सप्तर्षि


सम्पादकीय

भारत ऋषियों की परम्परा का राष्ट्र है। यहाँ लिपि के विकास से बहुत पहले से ज्ञान-विज्ञान की मौखिक परम्परा रही है। व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज, परिवार क्रमशः बृहत्तर ईकाइयों के प्रति हमारे कर्तव्य इन परम्पराओं में अनुस्यूत रहे हैं। व्यक्ति स्वयं है, एक साथ भोजन करने वाले कुटुम्ब हुए, एक ऋषि-परम्परा को मानने वाले यानी एक गोत्र के समूह समाज कहलाये और समस्त प्राणिमात्र परिवार कहलाये। हमारे ऋषियों ने वृक्ष, पर्वत, नदी आदि समस्त जैविक और अजैविक वातावरण के साथ व्यक्ति का अटूट सम्बन्ध माना है, उसके प्रति कर्तव्यों का निर्धारण किया है, जो आदिकाल में मौखिक परम्परा में दैनन्दिन में प्रचलित व्यवहार में रही, बाद में उसे किसी व्यक्ति ने अपनी भाषा दी, उसे लिपिबद्ध किया। तथापि हम मूल प्रवर्तक को उसका श्रेय देते रहे। अतः सूत्रों, स्मृतियों, संहिताओं तथा धर्मशास्त्रों को हम उनके उपलब्ध पाठ के आधार पर पौर्वापर्य काल निर्धारित नहीं कर सकते।

सृष्टिकाल के आरम्भ से ही ऋषियों का अस्तित्व माना गया है। इनमें से दस ब्रह्मा के पुत्र माने गये हैं। इन्ही दस में से सात सप्तर्षि हैं। इन सप्तर्षियों ने हमारी सभ्यता के विकास में योगदान किया है। इन्होंने एक ओर नैतिक बल पर जोर दिया तो दूसरी ओर खेती करने, यज्ञ करने, रोगों की चिकित्सा करने के लिए हमारा मार्गदर्शन किया।

आज 'ऋषि' शब्द का नाम लेते ही एक बँधी-बँधायी हुई तथाकथित 'ब्राह्मणवादी' व्यवस्था हमारे सामने दिखा दी जाती है। अतः आज आवश्यकता है कि हम ऋषि-परम्परा तथा सप्तर्षि की परम्परा को व्यापक रूप में देखें। हम उस पुलह और काश्यप ऋषि को भी जानें, जिन्होंने हमें खेती करना सिखाया। विश्वामित्र को भी जानें जो वास्तु-विज्ञान के प्रवर्तक रहे। यदि हम ऋषियों की मौलिक परम्परा को जानेंगे तो हमें स्पष्ट प्रतीत होगा कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के ही नहीं, बल्कि पूरी सृष्टि-प्रक्रिया के आधार हैं। और तब हम यह भी जान पायेंगें कि हम सब उन्हीं ऋषियों की प्रजा हैं- चाहे बिन्दुज प्रजा हों या ज्ञानज हों। इससे हमारे अंदर आज भी सामाजिक राष्ट्रीय तथा वैश्विक एकता की भावना पल्लवित होगी। वसुधैव कुटुम्बकम् के पीछे जो मूल भावना छुपी हुई है, वह प्रस्फुटित होगी।

इसी उद्देश्य से यह अंक सम्पादित किया गया है। ऋषि तथा सप्तर्षि के विभिन्न आयामों पर विद्वान् लेखकों ने सन्दर्भ के साथ अपना आलेख देकर इसे समृद्ध किया है। आशा है कि पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे तथा समता की अवधारणा को बल मिलेगा।


।। एक ।।

ऋषि, सप्तर्षि एवं उनके स्वरूप
डॉ० रामाधार शर्मा

जब हम तारों से भरे आकाश को रात में देखते हैं तो कुछ तारों का समूह हमें दिखाई पड़ता है। इस पूरे समूह का स्थान समय के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। हमारे पूर्वजों ने इसी का अवलोकन कर स्थान, समय तथा दिशा का निर्धारण कर ऋतु के साथ उसके सम्बन्धों को पहचाना और उसका लेखन ज्यौतिष शास्त्र के रूप में किया। इसके लिए उन्होंने प्रत्येक समूह का नामकरण पुराकथाओं के आधार पर किया। जिस समय तारा-समूह का नामकरण हुआ सप्तर्षि हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग बन चुके थे। इसी सप्तर्षि-मण्डल पर खगोल-शास्त्रीय आलेख पढ़ें-

*प्रलयोपरान्त जब-जब सृष्टि होती है तब-तब प्रत्येक मन्वन्तरों में धर्म और मर्यादा संरक्षण हेतु सात ऋषि आविर्भूत होते हैं। यही सप्तऋषि कहे जाते हैं क्योंकि ये सात गुणों से सम्पन्न होते हैं- (1) दीर्घायुष्य, (2) मन्त्रकर्तृत्व, (3) ऐश्वर्य, (4) दिव्यदृष्टि, (5) गुणवृद्ध, विद्यावृद्ध तथा आयुवृद्ध, (6) धर्म का प्रत्यक्ष साक्षात्कार और (7) गोत्रप्रवर्तन। (वायु पुराण 61193-94) ये ऋषिगण अपने एक रूपसे जगत् में लोककल्याणरत रहते हैं तो दूसरे रूपमें नक्षत्रमण्डल में सप्तर्षि-मण्डल के रूप में ध्रुव की प्रदक्षिणा करते रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि मन्वन्तर क्या है? मन्वन्तर अर्थात् मनूनामन्तर-मवकाशोऽवधिर्वा। प्रत्येक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। अतः यह भारतीय ज्यौतिष में काल-मापन की एक ईकाई है। ब्रह्माजीके एक दिन (कल्प अर्थात् 1000 महायुग) में 14 मनु होते हैं। अब 1000 महायुगों को 14 से भाग दें तो प्रत्येक मन्वन्तर 71 महायुग तथा कुछ और (अर्थात् 3/14 महायुग) होगा। अतः 
1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी तथा 
1 चतुर्युगी चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग) = 1728000+1296000+864000+432000 
= 4320000 वर्ष। अतः 1 मन्वन्तर 
= 71 × 4320000 (एक चतुर्युगी) 
= 306720000 वर्ष ।'

प्रथम मनु स्वायम्भुव थे। उनके अनन्तर क्रमशः स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुष हुए। ये छः मनु पूर्वकाल में हो चुके हैं। इस समय सूर्यपुत्र वैवस्वत (श्राद्धदेव) मनु हैं, जिनका यह सातवाँ मन्वन्तर वर्तमान है।

विभिन्न पुराणों में मन्वन्तर के भेद से सप्तर्षियों के नाम में अन्तर है, अतः सर्वप्रथम यहाँ पर विष्णुपुराण के तृतीय अंश में प्राप्त जो नाम हैं उनकी चर्चा की जाती है।

1. स्वायम्भुव मन्वन्तर में मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ सप्तर्षि थे।

2. स्वारोचिष मन्वन्तर में ऊर्जा, स्तम्भ, प्राण, वात, पृषभ, निरय और परीवान् ये उस समय सप्तर्षि थे।

3. तीसरे मन्वन्तरमें उत्तम नामक मनु तथा वसिष्ठजी के सात पुत्र सप्तर्षिगण थे।

4. चौथे तामस मन्वन्तर में ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर ये उस मन्वन्तर के सप्तर्षि थे।

5. पाँचवे मन्वन्तरमें रैवत नामक मनु और हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि (वसिष्ठ) - ये सात सप्तर्षिगण थे।

6. छठे मन्वन्तर में चाक्षुष नामक मनु और सुमेधा, विरजा, हविष्मान्, उत्तम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु - ये सात सप्तर्षि थे।

7. इस समय सातवें मन्वन्तर में सूर्य के पुत्र महातेजस्वी और बुद्धिमान श्राद्धदेवजी मनु है' तथा वसिष्ठ, काश्यप, अत्रि, जगदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज ये सात सप्तर्षि हैं।

8. सावर्णिक नामक आठवें मन्वन्तर का सावर्णिण ही मनु होंगे तथा दीप्तिमान्, गालव, राम, कृप, द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा, मेरे पुत्र व्यास और सातवें ऋष्यशृङ्ग ये सप्तर्षि होंगे।

9. नवे मनु दक्षसावर्णि होंगे। तथा सवन, द्युतिमान्, भव्य, वसु, मेधातिथि, ज्योतिष्मन् और सातवें सत्य- ये उस समयके सप्तर्षि होंगे। 10

10. दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होंगे तथा हविष्मान्, सुकृत, सत्य, तपोमूर्ति, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु सप्तऋषि हैं।"

11. ग्यारहवाँ मनु धर्मसावर्णि होगा। उस समय होनेवाले सप्तर्षियोंके नाम निःस्वर, अग्नितेजा, वपुष्मान्, घृणी, आरुणि, हविष्मान् और अनघ है। 12

12. रुद्रपुत्र सार्वाण बारहवाँ मनु होगा। तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोरति, तपोधृति, तपोद्युति तथा तपोधन- ये सात सप्तर्षि होंगे। 13

13. तेरहवाँ रुचि नामक मनु होगा। इस मन्वन्तर में निर्मोह, तत्त्वदर्शी, निष्प्रकम्प, निरुत्सुक, धृतिमान्, अव्यय और सुतपा - ये तत्कालीन सप्तर्षि होंगे। 14

14. चौदहवाँ मनु भौम होगा। उस समय अग्रिबाहु, शुचि, शुक्र, मागध, अग्निध्र, युक्त और जित- ये सप्तर्षि होंगे। 15

पुराणों के अध्ययन से यह दृष्टिगोचर होता है कि वहाँ सप्तर्षियों के नामों की चर्चा आयी है। अग्नि-पुराण के अनुसार -

"वसिष्ठ काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निः सगोतमः । विश्वामित्रभरद्वाजौ मुनयः सप्त साम्प्रतम् ॥

तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि अग्निपुराण का काल विष्णुपुराण के सातवें मन्वन्तर का ही है क्योंकि इसी काल के सप्तर्षि मिलते हैं। इन्हीं सप्तर्षियों का नाम श्रीमद्भागवत् महापुराण तथा शतपथ ब्राह्मण में भी आया है यथा-

कश्यपोऽत्रिवसिष्ठश्च विश्वामित्रोऽथ गौतमः। जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षयः स्मृताः ॥17

शतपथ ब्राह्मण में भी इन ऋषियों की पहचान करायी गयी है-

इमावेव गोतमभरद्वाजौ। अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज। इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी। अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव । वसिष्ठकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो। वागेवात्रिर्वाचा हान्न-

मद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति। 
सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नम्भवति। य एवं वेद ॥ 18

इसी तर्क पर कहा जा सकता है कि महाभारत, हरिवंश, गरुड-पुराण एवं पद्मपुराण का काल, प्रथम मन्वन्तर, स्वायम्भुव मनु का है क्योंकि इनके सप्तर्षि स्वायम्भुव मन्वन्तर के पठित हैं।

मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। 
वसिष्ठश्च महातेजा एते चित्रशिखण्डिनः ।॥27॥19
मरीचिरत्रिर्भगवानङ्गिराः पुलहः क्रतुः । 
पुलस्त्यश्च वसिष्ठश्च सप्तैते ब्रह्मणः सुताः ।।20

स्वायम्भुव मन्वन्तर में-

मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ॥ 
वसिष्ठश्च महातेजा ऋषयः सप्तकीर्त्तिताः ॥2॥
सप्तर्षिमण्डलं तस्माद् दृश्यते सर्व्वतोपरि। 
तत्र सप्तर्षयः सन्ति विनियुक्ताः प्रजासृजा ॥
मरीचिरत्रिं पुलहः पुलस्त्यः क्रतुरङ्गिराः। 
वसिष्ठश्च महाभाग ब्रह्मणो मानसाः सुताः ॥22

मार्कण्डेय पुराण में भी विभिन्न मन्वन्तरों में प्रत्येक सप्तर्षियों का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार हैं-

स्वारोचिष मन्वन्तर में-
उर्जस्तम्भस्तथा प्राणो दत्तोलिऋषभस्तथा। 
निश्चरश्चार्ववीराश्च तत्र सप्तर्षयोऽभवन् ॥23

उत्तम मन्वन्तर में-
स्वतेजसा हि तपसो वसिष्ठस्य महात्मनः। 
तनयश्चान्तरे तस्मिन् सप्त सप्तर्षयोऽभवन् ॥24

तामस मन्वन्तर में-
ज्योतिर्धामा पृथुः काव्यश्चैत्रोऽग्निर्बलकस्तथा। 
पीवरश्च तथा ब्रह्मन् सप्त सप्तर्षयोऽभवन् ॥25

रैवत मन्वन्तर में -
हिरण्यरोमा वेदश्रीरूर्ध्वबाहुस्तथापरः। 
वेदबाहुः सुधामा च पर्जन्यश्च महामुनिः ॥
वसिष्ठश्च महाभागो वेदवेदान्तपारगः। 
एते सप्तर्षयश्चासन् रैवतस्यान्तरे मनोः ॥26

चाक्षुष मन्वन्तर में-
सुमेधा विरजाश्चैव हविष्मानुन्नतो मधुः। 
अतिनामा सहिष्णुश्च सप्तासन्निति चर्षयः ॥27

वैवस्वत मन्वन्तर में-
अत्रिश्चैव वसिष्ठश्च काश्यपश्च महानृषिः। 
गौतमश्च भरद्वाजो विश्वामित्रोऽथ कौशिकः ॥
तथैव पुत्रो भगवानृचीकस्य महात्मनः। 
जमदग्निस्तु सप्तैते मुनयोऽत्र तथान्तरे ॥ 28

सावणिक मन्वन्तर में-
रामो व्यासो गालवश्च दीप्तिमान् कृप एव च। 
ऋष्यश्रृङ्गस्तथा द्रोणिस्तत्र सप्तर्षयोऽभवन् ।। 29

दक्षसावणिक मन्वन्तर में-
मेधातिथिर्व्वसुः सत्यो ज्योतिष्मान् द्युतिमांस्तथा। 
सप्तर्षयोऽन्यः सबलस्तथान्यो हव्यवाहनः ।॥30

ब्रह्मसावर्णिक मन्वन्तर में-
मनोस्तु दशमस्यान्यच्छृणु मन्वन्तरं द्विज । 
सप्तर्षीस्तान् निबोध त्वं ये भविष्यन्ति वै तदा। 
आपो भूतिर्हविष्मांश्च सुकृती सत्य एव च। 
नाभागोऽप्रतिमश्चैव वाशिष्ठश्चैव सप्तमः ॥"

धर्मसावर्णिक मन्वन्तर में
हविष्मांश्च वरिष्ठश्च ऋष्टिरन्यस्तथारुणिः।
निश्चरश्चानघश्चैव विष्टिश्चान्यो महामुनिः ॥
सप्तर्षयोऽन्तरे तस्मिन्नग्निदेवश्च सप्तमः ॥32

रुद्रसावर्णिक मन्वन्तर में-
द्युतिस्तपस्वी सुतपास्तपोमूत्तिस्तपोनिधिः। 
तपोरतिस्तथैवान्यः सप्तमस्तु तपोधृतिः ॥33

देवसावर्णिक मन्वन्तर में -
त्रयोदशस्य पर्याये रौच्याख्यस्य मनोः सुतान्। 
धृतिमानव्ययश्चैव तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः ।

निम्मर्मोहः सुतपाश्चान्यो निष्प्रकम्पश्च सप्तमः ॥34

इन्द्रसावणिक मन्वन्तर में-
ततः परन्तु भौत्यस्य समुत्पत्ति निशामय । 
देवानृषींस्तथा पुत्त्रांस्तथैव वसुधाधिपान् ॥35

भौम मन्वन्तर में -
ततः परं त्रयोदशमन्वन्तरानन्तरम् ॥ 
अस्मिन् मन्वन्तरे सप्तर्षिनामान्याह तत्रैव । । अग्नीध्रश्चाग्निबाहुश्च शुचिर्मुक्तोऽथ माधवः ।
शुक्रोऽजितश्च सप्तैते तदा सप्तर्षयः स्मृताः ॥36

यहाँ कम-से-कम दो बातें द्रष्टव्य हैं (1) अलग-अलग मन्वन्तरों के अलग-अलग सप्तर्षि हैं तथा कुछ पुराणोंके पठित सप्तर्षि अन्य पुराणों से भिन्न हैं। अतः निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे अलग-अलग मन्वन्तरों के होंगे। अतः कथाओं में जो भेद प्राप्त होते हैं उनका कारण मन्वन्तर अथवा कल्पान्तर भेद माना जा सकता है। तथा (2) कुछेक ऋषियों के नाम सप्तर्षि के रूपमें एकाधिक मन्वन्तरों में पाया जाता है- जैसे वसिष्ठ। संभवतः यह उनकी उच्चता का परिचायक हो अथवा एकाधिक मन्वन्तरों में पठित एक ही नाम विभिन्न व्यक्तियों के लिए हो।

जैसा कि ऊपर कहा गया है कि ये ऋषिगण अपने एक रूपसे जगत् में लोककल्याणरत रहते हैं तो दूसरे रूप में नक्षत्रमण्डल में सप्तर्षि-मण्डल के रूप में ध्रुव की प्रदक्षिणा करते रहते हैं। ये उत्तर दिशा में शकटाकार रूप में स्थित रहते हैं और सप्तर्षि-मण्डल कहलाते हैं। देश-भेद के अनुसार इनका नाम ग्रेट बीयर (Great Bear), उर्सा मेज़र, Ursa Major, हिपोपोटेमस Hippopotamus सप्तर्षि Seven Sages हल Plough डिपर (Dipper) भी कहते हैं। भारतीय पौराणिक कथाओंके अनुसार इन्हें सप्तर्षि ही कहते हैं। यहाँ द्रष्टव्य यह है कि 'ऋक्ष' शब्द के दो अर्थ हैं- एक नक्षत्र और दूसरा भालू।

पाश्चात्त्यों द्वारा प्रदत्त नाम ग्रेट बीयर इसी ऋक्ष से उत्प्रेरित लगता है। वराहमिहिर के अनुसार सप्तर्षियों की स्थिति इस प्रकार है-
पूर्वे भागे भगवान् मरीचिरपरे स्थितो वसिष्ठोऽस्मात् । तस्याङ्गिरास्ततोऽत्रिस्तस्यासन्नः पुलस्त्यश्य ॥ पुलहः क्रतुरिति भगवानासन्ननुक्रमेण पूर्वाद्याः। तत्र वसिष्ठं मुनिवरमुपाश्रितारुन्धती साध्वी ॥37

अर्थात् पूर्वभागमें प्रथम तारा मरीचि हैं, उनसे पश्चिम दिशामें वसिष्ठ, उनके पीछे अङ्गिरा, तदनन्तर अत्रि, उनके निकट पुलस्त्य, पुलह और भगवान् क्रतु क्रमानुसार पूर्व दिशामें विराजमान हैं, उनमें साध्वी अरुन्धती, मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीका आश्रय लिये हुए हैं। ध्यातव्य है कि वराहमिहिर द्वारा चर्चित सप्तर्षि की यह स्थिति स्वायम्भुव मन्वन्तर की है और हिन्दू विवाह-पद्धति में वर द्वारा कन्या को इसी अरुन्धती (जो वसिष्ठ के सटे बाँयर्या ओर है) नंगे आँखों द्वारा दिखलाया जाता है और मान्यता है कि दिखायी नहीं पड़ना अशुभ है। नीचे सप्तर्षि के सभी तारों के विभिन्न नाम, कान्तिमान, निरयन भोगांश, विषुवांश, व क्रान्ति दिये जा रहे हैं।

ध्रुव तारा की पहचान एवं रात्रिकाल में दिशा निर्धारण

ऊपर के चित्र में, जो अगस्त माह के रात्रि लगभग 9:00 बजे रात्रि का (उत्तरी आकाश का) है, उर्सा मेज़र (सप्तर्षि) स्पष्टतः देखा जा सकता है। यह देखने में पतङ्ग के समान होता है जिसके चार तारे चतुर्भुज की तरह लगते हैं और तीन तारे उस पतङ्ग की पूँछ के समान दिखती है जो नीचे की तरफ लटकी है। हालाँकि वहाँ से * * * * थोड़ा बाँयें इसी आकार से मिलता जुलता एक और तारा-समूह पाया जाता है, जिसे ध्रुवमत्स्य (Ursa Minor) या लघु सप्तर्षि कहा जाता है जिसकी पूँछ ऊपर की ओर है। वहाँ से बायीं ओर, आकाशगङ्गा में, पाँच तारों का एक विचित्र समूह देखा जा सकता है जो अंग्रेजी का उल्टा हुआ 'W' से कुछ मिलता-जुलता है। इसे शर्मिष्ठा (Cassiopeia) तारा-समूह कहते हैं। अब यदि चतुर्भुज के बाहरी दोनों तारों (4 और ẞ, जिसे निर्देशक भी कहते हैं) से शर्मिष्ठा के मध्य तारा को मिलाते हुए एक सीधी रेखा खींची जाय तो इस रेखा के लगभग मध्य स्थान में अन्य तारों से चमकीला एक तारा प्राप्त होता है, जिसे ध्रुवतारा (Polaris या Pole star) कहते हैं जो सर्वदा उत्तर की ओर रहता है। उत्तर दिशा निर्धारित हो जानेपर बाँयीं ओर पश्चिम, दाहिनी ओर पूर्व तथा पीछे की ओर दक्षिण दिशा होता है। इसी ध्रुव तारे का दर्शन विवाह के समय स्थिरता प्रदान करने के लिए वधू के द्वारा कराया जाता है, जिसकी पहचान दीर्घ सप्तर्षि मण्डल से होती है।

सप्तर्षि -मण्डल में पारस्परिक गति के कारण आकृति परिवर्तन

एक और दिलचस्प बात है कि सप्तर्षि के क्रतु और मरीचि को छोड़कर सभी तारों की गति समान होती है। परिणामतः प्रेक्षण के लम्बे अन्तराल के पूर्व या पश्चात् उनका आकार वह नहीं रहता जो देखा गया है। उदाहरणार्थ सप्तर्षि का समय-सापेक्ष परिवर्तनशील आकार चित्र में प्रदर्शित है।
चूँकि एक मन्वन्तर का समयान्तराल अत्यधिक लम्बा होता है अतः निश्चयेन उनके आकार प्रत्येक मन्वन्तर में बदलते रहेंगे। फलतः हमारे ऋषिगण इस तथ्य को बहुत पहले ही समझते हुए प्रत्येक मन्वन्तर के सप्तर्षियों का अलग-अलग निर्धारण किया।

***

1. मनुस्मृति अध्याय 1.64-72,79
2. मनुस्मृति 1.62.6-7
3. विष्णु पुराण तृ. अं. 1.11
4. विष्णु पुराण तृ. अं. 1.18
5. विष्णु पुराण तृ. अं. 1.22
6. विष्णु पुराण तृ. अं. 1.28
7. विष्णु पुराण तृ. अं. 1.30
8. विष्णु पुराण तृ. अं. 1.32
9. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.17
10. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.23
11. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.27
12. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.31
13. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.35
14. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.40
15. विष्णु पुराण तृ. अं. 2.44
16. अग्नि-पुराण, 150.009
17. श्रीमद्भागवत 8 113 15
18. शतपथ 14.5.2.6
19. महाभारत 12.322.27 भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना संस्करण
20. हरिवंश, 718।
21. गरुड पुराण 87.2
22. पद्म पुराण स्वर्ग खण्ड ।।
23. मार्कण्डेय पुराण, 67.4
24. मार्कण्डेय पुराण 73 113
25. मार्कण्डेय पुराण 74.59
26. मार्कण्डेय पुराण 75, 73-74
27. मार्कण्डेय पुराण 76 158
28. मार्कण्डेय पुराण 7919-10
29. मार्कण्डेय पुराण 80,4
31. मार्कण्डेय पुराण 94 110, 13, 14
32. मार्कण्डेय पुराण 94119-20
33. मार्कण्डेय पुराण 94125
34. मार्कण्डेय पुराण 94127-30
35. मार्कण्डेय पुराण 99. 1
36. मार्कण्डेय पुराण 100. 31
*रामपुर, नौबतपुर, पटना। अवकाश-प्राप्त अभियंता, सदस्य, एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया, भारत सरकार।

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