भारतीय व्रत उत्सव | 27 | अन्नकूट
भारतीय व्रत उत्सव | 27 | अन्नकूट
अन्नकूट
समय-कार्तिकशुक्ला प्रतिपदा
कालनिर्णय
यह प्रतिपदा अमावस्या के साथवाली (पूर्वविद्धा) ली जानी चाहिए, द्वितीया के साथवाली नहीं; क्योंकि जिस दिन चन्द्र-दर्शन हो उस दिन गोवर्धन पूजा का निषेध है, तथापि यदि दूसरे दिन प्रतिपदा २० घड़ी हो तो चन्द्रदर्शन न होने के कारण अन्नकूटादिक दूसरेदिन ही होना चाहिए। ऐसा धर्मसिन्धु का मत है।
विधि
इस दिन बलिपूजा, गोक्रीडन, गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, मार्गपाली-बन्धन इत्यादि होते हैं। दीपावली की तरह इस दिन भी अभ्यङ्ग और दीपोत्सव का भी विधान है। गुजरात महाराष्ट्रादि देशों में इसी दिन से नवीन वर्षारम्भ भी मानते हैं ।
बलि-पूजा-इस कर्म में सुप्रसिद्ध दानी असुरराज बलि का पूजन होता है।
गोक्रीडन- इस कर्म में गाय-बैलों को अलङ्कृत करके उनका पूजन किया जाता है और उनको खिलाया जाता है।
गोवर्धन पूजा - इस उत्सव में गोबर का अन्नकूट बनाकर उस पर अथवा उसके सन्निधान में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष गाय व ग्वालों की पूजा की जाती है।
अन्नकूट-इसमें देवमन्द्रिों में विविध प्रकार की सामग्रियाँ भग-वान् को भोग लगाई जाती हैं और महाप्रसाद बँटता है। सभी मन्द्रिों में यह उत्सव विशेष रूप से मनाया जाता है।
मार्गपाली बन्धन - यह एक प्रकार की रस्सी होती है जिसमें नारियल आदि माङ्गलिक वस्तुएँ बाँध कर पेड़-खम्भे आदि में बाँध दिया जाता है, उसके नीचे होकर राजा व प्रजा निकलती है।
'कालविज्ञान¹ और विधिविज्ञान
बलि-पूजा
कार्तिक कृष्णा अमावस्या को लक्ष्मीपूजन का विधान ऊपर आ चुका है और यह भी बताया जा चुका है कि लक्ष्मी का आधिभौतिक स्वरूप धन-सम्पत्ति है। उस धन-सम्पत्ति की शुद्धि दान के द्वारा ही होती है। जैसा कि श्रीमद्भागवत में लिखा है-
'कालेन स्नानशौचाभ्यां संस्कारैस्तपसेज्यया ।
शुद्धथन्ति दानैः सन्तुष्टया द्रव्याययात्मात्मविद्यया ॥
अर्थात् कुछ वस्तुएँ काल से, कुछ स्नान और शौच से, कुछ संस्कारों से, कुछ तप से और संगृहीत धनादिक यज्ञ, दान और सन्तोष से तथा आत्मा आत्मज्ञान से शुद्ध होता है।
वास्तव में संगृहीत द्रव्य का संशोधन दान ही है; अन्यथा दानरहित द्रव्य अपमार्गों में व्यय होता है। अतः लक्ष्मी के साथ ही साथ दानियों में प्रधान राजा बलि का पूजन इस दिन उचित ही है, जिससे लक्ष्मी-
[1. इस उत्सव में अनेक विधियों सम्मिलित हैं, जिनमें से कई एक आजकल कम प्रचलित हैं। विज्ञान समझे बिना उनका कालविज्ञान समझना कठिन है, अतः हमें विवश होकर यहाँ कालविज्ञान और विधिविज्ञान को सम्मिलित कर देना पड़ा है।]
पूजकों को दान की श्रेष्ठता विदित रहे। दानियों में श्रेष्ठ बलि की पूजा का इससे उत्तम समय और कौन-सा हो सकता है ?
गोक्रोडन और गोवर्धन-पूजा
ऊपर कई बार बताया जा चुका है कि भारतवर्ष कृषिप्रधान देश है। कृषि का मुख्य साधन गाय और बैल हैं, इन्हीं से खेतों में डालने के लिए खाद उत्पन्न होता है। बैल ही खेत जोतते हैं और बैलों के द्वारा ही प्राचीन भारत का सारा व्यापार भी बनजारे लोग चलाते थे । गोवंश के ह्रास से ही वास्तव में भारत में कृषि का विनाश और खाद्यान्न का संकट समुपस्थित हुआ है। यदि सौभाग्य से गाय-बैलों की सुरक्षा होती तो देश को यह दुर्दशा न देखनी पड़ती। इसलिए अन्नरूप महालक्ष्मी के मुख्य साधन गाय-बैलों का पूजन भी लक्ष्मीपूजन के साथ भारतीयों की कृतज्ञता का एक सुन्द्र आदर्श उपस्थित करता है।
गोवर्धन शब्द तृण-सम्पत्ति से पर्वतों के द्वारा गोवंश के वर्धन का सूचक है। जिस प्रकार अन्न का साधन होने से गोवंश का सत्कार आवश्यक है, उसी प्रकार गोवंश के वर्धन के लिए मुख्य गोचर-भूमि-रूप (क्योंकि साधारण भूमि में तो कृषि भी हो सकती है, किन्तु पर्वत के तृणादिक तो गोवंश की रक्षा के लिए सुरक्षित सम्पत्ति हैं) पर्वतों के प्रतीक रूप में तथा गोपाल-रूप से परम प्रसिद्ध भगवान् श्रीकृष्ण के गोचारण का मुख्य-क्षेत्र होने के कारण इस दिन गोवर्धन पर्वत का पूजन किया जाता है। गोक्रीडन के साथ इसका भी होना समुचित है।
अन्नकूट
वैदिक काल में आश्विन अथवा कात्तिक की अमावस्या अथवा पूर्णिमा के दिन नवीन उत्पन्न ब्रीहियों (चावलों) के द्वारा आग्रयणेष्टि²
[2. 'आश्विनकार्तिकयोः पौर्णमास्याममावस्यायां वा शुक्लपक्षगतकृत्तिकादिविशा-खान्तनक्षत्रेषु शुक्लपक्षस्थरेवत्यां वा ब्रीश्याग्रयणम् ।'( धर्मसिन्धु)]
नामका एक छोटा यज्ञ किया जाता था। इस यज्ञ में नवीन अन्न की आहुति दिए बिना नवीन अन्न का अशन³ (भोजन) नहीं किया जाता था । जैसा कि निम्न कारिका से स्पष्ट है:-
'अकृताग्रयणोऽ श्रीयान्नवान्नं यदि वे नरः ।
वैश्वानराय कर्त्तव्यश्चरुः पूर्णाहुतिस्तु वा ॥
यद्वा समिन्द्ररायेति शतवारं जपेन्मनुम् ॥' (धर्मसिन्धु )
अर्थात् बिना आग्रयण किए मनुष्य यदि नवीन अन्न खावे तो उसे (प्रायश्चित्त रूप में) वैश्वानर के लिए चरु अथवा पूर्णाहुति करनी चाहिए । अथवा 'समिन्द्रराया' (ऋक् संहिता १।४।१५) इस मन्त्र का सौ बार जप करना चाहिए ।
इस आग्रयणेष्टि यज्ञ के प्रधान देवता इन्द्र⁴, अभि, विश्वेदेवा और द्यावापृथिवी थे। उनमें भी सबसे प्रधान देवता इन्द्र ही है, क्योंकि आग्रयणेष्टि न करने पर प्रायश्चित्त रूप में जिस उपर्युक्त मन्त्र का जप बतलाया गया है, उस मन्त्र में केवल इन्द्र से ही प्रार्थना की गई है।
परन्तु काल-क्रम से यह आप्रयण-पद्धति शिथिल होती चली गई और मुख्यकल्प के स्थान पर अनुकल्प होने लगे। ये अनुकल्प (1) नवान्न³ के द्वारा दर्शपूर्णमासेष्टि
(2) अग्निहोत्र में होम
(3) नवान्न को अग्निहोत्रवाली गाय को खिलाकर उसके दुग्ध से होम अथवा
(4) नवान्न से ब्राह्मण-भोजन, इस रूप में क्रमशः परिवर्तित होते चले गये ।
[2. 'आश्रयणमकृत्त्वा किमपि नवोत्पन्नं सस्यं न भक्षणीयम् । धर्मसिन्धु
3. 'इन्द्राग्मिविश्वेदेवार्थमष्टौं व्रीहिमुष्टीन्निरूप्य धर्मसिन्धु ।
4. 'एतदसम्भवे नवश्यामाकत्रीहियवैः पुरोडाशं कृत्वा दर्शपूर्णमासौ कुर्यात्, यद्वा नवत्रीह्यादिभिरग्निहोत्रहोमं कुर्यात्, अथवा नवान्नान्यग्निहोत्र्या गवा खादयित्वा तस्याः पयसाग्निहोत्रं जुहुयात्, यद्वा नवान्नेन ब्राह्मणान् भोजयेदिति संचक्षेपः ।' (धर्मसिन्धु)]
प्रतीत होता है कि यही आग्रयण कालान्तर में द्वापर युग के अन्त के समय केवल इन्द्र-याग के रूप में रह गया था। भगवान् कृष्ण के अवतार के समय यह इन्द्र-याग⁵ किया जाता था। इस इन्द्र-याग का नन्दरायजी ने खूब जोरों से समर्थन⁶ भी किया है।
किन्तु बाद में भगवान् कृष्ण ने इन्द्र-याग के स्थान पर गऊ-ब्राह्मण और गोवर्धन पर्वत⁷ का यांग आरम्भ करवाया। यही वर्त्तमान अन्नकूट है। 'अन्नकूट' शब्द का शब्दार्थ अन्नसमूह है। अनेक प्रकार का अन्न समर्पित और वितरण करने के कारण ही इस उत्सव का नाम अन्नकूट पड़ा है। भगवान् ने इसके वर्णन में विविध पाकों का महत्त्व बताया भी है-
पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।
संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥
हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।
अन्नं बहुविधं तेभ्यो देयं वा धेनुदक्षिणाः ॥
अन्तेभ्यश्चाश्वचायढालपतितेभ्यो यथाईतः ।
यवसंच गो, दत्त्वा मिरये दीयतां बलिः ॥
( मा. १०/२४।२६-२८ )
अर्थात् दाल से लेकर खीर तक अनेक प्रकार के पाक और हलुवा, पूआ, जलेबियाँ (अथवा पूड़ियाँ) बनाई जायँ और सब दूध-दही ले लिया जाय, ब्रह्मवादी ब्राह्मणों के द्वारा अग्नियों का अच्छी तरह हवन कराया जाय और उनको अनेक प्रकार का अन्न, गायें तथा दक्षिणाएँ दी जायें। कुत्ता, चाण्डाल और पतितों तक सभी को यथायोग्य भोजनादि और गायों को बाँटा देकर पर्वत को बलि दी जाय ।
[5. 'अपश्यन्निवसन्गोपानिन्द्रयागकृतोद्यमान् ।'
(श्रीमद्भागवत, १० स्कं, त्र्य. २४ श्लोक १)
6. 'पर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।
तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥
तं तात वयमन्ये च बार्मुचां पतिमीश्वरम् ।
द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥
तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।
पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥
य एवं विसृजेद् धर्मं पारम्पर्यागतं नरः ।
कामाल्लोभाद् भयाद्द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥'
(भा.-१०-२४-८-११)
7. 'तस्माद् गवां ब्राह्मणानामदेवास्भ्यतां मखः ।' ::
(श्री भा. १०/२४।२५)]
आजकल यह व्रज में श्रीकृष्ण द्वारा प्रचारित अन्नकूट सारे भारत-वर्ष में मनाया जाता है। प्रत्यक्ष गोवर्धन पर्वत के स्थान पर सभी नगरों मैं उस दिन गोबर का गोवर्धन बनाया जाता है और उसके . समक्ष भगवान् कृष्ण और गायों का पूजन किया जाता है। अन्नकूट के रूप में मन्दिरों में विविध सामग्रियाँ निर्मित की जाती हैं, जिनमें शरद् ऋतु में उत्पन्न सस्य के अन्न और शाक-पाकादि भगवान् को अर्पण किए जाते हैं तथा भगवान् को अर्पण करने के अनन्तर ऊपर उद्धृत भागवत के वचनानुसार उनका विशेषतः ब्राह्मणों के लिए और सामान्यतः सर्वसाधारण के लिए वितरण किया जाता है।
यह उत्सव बड़ा ही आनन्दमय है, क्योंकि इस दिन सब लोग भेद भाव भूलकर मन्दिरों में सहभोज करते हैं। कृषिप्रधान देश का यह अन्नमय यज्ञ वास्तव में सर्वसुखद है। ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सभी को इस दिन नवीन अन्न की नवीन नवीन सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं।
मार्गपालो-बन्धन
ऊपर लिखा जा चुका है कि मार्गपाली एक प्रकार की रस्सी है। जिस तरह आजकल रस्साकसी होती है ठीक उसी प्रकार उपरिलिखित मार्गपाली को खींचने का भी आदित्यपुराण में विधान है।
कुशकाशमयर्थी कुर्याद्यष्टिकां सुदृढां नवाम् ।
तामेकतो राजपुत्रा हीनवर्णास्तथान्यतः ॥
गृहीत्वा कर्षयेयुस्तां यथासारं मुहुर्मुहुः ।
जयोऽत्र हीनजातीयां जयो राज्ञस्तु वत्सरम् ॥
अर्थात् दर्भ और कांस के द्वारा एक नवीन सुदृढ़ रस्सी बनानी चाहिए। उसको एक तरफ से राजकुमार और दूसरी तरफ से हीनवर्ण के लोग पकड़कर जितना बल हो सके उसके अनुसार बार-बार खींचें। खींचने में यदि हीन जातिवालों का विजय हो तो वर्ष भर तक राजा का विजय समझा जाता है।
इससे यह सिद्ध होता है कि राष्ट्रीय त्योहारों में राजा से लेकर हीन जाति के लोग तक किस प्रकार सम्मिलित होते थे और हीम जाति की विजय औरों के लिए कितनी आनन्दप्रद होती थी। ऐसे उत्सवों का भारत में इस समय पुनः प्रचार अत्यावश्यक है।
१. कथा
(गोवर्धन-पूजा की)
नारदजी ने कहा- अब मैं बलि राजा के दिन के महोत्सव का वर्णन करूँगा। उस दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। गाय, भैंस आदि का पूजन करना चाहिए। अत्यधिक दूध देनेवाली गायों का शृङ्गार करना चाहिए। गोवर्धन की पूजा का मंत्र यह है-
गोवर्धन धराधार गोकुलत्राणकारण ।
विश्वबाहुकृतोत्साह गर्दा कोटिप्रदो भव ॥
हे गोवर्धन, हे पृथ्वी के आधार, हे गोकुल की रक्षा के हेतुभूत, विश्वमाहुँ भगवान् के द्वारा जिमको उत्साह दिया है ऐसे आप (हमारे लिए) करोड़ों बायें देनेवाले हों ।
इस मन्त्र से गोवर्धन की पूजा करने के बाद -
या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ।
धूर्त बहति यज्ञार्थे सा मे पार्म व्यपोहतु ॥
नमो मोभ्यः श्रीमतीम्यः सौरमेमीभ्य एव च ।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः ॥
वन्दितासि वशिष्ठेन विश्वामित्रेण चात्रिणा ।
सुरमे ! हर मे पापं सन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥
अग्रतः सन्तु मे गावो गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।
गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये बसाम्यहम् ॥
सौरभेय्यः सर्वंहिताः पवित्राः पुण्यराशयः ।
प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ॥
जो लोकपालों की लक्ष्मी घेनु के रूप में स्थित है और जो यज्ञ के लिये घृत धारण करती है वह (गौ माता) मेरा पाप निवृत्त करे । सुरभि (कामधेनु) की पुत्री श्रीमती गौओं को नमस्कार । ब्रह्माजी की पवित्र पुत्रियों को बार-बार नमस्कार। हे सुरभे! आप वसिष्ठ, विश्वामित्र और अत्रि से वन्दित हैं, मैंने जो बुरा काम किया है उस मेरे पाप को हरण करिए। गायें मेरे आगे हों, गायें मेरे पीछे हों, गायें मेरे हृदय में हों, मैं गायों के मध्य में रहूँ। सुरभि की पुत्रियाँ (गायें) सबका हित करने-वाली हैं, पवित्र हैं और पुण्य की राशि हैं; ऐसी त्रैलोक्य की माता गायें मेरा (दिया हुआ) ग्रास ग्रहण करें।
इन मन्त्रों से गायों का पूजन करना चाहिए । वृषभ के पूजन का मन्त्र यह है-
धर्मस्त्वं वृषरूपेण जगदानन्दकारक ।
अष्टमूर्तेरधिष्ठान मनःशान्ति प्रयच्छ मे ॥
तुम धर्म हो और वृषभरूप से जगत् को आनन्दित करनेवाले हो । हे आठ मूर्तियोंवाले (शिव) के वाहन ! मुझे मन की शान्ति दो ।
हे शौनक ! इसके बाद भैंस आदि को सजाना, खेल करवाना तथा रड़कंवाना (बुलवाना) चाहिए। इसके बाद तीसरे पहर के समय पूर्व दिशा की तरफ ऊँचे खम्भे और मेंड़ पर, जिसमें बहुत-सी चीजें लटक रही हों ऐसी कुश-काश की बनी हुई मार्गपाली बाँधनी चाहिए । मार्ग-पाली बाँधने से पहले ब्राह्मणों द्वारा होम कराना चाहिए। फिर इस मंत्र से नमस्कार करना चाहिए-
मार्गपालि ! नमस्तेऽस्तु सर्वलोकनमस्कृते ।
विविधैः पुत्रदाराद्यैः पुनरेहिं युतस्य मे ॥
अर्थात् सब लोगों से नमस्कृत हे मार्गपाली, आपको नमस्कार । अनेक पुत्र स्त्री आदि सहित मेरे लिए आप फिर आना ।
वहाँ राष्ट्र को अभय देनेवाला नीराजन भी करना चाहिए। फिर मार्गपाली के नीचे होकर गाय, बैल, हाथी, घोड़े, राजा, राजपुत्र, ब्राह्मण और शूद्रजाति के लोग निकलते हैं। मार्गपाली का उल्लंघन करने से नीरोग और सुखी होते हैं। जो राजा इस तरह ग्राम, पुर और नगर में उत्सव करता है, वहाँ ईतियाँ⁸ नष्ट हो जाती हैं और प्रजा चिरकाल तक आनन्दित रहती है। कुश-काश की बनी हुई सुदृढ और नवीन रस्सी. तैयार करनी चाहिए । उसको एक तरफ राजपुत्र और दूसरी तरफ हीन वर्ण के लोग पकड़कर बल के अनुसार बार-बार खींचें। हीन जातियों का जय होने से राजा का साल-भर जय होता है। इस जय के चिह्न को राजा यत्नपूर्वक विधान करें। इस तरह गोवर्धन तथा गायों की विधि-पूर्वक पूजा करनी चाहिए। यह सुन्दर गोवर्धन-यज्ञ कृष्ण को सन्तुष्ट करनेवाला है। मथुरा में तथा अन्यत्र भी गोबर से बहुत बड़ा गोवर्धन पर्वत बनाकर विधि-पूर्वक
[8. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहे, टिड्डियों, तोते और समीपवर्ती शत्रु राजा ये छः ईतियाँ कही जाती हैं।.....]
पूजन करना चाहिए। इस दिन मथुरा में साक्षात् गोवर्धन की प्रदक्षिणा करने से भगवद्धाम को प्राप्त होकर, भगवान् के सन्निधान में आनंन्दित होता है। गोवर्धनधारी की इस कथा को जो सुनते हैं, वे राजसूय यज्ञ के फल को प्राप्त करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
कथा
(बलि-पूजन की)
नारद कहते हैं- इसके अनन्तर सायंकाल के समय बलिदैत्य का पूजन करना चाहिए। पट्टे के ऊपर दैत्यराज बलि का पाँच रंगों से विशाल चित्र लिखना चाहिए। मिथ्या वचन से डरे हुए इस दैत्य-राज बलि ने भगवान् विष्णु को अपना देह अर्पण कर दिया और वामन मूर्ति भगवान् ने कठोर चेष्टा से उसको बाँध लिया । बाँध कर खिन्न मनवाले और दुखी बलि को पाताल में ले गये किन्तु इस सुबुद्धि दैत्य ने अहन्ता-ममता छोड़कर भगवान् से असूया (दोष-बुद्धि) नहीं की। तब प्रसन्न होकर भगवान् ने दैत्यराज से कहा कि जो कार्तिकशुक्रु प्रतिपदा के दिन तुम्हारा पूजन नहीं करे उसका सारा सुकृत अविद्वान् के दान, मन्त्ररहित हवन और व्यग्र बुद्धि से किये जप के समान निष्फल होगा। यह भगवान् ने दैत्यराज को वरदान दिया है। इसलिए कार्तिक में प्रतिपदा के दिन बलि की अवश्य पूजा करनी चाहिए । भग-वान् के सम्मुख कूष्माण्ड, बाण, जम्भ, ऊरु और मय नामक दानवों से युक्त बलि राजा का पूजन करना चाहिए। घर के अन्दर बड़े भारी कमरे में पूर्णतया प्रसन्नमुख, किरीट-कुण्डल से युक्त, दो भुजावाले दैत्यराज को बनाकर राजा स्वयं विधि-पूर्वक पूजा करे। इस दिन राजा बलि के उद्देश्य से जो दान वेदपाठी ब्राह्मण को दिए जाते हैं वे अक्षय होते हैं तथा भगवान् को प्रसन्न करते हैं।
बलिराज ! नमस्तुभ्यं दैत्यदानववन्दित !
इन्द्रशत्रो ! महाराज ! विष्णुसान्निध्यदो भव ॥
हे दैत्य-दानवों से वन्दित बलिराजा ! आपको नमस्कार । हे इन्द्र के शत्रु महाराज ! आप हमें विष्णु का संनिधान (समीप निवास) दीजिए। इस मन्त्र से फल, पुष्प और अक्षतों के द्वारा राजा बलि की पूजा करनी चाहिए ।
(व्रतार्क में पद्मपुराण से)
अभ्यास
(१) अन्नकूट कब होता है ?
(२) इस दिन क्या-क्या उत्सव होते हैं और क्या-क्या होने चाहिएँ ?
(३) इस उत्सव के कालविज्ञान और विधिविज्ञान के संबन्ध में आप क्या जानते हैं ?
(४) आश्रयणैष्टि क्या है और वह अन्नकूट के रूप में कैसे आ गई ?
(५) दोनों कथाओं का सार लिखिएँ ।
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