भारतीय व्रत उत्सव | 17 | रक्षा-बन्धन
भारतीय व्रत उत्सव | 17 | रक्षा-बन्धन
(धर्मसिन्धु आदि) में रक्षाबन्धन के साथ ही लिखा रहता है। तद्नुसार हम भी यहाँ इन दोनों उत्सवों का विवरण साथ साथ ही दे रहे हैं।
१. रक्षा-बन्धन
समय-श्रवण की पूर्णिमा । (यह कर्म' सभी वर्षों के लिए है।)
कालनिर्णय-जिस दिन पूर्णिमा उद्यकाल में ६ घड़ी से अधिक हो उस दिन भद्रा-रहित समय में करना चाहिए। ग्रहण या संक्रान्ति हो तो इस दिन उपाकर्म नहीं होता, किन्तु रक्षाबन्धन करने का निषेध नहीं है।
विधि-घर को शुद्ध गोमय से लीप कर उसमें हल्दी आदि से चौक पूरके उस पर जल-पूर्ण कलश की स्थापना करनी चाहिए और तब पट्टे पर बैठ कर पुरोहित द्वारा -
'येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥'
इस मन्त्र से रक्षाबन्धन किया जाना चाहिए ।
आजकल बहिनों के द्वारा भी रक्षाबन्धन होता है। इसका मूल यह प्रतीत होता है कि आगे लिखी जाने वाली रक्षाबन्धन की कथा में इन्द्र को बृहस्पति और इन्द्राणी दोनों ने रक्षा बाँधी-ऐसा उल्लेख है। इससे यह सिद्ध होता है कि सौभाग्यवती स्त्री के द्वारा भी रक्षाबन्धन होना चाहिए। बाद में शायद, लोगों ने यह सोचा हो कि अपनी खी को दक्षिणा तो दी नहीं जा सकती, इसलिए दया की मूर्त्ति और दानपात्र सौभाग्यवती बहिन के द्वारा राखी बंधवाई जाय और उसे दक्षिणा आदि से सन्तुष्ट करके शुभाशीर्वाद लिया जाय। लौकिक दृष्टि से यह उचित भी प्रतीत होता है।
१. 'ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैरन्यैध मानवैः ।
कर्तव्यो रक्षिताचारो द्विजान् संपूज्य शक्तितः ॥' (निर्णयसिन्धु )
२. 'उपलिप्ते गृहमध्ये दत्तचतुष्के न्यसेत्कुम्भम् । पीठे तत्रोपविशेद्राजाऽमात्यैश्च सुमुहूर्त ।
तदनु पुरोधा नृपते रक्षां बन्नीत मन्त्रेण ॥
( निर्णयसिन्धु २ परिच्छेद, रक्षाबन्धनप्रकरण)
मध्यकाल में तो यहाँ तक यह व्यवहार बढ़ गया कि राखी बाँधने से स्त्री-पुरुष परस्पर बहिन-भाई समझे जाने लगे । सुना जाता है कि चित्तौड़ की रानी कर्मावती ने सुप्रसिद्ध बादशाह अकबर के पिता हुमायूँ को, अपने ऊपर आपत्ति आने के समय, राखी भेज कर अपना भाई बनाया था और उसने उसकी रक्षा की थी। आजकल भी राखी बाँधने से कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष से बहिन का संबन्ध रखने वाली समझी जाती है।
समय-विज्ञान
इस प्रकरण के अन्त में उल्लिखित रक्षा बन्धन के कथा-प्रसङ्ग से यह स्पष्ट है कि यह कर्म आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिए किया जाता है। पूर्णचन्द्र सुधानिधि होने के कारण आयु और आरोग्य देने का अतीक है। ऐसा पूर्णचन्द्र पूर्णिमा को ही रहता है और पूर्णिमा का देवता' भी चन्द्रमा है, अतः इस कर्म के लिए पूर्णिमा ही उचित तिथि है। इसी प्रकार श्रवण नक्षत्र के देवता' विष्णु भगवान् हैं और यह सर्व-विदित है कि विष्णु भगवान् सब जगत् के पालनकर्त्ता हैं। उनके अतिरिक्त आयु-आरोग्य आदि का दाता और है ही कौन ? इन दोनों (पूर्णिमा तिथि और श्रवण नक्षत्र) का योग केवल श्रावण मास में ही होता है, जैसा कि मासविज्ञान प्रकरण में बताया जा चुका है। अतः रक्षाबन्धन श्रावण की पूर्णिमा को उचित ही रक्खा गया है।
१. 'वह्निर्विधाताऽद्रिसुता गणेशः सर्पो विशाखो दिनपो महेशः ।
दुर्गा यमो विश्वहरी च कामः शर्वो निशेशव पुराणदृष्टाः ॥'
(मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभप्रकरण के ३ श्लोक की पीयूषधाराव्याख्या में वशिष्ठवचन )
२. श्रवणस्य गोविन्दो विष्णुः ।
( मुहूर्त्तविन्तामणि नक्षत्रप्रकरण के १ श्लोक की पीयूषधारा में)
विधि-विज्ञान
गोमय अनेक प्रकार के कीटाणुओं को नष्ट करनेवाला होता है, इस लिए रक्षा-बन्धन कर्म में भूमि-लेपन के लिए उसका उपयोग अवश्य ही करना चाहिए। जब भारतवर्ष में प्लेग का अधिक प्रकोप था तब प्लेग के कीटाणुओं के विनाश के लिए अनेक डाक्टर लोग भी गोमय से घर लीपने का उपदेश दिया करते थे। अब भी डाक्टरों की सम्मति में शुद्ध गोबर 'एण्टी सेप्टिक' (कीटाणु विनाशक) माना जाता है।
चौक पूरने में हल्दी या रोली का जो उपयोग किया जाता है वह मांगलिक और सौन्दर्याधायक तो है ही, साथ ही कीटाणु-विनाशक भी है, क्योंकि हल्दी तीव्र गन्धवाली और कटु होने से कई रोगाणुओं को नष्ट करनेवाली है। रोली भी हलदी से बनती है, अतः उसमें भी वे ही गुण हैं।
जल-पूर्ण कलश की मांगलिकता के विषय में तो कहना ही नहीं है, क्योंकि जल से भरे कलश को भारतीय सदा से शुभ मानते आये हैं। इसका कारण यह है कि जल-पूर्ण कलश वरुण देवता का प्रतीक है और वरुण देवता वेदों के अनुसार बन्धन नाशक माने जाते हैं, जैसा कि निम्नलिखित ऋचा से सिद्ध है-
उदुत्तमं वरुण! पाशमस्मदवाधर्म वि मध्यमं श्रथाय ।
अथा वयमादित्य ! व्रते तवानागसो अदितये स्याम् ॥ (ऋ. सं. १-२-१५)
इस का अभिप्राय यह है कि है वरुणरूप आदित्य, आप हमारे ऊपर, नीचे और बीच में जो पाश (बन्धन) हैं, उन को ढीले कर दीजिए । सो फिर बन्धन से छूटकर निरपराध हम दीनता-निवृत्ति के हेतु आपकी परिचर्या में (तत्पर) हो जावें ।
अतः मृत्युपाश से छूटने तथा दीनता से मुक्त होने के लिए रक्षा-बन्धन में वरुणरूप. आदित्य के प्रतीक जलपूर्ण कलश की पूजा की जाती है।
कलश-पूजन के अनन्तर रक्षा-सूत्र का बन्धन इस उत्सव की मुख्य विधि है। इस सूत्र के बन्धन का रहस्य यह है कि सूत्र या तन्तु किसी चीज को अविच्छिन्न करनेवाली वस्तु है। अत एव सुव्यवस्थित वस्तु को यह कहा जाता है कि 'एक सूत्र में बँधा हुआ है'। 'सूत्र और तन्तु' शब्दों की व्युत्पत्ति' से भी यही सूचित होता है कि जो उत्पन्न करने वाली वस्तु है उसे सूत्र और जो विस्तृत करनेवाली वस्तु है उसे तन्तु कहा जाता है।
सारांश यह है कि आयु-आरोग्य की अविच्छिन्नता रहे-इस आशी-र्वाद के प्रतीकरूप में मांगलिक रक्षा-सूत्र, आशीर्वाद देने के अधिकारी और दानपात्र ब्राह्मण पुरोहितों एवं बहिन-भानजों द्वारा बाँधा जाता है, जो वास्तव में इस क्रिया के अनुरूप ही है।
कथा
युधिष्ठिर ने पूछा-हे अच्युत, मुझे रक्षा बन्धन की वह विधि सुनाइए, जिस विधि से मनुष्य की दुष्ट प्रेत-पिशाचादि से रक्षा हो, जो सब रोगों को शान्त करनेवाली हो और सब दुःखों का नाश करने वाली हो ।
१. 'सूयतेऽनेन सूत्रम् । तन्यतेऽनेन तन्तुः'
( क्षीरस्वामी, अमरकोष २ काण्ड, भूमिवर्ग २८)
श्री कृष्ण भगवान् ने कहा- हे पाण्डवश्रेष्ठ, पुराना इतिहास सुनिए, इन्द्राणी ने इन्द्र की आयु बढ़ाने के लिए जो कुछ किया था ।
पुराने समय में बारह वर्षों तक देवता और असुरों में युद्ध हुआ । इस युद्ध में सब श्रेष्ठ देवताओं के साथ इन्द्र को असुरों ने जीत लिया । देवता सब अलंकारों से रहित हो गये। उनकी शोभा नष्ट हो गई । इन्द्र युद्ध छोड़कर देवताओं के साथ अमरावती (स्वर्ग की राजधानी) में पहुँचा, विजय की आशा तो उसने छोड़ ही दी, केवल प्राण-रक्षा में तत्पर रहने लगा ।
इधर दैत्यराज ने त्रिलोकी को अपने वश में कर लिया। उसने आज्ञा दी कि इन्द्र देवसभा छोड़ दे और देवता एवं मनुष्य यज्ञादि न करें। सुरासुर मेरी ही पूजा करें। जो मेरे राज्य में ऐसा न कर सके वह अन्यत्र चला जावे ।
दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ-क्रिया, स्वाहाकार, स्वधाकार और वषट्कार आदि सब कर्म नष्ट हो गये। उस समय वेद नहीं पढ़े जाते थे, देवता नहीं थे और उत्सव भी नहीं रह गये थे। सब कर्म संस्काररहित हो गए। धर्म का नाश होने से देवताओं के बल की हानि होने लगी । निर्बल देवराज इन्द्र अभिमान भरे दानत्रों को देखकर डरने लगे। यद्यपि इन्द्र का राज्य छूट चुका था तथापि (प्राण-रक्षा के लिए) उसने बृहस्पति को बुलाकर यह कहा- मैं बैरियों से घिर गया हूँ, इसलिए न यहाँ रहने के लिए समर्थ हूँ ओर न जाने के लिए। अब मैं विवश होकर प्राणान्त युद्ध करना चाहता हूँ, जो होना होगा सो होने दो।
सुरपति के इस वाक्य को सुनकर बृहस्पति ने कहा- हे पुरन्दर, यह पराकम का समय नहीं है। तुम कोप छोड़ दो, क्योंकि -
देशकालविहीनानि कार्याणि विपरीतवत् । क्रियमाणानि नश्यन्ति सोऽनर्थः सुमहान् भवेत् ॥
अर्थात् बिना देश-काल के जो कार्य किये जाते हैं वे उलटे किये जानेवाले कार्यों की तरह नष्ट हो जाते हैं। ऐसा करने से महान् अनर्थ हो सकता है।
इन्द्र ने कहा-अधिक कहना व्यर्थ है। मैं तो बैरियों के साथ युद्ध करूँगा; क्योंकि -
नृणां कार्यसमारम्मे श्रेय एवं विचिन्त्यताम् ।
अर्थात् मनुष्यों के काम आरम्भ करने के समय (सभी को ) अच्छा ही सोचना चाहिए। जो विचक्षण मनुष्य गुण-दोष दोनों को एक से समझ कर कार्यारम्भ करता है, उसके दोष अपने आप ही विमुख हो जाते हैं।
जब वे दोनों इस तरह बातचीत कर रहे थे तब (इन्द्र का उत्साह देखकर ) बृहस्पति ने उससे कहा- अच्छा तो सुनिए, आज चतुर्दशी का दिन है ! प्रातःकाल सब ठीक हो जायगा। मैं रक्षा का विधान करूँगा, जिससे कल्याण ही होगा।
इसके बाद पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल ही रक्षा का विधान किया गया ।
येव बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन मन्त्रेण बध्वामि रक्षे मा चल मा चल ॥
इस मन्त्र से बृहस्पति ने श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा-विधान किया । इन्द्राणी के साथ बल और वृत्र असुरों के मारनेवाले इन्द्र ने बृहस्पति के उस वचन का पालन किया ।
उसके बाद प्रातःकाल इन्द्राणी ने मंगलाचार करके इन्द्र के दाहिने हाथ में रक्षा की पोटली बाँधी (जिससे इन्द्र ने दानवों पर विजय पाई)।
अभ्यास
(१) रक्षाबंधन किस दिन होता है ?
(२) इस कर्म के लिए श्रावण की पूर्णिमा क्यों प्रशस्त है ?
(३) कलश और सूत्र की इस कर्म में प्रधानता क्यों है ?
(४) आजकल जो बहनों से राखी बँधाई जाती है उसका क्या कारण है ?
(५) रक्षाबन्धन की कथा का सारांश कहिए ।
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