भारतीय व्रत उत्सव | 24 | विजयादशमी
भारतीय व्रत उत्सव | 24 | विजयादशमी
समय-आश्विन शुक्ल दशमी
काल-निर्णय
जिस दिन अपराह्न में दशमी हो उस दिन करनी चाहिए। यदि दोनों दिन अपराह्न में न हो तो पहले दिन ही करनी चाहिए, किन्तु श्रवण नक्षत्र मिलता हो तो जिस दिन श्रवण नक्षत्र हो उस दिन करनी चाहिए । विशेष निर्णय धर्मशास्त्रों में देखा जा सकता है।
विधि
इस दिन अपराजिता-पूजन, शमीपूजन, नगर की सीमा का उल्लंघन, शस्त्रास्त्र-पूजन और विदेश जानेवालों के प्रस्थान का विधान है, जिनका विवरण आगे दिया जाता है।
अपराजिता-पूजन-अपराजिता का पूजन नगर से बाहर ईशान कोण में पवित्र स्थान पर पृथ्वी को गोमय से लीपकर चन्दनादि से बनाए हुए अष्टकोण मण्डल पर किया जाता था। मध्य में अपराजिता, दक्षिण में जया और बाईं तरफ विजया का आवाहन करके षोडशोपचार से पूजन की विधि है, किन्तु आजकल यह रिवाज उठ सा गया है।
शमी-पूजन-इस कर्म में गाँव से बाहर ईशान कोण में स्थित शमी-वृक्ष के पूजन की विधि है। पूजा का मन्त्र निम्नलिखित है -
अमङ्गलानां शमनीं शमनीं दुष्कृतस्य च ।
दुःस्वप्वनाशीं धन्यां प्रपद्येऽहं शर्मी शुमाम् ॥
पूजा के अन्त में निम्नलिखित मन्त्रों से प्रार्थना करनी चाहिए -
शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका ।
धरिव्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी ॥
करिष्यमाणयात्रायां यथाकालं सुखं मया ।
तत्र निर्विघ्नकर्वी त्वं भव श्रीरामपूजिते ॥
शस्त्रास्त्रपूजन - धर्मशास्त्रों में प्रतिपदा से आरम्भ करके नवमी-पर्यन्त नवरात्र में शस्त्रास्त्र राजचिह्न और हाथी, घोड़ा आदि की पूजा का भी विधान है। इसका नाम शास्त्रों में लोहाभिसारिक कर्म कहा गया है। परन्तु आजकल, जबसे भारतवर्ष की राजसत्ता नष्ट हुई, साधारण लोग और क्षत्रिय राजा भी विजयादशमी के दिन ही साधा-रण रूप से यह कार्य कर लेते हैं। विस्तारभय से हम इस विधि के सब विधान को यहाँ उद्धृत करने में तो असमर्थ हैं, किन्तु प्राचीन समय में यह उत्सव किस प्रकार होता था इसका थोड़ा दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है-
शस्त्रास्त्रादि-पूजन के लिए सोलह हाथ लम्बा और इतना ही चौड़ा एक मण्डप बनाकर उसे पताका आदि से सजाया जाता था। उस मण्डप में शस्त्रास्त्र और राजचिह्न सजाकर रक्खे जाते थे। मण्डप के अग्नि-कोण में हाथ भर का सुन्दर कुंड बनाकर उसमें शुक्लाम्बरधारी ब्राह्मण पवित्र होकर हवन करवाते थे। राजा भी प्रतिदिन स्नान करके राज-चिह्न का और हाथी-घोड़ों का पूजन करते थे और सजाये हुए घोड़े शहर में बाजे-गाजे के साथ निकाले जाते थे ।
वैसे तो सभी राजचिह्न अस्त्र-शस्त्रादि पूजा में रहते थे, परन्तु निन्न-लिखित राजचिह्नों के नाम धर्मशास्त्रों में विशेष रूप से लिखे हैं-छत्र, चंवर, ध्वजा, पताका, खड्ग, छुरी, कटारी, धनुष, बाण, ढाल, तलवार, भाले, छड़ी, नौबत, शंख, राजसिंहासन आदि में से प्रत्येक ।
इनकी पूजा विधि और मन्त्र आदि निर्णय-सिन्धु और चतुर्वर्ग-चिन्ता-मणि (हेमाद्रि) आदि ग्रन्थों में देखे जा सकते हैं। आजकल तो विजयादशमी के दिन केवल अश्व-पूजन और शस्त्र-पूजन बाकी रह गया है।
सीमोल्लंघन वास्तव में विजयादशमी राजाओं की विजय-यात्रा का दिवस था। चातुर्मास्य में क्षत्रिय लोग मार्गों के पंकिल (कीचड़ बाले) हो जाने और नदियों में जल-प्रवाह के कारण शत्रु-राजाओं घर चढ़ाई न कर सकते थे। चातुर्मास्य समाप्त होने पर विजयादशमी के दिन वे प्रथम प्रस्थान करते थे, किन्तु शनैः शनैः भारत के परतंत्र हो जाने पर उस दिन सीमोल्ल्घंन मात्र रह गया। लोग इस दिन नगर से बाहर अवश्य ही जाते हैं और विदेश में जानेवाले भारतीय आज भी इस दिन को विजयमुहूर्त मानते हैं।
विजयादशमी के विषय में भ्रम
विजयादशमी के विषय में अनेक लोगों का यह विचार है कि-यह उत्सव भगवान् रामचन्द्र के लंका-विजय के उपलक्ष में आरम्भहुआ है, किन्तु शास्त्रों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । प्रत्युत निर्णयसिन्धु¹ में चतुर्वर्गचिन्तामणि से कश्यप का एक वचन उद्धृत किया गया है, उससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् रामचन्द्र ने इस दिन लंका-विजय के लिए प्रस्थान किया था। इसलिए लंका विजय का दिन मानना तो कल्पना मात्र ही है। हाँ लंकाविजय के लिए प्रस्थान का दिवस यह अवश्य है।
1. श्रवणक्षे तु पूर्णायां काकुत्स्थः प्रास्थितो यतः ।
वल्लंघयेयुः सीमानं तद्दिनर्थे तत्तो नराः ॥
( निर्णयसिन्धु, विजयादशमी-निर्णय)
वस्तुस्थिति:
वास्तव में यह दिन मुसलमानों के अधिकार से पूर्व स्वतन्त्र भारत मैं राजाओं की दिग्विजययात्रा का विजय-मुहूत्र्त्त था। भगवान् राम के द्वारा लंका-विजय भारतवर्ष का एक सबसे बड़ा पराक्रम माना जाता है और उनकी यात्रा इसी दिन हुई थी, अतः सदा के लिए यहं दिन भारत-वासियों का विजय मुहूर्त बन गया। यही इस उत्सव की सबसे बड़ी विशेषता है।
काल-विज्ञान
नवरात्र के काल-विज्ञान में लिखा जा चुका है कि भारतवर्ष की निर्मल, स्वच्छ और सुखद ऋतुएँ शरद् और वसन्त ही हैं। उनमें से भी विजय-यात्रा के लिए वसन्त उतनी उपयुक्त नहीं, क्योंकि उसके अनन्तर ग्रीष्म ऋतु आ जाती है जो यात्रा के लिए, विशेषकर विजययात्रा के लिए, विशेष सुखद नहीं है। आजकल भी अफसरों के दौरे शीत-काल में ही होते हैं।
महाराज रघु की दिग्विजययात्रा का वर्णन करते हुए कालिदास कहते हैं-
सरितः कुर्वती गाधाः पथश्वाश्यानकर्दमान ।
यात्रायै चोदयामास तं शक्तः प्रथमं शरत् ॥
(रघुवंश ४-२४)
अर्थात् नदियों को पार करने योग्य बनाती हुई और रास्तों के कीचड़ सुखाती हुई शरद् ऋतु ने शक्ति से पूर्व ही अर्थात् सेनाओं की तयारी से पहले ही रघु को दिग्विजययात्रा के लिए प्रेरणा दी। सेनाएँ तैयार होती रहेंगी, पर शरद ऋतु की प्राकृतिक सुविधा ने उसके स्वाभाविक उत्साह को बढ़ा दिया ।
इससे यह सिद्ध है कि भारतवर्ष में दिग्विजययात्रा के लिए शरद्-ऋतु सदा ही अभ्यर्हणीय रही है।
ज्यौतिष के अनुसार यद्यपि यात्रा सूर्य जब धनु, मेष¹ और सिंहराशि का हो तब अर्थात् पौष, वैशाख और भाद्र मास में अच्छी मानी जाती है तथा कन्या अथवा तुलाराशि का सूर्य हो तब मध्यम मानी जाती है और विजयादशमी पर कन्या अथवा तुलाराशि का ही सूर्य रहता है, तथापि घन के सूर्य में गुर्वादित्य (खरमास) रहता है और वैशाख में गरमी बढ़ जाती है तथा भाद्रमास में वर्षाऋतु रहती है, जो विजय-यात्रा के लिए अनुपयुक्त है, अतः मध्यम होने पर भी आश्विनमास ही इसके लिए उत्तम समझा गया है।
(1. धनुर्मेषसिंहेषु यात्रा प्रशस्ता शनिज्ञोशनोराशिगे चैव मध्या । रखौ
(मुहूर्त्तचिन्तामणि, यात्राप्र० श्लो० ८))
शुक्लपक्ष की दशमी तिथि तो ज्यौतिष के अनुसार अत्यन्त ही प्रशस्त है। जैसा कि लिखा है-
चलक्षपते सर्वदुःखशमनी यशस्करी लामदा च दशमी निरन्तरम्।
अर्थात् शुक्ल पक्ष की दशमी सब दुःखों को शान्त करनेवाली, यश करनेवाली और लाभदायिनी है।' (पीयूषधारा में वसिष्ठ का वचन)।
श्रवण नक्षत्र तो यात्रा के लिए प्रशस्त है ही। जैसा कि लिखा है-
'हयादित्यमित्रेन्दुजीवान्त्यहस्तश्रवोवासवैरेव यात्रा प्रशस्ता।'
अर्थात अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, सृगशिर, पुष्य, रेवती, हस्त, श्रवण और धनिष्ठा इन्हीं नक्षत्रों में यात्रा प्रशस्त है।'
इनमें से भी श्रवण दिन या रात्रि में सब समय प्रशस्त है। जैसा कि कहा है-
'हरिइरुतपुष्यशशिभिः स्यात्सर्वकाले, शुभा ।
अर्थात् श्रवण, हस्त, पुष्य और मृगशिर इनमें यात्रा सब समय शुभहोती है।'
सो इस तरुह विजययात्रा के लिए विजयादशमी सर्वोत्तम दिन है।
विधि-विज्ञान
अपराजिता-पूजन और शमी-पूजन - ऊपर यह बताया जा चुका है कि शक्ति ही जीवन में सबसे बड़ा साधन है। उसका मुख्य फल है विजय होना या यों कहिए कि पराजय न होना। सारांश यह है कि प्रत्येक प्राणी के जीवन का लक्ष्य प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करना है और वह सफलता तभी प्राप्त हो सकती है जब मनुष्य अन्य व्यक्तियों या विघ्न्नों के द्वारा पराजित अथवा अभिभूत न हो। पराजित होना ही निष्फलता का प्रधान लक्षण है। जो पराजित नहीं होता वह कभी न कभी सफलता प्राप्त कर ही लेता है, किन्तु जो व्यक्ति पराजित अथवा परास्त होकर बैठ गया उसको जीवन में सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती, अतः शक्ति-पूजा के चरम फलरूप पराजय के अभाव की प्राप्ति के लिए विजयादशमी के दिन अपराजिता-पूजन रक्खा गया है। इस दिन की आराध्यदेवता का नाम विजया की अपेक्षा भी अपराजिता वास्तव में अधिक आकर्षक है, यद्यपि है दोनों का तात्पर्य एक ही ।
इसी प्रकार शमी शब्द का अर्थ भी 'शाम्यन्त्यनयारिष्टानि' इस विग्रह के अनुसार (देखिए 'विष्वीशमी' इत्यादि मन्त्र के प्रसंग में निरुक्त की व्याख्या) 'अनिष्टों की शमन करनेवाली' होता है और यह बात सर्व-सम्मत है कि अरिष्ट-निवृत्ति के बिना सफलता या विजय संभव नहीं । अतः विजयादशमी के दिन शमी का पूजन भी उचित ही है।
शमी के पूजन करने का दूसरा कारण यह भी है कि शमी को अग्नि-गर्भा माना गया है। जैसा कि कालिदास ने 'शमीमिवाभ्यन्तरलीनपाव-काम्'- (रघुवंश ३, ६) में सूचित किया है और मल्लिनाथ द्वारा उद्धृत 'शमीगर्भादग्निं जनयति' इस शतपथश्रुति के अनुसार सिद्ध है;
और क्योंकि अग्नि ही विनाशक तत्त्वों में प्रधान है, अतः अनिष्ट, अमंगल तथा दुष्कृतों के विनाश के लिए अग्निगर्भा शमी का पूजन अपराजया-कांक्षी को अपेक्षित ही है। 1
शस्त्रास्त्रादि पूजन-पहले बताया जा चुका है कि भारतवर्ष में सभी वस्तुओं के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक तीन रूप माने जाते हैं। तदनुसार अपराजय की अधिदेवतारूप अपराजिता और शमी के पूजन का विज्ञान ऊपर बताया गया है। यही उसका आध्यात्मिक रूप भी है; क्योंकि -
'योऽध्यात्मिकोऽसौ पुरुषः सोऽसावेवाधिदैविकः ।
(श्रीमद्भागवत )
अर्थात् जो आध्यात्मिक पुरुष है वही आधिदैविक भी है।'
इसके अनुसार आध्यात्मिक और आधिदैविक में भेद नहीं माना जाता ।
उसी अपराजय के भौतिक साधन हैं शस्त्रास्त्र, वाहन आदि, और आध्यात्मिक तथा आधिदैविक का अधिष्ठान आधिभौतिक वस्तुएँ ही होती हैं, अतः शस्त्रास्त्र और वाहनों का पूजन भी इस दिन किया जाता है। किन्तु साधनों का वास्तविक पूजन है उनका उचित उपयोग । अतः आज स्वतन्त्र भारत में विजयादशमी के दिन इन शस्त्रास्त्रों के प्रयोगों का भी प्रदर्शन होना चाहिए ।
सीमोल्लंघन - क्षत्रियों और ब्राह्मणों के विषय में महाभारत का कथन हैं कि-
द्वाविमौ असते मुमिः सर्पों बिलशयानिव ।
क्षत्रियं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥
अर्थात् जैसे बिल में रहनेवालों (चूहों आदि) को निश्चेष्ट रहने पर साँप खा जाता है वैसे ही बिरोध न करनेवाले अर्थात् युद्ध से डरने- वाले क्षत्रिय को और प्रवास (विदेश-यात्रा) न करनेवाले अर्थात् प्रचार-हीन ब्राह्मण को भूमि अस जाती है। तात्पर्य यह कि वे जीते हुए भी मरे हैं।
तद्नुसार क्षत्रियों को युद्धाभ्यांसी होना चाहिए। इसलिए प्राचीन भारत में प्रत्येक क्षत्रिय विजयादशमी को पौरुषदर्शनार्थ अपनी राज्य-सीमा का उल्लंघन अवश्य करता था, जिससे युद्ध का लोप न हो जाय ।
यह एक प्रकार की विजययात्रा थी, जो वर्णाश्रम प्रथा की समाप्ति के साथ प्रायः समाप्त-सी है।
अभ्यास
(१) विजयादशमी कब होती है ?
(२) विजयादशमी में क्या-क्या विधियाँ होती हैं ?
(३) क्या विजयादशमी लंकाविजय का दिवस है ? होने न होने के प्रमाण दीजिए ।
(४) कालविज्ञान और विधिविज्ञान का निरूपण करिए ।
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