भारतीय व्रत उत्सव | 26 | दीपावली
भारतीय व्रत उत्सव | 26 | दीपावली
दीपावली
समय-कार्तिक (दाक्षिणात्यों के हिसाब से आश्विन) कृष्णा अमावस्या ।
कालनिर्णय
जिस दिन सूर्यास्त के बाद एक घड़ी अधिक तक अमावस्या रहे उस दिन दीपावली मानी जानी चाहिये। दोनों दिन सायंकाल के समय हो तो दूसरे दिन और केवल पहले दिन ही सायंकाल के समय अमा-वस्या हो तो पहले दिन दीपावली मानना उचित है। यदि दोनों ही दिन सायंकाल के समय अमावस्या न हो तो कुछ लोगों के मत से पहले दिन और कुछ लोगों के मत से दूसरे दिन दीपावली मानना चाहिए। इस उत्सव के साथ स्वाति नक्षत्र का योग प्रशस्त माना गया है। दीपावली के साथ धनत्रयोदशी और नरकचतुर्दशी के उत्सव भी हैं।
विधि
इस उत्सव में त्रयोदशी के सायंकाल के समय यमदीपदान, चतुर्दशी के प्रातःकाल अभ्यङ्ग स्नान और अमावस्या के दिन सायंकाल के समय दीपावली और लक्ष्मीपूजन होते हैं।
काल-विज्ञान
- ऋतुओं के वर्णन में ऊपर बार-बार बताया जा चुका है कि -भारतवर्ष की सर्वोत्तम ऋतुएँ दो ही हैं- शरद् और वसन्त । इनमें से वसन्त की शोभा भारतवर्ष के जलप्राय और वृक्षावलियों से शोभित प्रदेशों में ही उल्लसित होती है, किन्तु शरद् ऋतु भारतवर्ष के कोने-कोने में- चाहे वह सरुभूमि हो अथवा जलप्लाक्ति भूभाग, सर्वत्र शोभाधायक होती है। सुभिक्ष के समय इस ऋतु में निर्जल मरुस्थल तक में सबको अन्न और निर्मल जल की प्राप्ति होती है। अतः कृषिप्रधान भारतवर्ष के लिए इससे श्रेष्ठ कौन ऋतु लक्ष्मीविलास की आधारभूमि हो सकती है। अतएव ऐसी ऋतु में राजा और रंक सभी प्रमुदित होकर लक्ष्मी-पूजन करें, यह आध्यात्मिकता के आदर्श भारतवर्ष के लिए सर्वथा समुचित ही है।
इस ऋतु में आश्विन और कात्तिक दो मास होते हैं। इनमें से कार्त्तिक मास ही लक्ष्मी पूजन के लिए इस कारण उपयुक्त समझा गया कि कृषि द्वारा अन्न की प्राप्ति पर्यवसितरूप से कार्तिक में ही होती है। आश्विन में यत्र-कुत्र भले ही धान्य का परिपाक हो जाय,, सर्वत्र नहीं होता और जब तक सर्वत्र धान्यरूप लक्ष्मी, जो कृषिप्रधान भारतवर्ष का एक मात्र आधार है, न पहुँच जाय तब तक लक्ष्मी पूजन कैसा ? सो लक्ष्मी-पूजन के लिए कात्तिक मास अभ्यर्हणीय है।
अमावस्या के विषय में तो किसी विशेष उपपत्ति की वैसे भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि दीपावली के लिए चाँदनीवाला दिन उतना उपयोगी नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त एक मुख्य कारण यह भी है कि शरद् ऋतु में मलेरिया आदि रोगों की उत्पत्ति की संभावना अधिकतर रहती है और रोग के कीटाणु सूर्य और चन्द्रं के प्रकाश में या तो पनपते ही कम हैं और यदि पनप भी गये तो उनका प्राचुर्य्य या प्राबल्य उतना नहीं हो पाता, जितना अन्धकार में हो सकता है। इसलिए दीपावली का प्रकाश अमावस्या के अन्धकार में ही करनाः उचित है, क्योंकि उस समय पुञ्जीभूत कीटाणु इस प्रकाश के द्वारा अनायास ही विनष्ट किये जा सकते हैं। सायंकाल का समय भी इसीलिए उपयोगी होता है कि उस समय शीत और उष्ण दोनों प्रकृत्ति के कीटाणु संगृहीत रूप में प्राप्त हो सकते हैं; अन्यथा रात्रि में उष्णताबधान कीटाणुओं का और दिन में शीतप्रधान कीटाणुओं का संग्रह प्रकृति विरुद्ध होने के कारण सहसा एकत्र प्राप्त नहीं हो सकता ।
"भारतवर्ष के चार प्रधान राष्ट्रीय त्यौहारों में से, जैसे कि-रक्षाबंधन के प्रकरण में लिखा जा चुका है, यह त्यौहार-भी एक है। इस त्यौहार में लक्ष्मी पूजन की मुख्यता के कारण यद्यपि वैश्यों की प्रधानता है, क्योंकि प्राचीन भारतीय समाज में धनार्जन और धन-सञ्चय का काम प्रायः वैश्यों के ही अधीन था तथापि वर्ण-विभाग को समाज के अंग-विभाग के समान सहयोगी विभाग ही माना जाता रहा है, अतः किसी भी वर्ण का त्यौहार राष्ट्रीय त्यौहार ही होता है, जैसे कि हाथ-पैर आदि के द्वारा किया जानेवाला काय शारीरिक कार्य ही समझा जाता है। सभी भारतीय त्यौहारों को सब लोग आज भी राष्ट्रीय रूप में ही मानते हैं। वर्णाश्रमों के कारण सिन्नप्राय भारतीय समाज की इसी विशेषता ने उसमें ऐक्य बनाये रक्खा ।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है इस त्यौहार में यद्यपि लक्ष्मी-पूजन की ही प्रधानता है तथापि चतुर्दशी और अमावस्या का अभ्यङ्ग स्नान; दीपावली और दीप-दानादिक ये सभी अत्यन्त वैज्ञानिक हैं। इनमें से अभ्यङ्गस्नान का संवत्सरोत्सव के प्रसङ्ग में विस्तृत विवेचन किया जा चुका है, अतः यहाँ उसका दोहराना व्यर्थ है।
यम-दीपदान - त्रयोदशी के दिन चौराहे में या घर के द्वार पर दीपक जलाया जाता है। जैसा कि काल-विज्ञान में लिखा जा चुका है, चातुर्मास्य के सञ्चित कीटाणुओं की निवृत्ति ही मुख्यतया इस दीप-दान का हेतु प्रतीत होता है। इसी कारण इस (दीपदान) को यम-दीप-दान नाम भी दिया गया है। यम मृत्यु का अधिष्ठाता देवता है और रास्ते, चौराहे आदि में प्रायः मलिनता, कूड़ा आदि का संसर्ग होने से मार्ग की धूलि में रोगों के अनेक कीटाणु विद्यमान रहते हैं। तैल के जलने से जो तीव्र गन्ध उत्पन्न होती है उससे अधिकांश धूलि-गत कीटाणुओं का नाश संभव है। इसी कारण निर्णयसिन्धु में यम-दीप-दान का वर्णन करते हुए स्कन्दपुराण का 'यह वचन उद्धृत किया गया है कि-
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति ॥
अर्थात् कार्तिक की त्रयोदशी को सायंकाल के समय घर से बाहर दीपदान करना चाहिए। इससे अपमृत्यु नष्ट होती है।
यह दीप-दान दीपावली का आरम्भिक रूप है। दीप-दान कीटाणु-विनाश-द्वारा अपमृत्यु-विनाश में सहायक होता है। यह बताया जा चुका है।
इस तरह त्रयोदशी को बाहर के कीटाणुओं की शुद्धि करने के बाद चतुर्दशी को अभ्यङ्गस्नान द्वारा शरीरगत कीटाणुओं की निवृत्ति की जाती है और तब दीपावली का मुख्य उत्सव आरम्भ होता है।
भारतवर्ष का यह उत्सव सचमुच लक्ष्मी के आधिभौतिक, आध्या-त्मिक और आधिदैविक तीनों स्वरूपों का उल्लासमय प्राकट्य करनेवाला है। लक्ष्मी का आधिभौतिक-रूप धन-सम्पत्ति अर्थात सोना, चाँदी, मणि, रत्न आदि हैं, आध्यात्मिक स्वरूप शोभा है और आधिदेषिक रूप भगवती पद्मा या महालक्ष्मी है, जो विष्णु की प्रिया कहलाती है। अतएव संस्कृत भाषा के कोशों में लक्ष्मी और श्री शब्द के उक्त तीनों अर्थ माने गए हैं-
शोमासंपत्तिपद्मासु लक्ष्मीः श्रीरिव कथ्यते ।
पहले बताया जा चुका है कि भारतीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक 'आंराधनी, उपासना बाअर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधि-दैषिक इन तीनों रूपों का संम्मिलित रूप में व्यवहार किया जाता है। तदनुसार इस उत्सव में भी चाँदी, सोने, सिक्के आदि के रूप में आधि-भौतिक लक्ष्मी को आधिदैविक लक्ष्मी से सम्बन्ध स्वीकार करके पूजन किया जाता है। घरों का सम्मार्जन, उपलेपन और सुघासेचन (कलई आदि से पोतना) प्रभृति परिष्कार (सजावट) और दीपमाला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरूप शोभा को आविर्भूत करने के लिए किये जाते हैं। इस तरह इस उत्सव में उक्त त्रिविध लक्ष्मी का समाराधन हो जाता है।
वास्तव में सभी उत्सवों में दीपावली का उत्सव घर-घर, गाँव-गाँव और नगर-नगर में बालक से लेकर वृद्ध तक, मूर्ख से लेकर पण्डित तक और रक्ङ्क से लेकर राजा तक सर्वत्र ही आमोद-प्रमोद और आनंद-विनोद का उल्लासक मुख्य त्यौहार है।
इसलिए इसकी आनन्दजनकता में तो कोई सन्देह है ही नहीं, किन्तु इसका केवल इतना ही महत्त्व नहीं है। इसके अतिरिक्त इस उत्सव का वैज्ञानिक महत्त्व भी है। वह यह है कि - चातुर्मास्य में समी भूमि-भाग के भींगे रहने के कारण अनेक प्रकार के जीव-जन्तु और रोगों के कीटाणु पर्याप्त से अधिक रूप में फैल जाते हैं, उनमें से मोटे-मोटे कीट-पतंगादि तो शरऋतु के आने पर भगवान् भास्कर के अति तीव्र आतप से सन्तप्त होकर अथवा शरत्काल के अनन्तर तत्काल ही आने वाले हेमन्त के अति शीत द्वारा नष्ट अथवा लुप्त हो जाते हैं, किंतु साधारण दृष्टि से तिरोहित रहनेवाले अति सूक्ष्म कीटाणु न तो सूर्यताप से ही और न शीत से ही सर्वथा निवृत्त हो सकते हैं। अतः उनको निवृत्त करने के लिए कच्चे मकानों को शुद्ध गोबर, खड़ी आदि से और पक्के मकानों को चूना, कलई आदि से वर्षभर में एक बार साफ कर देना आवश्यक होता है। गोबर, चूना आदि की कीटाणुनाशकता सर्वविदित है। इतने पर भी जो कीटाणु बच ही रहें उनको निवृत्त करने के लिए सारे घर में तेल के दीपकों की तीव्रगन्ध अत्यन्त उपयोगी होती है। इससे रहे सद्दे सभी चातुर्मास्य के कीटाणु विनष्ट हो जाते हैं और निवासस्थान रोगाणुओं से रहित और स्वास्थ्य-रक्षा में सहायक हो जाता है।
इस दृष्टि से विचार करने पर आजकल की बिजली' की रोशनी शोमाजनक भले ही कही जा सके, किन्तु कीटाणु-विनाशक के रूप में उतनी उत्तम नहीं मानी जा सकती जितनी कि तैल-दीपकों की रोशनी होती है।
कथा
नारद ने कहा- अब मैं दीपावली के महोत्सव का वर्णन करता हूँ। इस उत्सव को दीपमाला, कौमुदी और सुखसुप्ति के नाम से कहा जाता है। इस दिन प्रदोष के समय लक्ष्मी का पूजन करके जो भी स्त्री या पुरुष भोजन करते हैं उनके नेत्र वर्ष भर निर्मल रहते हैं। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन विष्णु भगवान् क्षीरसमुद्र के तरङ्गों पर सुख से सोये और लक्ष्मी भी दैत्यभय से विमुक्त होकर कमल के उदर में सुख से सोई। इसलिए मनुष्यों को सुख-सुप्ति का उत्सव विधिपूर्वकः करना चाहिए ।
उस दिन बालक, वृद्ध और रोगियों के सिवाय किसी को दिन में भोजन नहीं करना चाहिए। सायंकाल के समय देवी (लक्ष्मी) का यथाविधि पूजन करके देवालयों में शक्ति के अनुसार दीपकों के समूह जलाने चाहिएँ ।
राजा उस दिन दीपमाला से युक्त प्रदोष के समय ब्राह्मणों को भोजन करवाके, श्राद्ध करके पितरों को पिण्डों से सन्तुष्ट करे और दीप-दान करे। फिर भूखों को श्रेष्ठपिण्डों (प्रिय भोजन) का दान करके बही, मोही, सुखी और चतुर बाम्धवों के साथ दीपावली का महोत्सव करण सायंकाल के समय राजा नगर में घोषणा करे कि सारी राज्य की सैना और प्रजा यथेष्ट चेष्टा करे। प्रजा को भी नगर के सुन्दर प्राङ्गण को कलई से सफेदी करके वृक्ष और चन्दन की माला से युक्त करना चाहिए और भत्येक घर को खूब सजाना चाहिए। द्यूत (जुआ), पान (भांग ठंडाई) आदि सुखों से युक्त होकर स्त्री-पुरुष सब मनोहर बनें। नाच और बाजों की आवाज से (नगर को) गुंजा दें। दीपक जलाये जावें । दीपकों की सुन्दर पंक्ति से अन्धकार का समूह नष्ट हो जाना चाहिए। तब निर्दोष प्रदोष के समय रात्रि के शुभ आरम्भ की बेला में स्वस्ति और मङ्गल करनेवाली वेश्याएँ और विलासिनियों के समूह सुख देते हुए एक घर से दूसरे घर तक फिरें। फिर अर्धरात्रि के समय राजा सुन्द्र नगर को अवलोकन करने के लिए धीरे-धीरे पैदल ही घरों में जाय ।
इस दिन यथाशक्ति ब्राह्मणों के घरों में, मन्त्रियों के घरों में, देवा--लयों में, चौराहों में, श्मशान में, पर्वत में, गायों के खिड़कों में दीप--दान करना चाहिए। सायंकाल के समय पितृभक्त लोगों को श्राद्ध भी करना चाहिए और दीपमाला करनी चाहिए ।
तब दीपदान के पश्चात् सोई हुई लक्ष्मी को जगाना चाहिए। पहले असुरविनाशक विष्णु भगवान् को क्षीरसागर में सोया हुआ जानकर डरी हुई लक्ष्मी ब्राह्मणों से अभय प्राप्त करके कमल में रहने लगी, उसी लक्ष्मो को आज स्त्रियाँ भगवान् के जगाने के पहले जगाती हैं।
हे ब्राह्मणो ! दीपक हाथ में लिए स्त्रियाँ देवी कमला (लक्ष्मी) को इस मन्त्र से जगावें ।
त्वं ज्योतिः श्री रविश्चन्द्रो विद्युत्सौवर्णतारकाः ।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिः स्थिते नमः ॥
अर्थात् हे दीप की ज्योति में स्थित (कमले!) आप ही ज्योतिरूप हैं, लक्ष्मी हैं, सूर्य-चन्द्र, सुवर्णसमूह और तारे हैं। सब ज्योतियों की ज्योति आप ही हैं। आपको नमस्कार। उसके बाद भोजन करें। जैसे पतिव्रताः नारी, ब्राह्म-काल में पति के पहले जागती हैं वैसे ही लक्ष्मी भी अपने पति विष्णु से बारह दिन पहले जागती हैं। इस कारण सायंकाल के समय लक्ष्मी को जगाकर जो भोजन करता है उस पुरुष को वर्ष भर लक्ष्मी नहीं छोड़ती ।
दूसरे दिन प्रातःकाल गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए और रात्रि में द्यूत-क्रीड़ा करनी चाहिए। वर्ष भर का फल जानने के लिए द्यूत-क्रीड़ा अवश्य करनी चाहिए । दीपावली की रात्रि में जय हो तो वर्ष भर अवश्य ही जय रहता है और पराजय हो तो वर्ष भर अपकर्ष रहता है। जूवा - खेलनेवालों को-इस मन्त्र से विजया की पूजा करनी चाहिए ।
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्याश्च भूतले ।
गवां गोष्ठे च कार्त्तिक्यों सा लक्ष्मीर्वरदा मम ॥
शिव और पार्वती ने द्यूत-क्रीड़ा की थी, किन्तु पार्वती जी ने लक्ष्मी का पूजन किया था इसलिए शिवजी को जीत लिया ।
इस दिन अर्ध-रात्रि के समय लक्ष्मी भ्रमण करती हैं और घरों में निवास करती हैं। इसलिए बड़े उत्सव के साथ घरों को धूप, दीपों से खूब सजाना चाहिए और कलई से पुतवाना चाहिए, पुष्पमालाओं से -सुशोभित करना चाहिए, लक्ष्मीजी को भी दक्षिणा-सहित चन्दन और मालाएँ भेंट करनी चाहिएँ ।
उस दिन स्त्री-पुरुष नवीन वस्त्र और भूषणों से अलंकृत हों और उस रात्रि को गीत और हास्यरस एवं भोगों से बिताना चाहिए। ब्राह्मणों, सम्बन्धियों और बान्धवों का नवीन वस्त्रों से सत्कार करना चाहिए और सम्पूर्ण रात्रि में दीपक रखना चाहिए। अन्धकार उचित नहीं है।
हे तपोधनो ! उस रात्रि में जो घर अन्धकार से युक्त होता है यह लक्ष्मा से छोड़ दिया जाता है और उस घर में अलक्ष्मी आश्रय लेती है। इस तरह जब दीपावली सहित अर्धरात्रि बीत जाय और सब मनुष्य आमोद-प्रमोद में मग्न हों उस समय चौथे पहर में स्त्रियों को सूप और डिण्डिम बनाते हुए प्रसन्न होकर अपने घर के आँगन से अलक्ष्मी को निकालना चाहिए। भगवान् कृष्ण के सोते रहते हुए ही हितोषणी लक्ष्मी जग जाती है, किन्तु निरालम्ब होने के कारण बहुत समय तक प्रकाशयुक्त भवन में आश्रय लेती है। इस विषय में धन की इच्छा रखनेवाले किसी कृष्णभक्त सत्यशर्मा ब्राह्मण के द्वारा एकः गाथा वर्णन की गई है।
शौनक पूछते हैं कि हे नारद ! यह सत्यशर्मा नाम का ब्राह्मण कौन था ? गाथा क्या थी? और प्रकाशसहित भवन में लक्ष्मी किस तरह आश्रय लेती हैं ? इसका कृपाकर वर्णन करिए ।
नारदजी ने कहा- शूरसेन देश में एक सत्यशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था । उसका चित्त तृष्णा से व्याकुल था और धन के लिए चेष्टा किया करता था। वह सोचता - यदि मेरे धन हो जाय तो मैं सुख-पूर्वक धर्म करूँ, स्त्री और पुत्रों को अलंकृत करूँ और मनोहर घर बनाऊँ। इस तरह मनोरथ से युक्त होकर सब देवताओं में हरि को सर्वश्रेष्ठ जानकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करने लगा। इस तरह विष्णु-पूजा करते हुए कभी कुछ धन आ जाता तो वह बीच में ही नष्ट हो जाता । सञ्चय न हो पाता। इससे वह बहुत विरक्त एवं दुखी हुआ और घन के लिए बड़े प्रयत्न के साथ उसने किसी ज्ञान-विज्ञान से युक्त विद्वान् से प्रश्न किया, उसने कहा कि तुमको धन की कामना है, इसलिए अब तुम शिवजी की आराधना करो। विष्णु तो कामी की कामना पूरी नहीं करते जैसे कि रोगी को कुपथ्य नहीं दिया जाता।
जो लोग निष्काम हैं और भजनानन्द से ही सुखी हैं तथास ब जगह जिनको वैराग्य हो गया है उनको ही विष्णु की पूजा करनी चाहिए । हे ब्राह्मण, तुम वैसे नहीं हो। यह सुनकर वह ब्राह्मण यमुना के तट पर स्थित शिवलिङ्ग की संयमसहित प्रतिदिन पूजा करने लगा। वर्षभर में भगवान् शिव प्रसन्न हुए और ब्राह्मण का रूप धारण करके उस सत्यशर्मा को हँसते हुए लक्ष्मीप्राप्ति का उपाय बतलाया। उन्होंने कहा-तुम जाओ और राजा से यह छोटा सा वचन माँगो कि दीपावली की रात्रि के आरम्भ में मेरे सिवाय कोई भी नगरवासी अपने-अपने घर में दीपक न जलावे । ब्राह्मण ने इस बात को स्वीकार करके राजा से यही वचन कहा। राजा ने उस वचन को अत्यन्त तुच्छ जानकर हँसते हुए कहा- क्या इतनी छोटी सी चीज माँगी ? राजा ने उसको यह वर दे दिया और ब्राह्मण हर्षयुक्त अपने घर को चला गया ।
नारदजी ने कहा- जब वह रात्रि आई तब उस दिन सत्यशर्मा ने अपने याचना किए हुए वचन की राजा को फिर याद दिलाई। उसी 'समय राजा ने अपने पुर में घोषणा करवा दी कि आज सायंकाल के 'समय किसी को दीपक नहीं जलाने चाहिएँ। इसके बाद उस सत्यशर्मा ने अपने घर को सुशोभित किया, रात्रि में दीपमाला सजाई और हर्ष, गीत आदि कौतुक किया। लक्ष्मी को कहीं आश्रय नहीं मिला। वह अन्धकार से विरक्त होकर ज्योति से प्रकाशमान उसके अलंकृत भवन 'में प्रविष्ट हो गई। हाथ में लीला कमल लिए हुए, कान्ति से मन को प्रसन्न करने वाली, मधुर हास्य युक्त मनुष्य की स्त्री के समान आकृति वाली बक्ष्मी उसके घर में प्रवेश करने लगी। उसको घर में प्रवेश करते देख सत्यशर्मा ने मना किया। उसने कहा- हे भद्रे ! तुम्हारा पति बड़ा कठोर है किसी पर शीघ्र प्रसन्न नहीं होता और तुम भी संसार में चपल हो। तुम दोनों ही स्त्री-पुरुष दोषयुक्त हो । तुमको ...................…...................................................................................
धचमीहेत कृष्णास्य पूजनैश्च व्ययं नयेत् ॥
नमो लक्ष्म्यै महादेव्यै जगन्मात्रे हरिप्रिये ।
त्वां विना शून्यतां याति जगद्यज्ञैर्विवर्जितम् ॥
अर्थात् सब आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही धन्य है और बलवान है, क्योंकि मनुष्य इस आश्रम में रहकर दुर्जय काम आदि को जीतता है। अन्य तीन आश्रमों के उपकार के लिए भी यही आश्रम है।
वह गृहस्थ बिना धन के क्या उचित क्रिया कर सकता है ? धन-हीन ब्राह्मण के द्वारा श्राद्ध, अतिथि सत्कार, दान, जप आदिक किस तरह सिद्ध किए जा सकते हैं। मनुष्यों को धर्म को बाधित न करके धन पैदा करना चाहिए। धन पैदा करके बाद में भी धर्म ही सिद्ध करना चाहिए। दूसरे प्रकार से धन का व्यय गुण नहीं है। जब तीनों ऋण (देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण) निवृत्त हो जाँय (अर्थात् यज्ञ, अध्ययन और पुत्रोत्पादन हो चुके) और वैराग्य दृढ हो जाय तब धन की आशा और घर की आशा को छोड़कर मनुष्य को एकान्त का आश्रय ले लेना चाहिए, किन्तु जब तक गृहस्थ है तब तक कर्म करता रहे, हरि का स्मरण करता हुआ धन की चेष्टा करे और कृष्ण के पूजन में व्यय करे ।
महादेवी जगन्माता लक्ष्मी को नमस्कार। हे हरिप्रिये ! तुम्हारे बिना जगत् यज्ञों से रहित होकर शून्य हो जाता है।'
नारदजी कहते हैं- इस तरह कहकर वह ब्राह्मणश्रेष्ठ घर छोड़ कर विरक्त बुद्धि से संन्यास के द्वारा मथुरापुरी में जाकर शुद्ध चित्त से समाधि द्वारा भगवान् हरि की आराधना करके हरि की शरण गया और उसके वंश के पुरुष धनवान् हुए।
(व्रतार्क में पद्मपुराण-उत्तरखण्ड से)
अभ्यास
(१) दीपावली कब होती है ?
(२) दीपावली में क्या-क्या कार्य होते हैं ?
(३) दीपावली कात्तिकमास की अमावस्या के सायंकाल में क्यों की जाती है ? ऋतु, मास, तिथि और समय का विज्ञान यथार्थ रूप में समझाइए ।
(४) दीपावली का विधिविज्ञान स्पष्ट रूप से समझाइए ।
(५) लक्ष्मीजी को घन के रूप में क्यों पूजा जाता है? संस्कृत में लक्ष्मी शब्द के क्या-क्या अर्थ हैं? बेइस उत्सव में संगत होते हैं क्या ?
(६) दीपावली की कथा क्या है तथा उससे क्या शिक्षा मिलती है ?
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