चार ग्रहण घटित होंगे। संवत् 2082 वि. में भूमण्डल पर

 विवरण 2082 वि.

संवत् 2082 वि. में भूमण्डल पर चार ग्रहण घटित होंगे। इनमें से दो चन्द्रग्रहण और दो सूर्यग्रहण है। दोनो सूर्यग्रहण भारत में दृष्य नहीं है। और दोनो चन्द्रग्रहण भारत में दृष्य होंगे।

खग्रास चन्द्रग्रहण- 07 सितम्बर 2025 ई. भाद्रपद पूर्णिमा, रविवार, दिनांक 07 सितम्बर 2025ई. को खग्रास चन्द्रग्रहण घटित होगा। यह ग्रहण सम्पूर्ण भारत में खग्रास रूप में दृष्य होगा। यह ग्रहण एशिया, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, मध्य पूर्व रूस, यूरोप और अफ्रीका में भी दृष्टिगोचर होगा।

ग्रहण का सूतक- ग्रहण का सूतक दिनांक 07 सितम्बर 2025 ई. को 12 घ. 57 मिनट दिन में ही आरंभ हो जाएगा।

ग्रहण आरंभ - 21 घ. 57 मि.
सम्मीलन (खग्रास आरंभ) - 23 घ. 00 मि.
ग्रहण मध्य - 23 घ. 41 मि.
उन्मीलन (खग्रास समाप्त) - 24 घ. 23 मि.
ग्रहण समाप्त - 25 घ. 26 मि.
पर्वकाल - 3 घ. 29 मि., परमग्रास मान - 1.36

पाठक ध्यान दें कि ग्रहण स्पर्श रात्रि 09 बजकर 57 मिनट पर हो रहा है। ग्रहण स्पर्श के समय तक सम्पूर्ण भारत में चन्द्रोदय हो गया होगा। अतः ग्रहण स्पर्श के सुदूर खगोलिय दृष्य को सम्पूर्ण भारत से देखा जा सकेगा। ग्रहण के खग्रास रूप जिसमें चन्द्रबिम्ब पूर्णतः सूर्य से छुप जाता है, रात्रि 11 बजकर 41 मिनट पर होगा। यह अदभुत दृष्य भी भारत में दृष्य होगा। यह ग्रहण पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र में घटित हो रहा है। पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र और कुंभराशि के लिए यह ग्रहण अशुभ है।

ग्रहण का राशिफल- कुंभ राशि में घटित होने के कारण यह ग्रहण पर्वतीय क्षेत्रों के लिए -अशुभ है। भूकंप आदि प्राकृतिक प्रकोप से जनता को पीड़ा अनुभवा हो सकती है। श्रमिक वर्ग भी पीड़ा अनुभव करें।

नक्षत्रफल- पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र के ग्रहण होने के कारण दुष्ट एवं असमाजिक तत्वों कोराजा द्वारा दण्ड मिलता है।

वारफल- रविवार को घटित इस चन्द्र ग्रहण के कारण खड़ी फसलों को नुकसान एवं युद्धभय के कारण जनता को पीड़ा अनुभव हो।

मासफल- भाद्रपद मास में घटित चन्द्रग्रहण के कारण महाराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा आदि प्रान्तों में जनता को पीड़ा अनुभव होती है।

अयनफल- दक्षिणायन में घटित हो रहे ग्रहण को व्यापारी वर्ग के लिए अशुभ और मंदीकारक माना गया है।

द्वादश राशियों पर ग्रहण का फल

खण्डग्रास सूर्यग्रहण – आश्विन अमावस्या, रविवार, 21 सितम्बर 2025 ई. को खण्डग्रास सूर्यग्रहण घटित होगा। यह ग्रहण भारत में कहीं भी दृष्य 5 नहीं है। अन्टार्कर्टिका महासागर, अटलान्टिक महासागर, सुदूर दक्षिणी आस्ट्रेलिया, न न्यूजीलैण्ड आदि में यह ग्रहण खण्डग्रास होगा। ग्रहण स्पर्श रात्रि 23 घ. 00 मि. पर : होगा। इस समय भारत में रात्रिकाल होने के कारण यह ग्रहण दृष्य नहीं है। अतः भारत में वं इसका धार्मिक महात्म्य तथा सूतक आदि नहीं होंगे।

कंकण सूर्यग्रहण – 17 फरवरी 2026ई. फाल्गुन अमावस्या, मंगलवार, 17 फरवरी 2026ई. को कंकण सूर्यग्रहण घटित होगा। यह ग्रहण अन्टार्कर्टिका, अन्धमहासागर, पड़े और अग्निकाण्ड, हिंसक गतिविधियों के कारण जनता को पीड़ा अनुभव हो।

अयनफल- उत्तरायन में घटित हो रहे ग्रहण के कारण ग्रीष्म ऋतु में काटी जाने वाली फसलों में हानि के योग उत्पन्न होते है।

द्वादश राशियों पर ग्रहण का फल
ग्रहण विवेचन

'सूर्य चन्द्र' ग्रहण और राहु क्या वस्तु है? इससे हमारा क्या सम्बन्ध है? ग्रहण में दान जपादि का विशेष महात्म्य और भोजनादि निषेध क्यो है? कुरूक्षेत्र में सूर्यग्रहण का विशेष महत्व क्यों माना गया?

आकाशीय चमत्कारों में सूर्य-चन्द्रग्रहण का सर्वाधिक महत्व है। इस चमत्कार को देखने के लिए सभी लोग विशेष रूप से उत्सुक रहते है। यूरोप अमेरिका आदि के कई लोग खगोल विद्वान तो प्रतिवर्ष जहां-जहां खग्रास व कंकण-सूर्यग्रहण होता है वहां उसी प्रदेश या महासागर में बडे-बडे दूरवीक्षण यन्त्र एवं वेधोपयोगी अन्यानय यन्त्र समग्री लेकर पहुचते और अन्वेषण के लिए ग्रहण का अध्ययन करते है।

धर्म मंत्र एवं ज्योतिष शास्त्र में भी ग्रहण काल की अनेक विशेषताए लिखी गई है।

जब प्राचीन पाश्चातय लोग ग्रहण को भगवान् का प्रकोप मानकर भय से घबरा जाते थे, उस समय भारतीय लोग ईश्वरीय संकेत से ग्रहण को महाशुभ पर्वकाल मान कर जप-तप आदि अनुष्ठानो का आयोजन करते थे।

अब हम श्री विश्वविजय पंचाग के विज्ञ पाठकों को सूर्य चन्द्र ग्रहण के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात्वय महत्वपूर्ण बाते बतलाएगे-

सूर्य- हमारे इस सौर जगत में सबसे प्रधान पिण्ड सूर्य है। इसी सूर्य द्वारा पृथ्वी, चन्द्र एवं अन्य ग्रहो उपग्रहों जो स्वयं प्रकाशमान नहीं है, प्रकाश और उक्ष्णता मिलती है सूर्य सिद्धात में लिखा है-
तेजसां गोलक सूर्यो ग्रहक्षण्यिम्बुगोलकाः। 
प्रभावन्तो हि दृश्यन्ते सूर्यरश्मि प्रदीपिताः ।।

सूर्य ही से सम्पूर्ण सृष्टि के अखिल व्यापार निष्पन्न होते है हमारा इस से घनिष्ट सम्बन्ध है। सूर्य प्रचंड ऊर्जा का एक जाज्ज्वल्यमान् महान् गोल है। सूर्य का आयतन भी इतना बडा है कि सब के सब ग्रहो उपग्रहों को एकत्रित करने से जो पिण्ड बनाया जाए तो सूर्य उससे भी कई सौ गुणा अधिक बडा होगा। अर्वाचीन ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को स्थिर माना है परन्तु हमें यह समझना है सूर्य की स्थिरता वास्तविक स्थिरता नहीं है, किन्तु आपेक्षिक है। हमारे सौर जगत् के अन्र्तगत जो ग्रह उपग्रह है उनकी उपेक्षा तो सूर्य अचल है किन्तु अन्यान्य सौर समुदाय की अपेक्षा- जो हमको नक्षत्रो में दिखते है, सूर्य अचल नहीं है। इसी सर्वव्यावी अनवच्छिन्न नियम के वंशीभूत हमारे सूर्यदेव अपने परिवार व ग्रह माला का अपने साथ लिए हुए अतीव सूक्ष्म गति से किसी अन्य महासूर्य (आकाश गंगा का केन्द्र) की परिक्रमा कर रहें है। यह महासूर्य भी किसी अन्य अति महासूर्य की परिक्रमा करते है। यह एक सूर्य अपने से बडे महासूर्य (आकाश गंगा एवं आकाशगंगाओं के समूह)।

Galaxies, cluster of galaxies, super galactic clusters) की परिक्रमा का चक्र निरन्तर चलता है। उसका आयतन एवं तेज और उसकी अन्नंत शक्ति का पता लगाना और इस चक्र को पूर्णत समझना मनुष्य के सामर्थ से पूर्णत बाहर है। मानव बुद्धि उसके महत्व के आगे पराजित हो जाती है। आचार्य केतकर ने ज्योर्तिगणित में ठीक लिखा है:-

क्वानन्तकोट्‌यो ग्रहमालिकानां 
क्वचैकमालागणितं मदीयम्।
दृष्ट्वा तथा तुष्यतु विश्वनाथः

सूर्यग्रहण

चन्द्रगहण तो जब चन्द्रमा भूछाया में प्रवेश करता है तब लगता है। उस समय भूपृष्ठके किसी भी स्थान से निरीक्षण किया जाये तो स्पर्शमोक्षादि काल अथवा ग्रासमान में भेद दिखाई नहीं देता, किन्तु सूर्यग्रहण में यह बात नहीं है। सूर्यको जो ग्रहण लगता है उसमें भूछाया कारण नहीं है। सूर्य स्वयं प्रकाशमान पिण्ड है, वह छाया व अन्धकार में छिप नहीं सकता। 

अमावस्या को जब सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी तीनों एक सूत्र में होते है, (चन्द्रमा पृथ्वी और पृथ्वी और सूर्य के बीच में होता है) उस बिम्ब घटना पलट के सदृश्य सूर्य की किरणों का अवरोध करता है, जिसमें भूपृष्ठ पर चन्द्रमा की छाया पडता है। भूपृष्ठ के जितने भाग पर यह छाया पड़ती है, उसमें जो स्थान आ जाते है वही से सूर्यग्रहण दिखाई देता है, और जो स्थान उस छाया से बाहर रह जाते है वहां से ग्रहण दिखाई नहीं देता। सूर्यसिद्धान्त में लिखा है:-

समय चन्द्रमा का अपारदर्शक और निस्तेज बिम्ब घटना पलट के सदृश्य सूर्य की किरणों का अवरोध करता है, जिसमें भूपृष्ठ पर चन्द्रमा की छाया पडता है। भूपृष्ठ के जितने भाग पर यह छाया पड़ती है उसमें जो स्थान आ जाते है वही से सूर्यग्रहण दिखाई देता है और जो स्थान उस छाया से बाहर रह जाते है वहां से ग्रहण दिखाई नहीं देता। सूर्यसिद्धान्त में लिखा है:-

छादको भास्करस्येन्दुरघास्थो घनवभ्दवेत् 
भूच्छाया प्राड् मुखश्चन्द्रो विशत्यस्य भवेदसौ ।।

अर्थात् सूर्यमण्डल के नीचे भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा बादल की भांति सूर्य बिम्बको आच्छादित करता है, जिससे सूर्यग्रहण दिखाई देता है। और पश्चिम से पूर्व को गमन करता हुआ चन्द्रमा भूछाया में प्रवेश करता है जिससे चन्द्रग्रहण दिखाई देता है।

सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य ने भी लिखा :-

पश्चाभ्दागाज्जलदवदधः संस्थितोभ्येत्य चन्द्रो-भानोंर्विम्ब स्फुरदसितया छायादयत्यात्ममूर्त्या ।।

क्रांन्तिवृत्त और चन्द्रकक्षावृत्त की भिन्न-भिन्न परिस्थिति के अनुसार चन्द्र और सूर्य बिम्बों मे भी कुछ न्यूनाधिक्यता होती रहती है। नीच स्थान से बिम्ब बड़ा दिखता है और उच्च स्थान से छोटा अतएव चन्द्र-सूर्यग्रहण की उपयुक्त मर्यादा में ही कुछ अन्तर होता रहता है। युति काल में यदि चन्द्र चन्द्रशत, चन्द्र और सूर्य के बिम्ब मानैक्यखण्ड से न्यून हो किन्तु मानान्तर खण्ड से अधिक हो तो उस समय सूर्य का खण्डग्रास ग्रहण होता है। यदि यदि चन्द्रबिम्ब सूर्यबिम्ब के बारबर अथवा उससे कुछ अधिक हो और चन्द्रशर मानान्तरखण्ड के बराबर वा उससे कुछ न्यून हो तो उस युतिकाल में सूर्य का पूर्णग्रास (खग्रास) ग्रहण होता है। चन्द्रबिम्ब की त्रिज्या का महत्तम मान 1006 विकला है। इनका अन्तर 60 विकला सिद्ध हुआ अतएव सूर्य ग्रहण के पूर्णग्रास (खग्रास) की परमावधि दशपल सिद्ध होती है। युतिकाल में सूर्यबिम्ब से जब चन्द्रबिम्ब छोटा हो और चन्द्रदशरका मान मानान्तर खण्ड के बराबर या कुछ न्यून हो तो उस समय चन्द्रबिम्ब सूर्यबिम्ब को पूर्णतः आच्छादित नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में सूर्यबिम्ब का प्रकाशमान कुछ अंश कृष्णावर्ण वाले चन्द्रबिम्ब के चारो ओर (वृत्ताकार रूप में) दिखाई देता है। इस अकाशीय अवस्था को सूर्य का कंकण ग्रहण कहते है। यह स्थिति 15 पल से अधिक रह नहीं रह सकती। ऐसा कंकण सूर्यग्रहण विक्रम संवत् 2076 को 26 दिसम्बर भारत में दृश्य होगा।

के चारो ओर (वृत्ताकार रूप में) दिखाई देता है। इस अकाशीय अवस्था को सूर्य का कंकण ग्रहण कहते है। यह स्थिति 15 पल से अधिक रह नहीं रह सकती। ऐसा कंकण सूर्यग्रहण विक्रम संवत् 2076 को 26 दिसम्बर भारत में दृश्य होगा।

सूर्य - चन्द्रमा के ग्रहण काल में धर्म सम्मत् आचरण

ग्रहण स्पर्शकाल स्नांन मध्ये होमः श्राद्धं च मुच्यमाने दानं मुक्र्ते स्नानमिति क्रमः।

ग्रहण स्पर्श के समय स्नान, मध्य में हवन, यज्ञादि और इष्ट देव पूजन, मोक्ष के समय में श्राद्ध और दान और मृक्त होने पर स्नान करें यह क्रम है।

न सूतकादिदोषोऽत्र दानहोम जपादिषु। 
ग्रस्ते स्नायादुदक्याऽपि तीर्थायुद्धवारिणा।

(सेवा सूर्योदय) ग्रहणकाल में दान, जप, होम आदि धार्मिक कृत्यों में सूतक का दोष व्याप्त नहीं होता है। ऋतुमती स्त्री भी ग्रहण काल में तीर्थ स्थान से लाए गए जल से स्नान करें। यदि तीर्थ स्थान का जल उपलब्ध न हो तो किसी पात्र में जल भरकर उसमें तीर्थों का आवाहन् करने के उपरान्त, शिर, बाल, तथा समस्त देह को प्रक्षालित करते हुए स्नान करे किन्तु स्नानोपरान्त बालों को निचोड़े नहीं।

अत्र श्राद्ध माह ऋष्यश्रृण्ड- चन्द्र सूर्यग्रहे यस्तु श्राद्ध विविवदाचरेत्। तैनैव सकला पृथ्वी दत्ता विप्रस्य वै करे।।

- ऋष्यश्रृण्ड ऋषि का कथन है कि जो मनुष्य चन्द्र-सूर्य ग्रहण में श्राद्ध को करता है, उसने ब्राह्मणों को मानो सम्पूर्ण भूमि दाने में दे दी है।

विष्णुः- राहुदर्शनदत्तं हि श्राद्धचन्द्रतारकम्। 
ईद चामात्रेन हेम्ना वा कार्य, नत्वनेन।

विष्णु का वचन है कि ग्रहण मे दिया हुआ दान व श्राद्ध तब तक स्वर्ग में रहता है जब तक - सूर्य, चन्द्र और तारे रहेंगे। यह बिना पकाये अन्न या सवर्ण से करे। पकाये हुए अन्न से नहीं करें।

आपद्यनग्नौ तीर्थे च चन्द्रसूर्यग्रहे तथा। 
आमश्राद्ध प्रकुर्वीत हेमश्राद्ध मथापिवा । 
इति शतातपोक्तेरिति हेमादिमाधवादयः ।

शतातप का कथन है:- आपत्तिकाल में अग्नि के अभाव में तीर्थ एवं चन्द्र-सूर्य के ग्रहण के समय आमात्र (बिना पकाये अन्न) से या सुवर्ण से श्राद्ध करे। यह हेमाद्रि तथा माधवादि का मत है।

सूतके मृतके भुङ्क्ते गृहीते शशिभास्करे। 
छायायां हस्तिनश्रेव न भूयः पुरूषो भवेत।।

सूतक में, मरण में, सूर्य-चन्द्र ग्रहण तथा गजच्छाया में जो भोजन करता है वह फिर पुरूष नहीं होता है।

सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहु दर्शने। 
सचैलं तु भवेत्स्नांन शृतमंत्र विवर्जयेत। (हारीत स्मृति)

जननाशौच, मरणाशौच के समय तथा सूर्य-चन्द्र ग्रहण के काल में एवं गजच्छाया की वेला में जो भोजन करता है वह दुबारा पुरूष योनि को प्राप्त नहीं कर सकता। ग्रहण मोक्ष के समय सचैल (वस्त्रों सहित) स्नान करे।

चतुर्वर्गचिन्तामणौ - छेहा न पत्र तृणदारूपुष्प कार्य न केशाम्बर पीडनं च। दन्ता न शोध्याः परूष न वाच्य भोज्यं च वज्ये मदनो न सेव्यः। वाह्वां न वाजिद्विरदादि किंचिदोह्यो न गोजामहिषीसमृहः यात्रां न कुर्याच्छयनं च तद्वद्महे निशाभर्तुरहर्पतेश्र।। 

चन्द्रमां एवं सूर्य के ग्रहण काल में वस्त्र न फाडे, (अर्थात् कैची का प्रयोग न करे) तिनके, घास, लकड़ी व फूलों को भी न तोड़े। बालों व कपडों को न निचोडे, दातुन आदि न करे, कठोर शब्द न कहे, भोजन न करे, स्त्री प्रसंग न करे, घोडा, हाथी आदि की सवारी न करे, गाय, भैस, बकरी आदि का दोहन न करे तथा यात्रा व शयन न करे।

कुरूक्षेत्र सूर्यग्रहण का विशेष महात्म्य

जयसिहंकल्पपद्रम, पुरूषार्थचिन्तामणि, निर्णयसिन्धु आदि के धर्मशास्त्र निबन्धग्रन्थों अनुसार पंजाब के तीथों में सन्निहित सरस्वती और कुरूक्षेत्र में स्नान का विशेष महात्म्य है। सन्निहित थानेसर (कुरूक्षेत्र) के पास एक सर है। 

वामनपुराण अध्याय 83 के 35,36 वे श्लोकका यह भावार्थ है कि जो कि कुरूक्षेत्रका सन्निहित सर ठीक उसी स्थान पर है जहां भगवान ने पहले ब्रह्माण्ड के अण्ड से सूर्यको उत्पन्न किया था। 

नारदपुराण उत्तरखण्ड अध्याय 68 के 13 वें श्लोक में लिखा है कि ब्रह्याने सन्निहित सर बनाकर सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से वहां तपस्या की। सृष्टि की रक्षा की कामना से विष्णु ने वहां तप किया और उसी पवित्र सरोवर में महादेव जी स्नान कर स्थाण नाम से प्रसिद्ध हुए। इन प्रमाणों से मानवसृष्टि और सूर्य की उत्पत्ति का सन्निहित सर से सम्बन्ध बतलाया गया है।

'सरस्वती' थानेसर के पास बहनेवाली एक महानदी का नाम है। ऋग्वेद 8|3|6, यजु. 34 | 11 में इसके महात्म्यका वर्णन है। ऋग्वेद 7|9|5|2 के अनुसार यह समुद्र तक जाती थी। परन्तु शतपब्राह्मण 1|3|3|1 से ज्ञात होता है कि ब्राह्यण काल में हिमालय में होने वाले एक आग्नेय उपद्रव से सूखकर अन्तः लिला हो गई। 

'आर्यों का मूलस्थान' नामक पुस्तक में श्रीयुत पावगी ने वेदमंत्रों, पश्चिमीय विद्वानों की दी हुई युक्तियों और विज्ञान द्वारा बडी योग्यता से सिद्ध किया है कि कुरूक्षेत्र में वहनेवाली सरस्वती नदी के तट पर ही पहले-पहल मनुष्य की उत्पत्ति हुई, इस सम्बन्ध से कुरूक्षेत्र संसार भर के लोगो की आदि मातृभूमि होने से न केवल भारतवासी हिन्दुओं की ही अपितु मनुष्य मात्र के लिए श्रद्धा पूर्वक यात्रा का स्थान है।

'कुरूक्षेत्र' यह एक अतिप्राचीन सरोवर है। ऋग्वेद 9|11|3|1 मंत्र में 'शर्यण्वति' यह एक पद आया है और ऋग्वेद के संख्यान ब्राह्मण में लिखा हैं कि 'शार्यण्ववत्' यह कुरूक्षेत्र का तालाब है। श्रीयुत वसुका अनुमान है कि ऋग्वेद का 'शर्यवत्' ही थानेसर के पास का कुरूक्षेत्र नाम का सरोवर है। 

वामनपुराण 4|1|3 के अनुसार इसी सरोवर पर कुरूने - तपस्या करके विष्णु भगवान् से यह वर प्राप्त किया था कि 'मैंने जहां तक भूमि जोति है, वह - सारा प्रान्त पुण्यक्षेत्र बन जाये।' भगवान् उसका तप और साहस देख कर यह बात मान गए।

यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण 14|1|1|2 के अनुसार यह वही पवित्र भूमि है जहां देवताओं ने भी यज्ञ किये थे और सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मण 25|13|3 में तो इसे प्रजापति की वेदी भी लिखा है।

सूर्य के साथ सन्निहित, सरस्वती और कुरूक्षेत्र का विशेष वैज्ञानिक सम्बन्ध है।, अतः ग्रहण के समय वहां जाने वालों की सूर्यरूप आत्मा एवं चन्द्ररूप मन पर उसे देश तथा काल का कोई विशेष प्रभाव पड़ता है। इसीलिए हमारे अतीन्द्रिय ज्ञानी त्रिकालदर्शी महर्षियों ने सूर्यग्रहण में कुरूक्षेत्र स्नान का विशेष महात्म्य बतलाया है। श्रीमभ्दागवत से ज्ञात होता है कि एक बार सूर्यग्रहण के पर्व पर भगवान् श्रीकृष्ण जी भी द्वारिका से अपने साथियों के साथ कुरूक्षेत्र में सूर्यग्रहण स्नान के महत्व का प्रस्ताव यदुवंशियों की सभा में यों किया-

बड़ो पर्व रवि-गहन, कहा कहौं तासु बढ़ाई। 
चलौ सवै कुरूक्षेत्र, तहां मिलि न्हैये जाई।।

चिरविरहिनी जगज्जननी श्री राधाका अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र से प्रथम बार कुरूक्षेत्र में ही पुनर्मिलन हुआ था। वे अपनी प्रियसखी ललिता से निम्न हृदयोद्गार प्रकट करती है-

प्रियः सोऽयं कृष्णः सहचरि। कुरूक्षेत्र मिलित स्तथाहं सा राधा तदिदमुभयोः संगमसुखम्। तथाप्यन्तः खेलन्मधुर-मुरली-पंचमजुषे मनो मे कालिन्दी पुलिन विपनाय स्पृहयति ।।

उक्तः सभी प्रमाणों से कुरूक्षेत्र में सूर्यग्रहण स्नानका वैज्ञानिक महत्व भलीभांति सिद्ध हो रहा है।

ग्रहण से हमारा क्या सम्बन्ध है?

अब यह बात तो पाश्चात्य विज्ञान से भी सिद्ध हो चुकी है कि इस सौर जगत् में जितने ग्रह, उपग्रह, तारे आदि है उनका परस्पर आकर्षण विकर्षण का सम्बन्ध है। वे सब एक दूसरे से कुछ लेते देते रहते है। पृथ्वी में जितनी वस्तुएं हैं वे सब चन्द्रज्योति प्रधान एवं सूर्यज्योति प्रधान है। 

जिनमें चन्द्रगज्योति की प्रधानता है वे सब वृक्ष, वनस्पति, लता, औषधि, पशु, पक्षी, मनुष्य, स्त्री जाति के है और जिनमें सूर्यज्योतिकी प्रधानता है, वे सब पुरूष जाति के होते है। इन सब के साथ सूर्य और चन्द्रमा का सम्बन्ध है। मन चन्द्रमा और बुद्धि सूर्य है। श्रृतिने भी इसका समर्थन किया है-'चन्द्रमा मनसो जात' तथा 'घियो योनः प्रचोदयात्' इसलिये सूर्य और चन्द्रमा से कोई विकार हो अथवा उनके द्वारा होने वाले आकर्षण विकर्षण में यदि कोई व्यवधान पड़ जाए तो भूमण्डल में समग्र पदार्थों और प्रणियों पर उसका प्रभाव पड़ना स्वभाविक ही है। 

इसी कारण अन्य पूर्णिमा अमावस्या की अपेक्षा यह (ग्रहण की पूर्णिमा अमावस्या) बहुत अनिष्ट हुआ करती है। सूर्यग्रहण में बुद्धि और सूर्य के बीच में व्यवधान आ जाने के कारण चन्द्रग्रहण मे चन्द्रमा और मन के बीच में सम्बन्ध विच्छेद हो जाने के कारण मन एवं बुद्धि विक्षिप्त हो उठते है। उस समय यदि उन्हें किसी विशेष शक्तिका आश्रय न मिले तो वे बहुत से प्रमाद के कर्म कर सकते है। उन्हें भगवन्नाम की, मंत्र की शक्ति का आश्रय देकर अनेको प्रकार के उत्पात करने से बचा लिया जाता है। तीर्थ सेवन और स्नान से पवित्रताका भाव जागृत रक्खा जाता है। दान से संकीर्णता का भाव न आने देकर उदारता बनायी रखी जा सकती है। और जप ध्यान से प्रेम भाव का अनुभव किया जाना है। 

उस समय के जप ध्यान दानादि से भयानक प्रवृत्ति स्वयं ही निवृत्त हो जाती है। इसी कारण ग्रहण में जप ध्यान आदि का विशेष महात्म्य लिखा है। पाठकों ने देखा होगा कि प्रत्येक पूर्णमासी को समुद्र में बहुत बाढ़ आती है। जिसे ज्वार कहते हैं इन्हीं तिथियों में रोग बढ़ जाते है। इत्यादि कई विचित्र बाते हुआ करती है। इस विवेचन से पाठकगण भलीभांति समझ गए होगे कि आकाशीय ग्रहों तथा ग्रहणों के साथ मनुष्य जीवन का कितना घनिष्ट सम्बन्ध है।

ग्रहण और ग्रहण के वेध में भोजनादि करना निषेध क्यों है?

ग्रहण के समय मन और बुद्धि कुछ चंचल रहते है, क्योंकि उन्हें शक्ति देने वाले चन्द्रमा और सूर्य उस समय ठीक-ठीक पूरी शक्ति नहीं देते। मन की अस्तव्यस्त अवस्था में अथवा विषम अवस्था में पाचनशक्ति ठीक-ठीक काम नहीं करती। साथ ही खानपान के जितने पदार्थ है उस सब पदार्थों पर भी ग्रहण का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। समस्त पदार्थों में दो प्रकार की शक्तियां रहती है- एक सूर्य की ओर दूसरी चन्द्रमा की ओर किसी में एकाकी प्रधानता अधिक होती है, तो किसी में दूसरे की। चन्द्रमा औषधियों का रस प्रदान करता है और सूर्य उनमें ज्ञान शक्ति एवं प्राण-शक्ति भरता है। 

रसदार फलों में चन्द्रमा की प्रधानता अधिक और सूर्य की प्रधानता कम होती है। जैसे अंगूर में जब तक चन्द्रमा का प्रधान्य होगा, तब तक वह रसदार अंगूर के रूप में रहेगा और ज्यों ही उसमें सूर्य का प्रधान्य अधिक होगा त्यों ही धीरे-धीरे वह अंगूर अपना रूप बदलकर किशमिश या मुनक्का के रूप में आ जावेगा। उस समय रस में उसकी प्रधानता नहीं रहती ज्ञान और बल की प्रधानता रह जाती है। यदि ग्रहण के समय कोई भी पदार्थ खाया-पिया जाये तो प्रत्येक पदार्थ का चन्द्रमा और सूर्य के सम्बन्ध होने के कारण जो उनमें शक्ति आती थी वह नहीं आयेगी। और वे नाना प्रकार के विकार उत्पन्न कर देंगे, इसलिए ग्रहण और ग्रहण के वेध में भोजनादि करना निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त जप, तप, ध्यान पूजा, पाठ, साधन का जब समय होता है, तब पेट को हल्का रखना पड़ता है। पेट भारी हो जाने पर बहुत-सी नस-नाड़ियां खिच जाती है। रक्त की गति बढ़ जाती है और मन एकाग्रता से भजन में लगने नहीं देता।

इस कारण भजन आदि की सुविधा की दृष्टि से भी ग्रहण के वेध में भोजन का निषेध है।

ग्रहण के समय घृत, दुग्ध, अन्न, फलादि पदार्थो में कुशा रखी जाती है। इसका कारण यह है कि कुशा में एक ऐसी अद्भुत विद्युतशक्ति है कि उस पर अन्तरिक्ष सम्बन्धी कोई अनिष्ठ प्रभाव नहीं पड़ सकता। इसीलिए सब पदार्थों में पहले ही कुशा रख दी जाती है, ताकि ग्रहण के कारण उन पदार्थो में कोई विकृति न आने पावे। कुशा में कोई अद्भुत गुण है। इसके आसन पर बैठे हुए साधक पर बिजली का कोई प्रभाव नहीं होता है, ज्ञानशक्ति बढ़ती है इसी कारण हमारे तत्वदर्शी महर्षियों ने कुशा के आशन को विशेष महत्व दिया और सन्ध्या तर्पण, हवनादि प्रत्येक कार्य में कुशा का उपयोग किया है।






, कठोर शब्द न कहे, भोजन न करे, स्त्री प्रसंग न करे, 
व शयन न करे। व  तथा 
ग्रहण काल में वस्त्र न फाडे, (अर्थात् कैची का प्रयोग न करे) तिनके, घास, लकड़ी व फूलों को भी न तोड़े। बालों व कपडों को न निचोडे, दातुन आदि न करे, कठोर शब्द न कहे, भोजन न करे, स्त्री प्रसंग न करे, घोडा, हाथी आदि की सवारी न करे, गाय, भैस, बकरी आदि का दोहन न करे तथा यात्रा 
व शयन न करे।व

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