भारतीय व्रत उत्सव | 25 | शरत्पूर्णिमा
भारतीय व्रत उत्सव | 25 | शरत्पूर्णिमा
शरत्पूर्णिमा
समय
आश्विनशुक्का पूर्णिमा
कालनिर्णय
यह उत्सव रात्रि में किया जाता है अतः जिस दिन पूर्ण चन्द्र हो -अर्थात् संपूर्ण रात्रि में पूर्णिमा हो, वह दिन लेना चाहिए। यदि संपूर्ण पूर्णिमा न मिले तो अधिकांश पूर्णिमा जिस दिन हो वह दिन लेना चाहिए। पूर्णिमा दोनों दिन बराबर हो अथवा पहले दिन कम हो तो दूसरे दिन यह उत्सव करना चाहिए ।
धर्मशास्त्रों में इस दिन 'कोजागर' व्रत भी लिखा है। इसे 'कौमुदी व्रत' भी कहते हैं। जिन्हें यह व्रत करना हो उन्हें अर्धरात्रव्यापिनी पूर्णिमा लेनी चाहिए। दोनों दिन अर्धरात्र में हो अथवा न हो तो पूर्वोक्त प्रकार से दूसरे दिन करनी चाहिए ।
विधि
यह दिवस भगवान् कृष्ण के रासोत्सव का दिन है, अतः विशेषतः कृष्णमन्द्रिों में तथा विष्णुमन्दिरों में और साधारणतया सभी देव-मन्द्रिों में मनाया जाता है। इस दिन विशेष सेवा-पूजा के अतिरिक्त भगवान् के सायंकाल के भोग में खीर अथवा दूध अवश्य रहना चाहिए। पूर्णचन्द्र की चाँदनी में भगवान् को विराजमान करके दर्शन की भी विधि है । अगवान् का श्रृङ्गार भी श्वेत वस्त्रों और मोतियों से किया जाता है।
'कोजागर' व्रत करनेवालों को इस दिन लक्ष्मी तथा इन्द्र की पूजा करनी चाहिए और रात्रि में जागरण करना चाहिए !
कालविज्ञान
'रासोत्सव' का यह दिन वास्तव में भगवान् कृष्ण ने जगत् कें कल्याणार्थ निश्चित किया है। चन्द्रमा की जैसी चाँदनी शरद् ऋतु में आनन्ददायक होती है वैसी अन्य किसी ऋतु में नहीं। कहते हैं, इस दिन चन्द्रमा की किरणों में से अमृत करता है। जिन्होंने इस ऋतु के पूर्ण चन्द्र की चन्द्रिका के आनन्द का अनुभव किया है उनसे तो कुछ कहना नहीं है, पर जिन्होंने अनुभव न किया हो वे अवश्य इस दिन चाँदनी में बैठकर भगवत्प्रसाद के रूप में खीर का सेवन करके उसका आनन्द लें। इससे अधिक शरत्पूर्णिमा के कालविज्ञान के विषय में कुछ कहना व्यर्थ विस्तार है। 'हाथकंगन को आरसी क्या' !
विधि-विज्ञान
शरद् ऋतु में पित्त का प्रकोप होता है। चरकसंहिता में लिखा है-'
वर्षाशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः ।
तप्तानामाचितं पित्तं प्रायः शरदि कुप्यति ॥
(चरक, सूत्रस्थान)
वर्षाऋतु में हमारे अङ्ग वर्षा और शीत के अभ्यस्त हो जाते हैं, वे जब सहसा ही (शरत्काल के. तीव्र) सूर्य की किरणों से संतप्त होते हैं तो संचित पित्त प्रायः शरद् ऋतु में प्रकुपित हो जाता है ।
अतः उसकी शान्ति के लिए चन्द्रमा की चाँदनी का सेवन आवश्यक है, क्योंकि चाँदनी पित्त का निवारण करती है। भावप्रकाश का वचन है कि
ज्योत्स्ना शीता स्मरानन्दप्रदा तृपित्तदाहनुत् ।
(भावप्रकाश)
अर्थात् चाँदनी शीतल होती है, कामानन्द देनेवाली और प्यास, पित्त तथा दाह को निवृत्त करनेवाली है।
सभी चाँदनी में ये गुण हैं, फिर शरद् के पूर्णचन्द्र की चाँदनी का तो कहना ही क्या। अतः ऐसे समय श्वेत वस्त्र और गोदुग्ध तथा गोदुग्ध की खीर का उपयोग होना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त शरद् ऋतु की चर्या में चरकसंहिता कहती है-
शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि च ।
शस्त्काले प्रशस्यन्ते प्रदोषे चेन्दुरश्मयः ॥
(चरक, सूत्रस्थान)
अर्थात् शरद् ऋतु के समय शरद् ऋतु में उत्पन्न होनेवाले पुष्पों की मालाएँ, निर्मल वस्त्र और सायंकाल के समय की चन्द्रकिरणें प्रशस्त हैं।
दूध के गुण¹ भावप्रकाश में ये बताये गये हैं- दूर्घ अच्छा मीठा, चिकना, वातपित्तनाशक, दस्तावर, तत्काल वीर्य उत्पन्न करनेवाला, ठंडा, प्रत्येक प्राणी के अनुकूल, जीवन देनेवाला, शरीर बढ़ानेवाला, बल देने-वाला, बुद्धि देनेवाला, अत्यन्त वाजीकरण, अवस्था को स्थिर रखनेवाला, आयु बढ़नेवाला, टूटे अंग को जोड़नेवाला, रसायन, विरेचन, वसन और बस्ति में सेवन करने योग्य और इन्द्रियों का बल बढ़ानेवाला है। जीर्णज्वर, मानसिक रोग, क्षय, मूर्च्छा, भ्रम, संग्रहणी, पाण्डुरोग, दाह, प्यास, हृदय के रोगों, शूल, उदावर्त्त, गुल्म, बस्तिरोग, गुदाङ्कुर, रक्तपित्त, अतिसार, योनिरोग, थकावट और घबराहट में तथा गर्नपात के समय मुनिवरों ने दूध को निरन्तर हितकारी बताया है।
1. दुग्धं सुमधुरं स्निग्धं वातपित्तहरं सरम् ।
सद्यः शुक्रकरं शीतं सात्म्यं सर्वशरीरिणाम् ॥
जीवनं वृंहणं बल्यं मेध्यं वाजीकरं परम् ।
वयःस्थापनमायुष्यं सन्धिकारि रसायनम् ॥
विरैकवान्तिबस्तीनां सेव्यमोजोषिवर्धनम् ।
जीर्णज्वरे मनोरोगे शोषमूर्च्छाश्रमेषु च ॥
अहंण्यां पाण्डुरोगे च दाहे तृषि हृदामये ।
शूलीदानत्तगुल्मेषु बस्तिरोगे गुदाकुरे ॥
'रक्तपित्तेऽतिसारे च योनिरोगे क्रमे क्रमे ।
गर्भस्रावे च सततं हितं मुनिवरैः स्मृतम् ॥
(भावप्रकाश, दुग्धवर्ग)
यही गुण खीर में भी हैं। इतना ही भेद है कि वह दूध की अपेक्षा भारी होती है। शरऋतु के चन्द्रमा की अमृतमय किरणों से पवित्रित खीर और दूध का सेवन शरद् ऋतु के पित्त का नाश तो करता ही है, और भी कितने गुण करता है सो स्पष्ट ही है। अतः यह पवित्र उत्सव बड़े आनन्द से अवश्य ही मनाना चाहिए।
रासोत्सव
(आजकल रासलीला शब्द भगवान् कृष्ण की प्रत्येक लीला के लिए प्रचलित हो गया है। ब्रज की रासमण्डलियाँ रासलीला के लिए प्रसिद्ध हैं, पर वास्तव में 'रास' शब्द का अर्थ एक प्रकार का नृत्य' है। भगवान् कृष्ण ने इस दिन यह नृत्य किया था इसीलिए यह उत्सव प्रसिद्ध हो गया है।)
श्रीमद्भागवत² के दशम स्कन्ध में इस उत्सव का पाँच अध्यायों में विस्तृत वर्णन है। भगवद्भक्तों के आनन्दार्थ उसका संक्षिप्त सार यहाँ दिया जाता है-
2. 'बहुनर्तकीयुक्तो नृत्यविशेषो रासः' श्रीवल्लभाचार्य (भागवत १०-३०-२ की सुबोधिनी टीका) ।
जिस समय भगवान् कृष्ण ब्रज में निवास करते थे उस समय एक बार शरद् ऋतु आई। पूर्ण चन्द्रमा का उदय देखकर भगवान् ने उस शरद् ऋतु की चाँदनी में क्रीड़ा की इच्छा की। भगवान् ने मधुर वेणुनाद किया। उसे सुनते ही ब्रज की गोपियाँ सुध-बुध भूल गई। वे घर के सब काम-काज छोड़कर वृन्दावन में (जो उस समय वास्तव में वन ही था, आज का नगर नहीं) कृष्ण के समीप आ गई।
भगवान् कृष्ण ने उनका स्वागत करते हुए उनकी प्रणय-परीक्षा के लिए उनसे कहा- आप रात्रि के समय यहाँ क्यों आई हैं ? व्रज को लौट जाइए। आपने पूर्ण चन्द्रमा की किरणों से रञ्जित और यमुनाजी के शीतल वायु से कम्पित तरुपल्लवों से सुशोभित पुष्पित वन देख लिया। आपके बालक और बछड़े पुकार रहे हैं। शीघ्र जाकर बच्चों को पिलाइए और गायों को दुहिए। स्त्रियों का परम धर्म है कि पति की और पति के बन्धुओं की सेवा करे तथा बालकों का पोषण करे। मुझसे आप यदि प्रेम करती हैं तो मुझसे ईश्वर से) प्रेम तो जैसा श्रवण, दर्शन और ध्यान से होता है वैसा समीप आने पर नहीं।
ग़ोपियों को भगवान् के ये वचन सुनकर निषाद हुआ । वे कहने लगीं-प्रभो, आप ऐसा न कहिए। हम सब सांसारिक विषयों को छोड़कर आप के चरण-शरंण में आई हैं। आप हमें न छोड़िए, जैसे कि आदि पुरुष (परब्रह्म) मोक्ष की इच्छावालों का सेवन करते हैं (वही न्याय हमारे साथ होना चाहिए)।
आप ने जो 'पति, संतान और सुहृदों की सेवा स्त्रियों का स्वधर्म' . बताया, यह ठीक है। इसे, हे उपदेशक ! आप अपने पास ही रहने दें। हम तो, यह समझा कर आप के पास आई हैं कि आप, प्राणिमात्र के अत्यन्त प्रिय हैं, बन्धु हैं और (बन्धु ही क्यों) आत्मा हैं।
हे कमलनयन, बड़े-बड़े कुशल पुरुष आप से प्रेम करते हैं, क्योंकि इस संसार में नित्य प्रिय आप ही हैं, पति-पुत्र आदि तो पीड़ा देनेवाले हैं, उनसे क्या फल ? अतः आप कृपा करिए और बहुत समय से जो आशा लगी है उसे काटिए मत ।
घर में लगनेवाला मन और घर के काम में लगनेवाले हाथ आप ने हरण कर लिए। पैर आप के पादमूल से एक पग भी नहीं हटना चाहते । हम व्रज में कैसे जाय और वहाँ जाकर क्या करें।
लक्ष्मी को आनन्द देनेवाले आप के चरणारविन्द का जब से हमने स्पर्श किया है तब से हम अन्य किसी के समक्ष खड़ी होने में असमर्थ हैं।
लक्ष्मी जी ने यद्यपि आप के हृदय में स्थान पाया है तथापि वे भक्तों से सेवित आप की चरणरज की कामना करती हैं। उसी प्रकार हम भी आपकी चरणरज की शरण में आई हैं।
अतः हे पापनाशक, हम घरबार छोड़कर आप की सेवा की आशा से आपके चरणों में प्राप्त हुई हैं। हे पुरुषभूषण, आप हमें अपना दास्य दीजिए ।
अलकावलि से आच्छादित, कुण्डलों से सुशोभित, मन्दहासपूर्वक अवलोकन करते आप के मुख और अभयदान करनेवाले आपके भुजदण्डों तथा लक्ष्मी जी के एकमात्र रमण करने योग्य आपके वक्षःस्थल को देखकर हम आपकी दासियाँ हो रही हैं।
हे आत्तेबन्धु, आप व्रज के भय और पीड़ा के हरण करनेवाले प्रकट हुए हैं अतः हमारे शिर पर अपना करकमल रखिए-हमें शरण में लीजिए ।
इसलिए व्याकुल होकर गोपीजनों ने जब यह पुकार की तो प्रभु ने आत्मा राम होते हुए भी गोपीजनों के साथ गाते हुए वन में भ्रमण किया और यमुना जी के शीतल तट पर विहार किया ।
गोपीजनों ने जब इस प्रकार भगवान् कृष्ण से अपना मनोरथ सिद्ध होते देखा तो अपने आप को स्त्रियों में सबसे अधिक समझने लगीं। जब भगवान् ने देखा कि इनको अपने सौभाग्य का मद और मान हो गया तब (भगवान् तो मद-मान से दूर रहनेवाले हैं) सहसा अन्तर्धान हो गए ।
भगवान् के अन्तर्धान होने पर गोपीजनों को बड़ा संताप हुआ और उन्होंने विरह में मग्न होकर भगवल्लीलाओं का आश्रय लिया तथा उन्मत्त की तरह वृन्दावन के वृक्ष-लताओं से भी भगवान् के विषय में पूछने लगीं।
जब वे लता-तरुओं से पूछती हुई आगे बढ़ीं तो उन्होंने परमात्मा श्रीकृष्ण के पदचिह्न देखे ।
'वे कहने लगीं- स्पष्ट है कि ये महात्मा नन्दकुमार के चरणचिह्न हैं। इनमें ध्वज, कमल, चक्र, अङ्कुश, यव आदि (रेखारूप में) दिखाई दे रहे हैं।
उन चरणचिह्नों को खोजती जब वे आगे पहुँचीं तो उनको एक स्त्री के चरणचिह्न भी उन चरणचिह्नों के साथ-साथ चलते दिखाई दिये। यह देखकर उन्हें दुःख हुआ ।
वे कहने लगीं- नन्दनन्दन के साथ जानेवाली किस स्त्री के ये चरणचिह्न हैं ! प्रतीत होता है- इसने उनके कंबे पर कलाई घर रखी है। अवश्य ही इसने सर्वसमर्थ भगवान् हरि का आराधन किया है, क्योंकि गोविन्द हमको छोड़कर उसे अपने साथ ले गये हैं। सखियो, यह गोविन्द के चरणकमल की रज धन्य है, जिसे ब्रह्माजी, शिवजी और रमादेवी पापों की निवृत्ति के लिए अपने सिर पर धारण करती हैं।
देखिए, यहाँ प्रेमी कृष्ण ने अपनी प्रिया के लिए पेड़ से पुष्प चुने हैं। इसीलिए तो केवल पंजा ही उघड़ा है। अरे ! यहाँ तो निश्चय ही कृष्ण चोष्टी में फूल गुहने के लिए बैठे हैं। इस तरह चरणरज और चरर्णाचह्नों को देखती हुई वे आगे जाकर चेतनारहित हो गईं ।
इधर जो गोपी कृष्ण के साथ गई थी उसे भी अभिमान हुआ। वह समझने लगी कि चाहती हुई अन्य गोपियों को छोड़कर कृष्ण मुझे ही लाए। अतः कृष्ण मुझ पर आसक्त हैं। आगे जाकर वह कहने लगी-मैं चल नहीं सकती । मुझे आप ले चलिए।
कृष्ण ने कहा-अच्छा, आप मेरे कंधे पर चढ़ जाइए। ज्योंहीं वह चढ़ने लगी, कृष्ण अन्तर्धान हो गए। यह देखकर उसे पश्चात्ताप हुआ । वह पुकारने लगी- हाय नाथ, हाय रमण, परमप्रिय, हे महाभुज, आप कहाँ हैं ? मैं आपकी दीन दासी हूँ। मुझे दर्शन दीजिए ।
इसा समय खोजती हुई चेतनारहित वे गोपियाँ उसके समीप पहुँचीं। उन्होंने अपनी सखी को प्रियवियोग के कारण मूच्छित और दुःखित अवस्था में देखा ।
उसने भगवान् से सम्मान पाने और अपनी दुष्टता के कारण अपमानित होने की कथा कही। गोपियाँ (जो उसके ले जाने से कृष्ण को कामी समझने लगी थीं) बड़ी आश्चर्यान्वित हुई।
( इससे यह सार निकलता है कि भगवान् खोजने से नहीं मिलते, और न वे किसी के अधीन होते हैं, वे तो कृपा करके ही प्राप्त होते हैं)।
जहाँ तक चाँदनी थी वहाँ तक गोपियाँ खोजती रहीं। जब उन्होंने देखा कि आगे अँधेरा आ रहा है तब लौट पड़ीं। उस समय गोपियों को दशा यह थी-उनका मन, उनकी बातचीत और उनकी चेष्टाएँ कृष्ण के विषय में थीं, कृष्ण का गुणगान करती हुई उन्हें न देह की सुधि थी, न घर की ।
वे. लौटकर यमुनाजी के पुलिन पर आईं और वहाँ कृष्ण के आगमन की इच्छा करती हुई सामूहिक गान करने लगीं ।
( यह गान गोपीगीत के नाम से प्रसिद्ध है। विस्तार के भय से उसे हम उद्धृत करने में असमर्थ हैं।)
जब गाने और प्रलाप करने पर भी प्रभु प्रकट नहीं हुए तो कृष्ण के दर्शन की इच्छा से वे करुण स्वर में रोने लगीं ।
(विरह की पराकाष्ठा देखकर) भगवान् कृष्ण पीताम्बर और माला 'धारण किए हुए ऐसे सुन्द्र रूप में प्रकट हुए कि कामदेव स्वयम् भी उन पर मोहित हो जाय ।
ज्योंही प्रियतम आते दिखाई दिए कि गोपियाँ इस तरह उठ खड़ी हुई जैसे मुर्दों में प्राण आ गए।
किसी ने अपने हाथों में कृष्ण का करकमल पकड़ लिया, किसी ने उनके कन्धे पर अपनी बाँह रख दी, किसी ने उनका ताम्बूलचर्वण अपने हाथों में लिया, किसी ने चरण-कमल छाती पर रख लिए, कोई कटाक्षों से देखने लगी, कोई टकटकी लगाकर देखने लगी और किसी किसी नै योगियों की तरह उनके स्वरूप को हृदय में धारण करके आँखें मूँद लीं ।
कृष्ण का दर्शन करते ही सभी गोपियाँ आनन्दद्मग्न और विरह के चाप से रहित हो गईं, जैसे कि अत्यन्त दुखी भी मनुष्य सुषुप्ति के समय सब भूल जाता है।
प्रभु कृष्ण ने उन्हें साथ लिया और यमुना के पुलिन पर पहुँचे । उस पवित्र पुलिन पर खिले हुए कुन्दं और मन्दारं की सुगन्धित वायु बह रही थी, भौंरे मँडरा रहे थे, शरद् ऋतु के चन्द्रमा की किरणों से राँत्रि का अन्धकार निवृत्त हो गया था और यमुना ने अपने तरङ्गरूपी हाथों से वहाँ कोमल बालुका बिछा रखी थी ।
मंगवान के दर्शन से गोपियों के हृदय की पीड़ी निवृत्त हो गई। जिस तरह वाणी और मन से परे भगवत्स्वरूप को वेद प्राप्त करते हैं वैसे वे अपने मनोरथों के अन्त को प्राप्त हो गई। उन्होंने अपने दुपट्टे बिछाकर अपने बन्धु कृष्ण के लिए आसन बनाए। योगेश्वरों के हृदय मैं आसन बनानेवाले कृष्ण उन आसनों पर बैठे। उस समय त्रिलोकी की सुन्दरता उनके स्वरूप में समाविष्ट थी। गोपियों की सभा में स्थित वे बहुत सुशोभित हो रहे थे।
गोपियों ने उनसे पूछा- कुछ लोग सेवा करनेवालों की सेवा करते हैं, कुछ लोग सेवा न करनेवालों की सेवा करते हैं और कुछ लोग सेवा करनेवाले और न करनेवाले दोनों की सेवा नहीं करते-इसका रहस्य समझाइए ।
भगवान् ने कहा- हे सखियो, जो सेवा करनेवालों की सेवा करते हैं, वे केवल स्वार्थी हैं, उनमें न सौहार्द है न धर्म। ऐसी सेवा स्वार्थ के लिए है, परोपकार के लिए नहीं।
जो सेवा न करनेवालों की सेवा करते हैं वे दयालु हैं, जैसे माता-पिता । लड़के-लड़की उनकी सेवा करें या न करें, उन्हें तो सेवा करनी ही है। इस सेवा में बदले की भावना न रखनेवाला धर्म और सौहार्द दोनों हैं। (इससे यह सिद्ध है कि जहाँ बदले की भावना न हो वहाँ देना ही धर्म है, बदले की भावना से देना धर्म नहीं है)।
अब उनकी बात सुनिए जो सेवा करनेवाले और न करनेवाले दोनों ही की सेवा नहीं करते। वे चार प्रकार के हैं (जिनमें दो अच्छे हैं, दो बुरे । अच्छों में सबसे पहले हैं) आत्माराम (जिनको देह का अभिमान नहीं, कोई करे या न करे, वे इसका विचार ही नहीं करते, क्योंकि उन्हें देह की ही अपेक्षा नहीं है।), (दूसरे हैं) - आप्तकाम (जिनके सब मनोरथ सिद्ध हैं; जैसे जिसका पेट भरा है उससे कोई 'खास्रो' कहे तब भी अच्छा और 'न खाओ' कहे तब भी अच्छा, क्योंकि उसे खाना तो है नहीं।) (दो बुरों में एक है-) अकृतज्ञ (जो किये हुए उपकार को नहीं मानते, इसके न मानने का कारण अज्ञान है,) (और दूसरा है-) गुरुद्रोही (जो आपत्ति अथवा असमर्थता में अपनी सहायता करे वह यहाँ गुरु अर्थात् पूज्य माना गया है, ऐसे मनुष्य पर यदि आपत्ति आए और उसकी सहायता न करे तो वह गुरुद्रोही है और जो उसका अपकार करे वह तो पक्का गुरुद्रोही है ही)।
(यदि यह प्रश्न मेरे सम्बन्ध में किया गया है तो सुनिए) सखियो, (मैं इन चारों से अलग हूँ, मैं सब प्राणियों का आत्मा हूँ, मेरे अतिरिक्त और कोई है ही नहीं, अतः मुझे आत्माराम नहीं कहा जा सकता; राम अवश्य कहा जा सकता है; मुझे कोई कामना ही नहीं, अतः आप्तकाम भी नहीं कहा जा सकता और जगत् में मेरे लिए दूसरा न होने से न अकृतज्ञ हूँ, न गुरुद्रोही) मैं तो सेवा करनेवालों की भी सेवा नहीं करता, (वह इसलिए नहीं कि मुझे सेवा करनेवालों की परवाह नहीं है, पर) इससे उनकी सेवा चालू रहती है; जैसे किसी निर्धन को घन मिल जाय और वह उसके पास से खो जाय तो यह उसकी चिन्ता से धन में निमग्नचित्त होकर और कुछ नहीं जानता -उसके पीछे उन्मत्त हो जाता है।
प्रियाओ, आप ने मेरे लिए लोक, वेद और स्वात्मा तथा स्वजन सबको छोड़ दिया है। आपकी मेरे विषय में अनुवृत्ति रहे इसीके लिए मैं अन्तर्धान हो गया था, क्योंकि मैं अपने सेवन करनेवालों का सेवन परोक्ष में करता हूँ, इसलिए आप को मेरे गुणों में दोषबुद्धि न करनी चाहिए ।
आप का भजम निर्दोष है। आप लोगों ने जो उपकार किया है उसका प्रत्युपकार में देवताओं की आयु से भी नहीं कर सकता; क्योंकि आप ने बड़ी कठिनता से जीर्ण होनेवाली घरबार की शृङ्खलाओं को तोड़कर मेरा भजन किया है। अब आप की असूया (मैंने जो अच्छा किया उसको भी बुरा समझने की वृत्ति) निवृत्त हो जानी चाहिए।
भगवान् के इन वचनों को सुनकर गोपियों का विरहताप शान्त हो. गया और भगवान् के दर्शन से उनके सब मनोरथ पूर्ण हो गए।
(इस तरह जब उनके लौकिक दुःख-सुख सब परिपूर्ण हो गए तब परमफलरूप रासलीला आरम्भ हुई; क्योंकि जब तक पुण्य का फल सुख और पाप काफल दुःख भोगना रहता है तब तक जीव परमफलरूप भगवल्लीला का अधिकारी नहीं होता)।
प्रसन्न होकर स्त्रीरत्नों (गोपीजनों) ने परस्पर हाथ बाँधे और गोविन्द (भगवान् कृष्ण) ने रासक्रीड़ा आरम्भ की। गोपियों के मण्डल से सुशोभित रासोत्सव चालू हुआ। योगेश्वर श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के मध्य एक-एक प्रविष्ट हो गए थे, जिससे कि सब गोपियाँ उन्हें अपने समीप समझें।
इस लीला को देखने के उत्सुक स्त्रियों सहित देवताओं के सैकड़ों विमान आकाश में मँडरा रहे थे। उसकी ओर से दुन्दुभिनाद और पुष्पवृष्टि होने लगी। अप्सराओं सहित गन्धर्वपति भगवान् के निर्मल यश का गान करने लगे ।
रासमण्डल में भी स्त्रियों की चूड़ियों, पायजेबों और करधनियों का तुमुल शब्द होने लगा। उन सुन्दरियों के बीच भगवान् कृष्ण ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे सुवर्णमणियों में पन्ने जड़े हों।
फिर महारास नृत्य आरम्भ हुआ (जिसका विस्तृत वर्णन श्रीमद्भाग-वत में और उसकी टीकाओं में देखा जा सकता है)।
जब अत्यन्त विहार से गोपियाँ थक गई तब भगवान् कृष्ण ने प्रेम-पूर्वक अपने कल्याणकारी हाथों से उनके मुँह पोंछे। फिर उनके साथ यमुना-जल में प्रवेश करके जलक्रीड़ा की। अनन्तर यमुना के तट के बगीचों में भ्रमण किया।
इस तरह सत्यकाम भगवान् ने सुरत को अपने अन्दर अवरुद्ध करके चन्द्रकिरणों से सुशोभित शरद् की रात्रियों और रसमयी शरद्-ऋतु के काव्यों की कथाओं का सेवन किया ।
इस कथा को सुनकर राजा परीक्षित ने प्रश्न किया कि भगवान् तो जगत् के स्वामी हैं। वे धर्म-स्थापन करने और अधर्म शान्त करने के लिए अवतीर्ण हुए थे। घर्म-मर्यादाओं के बनानेवाले, उपदेश करने वाले और रक्षा करनेवाले उन्होंने परस्त्रियों का स्पर्शरूपी प्रतिकूल कार्य क्यों किया ? भगवान् आप्तकाम हैं- साधारण जन की तरह उनकी कामनाएँ दूसरों से पूरी नहीं की जातीं, फिर उन्होंने यह लोकनिन्दित कार्य किस अभिप्राय से किया ? कृपया यह मेरा संदेह निवृत्त करिए ।
शुकदेवजी ने इस शङ्का का यह उत्तर दिया कि - ईश्वरों (समर्थों) में धर्म का उल्लङ्घन और साहस देखा गया है। (वे जिस काम के लिए आए हैं वही करें तो उनकी शक्ति का पता ही कैसे लगे; दीपक प्रकाश के लिए जलाया जाता है और प्रकाश करता भी है, पर स्पर्श करने पर जला भी देता है, प्रकाश करने के समय अपने स्वाभाविक सामर्थ्य को खो थोड़े ही देता हैं) (यदि कहा जाय कि उन्हें ऐसे कर्मों का फल तो मिलेगा ही। सो भी नहीं, क्योंकि) तेजस्वियों को दोष नहीं लगता, जैसे सब कुछ खा जानेवाली आग को। किन्तु असमर्थ को यह काम ( परस्त्रीस्पर्श) कभी मन से भी नहीं करना चाहिए, और यदि मूर्खता, वश ऐसा कर बैठता है तो नष्ट हो जाता है जैसे ? (शिवजी को विष 'पान करते हुए सुनकर ) जो शिव नहीं है वह भी विष पान करे ।
समर्थों के वचन सत्य हैं (उनका पालन करना चाहिए) और
पं श्रीवल्लभाचार्य की टीका सुबोधिनी का सारांश ।
कभी उनका आचरण भी सत्य है (सारांश' यह कि इश्वरों में ईश्वरत्व के अतिरिक्त धर्मात्मता, दया इत्यादि धर्म भी रहते हैं, वे करने योग्य हैं, पर ईश्वरत्व नहीं) इसलिए बुद्धिमान को चाहिये कि जो उनके उचित वचन हैं उनका आचरण करे (न कि उनकी नकल)।
(यदि कहा जाय कि समर्थ लोग जो दूसरों से नहीं कहते उसे स्वयं क्यों करते हैं? तो कहते हैं कि समर्थों को अच्छे आचरण से कोई प्रयो जन नहीं है और बुरे आचरण से कोई अनर्थ नहीं है, जब अहंकार-रहितों (ज्ञान-वैराग्यवानों) को भी अच्छा-बुरा फल नहीं होता तब फिर जो पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि सब प्राणियों के स्वामी हैं उनके अपने अधीन जीवों के साथ सम्बन्ध में अच्छे-बुरे फल का सम्बन्ध ही कैसे हो सकता है) (कहने का अभिप्राय यह है कि गोपीजन भगवान् की अन्तरङ्ग शक्तियाँ हैं, अतः उनके साथ की गई इस सरस लीला में पुण्य पाप का प्रश्न ही व्यर्थ है)।
जिनके चरणकमलों की रज की सेवा से तृप्त मुनिजन भी योग के प्रभाव से सम्पूर्ण कर्मबंधनों को निवृत्त करके बन्धनरहित होकर 'स्वच्छन्द विहार करते हैं उन स्वेच्छा से शरीर ग्रहण करनेवाले प्रभु को बंधन कहाँ से हो सकता है ?
(स्मरण रखना चाहिए कि जो भगवान् गोपियों को उनके पतियों के और सभी प्राणियों के अन्तर्यामी होकर रते नए (जो सबके आत्मा हैं, जिनके लिए पराया कोई है ही नहीं) वही प्रत्यक्ष होकर यहाँ लीलार्थ देह धारण किये हुए हैं (अतः परस्त्री का प्रश्न ही यहाँ नहीं उठता)।
भगवान् भक्तों के अनुग्रहार्थ मनुष्यदेह धारण करके वे लीलाएँ 'करते हैं जिनको सुनकर मनुष्य तत्पर हो जाय (अभिप्राय यह कि
१-२ श्रीवल्लभाचार्य की टीका सुबोधिनी का सारांश ।
भगवान् की सब लीलाएँ भक्तों के अनुग्रहार्थ हैं। उन्हें सुनकर भगवान् में तत्पर होना चाहिए। वे अपने लिए कुछ करते ही नहीं, अतः ऐसे प्रश्न व्यर्थ हैं)। :
(इस लीला के समय) भगवान् की माया से मोहित ब्रजवासियों को अपनी स्त्रियाँ अपने बगल में ही प्रतीत हुई, अतः उन्होंने कभी कृष्ण से असूया नहीं की ।
अरुणोदय होने पर भगवान् की अनुमति से भगवत्प्रिय गोपियाँ घर की इच्छा न रखते हुए (अर्थात् अब उन्हें लौकिक कामनाएँ न. रह गई थीं) अपने-अपने घर चली गई।
भगवान् विष्णु की ब्रजवनिताओं के साथ इस लीला को जो श्रद्धायुक्त होकर सुनता अथवा वर्णन करता है उसे भगवान् में पराभक्ति (प्रेमलक्षणा) प्राप्त होती है और उसके हृदय के रोगरूप काम की शीघ्र ही निवृत्ति हो जाती है। (सारांश यह कि इस लीला को आलोचना-त्मक दृष्टि से नहीं, किन्तु श्रद्धापूर्वक सुनने अथवा वर्णन करने से हृदय में यह बात उत्पन्न होती है कि प्रेम तो भगवान् से करना चाहिए, नश्वर प्राणियों से नहीं, प्राणियों से किया जानेवाला प्रेम कामरूप है, जो कि हृदय का एक रोग है)।
अभ्यास
(१) शरत्पूर्णिमा किस दिन होती है ?
(२) शरत्पूर्णिमा की विशेष विधि क्या है ?
(३) शरद् ऋतु में किन वस्तुओं का सेवन करना चाहिए? दूध तथा खीर के गुणधर्म बताइए ।
(४) रास्रोत्सव की कथा कहिए ।
(५) ईश्वर के लिए परस्त्रियों के साथ क्रीडा करने के व्यवहार का औचित्यः सिद्ध करिए ।
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