भारतीय व्रत उत्सव | 31 | शिवरात्रि
भारतीय व्रत उत्सव | 31 | शिवरात्रि
शिवरात्रि
समय- फाल्गुनकृष्ण चतुर्दशी ।
काल-निर्णय
जिस दिन अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो उस दिन करना चाहिए। रात्रि के अष्टम मुहूर्त का नाम अर्द्धरात्रि है। यदि दोनों दिन अर्धरात्रि में न हो तो पहले दिन करनी चाहिए। यदि पहले दिन अर्धरात्रि के एक हिस्से में ही हो और दूसरे दिन पूरी अर्धरात्रि में हो तो दूसरे दिन करना चाहिए। यह व्रत रविवार, भौमवार और शिवयोग होने पर अत्यन्त प्रशस्त माना जाता है। जो वैष्णव शिवरात्रि व्रत करते हैं वे इस व्रत को भी अन्य व्रतों के समान उद्यव्यापिनी चतुर्दशी में ही करते हैं।
विधि
त्रयोदशी के दिन एक समय भोजन कर चतुदशी के दिन उपवास करना चाहिए। काले तिलों से स्नान कर सायंकाल अथवा रात्रि में एक बार किंवा रात्रि के प्रत्येक प्रहर में षोडशोपचार से शिव-पूजा का विधान है। शिवजी के प्रिय पुष्पों में आक,' कनेर, विल्वपत्र और मौल-सिरी मुख्य हैं। धतूरा, कटेली, छोंकर (खेजड़ा) आदि के पुष्प भी शिव को बहुत प्रिय हैं। शिव-पूजन में विल्वपत्र सब में मुख्य है। पत्र पुष्प और फल जैसे पैदा हुए हैं वैसे ही अर्पण करना चाहिए। विल्वपत्र अपनी तरफ अग्रभाग करके उलटा अर्पण करना चाहिए। पके हुए आम्र-फल शिव को अर्पण करने का महान फल है।
१. 'चतुर्णा पुष्पजातीनां गन्धमाघ्राति शङ्करः । अर्कस्य करवीरस्य विल्वस्य बकुलस्य च।' (धर्मसिन्धु )
२. 'धत्तूरैर्वृहतीपुष्पैश्च पूजने गोलक्षफलम् ।'
३. 'मणिमुक्ताप्रवालैस्तु रत्नैरप्यर्चनं कृतम् ।
न गृह्णामि विना देवि ! विल्वपत्रैर्वरानने!' (धर्मसिन्धु )
शिवजी के चढ़े हुए पुष्प, फल, जल निर्माल्य' कहलाते हैं। उनके ग्रहण करने का निषेध है; किन्तु शालग्राम जी के साथ शिव हों तो वह पवित्र हो जाता है। निर्माल्य न लेने का नियम ज्योतिर्लिङ्ग, स्वयम्भू-लिङ्ग और सिद्ध पुरुषों द्वारा स्थापित शिवलिङ्गों के अतिरिक्त शिवलिङ्गों के विषय में है।
कालविज्ञान
शिवतत्त्व-यह तो सभी को विदित है कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली परब्रह्म की तीन विभूतियाँ हैं (अर्थात तीन स्वरूप हैं) जिनको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा जाता है। तदनुसार यह सिद्ध है कि परब्रह्म का जो प्रलयकारी या संहारकारी स्वरूप है उसी का नाम रुद्र अथवा शिव है। उसी एक शक्ति को रुलाने के कारण 'रुद्र' और जगत् का भला करने के कारण 'शिव' इन परस्परविरोधी नामों से पुकारा जाता है। यद्यपि ऊपर से देखने पर रुद्र और शिव ये नाम परस्परविरोधी प्रतीत होते हैं, क्योंकि रुलानेवाला कल्याणकारी कैसे हो सकता है, किन्तु यदि विचार किया जाय तो यह भावना सर्वथा.भ्रमपूर्ण है।
१. 'अग्राह्यं शिवनैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम् ।
शालग्रामशिलासंगात् सर्वं याति पवित्रताम्।' (धर्मसिन्धु )
२. 'रुद्रो रौतीति सतो, रोरूयमाणो द्रवतीति वा । रोदयतेर्वा ।'
'यदरुदत्तद्रुद्रस्य रुद्रत्व' मिति कण्ठकम् ।
'यदरोदीत्तद्रुद्रस्य रुद्रत्व' मिति हारीद्रविकम् । (निरुक्त. १००२।१९)
३. 'शिवः श्रेयस्करत्वात्' (क्षीरस्वामी अमर स्वर्गच. श्लो. ३०)
हम प्रतिदिन देखते हैं कि प्रकृति के सभी कार्यों में विनाश या प्रलय ही शिव अथवा शुभ का कारण बनता है। त्रिना विनाश के सृष्टि होती ही नहीं। उदाहरण के लिए किसी अन्न को लीजिए । जब तक अनाज का एक कण पृथ्वी में मिलकर विनष्ट न हो जायगा तब तक वह अनेक कणों की सृष्टि नहीं कर सकता। इसी दृष्टान्त को प्रकृत में लीजिए । बीज का मिट्टी में मिलकर बरबाद होना ईश्वर के रुद्ररूप का कार्य है और इसका पुनः अनेक रूपों में प्रकट होना शिवरूप का । यदि बीज पर रुद्र की क्रिया न होगी तो शिव की क्रिया किस प्रकार होगी। यह रुद्र और शिव की क्रिया प्रकृति में प्रतिक्षण अपनी प्रवृत्ति चालू रखती है और इसी से सारे जगत् का व्यवहार नियमित रूप से चलता है। अतः हम यदि एक ही शक्ति को रुद्र और शिव-इन दो नामों से पुकारते हैं तो यह वास्तविक स्थिति है, न कि कल्पित । इन्हीं रुद्र अथवा शिव का महोत्सव-दिवस है शिवरात्रि ।
ऋतु-शिवरात्रि शिशिर ऋतु में आती है। जिस ऋतु में वृक्षों के पुराने पत्र गिरते हैं और नवीन पत्र अङ्कुरित होते हैं उस ऋतु का नाम शिशिर है। यह बात ऋतु-विज्ञान में बताई जा चुकी है। ऊपर लिखे अनुसार शिव तत्त्व वही है जो जीर्ण-शीर्ण को समाप्त करके नवीनता का रूप देता है। शिशिर ऋतु में यह वस्तु स्पष्टरूप से 'परिलक्षित होती है। अतः भगवान् शिव के उत्सव के लिए शिशिर ऋतु उपयुक्त हो सकती है ।
मास-शिशिर ऋतु में माघ और फाल्गुन ये दो मास होते हैं। उनमें से माघ मास में पत्रों का शीर्ण होना आरम्भ मात्र होता है, किन्तु शिव का असली स्वरूप, नवपल्लत्रों का अङ्कुरित होना, फाल्गुन में ही प्रकट होता है। अतः फाल्गुन मास इस उत्सव के लिए रक्खा गया है।
पक्ष-ऊपर बताया जा चुका है कि शिव या रुद्र भगवान् की संहारकारिणी शक्ति का नाम है। यह भी कहा जा चुका है कि चन्द्रमा से प्राप्त होनेवाले सोमरस के द्वारा सभी प्राणियों का जीवन चलता है। कृष्णपक्ष का अन्तिम भाग चन्द्रकलाओं की समाप्ति का सूचक है। अतः परब्रह्म की संहारक विभूति भगवान् रुद्र का कृष्णपक्ष के अन्त में ही उत्सव मनाना उचित है।
तिथि-प्रश्न हो सकता है कि- सोमरस देनेवाली चन्द्रकलाओं के संहार का यथार्थ समय तो अमावस्या है, फिर यह उत्सव अमावस्या को न मना कर चतुर्दशी को क्यों मनाया जाता है। इसका उत्तरः यह है कि ईश्वर ने यह नियम रक्खा है कि पूर्णतया समाप्ति या मृत्यु. के अनन्तर प्रकृति किसी भी वस्तु को पुनरुज्जीवित नहीं करती । जब तक थोड़ी बहुत भी जीवनकला अवशिष्ट रहती है तभी तक मंत्र, औषध और भगवत्प्रार्थना आदि जीवन के साधन काम किया करते हैं। इसी नियम को समझाने के लिए भगवान् शिव का महोत्सव चतुर्दशी को रक्खा गया है, तब तक जीवनदाता चन्द्रमा की एक कला अवशिष्ट रहती है।
अर्धरात्रि कहा जा सकता है कि यह सब तो ठीक, किन्तु उत्सव मनाने का मुख्य समय अर्धरात्रि ही क्यों ? इसका भी उत्तर यही है कि जब निराशारूपी अन्धकार पूर्णतया घेर ले उस समय ही भगवान् का संहारकारी स्वरूप, जिसे काल कहते हैं, प्रत्यक्ष होता है, अन्यथा उसकी चेष्टाओं को बार-बार देखते रहने पर भी माया-मोहित मानव प्रभु की 'तरफ आवर्जित नहीं होता। अतः यह बताने के लिए ही कि जब निराशा की घनी अँधेरी छा जावे और आशा की किरण मात्र भी दिखाई न देती हो वही समय भगवान् मृत्युञ्जय की आराधना का है। अर्धरात्रि का समय मुख्यतया रखा गया है। मृत्युञ्जय की आराधना का इससे अच्छा और कौन-सा समय हो सकता है।
विधि-विज्ञान
उपवास और प्रतिमा-पूजा के विषय में पहले लिखा जा चुका है। यहाँ केवल दो बातों के विषय में विचार करना है। 'शिवलिङ्ग-पूजा और शिवजी की पूजा सामग्री ।
१. शिवलिङ्ग-पूजा-आजकल कई लोग यह समझते हैं कि लिङ्ग-पूजा द्राविडों से अथवा यों कहिए अनार्य लोगों से आई हुई वस्तु है। परन्तु वास्तव में देखा जाय तो ऐसा कहना कल्पित प्रतीत होता है, क्योंकि रुद्र और शिव का वर्णन वेदों में बार-बार प्राप्त होता है। वेदों के उन भागों को पढ़ने से ऐसी कोई बात सिद्ध नहीं होती कि शिवपूजा आर्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों से ली गई है। यह कल्पना विदेशियों ने केवल इस बल पर की है कि लिङ्गपूजा असभ्यों में ही हो सकती है। किन्तु लिङ्गपूजा में न तो कोई ऐसी असभ्य वस्तु ही है और न उसका असभ्यता से सम्बन्ध ही है। लिङ्ग शब्द का अर्थ 'लिङ्गम्यते ज्ञायतेऽनेनेति लिङ्गम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ज्ञापक अर्थात् ठीक पहिचान करानेवाला अथवा हेतु होता है। परब्रह्म के दो रूप माने जाते हैं- एक सगुण साकार और दूसरा निर्गुण निराकार अथवा लौकिक गुणों और आकार से शून्य। उस निर्गुण निराकार के रूप की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिए उसे जगत्कर्ता के रूप में मान कर निराकार की साकार में कल्पना करने के लिए ज्ञापक के रूप में पूजा की जाती है। इसका अभिप्राय यह है - यद्यपि शिव को वास्तविक रूप में समझना कठिन है तथापि उसकी सृष्टि अथवा संहारकर्त्ता के रूप में इस ज्ञापक के द्वारा आराधना की जानी चाहिए। मूलरूप का ज्ञापक जिसे लिङ्ग कहा जाता है असीम अथवा गोल ही हो सकता है, क्योंकि जिसके कोने होते हैं उसकी सीमा हो जाती है। अतः उस रूप को अनादि अनन्त जताने के लिए शिव की लिङ्ग रूप में ही पूजा की जाती है। अतः असभ्यता की कल्पना करना मूर्खतापूर्ण है।
२. शिवपूजा की सामग्री- ऊपर बताया जा चुका है कि भगवान् की संहारकारिणी शक्ति ही रुद्र या शिव रूप में मानी जाती है। इसलिए उनकी पूजा-सामश्री में भी वे ही वस्तुएँ ली जाती हैं जो वास्तव में जगत् में भयङ्कर प्रतीत होती हैं। जैसे कि आक, धतूरा आदि । आभूषण रूप में सर्पादि और जहरीली चीजें भी शिव को इसीलिए अर्पण की जाती हैं। बिल्व-पत्र भी 'बिलति भिनत्तीति बिल्वः ।' (क्षीरस्वामी) इस व्युत्पत्ति के अनुसार भेदक होने के कारण शिव के प्रिय पत्रों में माना गया है। बात भी ठीक है-मृत्युञ्जय वही हो सकता है जो संसार में प्रसिद्ध मृत्यु के साधनों के द्वारा पराहत न हो, जिस पर मृत्यु के साधन अपना प्रभाव न डाल सकें। सो यह बात शिवजी की पूजा सामग्री से सिद्ध है। सामान्य पूजा-सामग्री तो अन्य देवों के समान है।
कथा
सूतजी ने कहा- कैलाश पर्वत का सुन्दर शिखर है, जो अनेक अकार की घातुओं से विचित्र वर्णवाला है, अनेक वृक्षों से व्याप्त है, नाना भांति के पुष्पों से शोभित है, नवीन सूर्य के समान प्रकाशमान है, तपे हुए सोने के समान कान्तिवाला है और नाना वर्ण की स्फटिक मणियों से जिसमें सिड्डियाँ बनी हुई हैं। उस शिखर की एक चट्टान पर अति शान्त, देवों के देव, जगद्गुरु, पाँच मुखवाले, दशभुजावाले त्रिनेत्र शिव बैठे हुए थे। शिवजी के हाथ में शूल था, अङ्ग में भस्म लगी हुई थी और सर्पों से शोभित हो रहे थे। चन्द्रशेखर शिव की कान्तिः नीले बादल के समान और प्रभा कोटिसूर्यों के समान थी । उन्होंने कपाल, खट्वाङ्ग, ढाल, तलवार एवं पिनाक (धनुष) धारण कर रक्खे थे । यद्यपि शिवजी का रूप भयंकर था तथापि वर मुद्रा द्वारा वे सबकी इच्छाओं को पूरी करते थे और अभय मुद्रा द्वारा उन्हें देखते ही भय निवृत्त हो जाता था। प्रमथ आदि गणों, ने उन्हें घेर रक्खा था और क्रीडा में तत्पर थे। ऐसे समय श्री महादेवजी को एकाकी पाकर सब देवताओं को विसर्जन करके हँसती हुई विकसित-नयना शर्वती ने पूछा ।
देवी पार्वती ने कहा- हे देवदेवेश ! आप सब व्रतों में उत्तम गुप्त व्रत का वर्णन करें। मैंने बहुत से व्रत, नियम, अनेक दान और धर्म एवं तप किए हैं। अनेक तीर्थों में भी गई हूँ, किन्तु हे विभो ! हे नाथ! फिर भी मेरा सन्देह निवृत्त नहीं हुआ। मुझे आपने अभी तक चक्कर ही दिया है। हे त्रिपुरनाशक ! जो व्रत सब व्रतों में उत्तम तथा भोग-मोक्ष देनेवाला हो उसको मैं आपसे सुनना चाहती हूँ।
श्री महादेवजी ने कहा- हे देवि ! सुनो, सब व्रतों में उत्तम एक गुप्त व्रत मैं तुमको सुनाता हूँ। इस व्रत को मैंने किसी से नहीं कहा है। यह अत्यन्त गोप्य और मुक्तिदायक है। जिस व्रत के करने से यमराज भी दर्शन नहीं देता - उस व्रत को मैं कहूँगा-तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो।
माघ' और फाल्गुन के बीच में जो कृष्णपक्ष में चतुर्दशी होती है, उसे शिवरात्रि जानना चाहिए। यह सब यज्ञों से भी उत्तमोत्तम है। दान-यज्ञ, तपोयज्ञ तथा अन्य बहुत दक्षिणावाले यज्ञ शिवरात्रि के व्रत की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं कर सकते । यह कृष्णपक्ष की रात्रि क्लेश मिटानेवाली, यमलोक का निवारण करनेवाली और भोग मोक्ष देनेवाली है। हे वरानने ! यह सत्य है, सत्य है।
१. यह कथन अमान्त मास की दृष्टि से है।
पार्वती ने पूछा- शिवरात्रि के व्रत करनेवाले यमपुरी को छोड़कर "शिवलोक किस प्रकार जाते हैं? हे प्रभो! इसका मुझे प्रत्यक्ष क्रवाइए अर्थात् स्पष्टरूप से समझाइए ।
महादेवजी ने कहा- हे देवि ! सुनो, मैं तुमसे पुराण की एक : महाकथा कहूँगा, जिसको सुनकर मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। अत्यन्त पापी भील के लिए शिवरात्रि किस प्रकार यम की आज्ञा को नष्ट करनेवाली तथा शिवलोक की देनेवाली हुई ?
पहले कल्प में एक जीवघाती भील था। वह म्लेच्छ देशों में रहता था और पहाड़ों के समीप घूमा करता था। सदा राज्य की सीमा पर रहता और कुटुम्ब का पोषण करता था। उसका शरीर पुष्ट और काला था। धनुष हाथ में रखता, काला जामा पहनता, गोह के चमड़े के अंगुलित्राण (हाथ के मोजे) बाँधे रहता, कमर में तरकस रखता था। सदा पाप में लगा रहता और जीवहिसा में तत्पर था। बाघ, चीता, भालु, हरिण, वानर, सेह, बघेरे, खरगोश, रीछ, सूअर, सियार आदि पशुओं को और तोते, पपीहा, टिटहरी आदि पक्षियों को इस तरह अनेक जीवों को मारकर अपनी जीविका चलाता था ।
हे देवि ! एक समय चतुर्दशी के शुभ दिन में वह बाएँ हाथ में घनुष और दाएँ हाथ में बाण लेकर अनेक प्राणियों से भरे हुए भयवर जङ्गल में पहुँचा। जङ्गल अनेक पेड़ों से भरा हुआ था। जीवों के मारने की इच्छा से उसने वन में जाकर चौतरफ हरिणों को ढूँढ़ना आरम्भ किया । धनुष पर डोरी चढ़ा रक्खी थी और कुछ बाण भी - निकाल रक्खे थे। हरिणों के पदचिह्न और पगडंडियों को देखता हुआ मांस का लोभी वह इधर-उधर दौड़ने लगा। उसका मन चक्कर खा रहा था और वह वन-पर्वतों में घूम रहा था। हरिण, सूअर और चीतल मिलते ही नहीं थे और पहले ही ओझल हो जाते थे। व्याध बड़ा निराश हुआ । यों करते-करते सूर्य अस्त हो गया। पास में एक तालाब था। उसे देखकर उस पापबुद्धि ने सोचा आज रात्रि में मैं अवश्य ही तालाब में जीव मारूँगा। इसमें कोई सन्देह नहीं। इसमें मेरी जीविका चल सकेगी और कुटुम्ब भी तृप्त हो जायगा। इस तरह, सोचकर वह तालाब की तरफ चला और जलाशय के समीपवर्ती बिल्व के पेड़ के नीचे जा बैठा ।
बिल्व के पेड़ की जड़ में एक शिवजी का बड़ा भारी लिङ्ग था। व्याध ने वृक्ष के पत्ते अपने दाहिने हाथ में लिए और दाहिने भाग में स्थित शिव के मस्तक पर डाल दिए । लिङ्गपूजा के प्रभाव से हे वरानने ! उस व्याध के वाणों के दायरे में कोई भी हरिण नआ सके। इस तरह विल्त्र के पेड़ के नीचे उसका पहला प्रहर व्यतीत हो गया ।
इसके बाद एक गर्भवती हरिणी पानी पीने आई। हरिणी जवान थी, सुडौल थी और दशों दिशाओं की तरफ चकित होकर झाँक रही थी। शिकारी ने भो उसे देख लिया। वह वाण के दायरे में आ गई। उसने धनुष पर बाण चढ़ाया और सावधान चित्त से पत्ते तोड़कर शिवजी के ऊपर डाले। ठंड से पीड़ित होने के कारण शिव-शिव का ध्यान करता हुआ हरिणी को मारने की इच्छा से विमोहित होकर खड़ा रहा। इसी बीच हरिणी ने शिकारी को देख लिया। उसने डरते हुए काल के समान शिकारी का रूप देखा । धनुष और वाण लिए हुए उसको यमराज के समान देखकर हरिणी ने दिव्य वाणी से शिकारी से कहना शुरू किया। 'हे सब जीवों के काल ! . महाव्याध ! जरा स्थिर हो जाइए। हे मेरे स्वामी, तुम मुझे क्यों मार रहे हो ?' व्याघ ने कहा- 'हे शोभने ! मेरा कुटुम्ब भूख से पीड़ित है। उसका मैं सदैव हरिणादिक के मांस के भोजन द्वारा पालन करता हूँ। मेरे घर में अनाज नहीं है, इसलिए मैं तुम्हें मार रहा हूँ।
शिवजी ने कहा- हे पार्वती ! एक प्रहर की पूजा के प्रभाव से, जागरण से, तथा उपवास से व्याध पाप के चतुर्थाश से मुक्त हो गया था। इसलिए मनुष्य के समान बोलती हुई उस हरिणी को देखकर उसे परम आश्चर्य हुआ । कुछ धर्मयुक्त होने के कारण उसने वाण को समेटा और सुन्दर बोलनेवाली उस हरिणी से कहने लगा। व्याध ने कहा- 'मैंने उत्तम, मध्यम और अधम अनेक जीवों को मारा है, परन्तु वनवासी पशुओं की ऐसी वाणी नहीं सुनी। तुम किस वंश में उत्पन्न हुई हो ? कहाँ से आई हो ? कृपा कर मुझे बताओ। मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।'
हरिणी ने कहा- हे श्रेष्ठ व्याध ! सुनो। तुमसे सब हाल कहती हूँ। मैं जो हूँ और जहाँ से इस पृथिवी पर आई हूँ। मैं पहले स्वर्ग में इन्द्र की अप्सरा रम्भा थी । अत्यन्त रूप लावण्य और सुन्दरता के कारण मुझे बड़ा घमण्ड था। मैंने सुन्दरता के बल से अभिमत्त अत्यन्त बलवान दानव हिरण्याक्ष को, जो मेरे पास आया था, चुपचाप पति बना लिया । मैंने बहुत समय तक उसके साथ यथेष्ट भोग किया। दूसरे दिन मैं उसके साथ खेलती रही। जब मैं खेल रही थी उस समय शिवजी के आगे दिव्य ताण्डव नृत्य आरम्भ हुआ । तदनन्तर ज्यों ही मैं वहाँ पहुँची त्यों ही शिवजी ने मुझसे कहा-सच्ची-सच्ची बात मुझे बता, नहीं तो मैं तुझे शाप देता हूँ। शाप के डर के मारे मैंने शङ्कर के सामने कहा-'हे देव ! हे शाप और अनुग्रह करनेवाले ? सुनिए, मैं बताती हूँ। बल के कारण घमण्ड में चूर एक दानव मेरा प्राण-समान भर्त्ता है। उसके साथ मैं अपने घर पर बिहार करती रही। हे सृष्टि-स्थिति-संहार करनेवाले ! देव! इसलिए मैं नहीं आने पाई।' शिवजी मेरा वचन सुनकर कुपित हुए और बोले-
शिवजी ने कहा- 'कामातुर महासुर हिरण्याक्ष हरिण बनेगा और तू उस की स्त्री होगी। इसमें कोई संदेह नहीं। तू स्वर्ग तथा देवताओं को छोड़कर दानव के भोग के योग्य है, इसलिए कुछ अधिक बारह वर्ष 'तक सुख से रहित रहेगी और परस्पर के शोक से तुम्हारे शाप का अन्त होगा' । फिर शङ्कर ने स्वयं ही अनुग्रह किया और कहा-'जिस 'समय मेरे सम्मुख व्याध आवेगा और वाण क्रो सामने रखकर उसके पूछने पर तू पूर्वजन्म का स्मरण करेगी। वहाँ पर स्थित मेरे लिङ्ग का दर्शन करके तेरा छुटकारा होगा। हे रम्भोरु ! तब तू शीघ्र ही अपने स्वरूप को प्राप्त हो जावेगी 1'
हरिणी ने कहा- 'इस तरह शिवजी के शाप से मैं पृथिवी पर हरिणी हो गई हूँ। वन में यत्नपूर्वक रहते हुए मैंने शिवजी के दर्शन किये हैं, तब से मैं दुःखी हो रही हूँ। न मेरे अन्द्र मांस है न चरबी और विशेषतः मैं गर्भाक्रान्त हूँ, इसलिए अवध्य हूँ। यह निश्चित है। तुम भी मुझे गर्भ-पीड़ित और दुर्बल समझ कर छोड़ दो और मत मारो ! मेरे मारने पर भी सकुटुम्ब तुम्हारा भोजन नहीं हो सकेगा। इसी रास्ते से एक दूसरी हरिणी आवेगी, वह पुष्ट है, जवान है, उसमें मांस भी अधिक है और बड़ी मदमत्त है। उस हरिणी से कुटुम्बसहित तुम्हारा भोजन हो सकेगा। इसलिए हे अच्छे व्याध ! मुझको तुम छोड़ दो। मैं प्रातः काल ही बच्चा पैदा करके और उसे सखी को देकर आ जाऊँगी। इसके लिए मैं तुम्हारे सामने शपथ करती हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं ।'
शिवजी ने कहा-हरिणी के इस वचन को सुनकर व्याध बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने एक क्षणभर सोचा और फिर हरिणी से कहा- 'यदि तुम न ओंगी तो मेरा प्राणान्त हो जायगा। मैं भूख से पीड़ित हूँ और कुटुम्ब तो और भी अधिक भूख से पीड़ित है। इसलिए तुम मेरे घर अवश्य आना। अंब तुम शपथ खाकर जाओ जिस से मुझे विश्वास हो जावे ।
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मैं न० । जो कृतघ्न्न है, लम्पट है, दूसरे के दोषों को प्रकाशित करता है, बगुले का सा व्यवहार करता है, कपट युद्ध करता है, दासी का पति है, सूद से गुजारा करता है, माता-पिता को प्रत्युत्तर देता है, यदि मैं न० । जो ब्राह्मणों की निन्दा करता है, जो दुष्ट है, पतित है, और अत्यन्त पापी है, जो झूठे शास्त्रार्थों में लगा रहता है, पुराणों के अर्थों से रहित है, जो दुष्कर्म में लगा हुआ है, क्रूर है, स्मृत्युक्त धर्म से वर्जित है, पाखण्ड में लगा हुआ है, मूर्ख है, तिल बेचता है, यदि मैं० ।
शिवजी ने कहा- इस तरह हरिणी के वचन सुनकर शिकारी का मन प्रसन्न हो गया। उसने वाण समेट लिए । हरिणी को छोड़ दिया । उसके छोड़ने के प्रभाव से अथवा लिङ्ग-पूजा के प्रभाव से हे पार्वति ! उसी समय वह सब पापों से मुक्त हो गया।
दूसरा पहर आने पर महानिशा की मध्य रात्रि में भी व्याघ शिव-शिव कहता रहा और उसको निद्रा नहीं आई। इतने में दूसरी हरिणी तालाब में जल पीने के लिए चकित होकर दशों दिशाओं की तरफ देखती हुई आई। बिल्ववृक्ष के अन्दर बैठे हुए शिकारी ने उसको देखा और बिल्वपत्र लेकर शिवजी पर डाले। शिकारी ने प्रसन्न होकर अपने कुटुम्ब के पोषण के लिए धनुष पर बाण चढ़ाया और ज्यों ही खींचकर उस हरिणी पर बाण छोड़ता है त्यों ही हरिणी ने भी इसे देखा और अत्यन्त विह्वल हो गई। वह कामातुर हरिणी अपने चित्त में सोचने लगी- हे विधाता ! इस व्याध ने मेरी बहिन को अवश्य मार दिया होगा। उसके मर जाने पर दुःखिनी मुझे जीकर क्या करना है!' मर जाना अच्छा, परन्तु अपने प्रियतमों का अति दारुण शोकः बहुत बुरा है-इस तरह सोचकर हरिणी ने उस महापापी, धनुष पर बाण चढ़ाए, भयङ्कर व्याध से कहा- 'हे धनुषधारी, सब जन्तुओं के विनाशक व्याध, तुम मुझे एक वचन दो फिर मुझे मार डालना।
हे सुव्रत ! इस रास्ते से एक गर्भवती हरिणी आई थी अथवा नहीं ? यह मुझे सच-सच बता दो ।'
: शिवजी ने कहा-यह सुनकर व्याघ के नेत्र आश्चर्य से विकसित हो गए। उसने धनुष से बाण को समेटा और हृदय में सोचने लगा। जैसी बोली उसकी थी वैसी ही इसकी मी है। क्या प्रतिज्ञापालन के लिए यह वही तो नहीं आ गई है अथवा जिसके विषय में उसने कहा था वह दूसरी आई है। इस तरह सोचकर व्याघ ने हरिणी से कहा- 'हे हरिणी ! मेरा वचन सुनो। वह हरिणी अपने घर चली गई उसने सत्य वचन से मुझसे छुटकारा पा लिया है। मैं कल सारे दिन और आज की रात्रि भर से इस जङ्गल में दुःख पा रहा हूँ। इसलिए तुझे अवश्य मारूँगा । तू इष्ट देवता का स्मरण कर ।'
शिवजी ने कहा-व्याध के वचन सुनकर हरिणी बड़ी दुःखी हुई । वह रोती हुई व्याध से दीन वचन कहने लगी- 'मेरे न मांस है, न चरबी है, यहाँ तक कि देह में रुधिर भी नहीं है, जो मेरी कान्ति थी वह भी विरहानल से दग्ध हो गई। मैं प्राण छोड़ दूँगी, पर तुम्हरा भोजन नहीं होगा। इस बात को अपने हृदय में विचार कर मुझे मत मारो ? यहाँ मांस, मेद से युक्त अत्यन्त पुष्ट दूसरा मृग आवेगा- उसे यदि तुम मारोगे तो कुटुम्बसहित तुम्हारा तीन अथवा चार दिन भोजन चल सकेगा। मैं तो मांसरहित एवं दुर्बल हूँ। हे व्याध ! इस रास्ते से वह अवश्य आवेगा। उसे मारकर तुम सुखी और तृप्त हो सकोगे ।'
शिवजी ने कहा- यह सुनकर व्याध बार-बार सोचने लगा कि हरिणी निःसन्देह बात कर रही है, किन्तु मुझे निश्चय नहीं होता । इस तरह मन में विचार कर यद्यपि वह जीवघाती क्षुधा से पीड़ित था तथापि उसने हरिणी से कहा- 'पहले तुम शपथ खाओ, जिससे मुझे विश्वास हो जाय । फिर मैं तुम्हें उसी प्रकार छोड़ दूँगा।'
शिवजी ने कहा- इस तरह उसके वचन सुनकर शोक से विह्वल हरिणी ने व्याध के सामने बार-बार सत्य प्रतिज्ञा की ।
हरिणी ने कहा- 'जो क्षत्रिय रण छोड़कर लौटता है यदि मैं पुनः न आऊँ तो उसके पाप से लिप्त होऊँ। जो मनुष्य प्राणियों की प्राण-हिंसा में लगे रहते हैं यदि। जो पापी कथा कही जाती हो, अथवा धर्मोपदेश होता हो उसमें विन्न करता है और जो श्रद्धाहीन होता है। यदि।'
शिवजी ने कहा- यह सुनकर उस व्याध ने हरिणी को छोड़ दिया।
हरिणी ने जल पिया और वह शीघ्र ही आँखों से ओझल हो गई। इस तरह बिल्व के नीचे बैठे हुए उस व्याध का तीसरा पहर बीत गया । उसने फिर पत्ते तोड़े और शिवजी पर डाले ।
तब व्याध ने एक विशाल नेत्रवाले हरिण को देखा। वह चकित होकर दिशाओं को देख रहा था और हरिणी के पैरों को पहचान रहा था। हरिण सुन्दरता और बल के घमण्ड से मदोन्मत्त और अत्यन्त पुष्ट था । उसे देखकर व्याध ने धनुष की डोरी पर बाण चढ़ाया। कान तक खोंचकर ज्यों ही वह हरिण को मारने के लिए बाण छोड़ता है त्यों हीं हरिण ने उसको देखा। उस कालरूप व्याध को देखकर हरिण ने मन में सोचा। आज मेरी मृत्यु निश्चित होगी। इसमें कोई सन्देह नहीं । मेरी दोनों स्त्रियों को इस व्याध ने अवश्य मार ही दिया होगा।' दोनों स्त्रियों से रहित मेरी भी अवश्य मृत्यु हो जावेगी। हाय ! मैंने' कौन सा पाप किया था, जिससे मुझको स्त्री का दुःखं प्राप्त हुआ । स्त्री के सुख के समान सुख न घर में है न वनः में। स्त्री के बिना धर्म नहीं हो सकता, काम-सिद्धि तो खासकर हो ही नहीं सकती। स्त्री के बिना अर्थ (धन) से भी क्या प्रयोजन ? पुरुषों के धर्म, अर्थ, काम में स्त्री सहायक है। विदेश जाने पर विश्वास देनेवाली भी वही है। वह जंगल भी धर्म-युक्त है, जहाँ प्रिया रहती है और प्रिया हीन महल भी घोर जंगल से अधिक है। स्त्री के समान न कोई सम्बन्धी है, न स्त्री के समान कोई सुख है और दुःखी मनुष्य के लिए स्त्री के समान कोई औषध भी नहीं है। जिसके घर में सती, साध्वी, प्रियवादिनी स्त्री नहीं है उसको जंगल में चले जाना चाहिए, क्योंकि उसके लिए जैसा जंगल वैसा ही घर । हाय! किस पाप से मैं स्त्रियों से रहित हो गया। इस तरह सोचकर उसने व्याध से कहा- 'हे नरश्रेष्ठ ! हे मांसाहार करनेवाले व्याध ! जो वाक्य मैं आपसे पूछता हूँ उसका उत्तर (कृपा करके) एक बार दे दीजिए। दो हरिणियाँ यहाँ आई थीं । वे किसी रास्ते से घर चली गईं या आपने मार दी। सच-सच कहिए।'
शिवजी ने कहा-उसके वचन सुनकर व्याध ने सोचा-यह भी कोई साधारण हिरण नहीं है। कोई देवता होना चाहिए। इस तरह मन में सोचकर उसने डोरी से वाण हटाया और अत्यन्त आश्चर्ययुक्त होकर हरिण से बोला- 'वे दोनों इस रास्ते से अपने घर चली गई। उनमें से जो पीछे आई थी, हे मृग ! वह तेरी स्त्री ऋतुमती थी। उसने तुझे मुझको दे दिया है। इसलिए मैं तुझे मारूँगा। किसी प्रकार नहीं छोडूंगा।'
शिवजी ने कहा- इस तरह उसका वचन सुनकर हरिण भय से घबरा गया और दीन होकर उसने व्याध से कहा- 'उन्होंने कौन सा वचन तुम्हारे आगे कहा ? जिससे तुमको भरोसा हो गया और तुमने दोनों हरिणियों को छोड़ दिया।'
शिवजी ने कहा- हरिण के कहे वचन सुनकर हे कमलनयने पार्वति ! व्याध ने उनके किये हुए सब शपथ कहे। व्याध के मुख से' उन शपथों को सुनकर मृग प्रसन्न हुआ और व्याध से बोला -"हे व्याध ! मेरी स्त्रियों ने जो तुम्हारे आगे शपथ किए हैं उन्हें मैं भी करता हूँ जिससे तुम्हें विश्वास हो जाय। जो पहले आई थी वह मेरी प्रिया'गर्भवती है और जो पीछे आई थी वह ऋतुमती है। मेरी देह बड़ी मोटी है-इसे तुम घर न ले जा सकोगे। मेरा यहाँ, मारना तुम्हारे लिए व्यर्थ होगा। इसलिए मैं अपने घर जाकर ऋतुमती से संभोग करके और बन्धु-बान्धवों से मिलकर तुम्हारे घर पर आ जाऊँगा। इसके लिए मैं शपथ करता हूँ। तुम सन्देह मत करो ।'
शिवजी ने कहा-व्याध ने हरिण के इस वचन को सुनकर हरिण से कहा- हे धूर्त्त ! तू झूठ बोलता है और मुझे धोखा देता है। भला, जहाँ अपनी मृत्यु हो वहाँ कौन मन्दबुद्धि जाता है।
शिवजी ने कहा- हे सुरवन्दिते ! व्याध का वचन सुनकर हरिण शपथ करने को उद्यत हुआ और व्याध से बोला- हे महाभाग व्याध ! मेरा वचन सुनो। मैं जो शपथ करता हूँ उनको कान लगाकर सुनो। हरिण का कहा सुनकर व्याध ने कहा-अच्छा तुम मेरे सामने मेरे भरोसे के लिए शपथ करो। मैं तुम्हें शीघ्र ही तुम्हारे घर भेज दूँगा ।
शिवजी ने कहा-व्याध के ऐसे वचन सुनकर हरिण ने व्याध के आगे बार-बार सत्य प्रतिज्ञा की। हरिण ने कहा- 'जो स्त्री पति को धोखा दे, जो सेवक स्वामी को धोखा दे, जो मित्र मित्र को धोखा दे, जो गुरुद्रोह करे, जो तालाब तोड़े और महल गिरावे, यदि० जो ब्राह्मण हमेशा भटकते रहते हैं, लेन-देन करते हैं, सन्ध्या-स्नान से हीन होते हैं, वेद-शास्त्र से वर्जित होते हैं, सत्य, शौच और वैश्वदेव से वर्जित होते हैं, यदि ०। ज़ो क्षत्रिय स्वामी को युद्ध में छोड़कर भाग जाते हैं, ब्राह्मणों की और अपनी सत्यवादिनी स्त्री की निन्दा करते हैं, जिनके देश, पुर और ग्राम में वेद-शास्त्रविरोधी रहते हैं यदिः..... जिस राजा के देश में लोग सूर्य, विष्णु, महेश, गणेश और पार्वती को छोड़कर अन्य देवताओं का पूजन करते हैं यदि०। जो शूद्र तीनों वर्षों की सेवा नहीं करता और ब्राह्मण के वाक्यों को छोड़कर पाखण्ड में लगा रहता है, यदि। जो पापी लोग जप, तप, तीर्थ-यात्रा, संन्यास और मन्त्र-साधन नहीं करते यदि०.....। जो ब्राह्मण होकर तिल, तेल, घी, शहद, नमक, खांड, गुड, लोह, इत्र, विविध प्रकार के फल, क्षार और बहेड़े बेचता है, यदि०। जो शूद्र मद-मोहित होकर मदिरा बेचता है, यदि०। जो गाय को पैर से छूता है, सूर्योदय के समय सोता है, अकेला हवेली में बैठकर मिष्टान्न खा लेता है, माता-पिता का पोषण नहीं करता है, यज्ञ-यागादि का नाम लेकर माँगता है, जो बेटी के धन से जीता है, जो देवता तथा ब्राह्मणों का निन्दक है, यदि०। जो आह्निक और हन्तकार नहीं करते, अतिथियों का पूजन नहीं करते और केवल अपना ही पेट भरते हैं, दुराचारी हैं, देव-द्रव्य का हरण करते हैं, स्वामी की निन्दा करते हैं, ब्रह्मन्न होते हैं, गुरु के निन्दक होते हैं, जो वेद को स्वर और लक्षण से हीन पढ़ते हैं, यदि०। जो महापवित्र सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण में कुरुक्षेत्र में, हव्यकव्य से रहित होकर सदा दान ग्रहण करते रहते हैं, यदि०। जो जहाँ-कहीं भटकता हुआ वेद-पाठ करता है अथवा पढ़ते हुए ब्राह्मण से जो अन्त्यज वेद सुनता है यदि०.....। जो नारी रूप-यौवन से गर्वित होकर धन-हीन कुरूप और रोगी पति का सत्कार नहीं करती यदि०। अथवा तुम्हारे सामने बहुत कहने से क्या फल । यदि मैं तुम्हारे पास न आऊँ तो मेरा सब सत्य वृथा हो ।'
शिवजी ने कहा- शिकारी के पाप नष्ट हो गए थे। इसलिए उसने मृग के वाक्य से सन्तुष्ट होकर 'तू अपने घर जा' इस तरह कहते हुए. मृग को छोड़ दिया। हरिण ने जल पिया और जिस रास्ते से दोनों हरिणियाँ गई थीं उसी रास्ते से प्रसन्न होकर अपने घर की ओर चला गया ।
उस समय बिल्ववृक्ष के बीच में बैठे हुए शिकारी ने प्रातःकाल के समय हाथ से बिल्वपत्रं तोड़कर अज्ञान में ही शित्र के चारों तरफ फेंक दिए और शिव-शिव कहता हुआ वृक्ष के बीच से निकला। अज्ञान से जागरण हो गया। शिव-पूजा के प्रभाव से सूर्योदय से पहले ही वह पापों से मुक्त हो गया। किन्तु (क्षुधित होने के कारण) निराश होकर भोजन के लिए दिशाओं की तरफ देखने लगा। इतने ही में बच्चों सहित एक दूसरी हरिणी वहाँ आई। हरिणी को देखते ही उसने धनुष पर वाण चढ़ाया। ज्योंही वह वाण चढ़ा रहा था त्योंही उसने स्पष्ट शब्दों में कहा- हे धर्मात्मन् ! वाण मत छोड़ो; अपने धर्म का पालन करो ! मैं सभी के द्वारा अवध्य हूँ। ऐसा शास्त्र में बताया गया है। शास्त्र में लिखा है कि-
'शयानो मैथुनासक्तः स्तनपो व्याधिपीडितः । न हन्तव्यो मृगो राज्ञा मृगी च शिशुभिवृता ॥
अर्थात् राजा को सोते हुए, मैथुन में आसक्त, स्तन पीते हुए और रेोगी हरिण तथा बच्चों से युक्त हरिणी को नहीं मारना चाहिए ।
यदि धर्म छोड़कर मुझे मारोगे ही तो मैं बालकों को घर पर रखकर लौटकर आऊँगी। यदि मैं न आऊँ तो जो स्त्री अपने पति को छोड़कर "पर पुरुष में आसक्त होती है- उसके पाप से मैं लिप्त होऊँ ।
शिवजी ने कहा-व्याध से छूटते ही वह हरिणी सीधी अपने घर गई। व्याध भी शीघ्रता से अपने घर को रवाना हुआ। रास्ते में वह सोचने लगा कि उन सत्यवादी मृगों का वचन सुनकर - यदि मैं उनको मारूँगा तो मैं किस गति को पाऊँगा। यह सोचते हुए वह घर पहुँचा। घर पर भूखे बच्चों ने उसे घेर लिया। घर में मांस तथा अन्न, नहीं था जिससे भोजन होता । पिता के पास मांस न देखकर बच्चे निराश होकर चल दिए। शिकारी उन हरिण-हरिणियों के वाक्य का स्मरण कर रहा था। इतने में मांस बिना लाए हुए पति से स्त्री ने पूछा- तुमनें एक अहोरात्र का उपवास करवा डाला। यह बड़ा कष्ट किया ।
व्याध ने कहा- 'प्रिये ! न मैंने रात को भोजन किया और न मुझे नींद आई रात में मुझे जो हरिणियाँ और हरिण मिले- वे शपथों से बँधे हुए हैं। आज सबेरे ये आवेंगे और मैं उनको सत्पुरुषों की प्रतिज्ञा का स्मरण करता हुआ मारूँगा ।.
शिवजी ने कहा कि इधर जब उस हरिण को शपथ खाने के कारण व्याध ने छोड़ा तब वह अपने आश्रम को गया, जहाँ वे दोनों हरिणियाँ थीं। उनमें से एक ने तत्काल बच्चा दिया और दूसरी मैथुन की इच्छा करने लगी। इतने में तीसरी हरिणी अपने बच्चों से घिरी हुई आ गई। वे सभी चिन्ता से युक्त थीं, मरने का निश्चय कर चुकी थीं और परस्पर शिकारी की चेष्टा का वर्णन कर रही थीं। हरिण ने मैथुन की इच्छावाली हरिणी से उपभोग किया और उसके बाद उन सब से कहने लगा- 'तुम सब यहाँ रहना, अपने प्राण की रक्षा करना, इन बच्चों को भी सिंह, बाघ, भीलों से बचाना। मैं शपथों से बँधा हूँ। मैं वापस जाऊँगा। हे विशालाक्षि ! सन्तान होने के लिए, यह ऋतु-प्रदान करने के निमित्त मैं आया हूँ और मुझे कुछ काम नहीं है। सन्तान से स्वर्ग मिलता है और इस लोक में सदा रहनेवाला यश मिलता है। स्वर्ग और सुख दोनों देनेवाली सन्तान का प्रयत्न से पालन करना चाहिए। इसी प्रकार जो ऋतुमती स्त्री से गमन नहीं करता उसे भी भ्रूणहत्या का - पाप लगता है और उसका सब धर्म भी वृथा होता है। पुत्ररहित की गति नहीं होती और स्वर्ग तो होता ही नहीं। इसलिए विद्वान् को किसी न किसी प्रकार पुत्र अवश्य उत्पन्न करना चाहिए। अब मुझे वहाँ जाना चाहिए. जहाँ व्याध राह देख रहा है। सत्य का पालन करना चाहिए । सत्य में ही धर्म स्थिर है।'
शिवजी ने कहा- यह सुनकर उसकी स्त्रियाँ दुःखी होकर कहने लगीं "हे मृगश्रेष्ठ ! हम भी तुम्हारे साथ चलेंगी। तुम्हारे साथ हमारा मरना प्रशंसनीय है। इसमें कोई सन्देह नहीं। हे प्रिय ! तुमने हमारा कभी अप्रिय किया हो- इसका हमको स्मरण नहीं है। तुमने पुष्पित वन-प्रदेशों में, नदियों के सङ्गमों में और पहाड़ की कन्द्राओं में, हमारे साथ विहार किया है। तुम्हारे ऐसे सत्पति को भाग्यवती स्त्री ही पा सकती है। तुम्हारे बिना हमको जीने से कोई कार्य नहीं। दीन और पतिहीन स्त्री का जीवन से क्या प्रयोजन ।
मितं ददाति हि पिता, मितं भ्राता मितं सुतः । अमितस्य प्रदातारं भर्तारं का न पूजयेत् ॥
अर्थात् पिता, भाई और पुत्र परिमित वस्तु देते हैं, परन्तु अपरिमित का दान करनेवाले पति का पूजन कौन स्त्री न करे। स्त्री के पुत्र हों और पति के अनेक मित्र भी हों, तथापि पति से हीन होते ही स्त्री दीन हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विधवा स्त्री को गन्ध, पुष्प, धूप, और रत्नों के आभूषण तथा विविध प्रकार के सुन्दर वस्त्र और शय्या से कोई फल नहीं। स्त्रियों के लिए वैधव्य के समान कोई दुःख नहीं है। वे स्त्रियाँ धन्य हैं जो पति के आगे मरती हैं। बिना तार के वीणा नहीं बजती, बिना पहिये के रथ नहीं चलता, बिना पति के सौ पुत्र हों तब भी स्त्री सुखी नहीं हो सकती। द्रव्यहीन हो, व्यसनी हो, बुड्ढा हो, रोगी हो, अङ्गहीन हो, पतित हो, कञ्जूस हो, मूर्ख हो तब भी स्त्रियों के लिए पति परम-गति है। पति के समान धर्म नहीं है, पति के समान स्वामी नहीं है और पति के समान गति नहीं है ।'
शिवजी ने कहा- इस तरह विलाप करके अपने बच्चों के साथ पति के शोक से पीड़ित हुई उन सबों ने मरने का निश्चय किया। उनके वचन को सुनकर हरिण के हृदय में बड़ी चिन्ता हुई। उसने सोचा मुझे व्याध के पास जाना चाहिए या नहीं। एक तरफ सत्य का नाश है, दूसरी तरफ कुटुम्ब का नाश है। यदि मैं वहाँ जाऊँगा तो कुटुम्ब का नाश होगा और यदि सत्य का लोप करूँगा तो प्रलय-पर्यन्त रौरव नरक में जाऊँगा। यदि न जाऊँगा तो सत्य का नाश निश्चित ही है। पुत्र, स्त्री अथवा स्वयं को मरना पड़े तो कोई बात नहीं, परन्तु कल्याण चाहनेवाले पुरुषों को सत्य का पालन करना ही चाहिए।
सत्येन सूर्यस्तपति, पृथ्वी सत्ये प्रतिष्ठिता । सत्येन वायवो वान्ति, सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥
अर्थात् सूर्य सत्य से तपता है, पृथ्वी सत्य से स्थिर है, वायु भी सत्य से चलता है, सभी सत्य में स्थिर हैं ।
हरिण ने इन सुन्दर धर्मों का विचार किया और वह धीरे-धीरे व्याध के घर चला । उस सरोवर में उसने स्नान किया और कर्मसंन्यास किया । वहाँ शिव को नमस्कार करके और सदाशिव का ध्यान करता हुआ खाना, पीना, भोग, काम, क्रोध, लोभ और मोक्ष का नाश करने-वाली माया को छोड़कर वह व्याध के आश्रम को गया। हरिण की स्त्रियाँ, पुत्र सब मरने का निश्चय करके अनशन करते हुए मृग के पीछे-पीछे जा रहे थे। हरिण स्त्री और पुत्रों के साथ उस प्रदेश पर आया जहाँ बालकों से युक्त भूखा व्याध बैठा हुआ था। सत्य वचनों का पालन करता हुआ मृग व्याध से बोला- 'हे व्याध ! पहले तुम मुझे मारो और तब क्रम से इनको मारना। अब विलम्ब मत करो। हरिण मनुष्यों के खाने की वस्तु है, इसलिए तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा। तुम्हारे शस्त्र से पवित्र होकर हम लोग स्वर्ग को जावेंगे और कुटुम्ब-सहित तुम्हारा भोजन भी हो जायगा ।'
शिवजी ने कहा-हरिण के वचन सुनकर व्याध ने अपनी निन्दा की और कहा- हे धैर्यशाली मृग ! तुम अपने घर जाओ। मुझे मांस से कोई मतलब नहीं। जो होना होगा सो होगा। प्राणियों के मारने, बाँधने और धमकाने में पाप होता है। इसलिए मैंने शस्त्र रख दिए। मैं सत्यधर्म का आश्रय लेता हूँ। हरिण ने कहा- मैं कर्म का संन्यास लेकर तुम्हारे पास आया हूँ। तुम मुझे शीघ्र से शीघ्र मार डालो, तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। मैंने पहले वचन दिया है। तुम छोड़ोगे तब भी मैं जाऊँगा नहीं। मैंने अनाशक धर्म (उपवास) का ग्रहण करके स्त्री आदि सबको छोड़ दिया है।
व्याध ने कहा- तुम मेरे बन्धु हो, तुम मेरे गुरु हो और तुम मेरे माता-पिता तथा मित्र हो। मैंने मोह-माया आदि मलों को छोड़कर, शस्त्र तोड़ दिए हैं। किसकी स्त्री, किसके लड़के और किसका पति, ये सब अपने-अपने कर्मों से आये हैं। हे मृग ! तुम आनन्दपूर्वक जाओ।
* शिवजी ने कहा- यह कहकर शिकारी ने जल्दी से धनुष और बाण तोड़ डाले और मृगों से क्षमा चाहते हुए प्रदक्षिणा करके उनको नमस्कार किया। इसी बीच स्वर्ग में देवताओं ने दुन्दुभिनाद किया और आकाश से पुष्पवृष्टि हुई । एक सुन्दर विमान लेकर देवदूत आया और व्याध की प्रशंसा करके हर्षसहित यह वचन बोला- 'हे सब प्राणियों के डरानेवाले महासत्त्व शिकारी ! इस श्रेष्ठ विमान में चढ़कर सदेह स्वर्ग में चलो। शिवरात्रि के प्रभाव से तुम्हारा पाप नष्ट हो गया है। उस दिन तुम्हारा उपवास हो गया, रात्रि में जागरण भी हो गया और अज्ञान से तुमने प्रत्येक प्रहर में शिवजी की पूजा भी कर डाली। इसलिए तुम सब पापों से मुक्त हो गए। हे धर्मात्मन् !. तुम्हारा इसी नाम से कल्पान्त तक नक्षत्रमण्डल में स्थायी निवास रहेगा। हे धर्मशाली मृगराज ! तुम अपनेः स्त्री-पुत्रों सहित विमान में बैठकर अपने सत्य के कारण स्वर्ग में जाओ। अपनी तीनों भार्याओं सहित नक्षत्रपद् प्राप्त करो। वह नक्षत्र तुम्हारे नाम से ही विख्यात होगा।
शिवजी ने कहा-यह सुनकर व्याध-सहित वे सारे विमानों में चढ़कर नक्षत्रलोक को प्राप्त हुए। आगे दो हरिणियाँ, पीछे हरिण-इन तीनों तारों से युक्त मृगशीर्ष नक्षत्र है। आज भी यह नक्षत्र मृगशीर्ष के नाम से आकाश में दिखाई देता है। इसकी पीठ पर आर्द्रा नाम का मणि के समान दूसरा नक्षत्र लगा हुआ है।
हे पार्वति ! ऐसी प्रभाववाली शिवरात्रि का मैंने वर्णन किया। यह यमराज के शासन को मिटानेवाली और शिवलोक को देनेवाली है। शास्त्रोक्त विधि से जो इसका जागरण सहित उपवास करेंगे- उनका मोक्ष होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं। शिवरात्रि के समान पाप और भय मिटानेवाला दूसरा व्रत नहीं है। इसके करने मात्र से सब पापों का क्षय हो जाता है।
पार्वती ने पूछा- हे देव ! यह उत्तम व्रत किस रीति से किया जाता है ? इसका उद्यापन कैसे करना चाहिए और इसकी पूजा कैसे करनी चाहिए ? हे जगत् के स्वामी ! इसका विस्तारसहित वर्णन करो ।
शिवजी ने कहा- माघ और फाल्गुन के बीच में कृष्ण पक्ष में जो चतुर्दशी आती है उस दिन प्रातःकाल के समय दातुन करने के बाद अच्छी तरह, नियम, ग्रहण करे और भक्तियुक्त चित्त से मध्याह्न के समय तीर्थ में स्नान और पितृतर्पण करके विविध सामग्रियों सहित शिवालय में जावे। वहाँ हे देवि ! एकाग्र चित्त से शुभ गन्ध, धूप, अक्षतों के द्वारा विधिपूर्वक मेरी पूजा करनी चाहिए। और जो पुरुष भक्ति-युक्त हो कर विधान सहित प्रतिमास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करे, उसे इस तरह सालभर करने के पश्चात् उद्यापन करना चाहिए।
हे अनघे, उद्यापन की विधि मैं कहता हूँ। तुम सुनो। रात्रि के समय द्वादश लिङ्गों से युक्त और द्वादश कुम्भों से युक्त (लिङ्गतोभद्र) मण्डल बनाना चाहिए। उस मण्डल को दीप-मालाओं से सुशोभित करना चाहिए। उसके बीच में वेदोक्त विधि से घटस्थापन करना चाहिए।
घट पर लाल वस्त्र लपेटे जाँय और पञ्चरत्न रक्खे जाँय । रक्तत्रर्ण पुष्पों से युक्त उस घट पर पूर्ण पात्र रखना चाहिए। फिर पार्वती-सहित शिवजी की सुवर्ण की प्रतिमा बनाकर वेदमन्त्रों से यथाविधि स्नान करावे । उस प्रतिमा को मध्य के घड़े पर स्थापित करके श्रद्धा-भक्ति-सहित षोडशोपचार से शिवजी की पूजा करे। हे प्रिये ! पूजा करके बिल्वपत्र की १०८ समिधाओं का विधिपूर्वक हवन करे । तिल, अक्षत आदि सामग्री का उससे दुगुना होम करे। यह होम शिवजी के उद्देश्य से करे और शतरुद्री का जप करे । 'ओं नमः शम्भवाय च०. इस मंत्र से चरु-होम और घृतहोम करना चाहिए । उससे शिवजी प्रसन्न होते हैं। फिर शेष सर्व सामग्री का भी 'ओं नमः शम्भवाय० इस मंत्र से हवन कर देना चाहिए। प्रातःकाल के समय बारह ब्राह्मणों को अमृत के समान पायस द्वारा भोजन करावे । सपत्नीक आचार्य को शक्ति के अनुसार वस्त्र पहनावे। यथाशक्ति गाय, श्वेत वृषभ तथा घृत-पात्र, तिलपात्र एवं आठ प्रकार के पद का दान करे। हे प्रिये ! दीन, अन्ध तथा गरीब व्यक्तियों को भोजन तथा विविध प्रकार के दान देने चाहिएँ । इस प्रकार शिवरात्रि का उद्यापन करे। हे देवि ! जो इस प्रकार करता है वह मेरे समीप प्राप्त होता है।
(व्रतार्क में शिवपुराण से)
अभ्यास
(१) शिवरात्रि कब होती है ?
(२) शिवरात्रि व्रत की क्या विधि है ?
(३) शिवतत्त्व का विरूपण करिए और कालविज्ञान समझाइए।
(४) क्या लिङ्गपूजा अनार्यों से आई है ?
(५) शिवपूजा की सामग्री का विज्ञान समझाइए ।
(६) कथा का सारांश कहिए और मृगियों तथा मृग के शपथों द्वारा जो आचार शिक्षा प्राप्त होती है उसका निरूपण करिए ।
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