भारतीय व्रत उत्सव | 20 | गणेश चतुर्थी
भारतीय व्रत उत्सव | 20 | गणेश चतुर्थी
समय
भाद्रशुक्ला चतुर्थी
काल-निर्णय
यह तिथि मध्याह्वव्यापिनी लेनी चाहिए। तृतीया और चतुर्थी दोनों दिन मध्याह्न में चतुर्थी हो या दोनों दिन ही मध्याह्न में चतुर्थी न हो तो तृतीया को करनी चाहिए, तृतीया के दिन किञ्चित् भी मध्याह्न का स्पर्श न हो अथवा तृतीया के दिन मध्याह्न में थोड़ी हो और चतुर्थी के दिन पूरे मध्याह्न में हो तभी चतुर्थी को करनी चाहिए। इस दिन रविवार अथवा मंगलवार हो तो प्रशस्त है।
विधि
गणेशजी की मिट्टी आदि की मूर्ति बनाकर पूजा करनी चाहिए । पूजा के समय लड्डू भोग धरके हरी दूब के २१ अंकुर हाथ में लेकर उनमें से दो-दो निम्नलिखित दश नामों में से एक-एक नाम से चढ़ावे। फिर दसों नाम बोलकर अवशिष्ट एक दूब चढ़ावे । दस नाम ये हैं-
(१) गणाधिपाय, (२) उमापुत्राय, (३) अघनाशनाय, (४) विना-यकाय, (५) ईशपुत्राय, (६) सर्वसिद्धिप्रदाय, (७) एकदन्ताय, (८) इभवक्त्राय, (६) मूषिकवाहनाय, (१०) कुमारगुरवे ।
फिर दस लड्डू ब्राह्मण को दान करके दस लड्डू स्वयं खावे । इस दिन चन्द्रदर्शन का निषेध है। यदि चन्द्रमा दीख जाय तो यह श्लोक पढ़ लेना चाहिए-
सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव हथेष स्यमन्तकः ॥
काल-विज्ञान
ऋतु और मास-भारतवर्ष कृषिप्रधान देश है। इसमें वर्षाऋतु से सुन्दर कोई ऋतु नहीं है, जिसका विस्तृत विवरण जन्माष्टमी के प्रसंग में दिया जा चुका है। वर्षाऋतु का भी द्वितीय मास फसल पकने का समय है। गणेश जी विघ्न्नों के राजा माने जाते हैं। यदि खेती में विघ्न्न हो गया तो भारतवर्ष के लिए इससे अनिष्ट कोई वस्तु नहीं हो सकती। इस-लिए ऐसे समय विघ्नराज का पूजन आवश्यक ही है।
पक्ष और तिथि-यद्यपि गणेश जी का पूजन कृष्णपक्ष में अभ्य-हिंत बताया गया है जैसा कि व्रतार्क में स्कन्दपुराण का वचन है-
चतुर्थ्यां देवदेवोऽसौ पूजनीयः प्रयत्नतः ।
कृष्णपदचे विशेषेण तथा-
सदा कृष्णचतुर्थ्यो तु मोदकाद्यैः प्रपूज्य माम् ।
(अर्थात् देवदेव गणेश जी की पूजा प्रयत्नपूर्वक चतुर्थी को करनी चाहिए । विशेषतया कृष्णपक्ष में । सदा कृष्णपक्ष की चतुर्थी को लड्डू आदि से मेरी पूजा करके¹) तथापि भाद्रपद शुक्लपक्ष में सिद्धि-विनायक का व्रत वर्षाऋतु की फसल के परिपाक को दृष्टि में रखकर ही रखा गया प्रतीत होता है। सामान्य दृष्टि से भी विघ्नविनाशार्थ शुक्ल-चतुर्थी ही उचित है, क्योंकि शुक्ल चतुर्थी का आरम्भ प्रकाशमय होता है जो शुभ का सूचक है। चतुर्थी' तो गणेश जी की तिथि है ही।
1. चतुर्थ्यो गणनाथस्य (अग्निपुराण पीयूषधारा)
इस दिन यद्यपि नक्तव्रत का विधान है अतः भोजन सायंकाल करना चाहिए तथापि पूजा यथासंभव मध्याह्न में ही करनी चाहिए, क्योंकि-
'पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्वव्यापिनी तिथिः
अर्थात् सभी पूजाव्रतों में विथि मध्याहृव्यापिनी लेनी चाहिए।'
विधि-विज्ञान
प्रतिमापूजन का विज्ञान पहले ही बताया जा चुका है और अन्य पूजा-विधि तो सर्वसाधारण है ही। मोदक और दूर्वा इस पूजा में विशेष हैं। इनमें से मोदक का तो अर्थ ही है आनन्द देनेवाला (मोद-यतीति मोदकः) सो विघ्ननिवारण के लिए ऐसी ही वस्तु चाहिए और दूर्वा भी गजानन को प्रिय होनी ही चाहिए, क्योंकि हरी दूब गज की प्रिय वस्तु है तथा वह माङ्गलिक भी मानी जाती है। दूर्वा से दस बार पूजन और दस लड्डू के दान तथा भोजन की दस संख्या का अभिप्राय गंगादशमी के अनुसार दस पापों का विनाश ही है, क्योंकि विघ्न्न भी पापों का ही फल है।
कथा
नन्दिकेश्वर ने कहा- तुम एकाग्रचित होकर गणेश जी के को सुनो । हे योगीन्द्र सनत्कुमार ! यदि अपना शुभ चाहे तो सदा शुक्लपक्ष में चतुर्थी के दिन प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। या पुरुष, अपने घर में रहता हो अथवा राजा के कुल में, (सबके लिए) उत्तमोत्तम और सब सिद्धि का देनेवाला है। शुभव्रत यह व्रत, स्त्री हो यह व्रत, यह व्रत गणेश जी को प्रिय है, त्रिलोकी में विख्यात है। हे ब्रह्मन् ! सब सङ्कष्ट को नाश करने के लिए इससे अधिक कोई व्रत नहीं ।
सनत्कुमार ने कहा- इस व्रत को पहले किसने किया ? यह समस्त बात तथा गणेश जी के इस व्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन करिए ?
नन्दिकेश्वर ने कहा- जगत् के स्वामी प्रतापी वासुदेव (श्रीकृष्ण)
ने यह व्रत किया था। व्यर्थ कलंक की शान्ति के लिए नारदजी ने ही उन्हें इस व्रत का आदेश दिया था ।
सनत्कुमार ने पूछा- षड्गुण (ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य)
से तथा ईश्वरत्व से युक्त और जगत् की सृष्टि और संहार करनेवाले, जगत् में व्याप्त वासुदेव को कलङ्क कैसे लगा ? यह आख्यान आश्चर्य-जनक है। हे नन्दिकेश्वर, आप कहिए !
नन्दिकेश्वर ने कहा- पृथ्वी का भार उतारने के लिए वसुदेव के पुत्र के रूप में राम (बलदेव) और कृष्ण साक्षात् शेष और विष्णु उत्पन्न हुए थे ।
कृष्ण ने जरासन्ध के भय से विश्वकर्मा को बुलाकर सुवर्ण से निर्मित द्वारकापुरी बसाई । वहाँ अत्यन्त सुन्दर सोलह हजार रानियाँ रहती थीं। भगवान् ने इस पुरी के बीच बड़े मनोहर भवन बनवाये थे। द्वारकानिवासियों के भोग के लिए कल्पवृक्ष भी वहाँ लाया गया । वहाँ ५६ कोटि यादवों के घर थे और भी बहुत से लोग पीडारहित निवास करते थे । त्रिलोको में जो सुन्दर वस्तु थी वह सब वहाँ दिखाई पड़ती थी ।
उम्र नामक यादव के सत्राजित् और प्रसेन नामक दो पुत्र विख्यात थे । उनमें से बुद्धिमान् सत्राजित् समुद्र के तट पर जाकर सूर्य के उद्देश्य से तप करने लगा। उसने अनशन व्रत लेकर सूर्य की तरफ नेत्र लगा दिये । तब भगवान् सूर्य प्रसन्न हुए और सत्राजित् के आगे आकर खड़े हो गए। दिवाकरदेव को देखकर सत्राजित् ने स्तुति की-
हे तेजोराशि ! आपको नमस्कार । हे सर्वतोमुख ! हे विश्वव्यापी ! हे विश्वरूप ! आपको नमस्कार ।
इस मणि को धारण करना। वह एक दिन इस उत्तम मणि को कण्ठ में धारण करके कृष्ण के साथ शिकार खेलने चला गया। वह घोड़ेपर चढ़ा हुआ था पर अपवित्र था, अतः सिंह द्वारा तत्क्षण मार डाला गया।
रत्न को लेकर जाते हुए सिंह को भी जाम्बवान ने मार दिया । मणि ले जाकर जाम्बवान ने गुफा में स्थित अपने पुत्र को दे दी।
कृष्ण अपने परिजन सहित द्वारकापुरी लौट आए ।
द्वारकावासी सब लोग परस्पर कहने लगे कि कृष्ण आ गए, किन्तु प्रसेन आज तक भी नहीं आ रहा है। निश्चय ही मणि के लोभ से कृष्ण ने प्रसेन को मार दिया। बड़े कष्ट की बात है कि पापी ने अपने बन्धु को ही मार दिया ।
वृथा अपवाद से संतप्त होकर कृष्ण भी धीरे-धीरे पुरवासियों को साथ लेकर नगर से वन गये। वहाँ घोड़े सहित प्रसेन को मरा हुआ देख कर मारनेवाले के पैरों का अनुसरण करने लगे। कृष्ण ने देखा कि (प्रसेन को सिंह ने मारा है और) सिंह को रीछ ने मारा है, इसलिए वे रीछ के बिल में चले गये। वे अपने तेज से अन्धकार का निवारण करते हुए उस बिल में १०० योजन घुस गए। आगे जाकर उन्होंने कई मंजिल का महल देखा। वहाँ जाम्बवान के कुमार को झूले में झूलता हुआ देखा और अपरिमित कान्तिवाली मणि को भी देखा और देखा कि रूप तथा यौवन से युक्त जाम्बवान की कन्या उस झूले. को चला रही है। उस सुन्दर हँसती कन्या को देखकर कृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ ।
वह कह रही थी 'सिंह ने प्रसेन को मारा, सिंह को जाम्बवान ने मारा। हे सुकुमार बच्चे ! रोओ मत, यह स्यमन्तकमणि तुम्हारी है।'
कमलनयन भगवान् कृष्ण को देखकर वह कन्या कामज्वर से पीड़ित हो गई और चलती भाषा में कहने लगी- 'जब तक जाम्बवान् सोता है तब तक जल्दी से रत्न लेकर चले जाइए चले जाइए।'
यह सुनकर प्रतापी कृष्ण हँसने लगे और (उसकी परवा न करते हुए) शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर जाम्बवान् सहसा उठा और कृष्ण के साथ रूखेपन से युद्ध करने लगा। तब भगवान् कृष्ण और जाम्बवान् का घोर युद्ध आरंभ हुआ ।
सभी द्वारकावासी सात दिन तक प्रतीक्षा करके यह सोचकर कि निस्सन्देह कृष्ण या तो मर गए हैं या किसी ने उनको रख लिया है, अपने घर चले गए। घर जाकर उन्होंने कृष्ण को मरे हुए समझकर उनकी परलोकक्रिया कर दी।
इधर कृष्ण ने केवल भुजा के आयुध से उस रीछ के साथ युद्ध किया और युद्ध-क्रिया द्वारा जाम्बवान् को सन्तुष्ट कर दिया । उस महान् दैवीबल को देखकर जाम्बवान् को प्राचीन वृत्तान्त (राम-चरित्र) का स्मरण हुआ । जाम्बवान् ने कहा- हे देवेश ! मैं सब देवताओं, यक्षों, राक्षसों और दानवों से अजेय हूँ, किन्तु तुमने मुझे जीत लिया । हे देव ! तुम निश्चय ही विष्णु के तेज हो, अन्यथा ऐसा बल नहीं हो सकता । इस तरह देवराज भगवान् कृष्ण को प्रसन्न करके जाम्बवान् ने वह उत्तम मणि उन्हें दे दी और अपनी सुन्द्री पुत्री जाम्बवती का भगवान् कृष्ण के साथ पाणिग्रहणसंस्कार कर दिया ।
कृष्ण भी मणि लेकर जाम्बवती सहित द्वारका आए और उन्होंने द्वारकावासियों से सब वृत्तान्त कहा। फिर सभा में बुलाकर सत्राजित्त् को मणि दी और इस तरह भगवान् कृष्ण ने अपने झूठे अभिशाप की निवृत्ति की । तदनन्तर महाबुद्धि सत्राजित् ने भी डरकर सर्वगुणों से युक्त अपनी पुत्री सत्यभामा कृष्ण को प्रदान की।
शतधन्वा, अक्रूर आदिक दुष्टचित्त यादव लोग, जो उस मणि को चाहते थे, सत्राजित् के वैरी हो गये। पापबुद्धि, दुरात्मा शतधन्वा ने, जब कृष्ण कहीं गये हुए थे उस समय, शीघ्र ही सत्राजित् को मारकर मणि ले ली। (लौटने पर) सत्यभामा ने कृष्ण के सामने यह सब वृत्तान्त कहा।
कपट का नाटक करनेवाले कृष्ण भीतर से प्रसन्न होने पर भी बाहर क्रोध करके बलदेवजी से कहने लगे - यह शतधन्वा सत्राजित् को मारकर मणि लेकर जा रहा है। हमारे रत्न को लेकर यह कैसे जा सकता है ? यह रत्न तो निश्चय ही हमारा भोग्य है।
यादव शतधन्वा ने जब यह बात सुनी तो वह भयभीत हो गया । उसने अक्रूर को बुलाकर मणि दे दी और एक घोड़ी पर चढ़कर दक्षिण दिशा में निकल गया। तब राम और कृष्ण ने रथ में बैठकर उसका पीछा किया । सौ योजन चलने के बाद घोड़ी मर गई। बलदेव तो रथ पर बैठे रहे और रत्न के लोभी कृष्ण ने पैदल दौड़ते हुए शतधन्वा को मार दिया, किन्तु वहाँ वह मणि दिखाई नहीं दी। कृष्ण ने आकर बलदेवजी के सामने यह सब वृत्तान्त कहा।
यह सुनकर बलदेवजी ने बड़े रोष से कहा- कृष्ण, तुम सदा कपटी हो और निश्चय ही पापी हो। धन के लिए तुम अपने वजन को मार देते हो। तुम्हारे जैसे भाई के सहारे कौन रह सकता है। कृष्ण ने अनेक शपथों के द्वारा बलदेवजी को प्रसन्न करना चाहा, किन्तु बलदेवजी 'धिकार है, कष्ट है' इस तरह कह कर विदर्भ देश चले गए। कृष्ण भी रथ में बैठ कर फिर द्वारका आ गए।
लोग फिर वैसे ही कहने लगे कि ये कृष्ण भले नहीं हैं। इन्होंने रत्न के लोभ से बड़े भाई बलवान् बलदेवजी को निकाल दिया। यह सुनकर भगवान् कृष्ण का मुँह उतर गया, क्योंकि पापी (चाहे झूठा ही बयान हो) कान्तिमान् नहीं रहता । जगत् के पति भगवान् कृष्ण झूठे अभिशाप से संतप्त रहने लगे ।
अक्रूर भी तीर्थयात्रा के बहाने द्वारका से निकल गए। काशी में ज़ाकर उन्होंने यज्ञपति (विष्णु) का सुख से यज़न करना आरम्भ किया। मणि से प्राप्त द्रव्य से उन्होंने सबको सन्तुष्ट किया और नगर में आश्चर्य- जनक देवमन्दिर बनवाये। अक्रूर वहाँ पवित्र रहकर उस सूर्य-दत्तु मणि को धारण करते रहे। इसलिएन दुर्भिक्ष था, न वैराग्य था, न ईतियाँ'¹ थीं।
सर्वज्ञ कृष्ण जानते हुए भी मनुष्यभाव को धारण किए हुए थे। संक्षेप में यह कहना चाहिए कि उन्होंने लोकाचार, माया और अज्ञान का आश्रय ले रक्खा था। फिर भी भाई के साथ उत्पन्न वैर, उपस्थित कलंक तथा व्यर्थ उत्पन्न हो रहे अपवाद को वे कैसे सहन करते। इस कारण जब कृष्ण चिन्ता से आतुर थे उस समय नारदजी गणेशजी की कथा और पूजा को लेकर उपस्थित हुए और सुख से बैठ जाने पर बोले ।
नारदजी ने कहा- हे देव! आप क्यों खिन्न हो रहे हैं? आपके शोक का कारण क्या है ?
भगवान् श्रीकृष्ण ने नारदजी से सब समाचार कहे ।
नारदजी ने कहा- देव ! मैं इसका कारण जानता हूँ, जिससे आप को कलंक लगा । आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शन किया, उसी के कारण आप को यह व्यर्थ कलंक लग गया ।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे नारद ! मुझे शीघ्र बताइये, चन्द्रमा के दर्शन में क्या दोष है ? और लोग द्वितीया को उसका दर्शन क्यों करते हैं ?
नारदजी ने कहा-रूप से गर्वित चन्द्रमा को गणेशजी ने शाप दिया था कि तेरे दर्शन से मनुष्यों की व्यर्थ निन्दा होगी ।
श्रीकृष्ण ने पूछा- अमृतमय चन्द्रमा को गणेशजी ने शाप क्यों दे दिया ? इस श्रेष्ठ आख्यान को यथावत् वर्णन करिए ।
नारदजी ने कहा- शिवजी ने और ब्रह्माजी ने पहले गणेशजी को गणों का अधिपति बनाया और प्रजापति देव ने गणेशजी को भार्यारूप में अणिमा, महिमा, लधिमा, गरिमा, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और
1. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहे, टिड्डो, तोते और युद्धाभिलाषी समीपवर्ती राजा इन छः को ईतियों कहा जाता है ।
अर्थ-काम की प्राप्ति ये आठ सिद्धियाँ प्रदान कीं। गणेशजी का पूजन करके ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ।
। ब्रह्माजी ने कहा- हे गजानन, हे गणेश, हे लम्बोदर, हे वरप्रद, हे विद्याधीश, हे सृष्टि के संहारकर्ता ! (आप को नमस्कार)। गणेशजी की मोदक आदि से प्रयन्नपूर्वक पूजा करनी चाहिए। जो लोग ऐसा करते हैं उनको निस्सन्देह निर्विघ्न सफलता होती है। देवता हो या असुर गणेशजी को बिना पूजे जो सिद्धि चाहते हैं उनको सौ करोड़ कल्पों में भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। हे गणेशजी ! तुम्हारी भक्तिसे विष्णु पालन करते हैं, रुद्र संहार करते हैं और तुम्हारी शक्ति से ही मैं सृष्टि करता हूँ।
इस प्रकार स्तुति करने पर देव-देव गजानन परम प्रसन्न होकर जगत्पति ब्रह्माजी से कहने लगे। गणेशजी ने कहा- जो तुम्हारे मन में हो वह वरदान मैं दूँगा। ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो ! मेरे सृष्टि करते समय कोई विघ्न्न न हो।
'एवमस्तु' कहकर गणेशदेव हाथ में मोदक लिए हुए सद्युलोक से:: स्वेच्छापूर्वक आकाश में धीरे-धीरे आ रहे थे। जब गणेशजी चन्द्रलोक में आए तो फिसल पड़े। उस समय रूप से गर्वित चन्द्रमा ने बड़ी हँसी की। यह देखकर गणेशजी की आँखें क्रोध से लाल हो गई और उन्होंने शाप दिया- हे शशाङ्क ! तुम बड़े घमण्डी हो, शीघ्र ही तुम्हें इसका फल प्राप्त होगा । आज से लेकर तुझ पापी का लोग दर्शन नहीं करेंगे । जो मनुष्य मृगलांछनरूप तुम्हारा असावधानी से दर्शन करेंगे वे अवश्य ही झूठे अभिशाप से युक्त होंगे ।
इस भयंकर शाप को सुनकर महान् हाहाकार हुआ। चन्द्रमा का मुँह अत्यन्त म्लान हो गया । वह जल में घुसकर कुमुद में रहने लगा और कुमुदनाथ कहलाने लगा । उसका भवन छिन गया ।
तब देवता, ऋषि और गन्धर्व निराश हुए, उनका मन बड़ा दुखी हुआ। वे इन्द्र को आगे करके ब्रह्माजी के पास गए। पितामहदेव के पास जाकर उन्होंने चन्द्रमा की चेष्टा का वर्णन किया और आस्पूर्वक कहा कि गणेशजीने चन्द्रमा को शाप दे दिया है। भगवान् ब्रह्मांजी ने विचार करके कहा कि हे देवेन्द्र ! गणेशजी के शाप को अन्यथा कौन कर सकता है ? निश्चय है कि इन्द्र, मैं अथवा विष्णु भी उस शाप को अन्यथा नहीं कर सकते। हे देवताओ ! तुम देवदेवेश गणेशजी की ही शरण में जाओ। निस्सन्देह वही शाप से छुड़ावेंगे ।
देवताओं ने कहा- हे पितामह ! हे महाबुद्धि ! गजानन गणेशजी किस कार्य से वरदायक होते हैं सो हमें कहिए ।
ब्रह्माजी ने कहा- देवदेव गणेशजी की चतुर्थी के दिन प्रयत्न पूर्वक पूजा करनी चाहिए। विशेषकर कृष्णपक्ष में। उस दिन गणेशजी का प्रिय नक्तत्रत (सायंकाल भोजन) करना चाहिए। पूए और घी से युक्त मोदकों से गणेशजी को सन्तुष्ट करना चाहिए। स्वयं भी इच्छानुसार मधुर अन्न और हविष्य (जौ, चावल आदि) खाना चाहिए । ब्राह्मण को गणेशजी की सोने की प्रतिमा दान करनी चाहिए और शक्ति के अनुसार दक्षिणा देनी चाहिए। धन छिपा कर कृपणता नहीं करनी चाहिए ।
फिर उन सब ने इकट्ठे होकर वृहस्पति को भेजा। उन्होंने जाकर ब्रह्माजी के वचन (चन्द्रमा से) कहे। फिर चन्द्रमा ने जैसा ब्रह्माजी ने कहा था वैसा व्रत किया। व्रत से प्रसन्न होकर भगवान् गणेश प्रकट हुए। क्रीड़ा करते हुए गणेशजी के दर्शन करके चन्द्रमा ने उनकी स्तुति की-
तुम सब कारणों के कारण हो, तुम्हीं जाननेवाले हो और तुम्हीं जानने योग्य हो। हे देवेश, हे जगन्निवास, हे गणेश, हे लम्बोदर, हे वक्रतुंड, हे ब्रह्मा-विष्णु से पूजित, आप प्रसन्न होइए और घमण्ड से जो मैंने हँसी की थी उसे क्षमा करिए। हे गणेश ! मैंने आपका सब प्रभाव जान लिया। जो मूर्ख आप की पूजा न करके कार्य-सिद्धि की इच्छा करते हैं वे अवश्य ही संसार में भाग्यहीन हो जाते हैं और जो पापी लोग आपसे तटस्थ रहते हैं वे सदा ही पापपूर्ण नरक में जाते हैं।
इस प्रकार स्तुति किये जाते हुए गणेशजी प्रसन्न होकर बोले-हे चन्द्रमा ! मैं तुम पर सन्तुष्ट हूँ, वरदान माँगो, मैं तुमको वर दूँगा ।
चन्द्रमा ने कहा- मैं फिर लोगों के दर्शन करने योग्य हो जाऊँ ! तथा हे गणेशजी, आपकी कृपा से मेरा पाप और शाप निवृत्त हो जाय।
गणेशजी ने कहा- मैं तुम्हें अन्य वरदान दे सकता हूँ। यह नहीं दिया जा सकता ।
फिर देवताओं ने कहा कि हम प्रार्थना करते हैं कि चन्द्रमा को शापरहित कर दोजिए । तब ब्रह्माजी के गौरव से गणेशजी ने चन्द्रमा को शापरहित किया और कहा- (भाद्रपद) शुक्लपक्ष की चतुर्थी को जो तुम्हारा दर्शन करेगा उसको मिथ्या अपवाद और कष्ट प्राप्त होगा इसमें सन्देह नहीं किन्तु जो मनुष्य मेरे पहले (अर्थात् चतुर्थी से पहले) तुम्हारा दर्शन करेंगे (अर्थात् शुक्लपक्ष की द्वितीया के दिन तुम्हारा दर्शन कर लेंगे) उनको यह दोष नहीं होगा ।
तब से लेकर सब लोग द्वितीया के दिन चन्द्रदर्शन के लिए आदर रखते हैं। गणेशजी की आज्ञा है कि जो पापबुद्धि पुरुष भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी के दिन तुम्हारा (चन्द्रमा का) दर्शन करता है वह वर्ष भर तक मिथ्या अपवाद से मलिन होता है।
फिर चन्द्रमा ने गणेशजी से पूछा- हे देवेश ! आप किस उपाय से प्रसन्न होते हैं सो वर्णन करिए ।
गणेशजी ने कहा- जो मनुष्य सदा कृष्णपक्ष की चतुर्थी के दिन मोदक आदि से मेरी पूजा करके और रोहिणी सहित तुम्हारी भी विधि-पूर्वक पूजा करके यथार्शाक्त स्वर्ण से निर्मित मेरी प्रतिमा ब्राह्मण को दान करे और विधिपूर्वक कथा सुनकर भोजन करे, मैं सदा उसके संकट का निवारण करूंगा। भाद्रशुक्ल चतुर्थी के दिन सुवर्ण न हो तो मिट्टी की प्रतिमा बना कर मेरा पूजन करे। फिर ब्राह्मणभोजन करवावे और विशेष रूप से जागरण करे। छिद्ररहित सुशोभित कुम्भ, धान्य के ऊपर रख कर, यथाशक्ति सुवर्ण से बनाई हुई मेरी प्रतिमा को धोती-दुपट्टा से आंच्छादित करके और मोदक आदि से मेरी पूजा करके मनुष्य उस दिन लाल वस्त्र पहने। ब्रह्मचर्य में रत और पवित्र रहे। मेरे आगे रोहिणीसहित तुम्हारी पूजा करे। तुम्हारी प्रतिमा शक्ति-अनुसार चाँदी से बनाई जाय ।
पूजन की विधि यह है। 'हे गणाधिप ! आपको नमस्कार' यह कह कर 'शिवप्रियाय' इस मन्त्र से वस्त्र, 'लम्बोदाय' इस मन्त्र से गन्ध, 'सिद्धिप्रदाय' इस मन्त्र से पुष्प, 'गजमुखाय' इस मन्त्र से धूप, 'मूषिकवाहनाय' इस मन्त्र से दीप, 'विघ्ननाथाय' इस मन्त्र से नैवेद्य, 'सर्वार्थसिद्धिदाय' इस मन्त्र से फल, 'कामरूपाय' इस मन्त्र से ताम्बूल, 'धनदाय' इस मन्त्र से दक्षिणा और 'शोभाकराय' इस मन्त्र से इक्षुदंड (गन्ने) द्वारा पूजा करे। बड़े समारोह के साथ सर्वसिद्धिप्रद गणेशजी का विसर्जन करे ।
इस प्रकार विघ्नेश्वर की पूजा करके तथा विधिपूर्वक कथा सुनके नीचे लिखे मन्त्र से वह सब सामग्री ब्राह्मण को निवेदन करे -
दानेनानेन देवेश प्रीतो भव गणेश्वर ।
सर्वत्र सर्वदा देव निर्विघ्नं कुरु सर्वदा ।
मानोन्नतिं च राज्यं च पुत्रपौत्रान् प्रदेहि मे ॥
फिर अपनी शक्ति के अनुसार गऊ, अन्न और वस्त्र सब ब्राह्मण को दान करे। तदनन्तर इच्छानुसार भोजन करे। उस दिन नमक और दूध से रहित लड्डू, पूआ और मधुर भोजन करना चाहिए ।
हे चन्द्रमा ! इस प्रकार जो करता है उसको मैं सर्वदा जय, सिद्धि धन-धान्य और खूब सन्तति देता हूँ।
यह कह कर विनायकदेव अन्तर्धान हो गए ।
नारदजी ने कहा- हे कृष्ण ! तुम यह व्रत करो तब तुम्हारी शुद्धि होगी। नारदजी के ऐसा कहने से स्वयं हरि ने व्रत किया। उससे मिथ्या अपवाद की शुद्धि हुई। कृष्ण भगवान् ने गणेशजी से दूसरा यह वरदान माँगा कि स्यमन्तकमणि-सम्बन्धी इस तुम्हारे आख्यान को और सम्पूर्ण चन्द्रमा के चरित्र को जो सुनेंगे उनको चन्द्रदर्शन का दोष न हो ।
अतः यदि भाद्रपद शुक्ठ चतुर्थी के दिन चन्द्रमा का दर्शन हो जाय तो उसके परिहार के लिए यह सम्पूर्ण उपाख्यान सुनना चाहिए। जब-जब मन में कष्ट और सन्देह पैदा हो तब भी इस कष्टनाशक उपाख्यान को सुनना चाहिए ।
इस तरह कहकर कृष्ण द्वारा प्रसन्न किये हुए गणेशदेव चले गये ।
पुरुष अथवा स्त्री किसी कार्य को सिर पर आया देखकर इस व्रत को करे तो उसके मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं, क्योंकि विन्नहर गणेशजी के प्रसन्न होने पर क्या दुर्लभ है।
(नियम से) व्रत करनेवाले को श्रावण कृष्णपक्ष में एक बार भोजन करना चाहिए और चार महीने तक गणेश जी का व्रत करना चाहिये ।
अभ्यास
(१) गणेश चतुर्थी का समय बताइए ।
(२) गणेश चतुर्थी के व्रत की क्या विधि है ?
(३) यह उत्सव भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को क्यों मनाया जाता है ?
(४) मोदक और दुर्वा का विशेष विधान पूजन में क्यों है ? दूर्वा से दस बार पूजन क्यों किया जाता है ?
(५) इस दिन चन्द्रदर्शन क्यों नहीं किया जाता ? किस दिन दर्शन कर लेने से चतुर्थी के चन्द्रदर्शन का अनिष्ट निवृत्त हो जाता है ? यदि चन्द्रदर्शन हो जाय तो कौन मन्त्र बोलना चाहिए ?
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