खरमास : एक सिंहावलोकन (धरमायन)

खरमास : एक सिंहावलोकन (धरमायन)

डॉ. रामाधार शर्मा

"शास्त्रों के अनुसार सूर्य आत्मा का कारक ग्रह है और गुरु परमात्मा का स्वरूप है। सूर्य के गुरु की राशि में आने पर अथवा गुरु के सूर्य की राशि में आने पर आत्मा से परमात्मा का मिलन होता है। ऐसी उत्कृष्ट दशा में यदि हम लौकिक कर्म (ईश्वराराधन आदि छोड़कर) करते हैं, तो मूल विन्दु से हटकर हमलोग लौकिक कर्म है। में फँस जाते हैं और अन्तम परिणति की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं।"

भारत एक धर्मप्राण सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, एवं व्रत पर्व तथा उत्सवों का देश है। यहाँ वर्ष भर पर्व, उत्सव एवं विभिन्न कार्यक्रम मौसम तथा समयानुरूप निर्धारित होकर चैत्रादि मासों में आयोजित होते रहते हैं जिससे मानव जीवन एवं समाज में निरंतरता और उत्साह बना रहता है। यहाँ की संस्कृति अतीत को स्मरण में रखते हुए वर्तमान में जीवन यापन कर भविष्य को संरक्षित करने की क्षमता रखती है। इसी क्रम में एक शब्द आता है खरमास। खरमास शब्द 'खर' और 'मास' की संधि से बना है। खर का अर्थ होता है रुक्ष, कठोर, खुरदरा आदि और मास का अर्थ होता है महीना। अतः खरमास का सामान्य अर्थ हुआ ऐसा महीना जो रुक्ष हो, खुरदरा हो।

ज्योतिष की दृष्टि में सूर्य के बृहस्पति की राशि (धनु और मीन) में प्रवेश के कारण वर्ष में दो खरमास होते हैं। सूर्य गोचरवशात् जब धनु राशि में प्रवेश करता है तो इसे धन्वर्क या धनुर्मास और जब मीन राशि में प्रवेश करता है तो इसे मीनार्क या मीन मास कहा जाता है। 'मलमास' या 'काला महीना' भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रन्थ में इन पूरे महीनों में कोई भी शुभ कार्य निषिद्ध माना गया है। यह निषेध मुख्य रूप से उत्तर भारत में लागू होता है जबकि दक्षिण भारत में इस नियम का पालन कम किया जाता है। यहाँ तक कि यदि रवि भी सूर्य की राशि (सिंह) में संक्रमण करे तो इसे सिंहस्थ गुरु कहा गया है जिसमें मांगलिक कार्य निषिद्ध अर्थात् प्रति वर्ष सौर पौष तथा सौर चैत्र मास को खरमास कहते हैं। उत्तराखण्ड में इसे

माना गया है। इसका आशय ज्योतिषत्तत्त्वविवेक नामक ग्रन्थ से स्पष्ट हैः-रविक्षेत्रगते जीवे जीवक्षेत्रगते रखौ ।

गुर्वादित्यः स विज्ञेयः गर्हितः सर्वकर्मसु ॥
वर्जयेत्सर्वकार्याणि व्रतस्वस्त्यनादिकम्।।

अर्थात् सूर्य की राशि में गुरु हो तथा गुरु की राशि में सूर्य संक्रमण कर रहा हो तो उस काल को 'गुर्वादित्य' नाम से जाना जाता है, जो समस्त शुभ कार्यों के लिए वर्जित माना गया

प्रश्न यह उठता है कि खरमास में कौन-कौन से कार्य निषिद्ध माने गये हैं और क्यों? महान दैवज्ञ "हरिशंकर सूरी", अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "मुहूर्तगणपति" में विवाह के विहित और त्याज्य मासों की व्याख्या के सन्दर्भ में कहे हैं-

मार्गशीर्षे धनुष्यर्के मीनार्कः फाल्गुनेऽशुभः । 
सौरो व्रतविवाहादौ मासः सर्वत्र शस्यते ॥

अर्थात् चान्द्र मासानुसार मार्गशीर्ष और फाल्गुन में विवाह अशुभ होता है और सौर मासानुसार धनु और मीन राशि में सूर्य के रहने पर विवाह अशुभ होता है। श्रीराम दैवज्ञ कृत मुहूर्तचिंतामणि की पीयूषधारा टीका में विवाह के लिए विहित मास की व्याख्या करते समय ऋषि कश्यप का सन्दर्भ देते हुए ज्योतिर्विद् गोविन्द कहते हैं-

उत्तरायणगे सूर्ये मीनं चैत्रं च वर्जयेत्।

अर्थात्- उत्तरायण में भी सूर्य के मीन राशि वाले महीने और चैत्र मास विवाह के लिए वर्जित करना चाहिए। यहीं पर आगे कहते हैं -

मीने धनुषि सिंहे च स्थिते सप्त तुरङ्गगमे। 
क्षौरमन्नं न कुर्वीत विवाहं गृहकर्म च ॥"

अर्थात् मीन, धनु और सिंह राशि में सूर्य के रहने पर मुंडन, अन्नप्राशन, विवाह और गृहनिर्माण सम्बन्ध कार्य नहीं करना चाहिए। वराहमिहिर के अनुसारः

"उद्यानचूडाव्रतबन्धदीक्षाविवाहयात्रादि वधूप्रवेशः तडागकूपत्रिदशप्रतिष्ठा बृहस्पतौ सिंहगते न कुर्यात्॥"

अर्थात्, सिंह की राशि में जब बृहस्पति हो, तो मुंडन, व्रतबंध, दीक्षा, विवाह, विशेष यात्रा, देवादि प्रतिष्ठा, ये सब शुभकृत्य न करें। यह भी कहा गया है-

सिंहस्थिते गुरौ राजन् विवाहं नैव कारयेत्।
मकरस्थे न कर्तव्यं यदिच्छेदात्मनः शुभम। 
व्रतबन्धं प्रतिष्ठाम् विवाहम् मन्दिरप्रवेशम्।
यात्रां च याम्यदेशे तु कुर्यादार्यो न सिंहांशे॥"

सामान्यतः करणीय और अकरणीय कर्मों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है। खरमास में प्रायः सभी काम्यकर्म (जैसे- कुएँ, बावली, तालाब, (बोरिंग) खोदना और उनकी प्रतिष्ठा करना, बाग आदि का आरम्भ और प्रतिष्ठा, किसी भी प्रयोजन के व्रतों का आरम्भ और उद्यापन, जन्म के 6 महीने बाद होने वाले सभी संस्कार जैसे कर्णवेध, मुण्डन, यज्ञोपवीत, समावर्तन, विवाह, वधुप्रवेश, द्विरागमन, तुला आदि के 16 महादान, सोमादि यज्ञ, अष्टका श्राद्ध, गोदान, प्रथम उपाकर्म, वेदारम्भ, नियत कल में बालकों के न किए हुए संस्कार, देवप्रतिष्ठा, प्रथम बार की तीर्थयात्रा एवं देव दर्शन, संन्यास-ग्रहण, अग्निपरिग्रह, राज्याभिषेक, प्रथम बार राजा का दर्शन, अभिषेक, प्रथम यात्रा, चातुर्मासीय व्रतों का प्रथमारम्भ आदि) वर्जित हैं।

क्या करना शुभ होता है?
परंतु अलभ्य योगों के प्रयोग; अनावृष्टि के अवसर पर वर्षा हेतु विहित पुरश्चरण, ग्रहणकालिक स्नान, दान, श्राद्ध, और जपादि, पुत्र जन्म के कृत्य और पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण और अन्नप्राशन संस्कार, नया वस्त्र खरीदना एवं धारण करना, आभूषण-क्रय (परन्तु धारण नहीं), फ्लैट, मकान, नया वाहन और नित्य उपयोग की वस्तुओं को खरीदना और प्रथम बार उपयोग करना भी शुभ होता है। इस महीने में निष्काम भाव से ईश्वर के उद्देश्य से जो व्रत आदि किये जाते हैं उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं। अतः इस महीने के कृत्य का अक्षय फल होता है।

खरमास में कुछ कर्मों को वर्जित क्यों किया गया?
फलित ज्योतिष के दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या कुछ लोग इस प्रकार करते हैं- धनु और मीन गुरु की राशियाँ हैं। जब सूर्य इन राशियों में प्रवेश करता है तब मित्र का गृह होने से उसका मनोबल बढ़ जाता है। सूर्य क्रूर ग्रह है इसलिए बढे मनोबल में वह सामान्य रूप में अनिष्ट करता है। संभावित अनिष्टों से बचने के लिए हम बहुत से मंगल कार्य रोक देते हैं।

एक व्याख्या यह भी है कि जब भी सूर्य, बृहस्पति के साथ गोचर करते हैं तो इससे बृहस्पति का तेज धूमिल हो जाता है। यह स्थिति मलमास कहलाती है। देव गुरु बृहस्पति विवाह के कारक माने गए हैं, उनके अस्त होने से नव-दंपतियों को उनका आशीर्वाद नहीं मिल पाता। इसलिए इस अवधि में विवाह प्रतिबंधित रहते हैं।

वैज्ञानिक कारण
अब वैज्ञानिक कारण की ओर दृष्टिपात करते हैं। हम जानते हैं कि पृथ्वी अपने अक्ष पर लगभग 23.45° झुकी हुई है। यह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार पथ पर 365 दिन, 5 घण्टे, 48 मिनट व 45.51 सेकेण्ड में एक चक्कर पूरा करती है, जिसे उसकी परिक्रमण गति कहते हैं। पृथ्वी पर ऋतु परिवर्तन, इसकी कक्षा पर झुके होने के कारण तथा सूर्य के सापेक्ष इसकी स्थिति में परिवर्तन यानी वार्षिक गति के कारण होती है। वार्षिक गति के कारण ही पृथ्वी पर दिन-रात छोटा-बड़ा होता है। इसी झुकाव के कारण 6 महीने पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव सूर्य के सम्मुख झुका हुआ होता है और 6 महीने पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव।

धीरे-धीरे (निरयण सूर्य के मेष राशि से मिथुन राशि तक अर्थात् लगभग 13 अप्रैल से 15 जुलाई तक) पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव का झुकाव सूर्य की तरफ होने लगता है (अर्थात् सूर्य की दूरी धीरे-धीरे घटने लगती है)। इस दौरान यहाँ गर्मी बढ़ने लगती है और धीरे धीरे गर्मी प्रचंड होने लगती है। पश्चात् (कर्क राशि से कन्या राशि अर्थात् लगभग 16 जुलाई से 16 अक्टूबर तक) पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव वापस लौटता हुआ सूर्य से दूर जाने लगता है और हमारे यहाँ गर्मी की प्रचंडता कम होते हुए ख़त्म होने लगती है। पुनः सूर्य जब तुला राशि से धनु राशि (लगभग 17 अक्टूबर से 13 जनवरी) तक की यात्रा तय करता है तो पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव सूर्य के सम्मुख होने लगता है। इस दौरान उत्तरी ध्रुव के सूर्य से दूर होने के कारण हमारे यहाँ ठंड पडनी शुरू होती है और जैसे-जैसे उत्तरी ध्रुव दूर जाता है ठंड बढ़ती जाती है। फिर जब सूर्य मकर, कुम्भ और मीन राशियों में (लगभग 14 जनवरी से 12 अप्रैल) रहता है तो धीरे धीरे ठंड कम होने लगती है।

यह अनुभूत है कि मकर संक्रांति के बाद ठंड कम होने लग जाती है। मकर संक्रांति से ही दक्षिणी ध्रुव सूर्य से दूर खिसकने लगता है और उत्तरी ध्रुव सूर्य की ओर बढ़ने लगता है। उत्तरी ध्रुव का यह खिसकाव सूर्य के मिथुन राशि पर्यन्त चलता है। धनु राशि में रहने के दौरान सूर्य हमारे देशांतर रेखा से सबसे ज्यादा दूरी पर स्थित रहता है; इसलिए इस दौरान ठंड अपने चरम पर होती है। इसलिए इस मास को पर्वोत्सवादि के लिए त्याज्य माना जाता है, इसे धन्वर्क दोष या खरमास कहते हैं। पुनः मीन राशि के दौरान पतझड़ होने लगते हैं और प्रकृति नीरस हो जाती है। इन सब कारणों से इस माह को वर्जित माना जाता है इसे मीनार्क दोष या खरमास कहा जाता है। ये तो है खरमास का सैद्धांतिक पक्ष।

उपर्युक्त व्याख्या 1. और 2. पूरी तरह से समञ्जित इसलिए नहीं हो पाती; क्योंकि निष्काम भाव से ईश्वराराधन और तत्सम्बन्धी व्रतपर्वोत्सव का फल खरमास में अक्षय बताया गया है। ध्यातव्य यह है कि ज्योतिष की दृष्टि में सूर्य और बृहस्पति आपस में मित्र हैं। फिर, यह कैसा कि सूर्य और बृहस्पति के एक साथ होने पर मांगलिक कर्म वर्जित किया जाये। वस्तुतः प्रत्येक जीव की अन्तिम अभिलाषा है ब्रह्म की प्राप्ति। सारे व्रतोपवासादि तथा धर्मकर्म की परिणति ईश्वर प्राप्ति के लिए ही तो है।

बृहस्पति एवं सूर्य की युति का रहस्य
अब बृहस्पति की राशि में सूर्य का प्रवेश अथवा सूर्य की राशि में बृहस्पति का प्रवेश का रहस्य देखें। वेद वाक्य है-"सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च" (ऋग्वेद 1.115.1, यजुर्वेद 7.42 और अथर्ववेद 13.2.35), अर्थात् समस्त चराचर जगत् की आत्मा सूर्य ही है। बृहस्पति की किरणें अध्यात्म नीति व अनुशासन की ओर प्रेरित करती हैं। शास्त्रों के अनुसार सूर्य आत्मा का कारक ग्रह है और गुरु परमात्मा का स्वरूप है। सूर्य के गुरु की राशि में आने पर अथवा गुरु के सूर्य की राशि में आने पर आत्मा से परमात्मा का मिलन होता है। ऐसी उत्कृष्ट दशा में यदि हम लौकिक (ईश्वराराधन आदि छोड़कर) कर्म करते हैं तो मूल विन्दु से हटकर हमलोग लौकिक कर्म में फँस जाते हैं और अन्तम परिणति की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं। इसलिए कहा गया है कि खरमास के दौरान जितना संभव हो भगवान् की भक्ति और उपासना करनी चाहिए। इस अवधि में भगवान् में ध्यान केन्द्रित करना आसान होता है इसलिए भक्ति का फल शीघ्र प्राप्त होता है।

अतः खरमास गर्हित मास नहीं, वरन् वरेण्य मास है।

***
*रामपुर, नौबतपुर, पटना। अवकाशप्राप्त अभियंता, सदस्य, ऐस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ऑफ इण्डिया, भारत सरकार

।। दो ।।

खरमास- एक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विवेचन

डॉ. परेश सक्सेना

सनातन परम्परा के त्योहार ऋतुओं से सम्बद्ध हैं। ऋतुओं का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है, अतः शरीर की पुष्टि, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की दृष्टि से हमारे सभी वर्षकृत्य निर्धारित किये गये हैं। यदि सम्पात-विचलन से हमारी ऋतुएँ बदल जातीं हैं तो धर्मशास्त्रीय निबन्ध-ग्रन्थों में पर्वों के उल्लेख अपने उद्देश्य से दूर हो जाते हैं। लेखक की मान्यता है कि हमें सायन पंचांग को अपनाते हुए पर्वों का मास निर्णय करना चाहिए। पौषमास को खरमास कहने का तात्पर्य दूसरा ही है, उसे किसी भी प्रकार से हीनमास या बुरा मास मानना उचित होगा।

हिंदू धर्म में पर्व-त्यौहारों के तिथि निर्णय के लिए चान्द्र- सौर पंचांग प्रचलित है। यह परम्परा सनातन है। चन्द्रमा की कलाओं पर आधारित तीस तिथियों, चन्द्रमा तथा नक्षत्रों के सम्पात के अनुसार बारह मासों के नामकरण, वर्ष में सूर्य की बारह संक्रान्तियों, और देव कार्यों तथा पितृकार्यों के लिए सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायण गति के आधार पर काल मान का उद्गम वेदों में है। वैदिक वाङ्गय विश्व की किसी भी सभ्यता की तुलना में काल गणना के प्राचीनतम अभिलेख हैं। ऋग्वेद में संवत्सर रूपी चक्र का प्रतीकात्मक वर्णन है जिसमें बारह मास और तीन सौ साठ दिन क्रमशः अरों और कीलों के रूप में वर्णित किये गये हैं-

द्वादशारं न हि तज्जराय वर्वति चक्रं परिधामृतस्य । 
आ पुत्रा अग्नेय मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंशतिश्च तस्थुः ।।'

वेदों में सूर्य और चन्द्रमा दोनों की गतियों के अनुसार मास परिभाषित हैं- समानां मास आकृतिः के वाक्य में संवत्सर अर्थ में समा शब्द आया है जो बारह चान्द्र महीनों से बनता है। दूसरी ओर, सौर महीनों का संकेत है कि वेदमासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः । वेदा य उपजायते।' अर्थात् आदित्यों में ज्येष्ठ वरुण बारह महीनों और उनसे उत्पन्न तेरहवें को जानते है; यहाँ सौर और चान्द्र मासों के समायोजन के लिए अधिमास का प्रमाण इंगित है। वेदों में 'वर्ष' शब्द तो नहीं है लेकिन शरद, हेमन्त आदि पाँच ऋतुओं के एक आवर्तन को संवत्सर के अर्थ में अनेक बार प्रयोग किया गया है। ऋषियों को यह भली-भाँति ज्ञात था कि ऋतुओं और दिशाओं का नियामक सूर्य है- पूर्वामनुप्रदिशं पार्थिवानामृतून् प्रशासद्विधावनुष्ठ।

उत्तर वैदिक काल में सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की खगोलीय गति पर सूक्ष्मता से विचार किया गया। वर्ष को बारह महीनों, दो अयनों, एवं छः ऋतुओं में विभाजन के लिए सूर्य और चन्द्रमा की नक्षत्रों के सापेक्ष स्थिति को आधार बनाकर यज्ञ आदि के विधान के लिये कालगणना के अनेकानेक सन्दर्भ हैं। शुक्ल यजुर्वेद की परम्परा में यज्ञवेदी पर इष्टकाएँ स्थापित करने के लिए तेहरवें से पन्द्रहवें अध्याय की कण्डिकाओं का उच्चारण किया जाता है, जिनमें प्रकृति के परिवेश में दो-दो मासों और उनसे सम्बन्धित ऋतुओं को भी इष्टका कहा गया है। शतपथब्राह्मण' में वर्ष की तीन ऋतुओं वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा के समय में सूर्य के उत्तरावर्तन को देवकार्यों के लिए एवं दक्षिणायन को पितृ-कार्यों के लिए उपयुक्त माना गया है।

वैदिक काल में सम्पात की स्थिति
उस काल में कृत्तिका नक्षत्र मण्डल की उदयकालीन स्थिति से वसन्त ऋतु के आरम्भ में होने वाले यज्ञ का विधान निश्चित किया गया था, जो स्थिति ईसा से 2300 वर्ष पूर्व की है। तैत्तरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों में सत्ताईस नक्षत्रों का विस्तृत वर्णन है। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों की गति के सन्दर्भ में उत्तरोत्तर क्रम से संवत्सर के अन्तर्गत ऋतुओं और मासों के अवयवों का परस्पर सम्बन्ध बताया गया है। उदाहरण के लिए, "यथा सूर्यो दिवा चन्द्रमसे समनमन्न क्षत्रेभ्यः समनमद् यथा चन्द्रमा नक्षत्रैर्वरुणाय समनमत्" का अभिप्राय यह है कि सूर्य द्युलोक में संक्रमण करता है और चन्द्रमा नक्षत्र मण्डल में संचार करता है और चन्द्रमा वरुण के अनुसार चलता है अर्थात् धर्म के आधारभूत कर्मों के लिये प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार, "संवत्सरोऽसि नक्षत्रेषु श्रितः। ऋतूनां प्रतिष्ठा। ऋतवः स्थ संवत्सरे श्रिताः। मासानां प्रतिष्ठा युष्मासु”।" में वैदिक संवत्सर के काल मान के लिए नक्षत्र, ऋतुओं और मासों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध स्वतः स्पष्ट है।

मासों के नामकरण
वस्तुतः, वैदिक काल गणना का उद्देश्य मनुष्य के धार्मिक और भौतिक अभ्युदय को प्रकृति के अनुसार नियमित करना था। वैदिक काल से ही वसन्त ऋतु में वर्ष का आरम्भ माना जाता था। उस समय मास चान्द्र थे, जबकि ऋतुएँ सूर्य की गति के अनुसार होती हैं। यजुर्वेद में मधु-माधव, शुक्र-शुचि, नभस्-नभस्य, इष-ऊर्ज, सहस्-सहस्य और तपस्-तपस्य कुल बारह मासों को दो-दो मासों के युग्म में क्रमशः वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं से सम्बद्ध माना गया है। इन मासों के नामकरण के मूल में छः ऋतुओं के प्राकृतिक प्रभावों के साथ सीधा सम्बन्ध परिलक्षित होता है, जिसका कारण सूर्य की किरणों की तीव्रता में होने वाला नियमित परिवर्तन है। वसन्त में प्रकृति की मधुरता और मादकता, ग्रीष्म में सूर्य की चमक और तीव्रता, वर्षा में नभ का मेघों से आच्छादन, शरद में ऊर्जा का संचार, हेमन्त में संघर्ष तथा शिशिर में सहनशक्ति की परीक्षा और ताप का सेवन स्वयं स्पष्ट हैं।

महीनों के उपर्युक्त नाम आने वाले समय में गौण हो गए और उनके स्थान पर नक्षत्रों के नाम पर आधारित महीनों के नाम प्रयोग में आ गए। नक्षत्र स्वयं चालायमान नहीं होते, अतः नक्षत्रों के आधार पर किसी भी आकाशीय पिण्ड की खगोलीय स्थिति को अभिव्यक्त किया जा सकता है। सत्ताईस नक्षत्रों के चक्र में पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा की कुल बारह नक्षत्रों, अर्थात् चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, पूर्वा भाद्रपद, आश्विन, कृत्तिका, मघा एवं उत्तराफाल्गुनी से सम्पात की स्थिति के आधार पर बारह महीनों के नाम जाने गए। इन चान्द्र मासों को सौर ऋतुओं के अनुसार समीकृत किया गया। वसन्त के महीने चैत्र एवं वैशाख, ग्रीष्म के महीने ज्येष्ठ एवं आषाढ़, वर्षा के महीने श्रावण एवं भाद्रपद, शरद के महीने आश्विन एवं कार्तिक, हेमन्त के महीने मार्गशीर्ष एवं पौष, तथा शिशिर के महीने माघ एवं फाल्गुन माने गए। लेकिन प्रतिवर्ष सौर एवं चान्द्र वर्षों में लगभग ग्यारह दिन का अन्तर पड़ जाने के कारण प्राचीन ज्योतिषाचार्यों द्वारा कालमान में अधिक मास का विधान किया गया। तदनुसार, प्रत्येक पाँच वर्षों में दो अधिक मासों के प्रक्षेपण से यथासम्भव ऋतुओं और तिथियों के बीच सामंजस्य की परम्परा पूरी तरह व्यावहारिक बनी रही जो आचार्य लगध द्वारा प्रणीत 'वेदांग ज्योतिष' के समय लगभग 1300 ई. पू. से आज तक प्रचलन में है।

भारतीय ज्योतिष में वर्णित चान्द्र तिथियों और नक्षत्र चक्र का उद्गम पूरी तरह से भारतीय है। यह भी विश्वसनीय प्रतीत होता है कि प्राचीन राशि चक्र में सूर्य की संक्रान्तियाँ बाद में प्रचलित हुई। ज्योतिष-ग्रन्थों में बारह राशियों पर आधारित राशिचक्र का उल्लेख नहीं मिलता। कालान्तर में राशियों का प्रयोग, विशेषकर फलित ज्योतिष में, व्यवहृत हो गया, जबकि पर्व-त्यौहारों को मनाने और कृषि-वास्तु के कार्यों, इत्यादि के लिए जनमानस में नक्षत्रों पर आधारित कालमान का प्रयोग

पहले की तरह महत्त्वपूर्ण बना रहा। इतिहास के प्रमाण हैं कि वेदांग ज्योतिष की परम्परा सातवाहन राजाओं के शासन काल (200 ईस्वी) तक रही और शक-कुषाण-यवन राजाओं के समय से काल मान में राशियों का प्रयोग होने लगा। हिंदू शासन के उत्कर्ष के समय गुप्त संवत् का प्रयोग लगभग 319 ईस्वी में हुआ, जिसमें नक्षत्र और राशि दोनों प्रणालियों का पूर्ण समावेश हो चुका था। इसके लिए अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण को मेष राशि के आदि अर्थात् वर्ष के आरम्भ के रूप में परिकलित किया गया। वसन्त सम्पात में वर्ष का आरम्भ मानने पर ऐसी स्थिति लगभग 285 ईस्वी तक बनती थी। खगोलीय शास्त्र के आधार पर नक्षत्र चक्र में सत्ताईस नक्षत्र 13°20' के अन्तराल पर, जबकि राशिचक्र में प्रत्येक राशि 30° के अन्तराल पर अवस्थित होते हैं। इस प्रकार एक राशि लगभग सवा दो नक्षत्रों पर उपरिव्याप्त होती है, अतः दोनों चक्रों के बीच समञ्जन किया जाना सम्भव था। उस समय से ज्योतिष ग्रन्थों में राशि चक्र पर विचार किया जाने लगा, यथा-

प्राणादिकथितो मूर्त्तखुट्याद्योऽमूर्त्तसंज्ञकः।
षड्भिः प्राणैः विनाडी स्यात्तत् षष्ठ्या नाडिका स्मृता ।। 
नाडी षष्ठ्या नु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम्। 
तत्त्रिंशता भवेन्मासः सावनोऽर्कोदयैः स्मृता ।।
ऐन्दवस्तिथिभिः तद्वत् सङ्क्रान्त्या सौर उच्यते । मासैर्द्वादशभिवर्षं दिव्यं तदह उच्यते ।।

इसका अभिप्राय यह है कि सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में परिक्रमा करता है उसको क्रान्तिवृत्त कहते हैं। इसके बाहरवें भाग को राशि कहते हैं 360° अंश का एक भचक्रवृत्त होता है जिसमें 30° का एक राशि सूर्य मंडल का केन्द्र जिस समय एक राशि दूसरी राशि में प्रवेश करता है उस समय दूसरी राशि की संक्रान्ति होती है। एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति को 'सौर मास' कहते हैं। इस प्रकार, ज्योतिष शास्त्र में सौर मास का ही विशेष गणना करने का विधान मान्य हो गया।

निरयन एवं सायन पद्धति से आये हुए अन्तर

वर्तमान समय में पंचांग बनाते समय नक्षत्रों को ईस्वी 285 की स्थिति में रखते हुए कालमान लिया जाता है। लेकिन आकाशीय स्थिति के अनुसार वसन्त सम्पात ग्रेगोरियन कैलेण्डर में 21 मार्च को होता है। अर्थात्, हिंदू पंचांग प्रणाली में इस तिथि को सूर्य रेवती नक्षत्र से कुछ पूर्व, मीन राशि में होता है। मेष से मीन राशियों की ओर राशि चक्र के पीछे चालायमान होने का कारण सूर्य के सापेक्ष परिक्रमण करने के दौरान पृथ्वी के अक्ष में पुरस्सरण होना है। इसे 'अयन-चलन' कहा जाता है जिसके फलस्वरूप विषुव और अयनान्त पश्चिम की ओर खिसक जाते हैं। 285 ईस्वी की स्थिति में अयनांश शून्य था लेकिन प्रतिवर्ष लगभग 50.3 कला का अयनान्तर हो जाता है। 71.6 वर्षों में कुल 1 अंश अयनांतर हो जाता है। वेदांग ज्योतिष के पश्चात् 1800 वर्ष के कालक्रम में, एक अंश से एक मिनट की समतुल्यता के आधार पर, आज के समय में 24 दिन का अन्तर हो चुका है। गणित के अनुप्रयोग से शून्य अयनांश की स्थिति में पुनः आने के लिए 26000 वर्ष का समय लगेगा। अतः, इस दृष्टिकोण से आधुनिक कैलेण्डर और भारतीय पंचांग में मूल अन्तर यही है कि भारतीय पंचांग निरयन है अर्थात् कालमान में अयन को विचार में नहीं लिया जाता, जबकि आधुनिक कैलेण्डर सायन है, जिसमें विषुवों और अयनांतों की स्थिति लगभग स्थिर है। दोनों ही पद्धतियों में कालमानों को 50.3 कला के अयनान्तर पर सामञ्जित किया जा सकता है। शून्य अयनांश पर आधारित निरयन पंचांग में सूर्य की विभिन्न राशियों में संक्रान्तियाँ सायन स्थिति के सापेक्ष आगे होती हैं, इसकी जानकारी का प्रमाण मध्यकाल के धर्मग्रन्थों में मिलता है। हेमाद्रि ने कालनिर्णय में कहा है कि प्रचलित संक्रान्ति से बारह दिन पूर्व ही पुण्यकाल पड़ता है, अतः प्रतिपादित दान आदि कृत्य प्रचलित संक्रान्ति दिन के बारह दिन पूर्व भी किये जा सकते हैं। इसी प्रकार, भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि में लिखा है मेष, कर्क तुला और मकर संक्रान्तियों के अयनांशतुल्य दिन पूर्व विषुव-अयन होते हैं-

त्रिक्यतुलादरसंक्रमपूर्वतोऽयनलवोत्थदिनैर्विषुवद्धिनम्।
मकरकर्कटसंक्रमतोऽयनं...।।'

स्पष्ट है कि निरयन और सायन पद्धति से कालमान का निर्णय करना हमारे आचार्यों के लिए कोई नई बात नहीं थी।

भारतीय ज्योतिष में खरमास की परिकल्पना का आधार
सूर्य के धनु राशि में संक्रमण की अवधि को तथाकथित 'खरमास' कहा जाता है। ज्योतिष में माना जाता है कि सूर्य के क्षेत्र में गुरु अथवा गुरु के क्षेत्र में सूर्य का संचरण 'गुरु-आदित्य योग' बनाता है, जिसमें कुछ शुभ कार्य जैसे नये कर्मों का लग्न, उपनयन, विवाह, मुण्डन एवं गृहनिर्माण का निषेध किया गया है। आधुनिक कैलेण्डर में धनु राशि में सूर्य का संक्रमण 21 नवंबर को ही हो जाता है, जो निरयन पंचांग में 15-16 दिसम्बर को होता है तथा मकर राशि में सूर्य का संक्रमण 21-22 दिसम्बर को होता है जो निरयन पंचांग में 14-15 जनवरी को होता है।

सूर्य सिद्धान्त 12.45, 51 के अनुसार जब सूर्य मकर राशि के आदि बिंद में प्रवेश करते है तो उत्तरायण कहलाता है। इन दोनों संक्रान्तियों का यहाँ विशेष रूप से उल्लेख इसलिए किया गया है कि सामान्यतः खरमास को पौष सौर मास के समतुल्य समझा जाता है। यह मार्गशीर्ष पौष अथवा पौष-माघ चान्द्र मासों की तीस तिथियों में व्याप्त होता है। गुरु-आदित्य योग की परिभाषा के अनुसार फाल्गुन-चैत्र चान्द्र मासों में भी खरमास है, जबकि सूर्य मीन राशि में संचरण करते हैं।

महाभारत युद्ध का मास
जनमानस में पौष माह वाली अवधि खरमास के रूप में अधिक मान्य है। जहाँ तक तथाकथित पौष खरमास का सम्बन्ध है, तो महाभारत का युद्ध इससे पूर्व सम्पन्न हो चुका था। 'निर्णयसिन्धु' के अनुसार भीष्म ने मकर संक्रान्ति के दिन, तदनुसार माघ शुक्ल अष्टमी को, प्रयाण किया था। अतः उस काल में खरमास पौष शुक्ला सप्तमी से आरम्भ हुआ माना जाएगा। जय युद्ध के विवरण के अनुसार माना जा सकता है कि इस अवधि को पाण्डवों ने श्राद्ध-तर्पण के लिए गंगा तट पर एक मास के प्रवास के रूप में बिताया होगा। इसी अवधि में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ होगा और पितामह भीष्म ने प्रखर शरों पर तप करते हुए श्रीकृष्ण का ध्यान किया होगा और शान्तिपर्व में अंकित धर्म का उपदेश दिया होगा। शास्त्रों के अनुसार यह अवधि सूर्य के दक्षिणायन का अन्तिम एक महीना माना जाता है, क्योंकि सूर्य के मकर राशि में संक्रमण के साथ ही उत्तरायण आरम्भ हो जाता है। भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण में आने के पश्चात इच्छा मृत्यु का वरण किया था; क्योंकि उत्तरायण में जीवात्मा "देवमार्ग" से प्रयाण करती है।

पुराणों में द्वादश आदित्यों के आधार पर वर्ष के बारह महीनों को रूपायित किया गया है। मत्स्य, ब्रह्माण्ड, भविष्य पुराण, आदि में धनु और मकर राशियों में संचारी सूर्य के दो महीनों को प्रायः "पूषा" और "भग" आदित्यों से सम्बद्ध माना गया है। उदारहण के लिए,
मार्गशीर्षे तथा मित्रः पौषे पूषा दिवाकरः ।
माघे भगस्तु विज्ञेयः त्वष्टा तपति फाल्गुने ।।"

यह सूर्य को समर्पित साम्ब-पुराण में अध्याय 9.7-8 का उद्धरण है जो कि 'भविष्य-पुराण' के अध्याय 78.55-57 जैसा ही है। वेदों में भग देवता को संपत्ति के प्रदाता के रूप मे तथा पूषन् को पशुओं के रक्षक के रूप में निर्देश दिया गया है।

यदि केवल धनु राशि में सूर्य के संक्रमण की अवधि को "खरमास" या "पौष सौर मास"के रूप में विचार करें तो आवश्यक नहीं कि इस अवधि में चान्द्र मास केवल पौष का महीना ही रहे। उदाहरणार्थ, इस वर्ष खरमास 16 दिसम्बर, 2020 तदनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया से आरम्भ होकर 14 जनवरी, 2021 तदनुसार पौष शुक्ल प्रतिपदा तक रहेगा। इस अवधि में मार्गशीर्ष की पवित्र तिथियाँ जैसे श्रीसीताराम विवाह पञ्चमी, चम्पा षष्ठी और गीता जयन्ती अथवा मोक्षदा एकादशी के पर्व मनाए गए हैं और पौष कृष्ण प्रतिपदा को अच्युत व्रत है जिसमें तिल और घी से भगवान् विष्णु की पूजा का बहुत महत्त्व है। इस वर्ष की पौष पूर्णिमा भी खरमास की अवधि से मुक्त रहेगी। यदि मीन राशि में सूर्य के संचरण वाले चैत्र मास को खरमास कहा जाए तो उसमें संवत्सरारम्भ का समय है और अनेकानेक पवित्र व्रतों के लिए विख्यात है।

नामकरण में भ्रान्ति
खरमास का नामकरण किस आधार पर किया गया, इस पर अनेकानेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं। कहते हैं कि खर का अर्थ दुष्ट और गधा है, जिसे इस अवधि के अशुभ होने के कारण प्रयोग किया गया है। कुछ पोंगा पंडितों ने तो अपने मन से पौराणिक आधार गढ़ लिये हैं, जिसके अनुसार ग्यारह महीनों में सूर्य अपने सात अश्वों वाले रथ पर गतिमान रहते हैं, लेकिन 'खरमास' में वे गधे पर सवार हो जाते हैं। खरमास को अशुभ मानना प्रथम दृष्टया अन्धविश्वास है, क्योंकि इस अवधि में जिन कार्यों का निषेध किया गया है, ग्रह-नक्षत्र-मुहूर्त विचार के अनुसार, उन कार्यों को शेष ग्यारह महीनो में भी लगातार नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, विवाह प्रकरण के लिए केवल फाल्गुन, माघ, मार्गशीर्ष, आषाढ़, ज्येष्ठ और वैशाख माहों को ही प्रशस्त माना गया है। दूसरी ओर यदि व्रत-उत्सव आदि के दृष्टकोण से विचार करें तो स्मृतियाँ, पुराणों और कृत्यरत्नाकर, वर्षक्रियाकौमुदी, 'निर्णयसिन्धु', आदि ग्रन्थों में पौष माह में भगवान् शिव और भगवती की प्रसन्नता के निमित्त बहुत से व्रत-विधान किए गए हैं।

वस्तुतः हिंदू पंचांग का कोई भी मास या तिथि साधना उपासना के लिए निषिद्ध नहीं है, जो साम्यवादियों के लिए चिंता का कारण है। कहने का तात्पर्य यह है कि तथाकथित खरमास में और पौष चान्द्र मास में धर्म और अध्यात्म के अभ्युदय के लिए बहुत से शुभ कार्य किये जाते हैं। खरमास में जीवन के संस्करण से सम्बन्धत कार्यों के निषेध का अभिप्राय अशुभ होना नहीं माना जा सकता है।

खरमास में निषेधों का कारण
यहाँ प्रश्न उठता है कि खरमास में संस्कारों और गर्हित लग्नों का निषेध क्यों किया गया? आइए, यदि हम पुनः 285 ईस्वी तक के कालखण्ड में भ्रमण करें, क्योंकि तब आज की ही तरह 22 दिसम्बर को आकाश में सूर्य की सापेक्ष गति दक्षिण अयनांत बिंदु से उत्तर की ओर शुरू होती थी; भले ही उसी समय सूर्य की मकर संक्रान्ति भी होती थी अर्थात् सूर्य मकर राशि के आदि बिंदु पर प्रवेश करते थे। वर्ष में उस तिथि का दिनमान सबसे कम होता है और कुछ दिनों बाद से, दिन बढ़ने का प्रत्यक्ष अनुभव होता है।

यहाँ ध्यातव्य है कि पाश्चात्त्य सभ्यता में 25 दिसम्बर को "बड़ा दिन" की संज्ञा देकर ईसा मसीह का जन्म दिन मनाने की परम्परा भी उसी कालखण्ड के आस-पास आरम्भ हुई। इस कालखण्ड से पूर्व ही भारत में ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थों और आयुर्वेद ग्रन्थों जैसे चरक संहिता, आदि का लोकहित में भरपूर प्रसार हो चुका था। इन ग्रन्थों में वर्ष के बारह मासों को सौर ऋतुओं से समीकृत करते हुए वैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया था। राशियों और ऋतुओं के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध के विषय में सूर्य सिद्धान्त में बहुत ही स्पष्ट रूप से लिखा गया है-

द्विराशिनाथा ऋतवस्ततोऽपि शिशिरादयः। 
मेषादयो द्वादशैते मासास्तैरेव वत्सरः ।।12

इसका अभिप्राय है कि मकर से आरम्भ कर दो-दो राशियों की शिशिर आदि ऋतुएँ होती हैं। ये ही मेष आदि बारह मास हैं और इन्हीं से वर्ष बनता है। सूर्य वसन्त सम्पात से तुला सम्पात तक उत्तर गोलार्द्ध में रहता है। उस समय हमारे देश में दिनमान 30 घंटों से अधिक रहता है और वसन्त का कुछ भाग, ग्रीष्म, वर्षा और शरद का कुछ भाग, ये ऋतुएँ रहती हैं। 285 ई. में मिथुन राशि के अन्त में दक्षिणायन के आरम्भ के साथ वर्षा काल का भी आरम्भ होता था। दक्षिणायन के महीनों में सूर्यातप के लगातार कम होने के कारण हिमालय पर भारी हिमपात होता है और सूर्य के उत्तरायण में जाने के बाद भी लगभग एक माह तक ठंडी पर्वतीय हवाएँ भारत देश के उत्तरी मैदानों में उतर कर मनुष्यों को शीत से आक्रांत करती रहती हैं। धनु में सूर्य के संचरण का समय हेमन्त ऋतु तथा मकर में संचरण का समय शिशिर ऋतु कहलाता है। हेमन्त शब्द में हिम या हेम का अर्थ ओस गिरना है जिसका तापमान कम होने के कारण अन्त हो जाता है। ओस गिरने के स्थान पर कोहरा छाने लगता है। शिशिर शब्द का अर्थ मुँह से सीटी जैसी ध्वनि निकलना है जो कि ठंड के कारण मनुष्य की एक सामान्य प्रतिक्रिया का द्योतक है। यही समय है जब पश्चिमी विक्षोभ सिन्धु-गंगा के मैदानों तक आकर शीतकालीन वर्षा करते हैं जो गेहूँ और चना की फसलों को पोषण प्रदान करता है। अतः कृषि के दृष्टिकोण से नक्षत्र चक्र में "पुष्य (पोषक) नक्षत्र" तथा "मघा (वर्षा के देवता इन्द्र का) नक्षत्र" को विशेष रूप से नामित करते हुए धनु संचरण वाले चान्द्र मास को पौष मास तथा मकर संचरण वाले मास को माघ मास कहा गया। आज भी उत्तर-पश्चिम भारत में "पूस की रात में भीगना" एक लोकोक्ति है जिसका उद्म पौष माह में गेहूँ के छोटे-छोटे पौधों की रात-भर पशुओं से रखवाली करने के क्रम में कृषक को होने वाली कठिनाई का द्योतक है। इसी प्रकार, बिहार के कृषक "मघेर की वर्षा" बहुत उत्साह के साथ स्वागत करते हैं क्योंकि गेहूँ और दलहन के लिए यह अमृत है। अतः यह स्पष्ट है कि आकाशीय स्थिति से भी लोगों के लिए खरमास की अवधि अन्न उत्पादन के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती थी और वे ठंडक को सहते हुए भी इसे शुभ मानते हैं। कृषि की दृष्टि से शीतकालीन अन्न के लिए खरमास एवं अगले एक-दो महीने का समय बहुत अनुकूल है।

आयुर्वेद में वर्णित ऋतुचर्या, मानव-स्वास्थ्य एवं व्रतों-पों के बीच सम्बन्ध
आयुर्वेद में बारह सावन महीनों के वर्ष अर्थात् एक वसन्त सम्पात से दूसरे वसन्त सम्पात तक कुल छः ऋतुओं के लिए ऋतुचर्या का विधान किया गया था। परंतु सावन वर्ष की अवधि नाक्षत्र वर्ष से लगभग 20 मिनट कम होती है, अतः प्रतिवर्ष ऋतुओं के आगे खिसकने की गति को अधिक मास से समायोजित किया गया, अर्थात् ऐसा मास जिसमें सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती। ऋतुचर्या को सरलता से ग्राह्य बनाने के लिए वर्ष को बारह मासों के एक ऋतु पर्यय के रूप में लेते हुए चरक संहिता में विधान किया गया था। "तस्याशितीयः" की व्याख्या में लिखा गया है-

इह खलु संवत्सरं षडङ्गमृतुविभागेन विद्यात्। तत्राऽऽदित्यास्योदगयनमादानं च त्रीनृतून् शिशिरादीन्ग्रीष्मान्तान् व्यवस्येत्, वर्षादीन् पुनर्हेमान्तान्तान् दक्षिणायनं विसर्ग च ।।4।।13

अर्थात् इस संसार में संवत्सर रूपी काल को छः ऋतुओं के विभाग से जानना चाहिए। जब सूर्य उत्तरायण होते हैं, तब "आदान" (ग्रहण) काल होता है। इससे शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म तीन ऋतुएँ बनती है और जब सूर्य दक्षिणायन हो तब "विसर्ग" काल होता है। इससे वर्षा, शरद और हेमन्त ये तीन ऋतुएँ बनती है। आगे लिखा गया है-

विसर्गे च पुनर्वायवो नातिरुक्षाः सोमश्चाव्याहृतबलः शिशिराभिर्भाभिरापूरयञ्जगदाप्याययति शश्वत् अतो विसर्गः सौम्यः।।5।।4

अर्थात् विसर्ग काल में वायु बहुत अधिक रूखी नहीं रहती; क्योंकि चन्द्रमा का बल परिपूर्ण होता है। इसलिए चन्द्रमा शीतल किरणों से जगत् का पोषण करता है, जगत् को नित्य बलवान् करता है। चरक आगे छठें, सातवें एवं आठवें सूत्र में लिखते हैं कि "हेमन्त ऋतु में जब सूर्य दक्षिणायन हो जाता है काल के स्वाभाविक मार्ग के कारण सूर्य का तेज घट जाने से और सोम का बल कम न होने से संसार में अरूक्ष स्निग्ध रस बढ़ते हैं। इससे मधुर रस हेमन्त में बढ़ते हैं और मनुष्यों का बल भी बढ़ जाता है"। दूसरी ओर, "आदान काल में सूर्य अपनी किरणों से संसार की स्निग्धता को हर लेता है और वायु तीव्र, तीक्ष्ण, रूखी और सुखाती हुई बहती है। अतः शिशिर में रूक्ष और तीखा रस बढ़ जाता है जिससे मनुष्यों के शरीर में निर्बलता आ जाती है"।

लेकिन कुल मिलाकर शीते शीतानिलस्पर्शसंरुद्धो बलिनां बली ठंडी हवाओं के कारण "विसर्ग के अन्त समय (हेमन्त में) और आदान काल के पहले काल (शिशिर में) मनुष्यों का बल बढ़ा रहता है"। इसी आधार पर चरक ने दोनों ऋतुओं के लिए ऋतुचर्या अर्थात्, कैसा आहार-विहार, आवास, मैथुन, आदि का विधान किया है। उन्होंने 19-21 सूत्रों में हेमन्तशिशिरे तुल्ये लिखते हुए यह सारांश दिया है कि "हेमन्त एवं शिशिर ऋतुएँ प्रायः शीत की दृष्टि से समान हैं। परंतु शिशिर काल में हेमन्त से इतना भेद है कि शिशिर का आदान काल होने से वायु रुक्ष होती है एवं बादल, वायु और बरसात शिशिर में अधिक होने से इस ऋतु में शीत अधिक होता है। इसलिए शिशिर ऋतु में हेमन्त की सम्पूर्ण विधि पालन करनी चाहिए"। उपरोक्त विमर्श से यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खरमास वाली हेमन्त ऋतु एवं अगले दो महीने की शिशिर ऋतु अवधि बल बढ़ाने के लिए अनुकूल मानी गई थी। और यह स्थिति आज भी वैसी ही है क्योंकि सायन वर्ष में ऋतुओं की गति लगभग वही है जो आचार्य चरक या आचार्य वाराहमिहिर ने घोषित की थी। लोक व्यवहार में भी देखा जाता है कि जाड़े के तीन-चार महीनों में लोग व्यायाम, तैलमर्दन और पोषक आहार लेकर अपना बल बढ़ाते हैं।

भावी प्रवृत्तियाँ

आचार्य चरक ने हेमन्त और शिशिर को जिस प्रकार समतुल्य माना था, ऐसा ही विचार वैदिक ऋषियों ने किया था। ऋग्वेद में तो केवल पाँच ऋतुओं का ही उल्लेख है जबकि अन्य वेद ग्रन्थ में छः ऋतुओं और उनके नामों का उल्लेख होने लगा। ऐतरेय ब्राह्मण में तो यह स्पष्ट ही है कि हेमन्त और शिशिर दोनों को मिलाकर एक ही ऋतु मानते थे- द्वादशमासाः पञ्चर्तवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन (ऐ. ब्रा. 1.1)। आकाश में 22 दिसम्बर को ही सूर्य की वास्तविक उत्तरायण गति शुरू होती है जिसे "शीत सम्पात" कहा जाता है। अतः हेमन्त और शिशिर की चार माह की अवधि नवंबर से फरवरी के बीच रहेगी जो कि आधुनिक कैलेण्डर से सिद्ध भी होता है। दूसरी ओर, निरयन पंचांग में प्रत्येक वर्ष 9 मिनट के अन्तर से सूर्य संक्रान्ति आगे हटती है और सौ ग्रिगोरियन वर्षों में अधिवर्ष का हिसाब लेते हुए ऐसा होगा कि अगले 1200 वर्षों में धनु संक्रान्ति दिसम्बर से बढ़कर जनवरी में और मकर संक्रान्ति फरवरी में होने लगेगी। अभी यह अन्तर मात्र चौबीस दिनों का है और चूँकि हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के तापमान में बहुत अन्तर नहीं है, अतः यह अन्तर सहज रूप से पता नहीं चलता। वैसे भी तीन-चार पीढ़ियों के बाद संक्रान्ति में एक दिन का अन्तर आता है। लेकिन यदि इसी गणित को आगे बढ़ाएँ तो निरयन पंचांग में लगभग 26000 वर्षों में एक ही मास में क्रमशः सब ऋतुएँ आ जाएँगी। अर्थात् आज यदि पौष में हेमन्त ऋतु और खरमास हैं तो सवा चार हजार वर्षों में इस माह में शिशिर, साढ़े आठ हजार वर्षों में वसन्त ऋतु और सत्रह हजार वर्षों में ग्रीष्म ऋतु होने लगेगी। यह स्थिति निश्चित ही संशोधन के योग्य है क्योंकि तब ऋतुचर्या अथवा कृषि की बुआई-कटाई के नियम पालन करने के लिए महीनों के नाम बदलने पड़ेंगे।

हिंदू धर्म सनातन धर्म है और यह अगले 26000 वर्षों तक क्या, आगे भी चलता ही रहेगा। दूसरी ओर, आज हिंदू भारत के बाहर पूरे विश्व में फैले हुए हैं। आज वे दक्षिण गोलार्द्ध के देशों जैसे आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, आदि में बसे हुए हैं। वहाँ सूर्य की गति और जलवायु उत्तरी गोलार्द्ध से ठीक विपरीत है। ऐसे में वहाँ कौन सा पंचांग मान्य होगा, यह भी विचारणीय है। मेरे विचार से व्रत-पर्व-त्यौहारों- उत्सवों के लिए भारत में प्रचलित निरयन सौर चान्द्र पंचांग की ही मान्यता रहनी चाहिए किन्तु ऋतुचर्या अथवा जीवन के संस्करणों से सम्बन्धत कार्यों के लिए देशकाल के हिसाब से सौर मासों पर आधारित पंचांग बनाना चाहिए और उसकी तदनुसार निर्णय लेना चाहिए। फिलहाल यह तो माना ही जा सकता है कि दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों में तथाकथित खरमास का समय पौष (दिसम्बर-जनवरी) न होकर आषाढ़ (जून-जुलाई) होना अधिक व्यावहारिक होगा। सौर ऋतुओं के अनुसार मासों का निश्चय करने पर विषुवतीय देशों में खरमास की अवधारणा अप्रासंगिक होगी, जबकि शीत कटिबंधीय देशों जैसे अमेरिका, कनाडा, इग्लैंड आदि में खरमास की अवधि कुछ पहले आरम्भ होगी और लंबी चलेगी।
अस्तु, अभी भी यह प्रश्न अनुत्तरित रहा कि खरमास का नामकरण क्यों हुआ और क्यों इस अवधि में संस्कारों के लिए क्यों निषेध किया गया। वामन शिवराम आप्टे ने अपने 'संस्कृत-हिन्दी कोश' में ज्येष्ठ मास को खरकोमल कहा गया है। प्रतीत होता है कि ज्येष्ठ मास में सूर्य की किरणें प्रखरतम होती हैं, तदपि, उन के प्रभाव को शीतल जल से सहन किया जा सकता है। हेमन्त और शिशिर के सन्धि काल में अवस्थित खरमास की शीत उससे भी असह्य है, अतः इसे केवल खर, यानी अत्यंत भीषण का बोध करते हुए व्यवहार किया जाने लगा। 'शब्दकल्पद्रुम' कल्पद्रुम' में खर का अर्थ दिया है "खाय अन्तरिन्द्रियाय खस्य वा तीव्रता रूपगुणं रातीति" अर्थात् जो आकाश और अन्दर की इन्द्रियों के लिए तीव्रता प्रदान करे। अमरकोश में खर को तीव्र, तीक्ष्ण और तिग्म के पर्याय के रूप में लिया गया है। खर के यह अर्थ ऋतु के प्रभाव की दृष्टि से बहुत समीचीन हैं और चरक संहिता के ऋतु वर्णन से पूरी तरह मेल खाते हैं। वेदों में तथाकथित खरमास सहित शीत के चार महीनों के लिए सहस् और तपस् जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था, जो कि खर के उपर्युक्त अभिप्राय को सम्पुष्ट करता है। चूँकि इस ऋतु में उत्तर भारत की जलवायु सबसे कठिन होती है अतः विवाह, उपनयन, गृह प्रवेश आदि अनेकानेक कार्यों के लिए, जिसमें पूरे समाज के लोगों को आमन्त्रत किया जाता है, यह अनुकूल समय नहीं है और संभवतः इन कार्यों का विधान वर्ष के अधिक गर्म महीनों के लिए किया गया। यह स्वाभाविक रूप से अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है क्योंकि हिंदू धर्मशास्ख लोगों के हित में बताते हैं कि अमुक समय अर्थात् अमुक ऋतु, मास, तिथि, नक्षत्र इत्यादि में अमुक कर्म करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए। ज्योतिष और पंचांग उपर्युक्त विहित काल को निश्चित करने का एक साधन मात्र है।

इस लेख के माध्यम से मैं ज्योतिषाचार्यों को इस पर विचार करने के लिए अनुरोध करूँगा कि क्या मास संक्रान्तियों को सायन पद्धति से मानना तथा पर्वों को निरयन पद्धति से मानना अधिक व्यावहारिक और युक्तिसंगत होगा। मेरे विचार से खरमास का आधार शीत ऋतु के प्रभाव के अनुसार होना चाहिए, न कि निरयन धनु संक्रान्ति के अनुसार। ऐसा नहीं करने पर वही हाल होगा जो इस मन्त्र में बताया गया है-
निष्ट्वक्त्रासश्चिदिन्नरो भूरितोका वृकादिव।
विभ्यस्यन्तो ववाशिरे शिशिरं जीवनाय कम् ।। निरुक्त 1.1.3.10।।

इसका अर्थ है अल्पमात्रा में वस्त्र रखने वाले बहुत पुत्रों वाले मनुष्य शिशिर ऋतु ऋतु के के आने पर उसी प्रकार भयभीत होते हैं जिस प्रकार जीवन की सुरक्षा करता हुआ सुख चाहने वाला व्यक्ति भेड़ियों से डरता है। तात्पर्य यह है कि कम वस्त्र वालों का शिशिर ऋतु में जीवन कष्टमय हो जाता है। आज भी भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग वस्त्रों के अभाव में शिशिर एवं हेमन्त ऋतु में मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं।

अन्त में यह भी उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि सौर पौष मास के लिए खरमास शब्द का प्रयोग किसी भी धर्म ग्रन्थ अथवा ज्योतिष ग्रन्थ में नहीं मिला। रीतिकाल के कविवर बिहारी (संवत् 1660-1720) के एक दोहे में खरमास और पौष मास का समीकरण देखने को मिला-

आवत जात न जानियतु, तेजहिं तजि सियरानु।
घरहँ जँवाई लौ घट्‌यौ खरी पूस-दिन-मान् ।।

इसका अर्थ है पौष मास का दिनमान इतना कम हो गया है कि दिन आते और जाते नहीं जाना जाता, यानि पूस का दिन बहुत जल्दी बीत जाता है। सूर्य का तेज घटने से शीत इस प्रकार तीक्ष्ण (खरौ) हो गई जैसे कि ससुर के घर में रहने पर दामाद की प्रतिष्ठा कम हो जाती है। कहते हैं कि युवा अवस्था में बिहारी की अपनीं ससुराल मथुरा में रहना पड़ा था। वहाँ निश्चय ही उन्हें अनादर मिला होगा। उस तीखे अनुभव की पौष के खरमास से तुलना करते हुए उन्होंने यह दोहा रचा होगा।

1. ऋग्वेद 1.164.11
2. ऋग्वेद 10.85.5
3. ऋ. 1.25.8
4. क्र. 1.95.3
5. शतपथब्राह्मण, 2.1.3.2
6. तैत्तिरीय संहिता, 7.5.23
7. तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.11.1
8. सूर्य सिद्धान्त- मध्यमाधिकार, श्लोक 11-13.
9. भास्कराचार्य, सिद्धान्तशिरोमणि, स्पष्टाधिकार, 45
10. कमलाकर भट्ट, निर्णयसिन्धु', वासुदेव शर्मा, मुंबई, चतुर्थ संस्करण, पू. 164
11. ब्रह्मपुराण, 31.21
12. सूर्यसिद्धान्त मानाध्याय, 10
13. चरक संहिता, सूत्रस्थानम् षष्ठोऽध्यायः 4
14. तदेव, 15

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