश्वर अनन्त के दर्शन करवाये. जो कौस्तुभ मणि से सुशोभित, वनमाला से विभूषित और विभूतियों से भासमान थे, उनको देखकर इस ब्राह्मण ने बड़े आनन्द के
साथ अनन्त भगवान् से कहा-पापोऽह पापकर्माऽहं पापात्मा पापसम्भवः ।
त्राहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपापहरो भत्र ॥ अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् । यत्तवात्रियुगाम्भोजे मन्मूर्द्धा भ्रमरायते ॥
मैं पापी हूँ, पापकर्मों का करनेवाला हूँ, मेरे मन में भी पाप है और मैं पापों का पैदा करनेवाला हूँ। हे कमलनयन ! मेरी रक्षा करिए और सब पापों के हरण करनेवाले होइये ।
आज मेरा जन्म सफल है, आज मेरा जीवन सुजीवन है, क्योंकि मेरा मस्तक आप के चरण कमल में भौंरे की तरह रम रहा है।
यह सुनकर अनन्त देव ने उसको तीन वरदान दिये - दारिद्रय का नाश, धर्म और सनातन विष्णुलोक की प्राप्ति ।
अब ब्राह्मण ने हर्ष से युक्त, नेत्र विकसित करके अनन्त भगवान् से पूछा- हे देव ! कृपा करके यथार्थ रूप में बताइए कि (मार्ग में मिलित) आम कौन था, बैल कौन था, गाय कौन थी, दोनों तलैयाएँ कौन थीं, गदहा कौन था और हाथी कौन था ?
भगवान्, ने कहा-वह आम का पेड़ एक ब्राह्मण था जो पण्डित था और वेदों का घमण्डी था, किन्तु उसने अपने शिष्यों को शास्त्र का दान नहीं किया इसलिए उसे वृक्ष होना पड़ा । 6
जो तुमने बछड़े-सहित गाय देखी थी, वह साक्षात् पृथ्वी थी । जो तुमने बैल देखा था, हे ब्राह्मण ! वह स्वयं धर्म था ।
जो तुमने दो तलैयाएँ देखी थीं, वे पूर्वजन्म में सगी बहिनें थीं, किन्तु जो धर्म करतीं वह परस्पर ले लेतीं इसलिए तलैयाएँ हुई।
जो हाथी तुम्हें मिला था, वह धर्म का द्वेषी था और जो गदहा मिला वह लोभी ब्राह्मण था तथा जो बूढ़ा ब्राह्मण मिला वे स्वयम् अनन्त थे ।
हे ब्राह्मण ! पहले मैंने जो तुमने पृछा वह बताया है, अब तुम फिर घर जाओ और अनन्त भगवान् का व्रत चौदह वर्ष तक करो । तब सन्तुष्ट होकर मैं तुम्हें नक्षत्रों में स्थान दूँगा। धर्मात्मा तुम अपनी पत्नी के - साथ आनन्ददायक भोगों को भोगकर पुत्र-पौत्रों से युक्त होने के अनन्तर मोक्ष पाओगे ।
श्रीकृष्ण ने कहा- अनन्त भगवान् इस तरह वरदान देकर वहीं अन्तर्धान हो गए। कौंडिन्य भी घर आया और उसने यह उत्तम व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से उसको सब तरफ से लक्ष्मी मिलने लगी । वह धर्मात्मा शीला के साथ इच्छानुसार भोग भोगकर स्वर्ग में गया और पुनर्वसु नामक नक्षत्र हुआ, जो चमकता हुआ दिखाई देता है और जो एक कल्प तक स्थायी रहेगा। अच्छी तरह करने पर अनन्त के व्रतरूपी धर्म से यह फल हुआ ।
अनन्त का उद्यापन आदि, मध्य या अन्त में कहीं भी किया जा सकता है। उद्यापन के समय अनन्त देव की सुवर्ण-प्रतिमा बनवानी चाहिए,.
उसको पूर्णपात्र और घड़े से युक्त श्वेत वस्त्र से ढँककर छत्र और जूते *की जोड़ी सहित ब्राह्मण को दान करना चाहिए और सब आभरणों से भूषित गऊ दक्षिणा में देनी चाहिए। फिर परम भक्ति से पूजा करके चौदह ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए और उनको दक्षिणा देनी चाहिए ।
इस तरह व्रत करने से अव्ययपद प्राप्त होता है और मनुष्य जो-जो मनोरथ करता है वे सब प्राप्त होते हैं। हे राजन् ! मैं सच कहता हूँ, जिसके पुत्र नहीं हो उसको पुत्र मिलता है, निर्धन को धन मिलता है और रोगी रोग से छूट जाता है।
हे राजन् ! यह उत्तम अनन्तव्रत तुमसे कहा जिसके करने से (मनुष्य) सब पापों से मुक्त हो जाता है इसमें कोई सन्देह नहीं ।
जो लोग इस हरि की कथा को सदा सुनते हैं वे भी पाप से मुक्त होकर परमगति प्राप्त करते हैं।
(व्रतार्क में भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत)
अभ्यास
(१) अनन्तव्रत का समय बताइए ?
(२) अनन्तव्रत की विधि बताइए । अनन्त का अर्थ क्या है ? उसमें भगवान् को पुल्लिंग पक्वान्न ही क्यों निवेदन किए जाते हैं, स्त्रीलिंग पक्वान्न क्यों नहीं ?
(३) अनन्त का डोरा कैसे बनाया जाता है ? चौदह अन्थियों के देवता कौन हैं ? इन देवताओं को प्रन्थियों में स्थापित करने का क्या अभिप्राय है ?
(४) यह व्रत वर्षा ऋतु के अन्त में क्यों किया जाता है ?
(५) अनन्तकथा संक्षेप में कहिए। आम तथा तलैयों के वृत्तान्त से क्या तात्पर्य निकलता है ?
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