भारतीय व्रत उत्सव | 23 | नवरात्र
भारतीय व्रत उत्सव | 23 | नवरात्र
नवरात्र
समय
आश्विन शु० १ से १ तक और चैत्र शु० १ से १ तक ।
कालनिर्णय
नवरात्र का आरम्भ आश्विन शुक्कु पतिपदा और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होता है। जिस दिन प्रतिपदा ६ घड़ी से कम न हो उस दिन इसका आरम्भ करना चाहिए। यदि ६ घड़ी न मिले तो कम-से-कम दो घड़ी प्रतिपदा अवश्य होनी चाहिए। अमावस्या से युक्त प्रतिपदा का नवरात्रारम्भ में निषेध है, परन्तु यदि प्रतिपदा का क्षय हो जाय अथवा दूसरे दिन प्रतिपदा दो घड़ी से भी कम हो तो अमावस्या के साथ की प्रतिपदा भी ली जा सकती है। यद्यपि प्रतिपदा के आरम्भ की १६ घड़ियों का तथा चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग का भी निषेध है, तथापि धर्म-• सिन्धुकार का यह मत है कि इस नियम का मध्याह्न तक ही पालन करना चाहिए। यदि मध्याह्न तक भी उक्त दोष रहे तो अपराह्न या रात्रि में प्रारम्भ न करके मध्याह्न में ही आरम्भ करना चाहिए ।
विधि
प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल अभ्यङ्गस्नानादि करके नवरात्र में जिन नियमों का पालन करना हो उनका संकल्प करे। फिर जैसा कुलाचार हो उसके अनुसार ब्राह्मण को बुलाकर अथवा स्वयं स्नान संध्या से निवृत्त होकर मृत्तिका की बेदी में जवारे (यवाङ्कुर) बोकर घटस्थापन करे। घट के ऊपर कुलदेवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन करे । जिनके यहाँ दुर्गासप्तशती के पाठादि होते हैं वे स्वयं अथवा ब्राह्मण के द्वारा पठन करें या करावें। कई लोग पूजामात्र के समय दीपक रखते हैं और कई नवरात्र तक अखण्ड दीपक रखते हैं।
वैष्णव लोग नवरात्र में उक्त विधि से रामप्रतिमा की स्थापना करके रामायण का पाठ करते हैं। अनेक स्थानों पर नवरात्र में राम-लीला भी होती है। जहाँ नवरात्र भर राम-लीला होती है वहाँ उसकी समाप्ति विजयादशमी के दिन की जाती है। काशी के पास काशीराज्य की राजधानी रामनगर में रामलीला अनन्तचतुर्दशी से आरम्भ होकर आश्विन शुक्कु पूर्णिमा तक चलती है।
काल-विज्ञान
शक्ति-पूजा में नवरात्र ही क्यों ?
संसार में भगवान् की सबसे बड़ी शक्ति काल है। जैसा कि श्रीमद्-भागवत में लिखा है-
यद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भयात् ।
यद्भयाद्वर्षते देवो भगणो भाति यद्भयात् ।।
यद्वनस्पतयो भीता लताश्वौषधिभिः सह।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे, सगिरिभिर्भूर्वं मज्जति यद्भयात् ॥
नभो ददाति श्वसतां पदं यत्नियमादतः ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥
गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भयात् ।
वर्तन्तेऽनुयुगं येषां वश पतञ्चराचरम् ।।
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालोऽनादिरादिकुदव्ययः ।
जवं जनेन जनयन् मारयन्मृत्युनान्तकम् ॥
(३।२६/४० से ४५ तक)
जिसके भग्र से वायु चलता है, सूर्य तपता है, इन्द्र वर्षा करता है, तारागण चमकते हैं, वनस्पति, लता और ओषधियाँ अपने-अपने समय पर पुष्प-फल ग्रहण करते हैं, नदियाँ बहती हैं, समुद्र नहीं उमड़ता, अग्नि जलता है, पर्वतों सहित पृथ्वी नहीं डूबती, आकाश जिसके नियम से प्राणियों को स्थान देता है, महत्तत्त्व सप्तावरणोंसहित अपनी देह को लोकरूप बनाता है और सत्त्वादि गुणों के अभिमानी देवत्ता अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश - जिनके वश्शु में यह स्थावर जङ्गम जगत् है- प्रत्येक युग में सृष्टि, स्थिति, संहार में प्रवृत्त होते हैं। वह काल सबका अन्त करनेवाला है और स्वयं अनन्त है, सबको जन्म देनेवाला है और स्वयं अनादि है, वही प्राणी से प्राणी को उत्पन्न करवाता है और मारनेवाले को भी मौत से मार देता है।
यह काल भगवान् की शक्ति ही है। जैसा कि उसी श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध में लिखा है-
कालसंज्ञां तदा देवीं बिग्रच्छक्तिमुख्क्रमः । (३।७।२)
सच्ची बात तो यह है कि काल से बढ़कर भगवान् की और कोई शक्ति प्रत्यक्षरूप में नहीं दिखाई देती। सो यह ठीक ही लिखा है कि-
अन्तर्बहिः पूरुषकालरूषैः प्रयच्छतो मृत्युमुताऽमृतं च ॥ (श्रीमद्भागवत १०।१।७)
अर्थात् भगवान् के दो रूप प्रत्यक्ष हैं- भीतर जीवात्मा और बाहर काल । एक मनुष्य को अमृत (जीवन अथवा मोक्ष) दान करता है और दूसरा मृत्यु-तात्पर्य यह कि आत्मज्ञान के द्वारा मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है और काल की प्रेरणा से बाह्य विषयों में आसक्त होने से मृत्यु ।
इसी भगवान् की समयरूप शक्ति का अनुभूयमान स्वरूप ऋतुचक्र अर्थात् संवत्सर है, जो सामान्यतः ३६० दिनों का माना जाता है। इन ३६० दिनों के ४० (४०४६ = ३६०) नवरात्र होते हैं, जिनमें से २० सूर्य की पूर्व दिशा के मध्यबिन्दु पर आने से पुनः मध्यबिन्दु पर आने तक समाप्त हो जाते हैं। चैत्र शुक्क प्रतिपदा के दिन जब चान्द्र मास का आरम्भ होता है उस समय सूर्य ठीक पूर्व दिशा में होता है और इसी प्रकार आश्विन मास में भी सूर्य ठीक पूर्व दिशा में ही रहता है। दिन और रात्रि का प्रमाण भी इस समय प्रायः समान होता है। जसा कि पहले लिखा जा चुका है। संस्कृत में इस समय को विषुव अथवा विषुवत् कहते हैं।
इस विषुवत् काल के शुक्लपक्ष के आरम्भ के नौ दिन शक्ति की आराधना के लिए प्रधान माने गए हैं, क्योंकि भगवान् की दूसरी शक्ति जिसे प्रकृति अथवा महामाया कहते हैं वह सत्त्व, रज, तम इन तान गुणों की साम्यावस्था का ही नाम है। जब सत्त्व, रज, तम ये तीनों गुण समान मात्रा में रहें उसका नाम प्रकृति है, जब इनकी मात्रा में अधिकता वा न्यूनता हो तब सृष्टि होती है। इसलिए जब सत्त्वरूप दिन का प्रकाश, तमोरूप रात्रि का अन्धकार और इनका मध्यभाग रजोरूप सन्ध्या ये तीनों साम्यावस्था में हों (अर्थात् लंबे या छोटे न होकर यथार्थ स्थिति में हों) वही समय प्रकृति की आराधना में उपयोगी है, क्योंकि प्रकृति अभिव्यक्त रूप में त्रिगुणात्मिका है और त्रिगुण के परस्पर मिश्रण से त्रिवृत् होने पर गुणों के सत्त्वत्प्रधानसत्त्व, सत्त्वप्रधान रज, सत्त्वत्प्रधान तम और इसी प्रकार रजःप्रधान सत्त्व, रजःप्रधान रज, रजःप्रधान तम एवं तमःप्रधान सत्त्व, तमःप्रधान रज और तमःप्रधान तम ये नौ रूप होते हैं। इन नौ रूपों के कारण ही प्रकृति की आराधना नौ अहोरात्रों में की जाती है, क्योंकि उक्त प्रकार से प्रकृति का स्वरूप ही त्रिवृत्कृत - त्रिगुणात्मक है। अतः महामाया (प्रकृति) की उपासना के अहोरात्र नवसंख्यक रक्खे गए हैं।
उपर्युक्त विधि से पूरे संवत्सर के ४० नवरात्रों में से दो ही नवरात्र प्रधान हैं-एक वर्षारम्भ में चैत्रशुक्ल का और दूसरा वर्ष के मध्य में आश्विन शुक्छ का, सो इन्हीं में जगत् की मूल प्रकृति महामाया की आराधना की जाती है।
१. समरात्रिन्दिवे काले विषुवद्विषुवं च तत्। (अमरकोष, कालवर्ग श्लोक १४)
संवत्सर के ४० नवरात्रों में से उक्त दो नवरात्रों के प्रधान मानने का कारण यह है कि ऋतु-विज्ञान में लिखे अनुसार जीवन के मूल कारण अग्नि और सोम हैं। उनके धर्म उष्णता और शीत हैं। उन दोनों का उपोद्वलन क्रमशः इन्हीं दो नवरात्रों से आरम्भ होता है।
दूसरा कारण यह है कि भारतवर्ष कृषिप्रधान देश है और यहाँ प्रकृति की देन के रूप में अन्न इन्हीं दोनों नवरात्रों में परिपक्क होकर प्राप्त होता है। अतः उस समय प्रकृति की आराधना यहाँ के लिए स्वार्भाविक भी है। इन्हीं दिनों में प्राचीन ऋषि नवान्नेष्टि भी किया करते थे ।
तीसरा कारण यह है कि- भारतवर्ष की निर्मल, स्वच्छ और सुखद ऋतुएँ भी वसन्त और शरद् ही हैं। इसीलिए भारत के कवियों ने जितना इन ऋतुओं का वर्णन किया है उतना अन्य चार ऋतुओं का नहीं। अतः प्रकृति देवी की प्रसन्नता के मूर्तरूप और कालशक्ति के फलप्रद अवसर पर ही शक्ति की आराधना उचित है।
विधि-विज्ञान
ऊपर हम देख चुके हैं कि नवरात्र शक्ति-पूजा का समय है। शक्ति ही वास्तव में किसी भी वस्तु के स्वरूप को स्थिर रखने में समर्थ है। विना शक्ति के कोई भी वस्तु क्षणभर भी नहीं टिक सकती। अतएव यह कहा जाता है कि विना शक्ति शिव भी शव हैं।
शक्ति के स्वरूप को समझने के लिए दुर्गा सप्तशती का निम्नलिखित श्लोक बहुत ही उपयोगी है-
यच्च किश्चित्कचिद्वस्तु सदसद्वाऽ खिलात्मिके ।
'तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे मया ॥
( देवी सप्तशती, अ० १ श्लो० ८२)
ब्रह्माजी ने भगवती योगनिद्रा की स्तुत्ति करते हुए उपर्युक्त श्लोक में शक्ति की स्तुति में अपनी अशक्ति बताई है। उनका कथन है कि-हे सर्वरूपिणि, जगत् में जो कोई, जहाँ कहीं, सद् (कार्यरूप) या असद् (कारणरूप) वस्तु है उस सबकी आप 'शक्ति' हैं। भला आप ही बताइए, क्या मैं आपकी स्तुति कर सकता हूँ !
इस छोटे-से श्लोक में शक्ति के विषय में अनेक बातें लिखी हैं-सर्वप्रथम तो इस श्लोक में प्रयुक्त हुए सम्बोधन 'अखिलात्मिके' अर्थात् 'सर्वरूपिणि' पर ही ध्यान दीजिए। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु का स्वरूपलाभ और स्वरूपधारण विना शक्ति के नहीं हो सकता। जो भी कोई वस्तु किसी रूप में दिखाई देती है अथवा वर्त्तमान है, वह शक्ति के ही कारण है।
उदाहरण के लिए किसी भी पदार्थ या व्यक्ति को ले लीजिए। उसमें जब तक उस रूप में रहने की शक्ति होगी, तभी तक वह उस नाम, पद, प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति का अधिकारी रह सकता है, जहाँ उसमें से शक्ति हटी कि वह स्वरूप से च्युत हो जायगा ।
उदाहरण के लिए मान लीजिए कि एक व्यक्ति न्यायाधीश है, वह अपने पद और प्रतिष्ठा को तभी तक प्राप्त किये रह सकता है, जब तक उसमें न्यायकारिता की शक्ति विद्यमान है। यदि उसकी सदसद्विवेक की बुद्धिरूपी शक्ति नष्ट हो जाय, तो वह अपने स्वरूप से च्युत हो जायगा। ऐसी दशा में वह अपने पद पर रहते हुए भी, जैसे काठ का हाथी हाथी कहलाता है वैसे न्यायाधीश भले ही कहा जाय, पर वास्तव में वह न्यायाधीश नहीं होगा। यही दशा अन्य सभी वस्तुओं तथा व्यक्तियों की है।
अतएव शक्ति को 'सर्वात्मिका' बताया गया है। ये जो आपको भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व, विशिष्टत्व और साधारणत्व देख पड़ते हैं, सब उसी के रूप हैं। अभि में जब तक दाहिका शक्ति रहती है, तभी तक बह अग्नि है। उसमें से वह शक्ति गई नहीं कि वही अग्नि अपने स्वरूप से च्युत हो जायगा। उसे 'राख' आदि अन्य किसी नाम से आप पुकारें, पर अब वह अग्नि नहीं है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक व्यक्ति को यदि अपनी स्वरूपरक्षा करनी है, तो उसे शक्ति-सम्पादन अवश्य ही करना चाहिए, अन्यथा वह हजार प्रयत्न करने पर भी अपने स्वरूप से च्युत हो ही जायगा ।
दूसरी बात इस श्लोक से यह सिद्ध होती है कि चाहे कहीं कोई कैसी भी वस्तु क्यों न हो, उसमें अवश्य ही कोई-न-कोई शक्ति रहती है। विना शक्ति के कोई वस्तु है ही नहीं। उदाहरण के लिए छोटे-से-छोटे कीटाणु से लेकर महान्-से-महान् गजराज को ले लीजिए । उन सबमें किसी-न-किसी प्रकार की शक्ति अवश्य रहती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो हम देखते हैं कि छोटी-छोटी वस्तुओं में जैसी शक्ति रहती है, वैसी बड़े-से-बड़े पदार्थों में नहीं पाई जाती । जो बातें कीटाणु कर सकते हैं, वे बड़े-से-बड़े प्राणी के द्वारा नहीं हो सकतीं। पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि सबमें मूलशक्ति की अंशभूत एक-एक पृथक् शक्ति काम करती रहती है, अतएव हम किसी शक्ति की उपेक्षा नहीं कर सकते। इस विषय में कविवर रहीम ने कैसा सुन्दर लिखा है। वे कहते हैं:-
'रहिमन' देखि बड़ेन को लघु च दीजिए डारि ।
जहाँ काम आवे सुई कहा करै तरवारि ॥
तीसरी बात इस श्लोक में यह बताई गई है कि शक्ति का स्वरूप अवर्णनीय है। वह सबके अन्द्र कार्य करती है, अतः उसकी इयत्ता अर्थात् इतनी ही है यह बात नहीं बताई जा सकती। सब जगत् के उत्पादक ब्रह्मा के मुख से यह कहलवा कर तो भगवान् वेद्व्यास ने इस बात का महत्त्व और भी बढ़ा दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि वस्तु-शक्ति को ब्रह्मा भी नहीं जानते। आपने यदि एक वस्तु को हजार बार खोजा है, तब भी और खोजते चले जाइए, न जाने अभी उसमें कौन-कौन-सी शक्तियाँ अज्ञात रूप में पड़ी हुई हैं। अतः अपनी खोज को कभी समाप्त न समझिए। लाखों व्यक्तियों ने वस्तु-शक्ति के अनेक अंशों का परिज्ञान प्राप्त किया, तब भी न जाने अभी उसके विषय में कितनी बातें छिपी हुई हैं। जब पैदा करनेवाले ब्रह्मा भी उसे नहीं जानते, तो आप हम तो हैं ही क्या! कबीर ने इस विषय में क्या ही सुन्दर कहा है-
जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठि ।
हौं बौरी ढूँढ़न गई रही किनारे बैठि ॥
अच्छा, अब यह देखना है कि यह शक्ति क्या पदार्थ है। यह किसी वस्तु से भिन्न रहती है अथवा अभिन्न और इसका सम्पादन किस प्रकार किया जा सकता है। 'शक्ति' शब्द का अर्थ है सामर्थ्य या ताकृत । पहले लिखा जा चुका है कि 'शक्ति वस्तु के अन्दर रहने वाला वह धर्म है, जिससे वस्तु स्वरूपलाभ तथा स्वरूपरक्षा करती है।' शास्त्रों में इस बात को बड़े उत्तम रूप से समझाया गया है कि इस शक्ति का शक्तिमान् (वस्तु या व्यक्ति) के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है। तादात्म्य सम्बन्ध का अर्थ होता है भेद-सहिष्णु अभेद । अर्थात् जो पदार्थ किसी अन्य पदार्थ से भिन्न भी प्रतीत हो और अभिन्न भी, उसका उस पदार्थ के साथ तादात्म्य सम्बन्ध माना जाता है।
इसका उदाहरण है दीपक और उसका प्रकाश । प्रकाश दीपक से भिन्न भी है और अंभिन्न भी । भिन्न तो वह इसलिए है कि दीपक को प्रकाश अथवा प्रकाश को दीपक नहीं कहा जा सकता। कारण, दीपक की लौ पर यदि इस हाथ रक्खें तो हाथ जल जायगा, पर प्रकाश में ऐसी कोई बात नहीं। पर उन्हें सर्वथा भिन्न भी नहीं कह सकते, क्योंकि यदि द्वीपक से प्रकाश सर्वथा भिन्न होता तो दीपक के हटाने पर प्रकाश न हटता । कहीं-न-कहीं हम उसे दीपक आदि प्रकाशमान पदार्थों के अतिरिक्त भी प्राप्त कर सकते। पर प्रकाशमान पदार्थों से पृथक् प्रकाश को हमने कभी नहीं देखा, अतः उसे दीपक आदि से अभिन्न ही मानना पड़ेगा । इस तरह दीपक और प्रकाश का सम्बन्ध होता है तादात्म्य अथवा भेद-सहिष्णु अभेद । यही सम्बन्ध शक्ति और शक्तिमान् का है। शक्ति शक्तिमान् के स्वरूप की रक्षा करती हुई भी उससे पृथक् नहीं है।
जिस तरह नाना रूप में परिदृश्यमान विश्व का एक उद्गमस्थान है जिसे हम ईश्वर कहते हैं, वैसे ही इन अनन्त शक्तियों का मूल एक शक्ति है, जिसे व्यवहार में कार्यभेद से प्रकृति, माया, शक्ति आदि अनेक नामों से निरूपण करते हैं। यह शक्ति उपर्युक्त रीति से उस विश्वेश्वर के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखती है और उसके सभी काम इसकी सहकारिता से होते हैं।
शास्त्रों में स्थान स्थान पर शक्ति का वर्णन है, अतः इस विषय में विशेष लिखना व्यर्थ है, तथापि विष्णुपुराण के निम्नलिखित श्लोकों के पढ़ लेने से शक्ति के विषय में शास्त्रीय विचार विदित हो सकते हैं-
शक्तयः सर्वभावानामचिन्त्या अपृथस्थिताः ।
स्वरूपे चैव दृश्यन्ते दृश्यन्ते कार्यंतस्तु ताः ॥
सूक्ष्मावस्था हि सा तेषां सर्वमावानुगामिनी ।
इदन्तया विधातुं सा न निषेद्धं च शक्यते ॥
सर्वैरननुयोज्या हि शक्तयो भावगोचराः ।
एवं भगवतस्वस्य परस्य ब्रह्मणो मुने ॥
सर्वभावानुगा शक्तिज्र्योत्स्नेव हिमदीधितेः ।
मावामावानुगा तस्य सर्वकार्यकरी विभोः ॥
अर्थात् सभी पदार्थों में (अनेक) शक्तियाँ होती हैं, जो कि पदार्थ से पृथक् नहीं रहीं और अचिन्त्य हैं। वे किसी वस्तु के स्वरूप में नहीं दिखाई देतीं, किन्तु कार्य द्वारा दृष्टिगोचर होती हैं। वस्तुतः शक्ति एक प्रकार से पदार्थों की सूक्ष्मावस्था है, जो सभी पदार्थों का अनु गमन करती है- संसार का कोई पदार्थ उससे मुक्त नहीं है। इस शक्ति को न तो कोई प्रत्यक्षरूप से 'देखिए, यह शक्ति पदार्थ है' यों बता ही सकता है और न उसका कोई निषेध ही किया जा सकता है। ये पदार्थों में विद्यमान शक्तियाँ तर्क की विषयभूत नहीं हैं (किन्तु खोज की विषयभूत हैं)।
जैसे ये पदार्थों की शक्तियाँ हैं, ठीक वैसे ही उस भगवान् परब्रह्म की भी एक शक्ति है, जो सब पदार्थों के पीछे लगी हुई है और जैसे चन्द्रमा से चाँदनी का सम्बन्ध है, वैसे ही इसका भगवान् से सम्बन्ध है। यह ईश्वर की शक्ति भाव और अभाव सबके साथ लगी हुई है और ईश्वर के सब कार्यों को करती है-ईश्वर के सभी कार्य इसी शक्ति के द्वारा होते हैं।
यही क्यों ? भगवान् स्वयं भी अवतार लेते हैं तो इसी के आधार पर। गीता में भगवान् ने कहा है :-
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ।
मैं अपनी प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी माया के द्वारा प्रकट होता हूँ। अतएव हम जब कभी भगवत्स्वरूपों का वर्णन करते हैं तो पहले उनकी शक्ति का वर्णन करते हैं और फिर उनका; जैसे लक्ष्मी-नारायण, राधा-कृष्ण, सीताराम - इत्यादि ।
यह तो है शक्ति का तात्त्विक वर्णन। पर यहाँ सृष्टि में उसका क्या स्वरूप है और उसका सम्पादन तथा उपयोग कैसे किया जा सकता है। ये बातें विशेष रूप से समझ लेने की हैं।
पृथक् पृथक् हैं। कान का काम कान ही से हो सकता है, अन्य किसी इन्द्रिय से नहीं। तथापि ये सब सम्मिलित और संयुक्त होकर ही पुरुष को पुरुष (पुरुषार्थ के योग्य) बना सकती हैं-एक-एक अलग-अलग रहकर नहीं।
यही बात व्यक्तियों की भी है। एक व्यक्ति, कोई कितना भी बल-वान् क्यों न हो, किसी कार्य को आंशिकरूप में ही संपादन कर सकता है, पूर्णतया नहीं, अतः शक्तिसंपादन का उपाय है अपनी पृथक् पृथक् शक्तियों का, सहयोग द्वारा संघटित होकर, प्रयोग करना। विना इसके कभी कोई कार्य नहीं हो सकता, अतएव लेख के आरम्भ में लिखे श्लोक में शक्ति के विषय में लिखा है 'तस्य सर्वस्य या शक्तिः' जिसका तात्पर्य यह है कि शक्ति और वास्तविक शक्ति, जिसकी हम वन्दना और अर्चना करते हैं वह 'सबकी' है, एक की नहीं। एक-एक में तो उसका अंश ही है। अतएव दुर्गा सप्तशती में भी शक्ति का निवास एक व्यक्ति या एक स्थान में नहीं बताया। योग-निद्रा ही के लिए लिखा है :-
नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥
अर्थात् यह भगवान् की शक्ति नेत्र, मुख, नासिका, हृदय और छाती से निकलकर दृष्टिगोचर हुई। इसका अभिप्राय यही है कि शक्ति कहीं भी केवल एक ही स्थान पर नहीं रहती। वह पृथक् पृथक् स्थानों पर विभक्त होकर सुषुप्त रहती है पर सबका सहयोग होते ही कार्य करने लगती है।
यही नहीं, दुर्गा सप्तशती के मध्यम-चरित्र में तो उसे सब देवताओं के अंशों से ही आविर्भूत बताया गया है और उन सबकी संघटित शक्ति ने हौमहिष जैसे महासुर को परास्त किया और उत्तम चरित में तो प्रधान शक्ति का अन्य शक्तियों के सहयोग से कार्य करना स्पष्ट ही वर्णित है।
इस लेख' का सार यह है कि-
(१) शक्ति के विना न तो वस्तु स्वरूप धारण कर सकती है, न स्वरूप-रक्षा ।
(२) वस्तु छोटी हो या बड़ी, सब में शक्ति अवश्य रहती है।
(३) शक्तियाँ अनन्त हैं, अचिन्त्य हैं और वस्तु से भिन्न--अभिन्न हैं।
(४) पदार्थों की शक्तियाँ भिन्न-भिन्न होने पर भी वस्तु की मूलशक्ति, जिसकी ये सब शक्तियाँ अंशभूत हैं, एक है।
(५) एक वस्तुशक्ति दूसरी वस्तुशक्ति से मिलकर ही संपूर्णता को प्राप्त होती है। विना सहयोग के शक्ति अपूर्ण ही रहती है।
यह जिस भगवती शक्ति का स्वरूप है उसी का पूजन इस नव-रात्रोत्सव में किया जाता है। उसमें उपर्युक्त विधि के अनुसार
(१) अभ्यङ्गस्नान ।
(२) जवारे बोना ।
(३) घटस्थापन
(४) प्रतिमापूजन आदि हैं।
वैष्णवों के यहाँ भी लगभग यही विधि होती है, परन्तु उनके यहाँ भगवती के स्थान पर भगवान् राम का पूजन किया जाता है।
अभ्यङ्गस्नान - इसका विज्ञान संवत्सरोत्सव में विस्तार से लिखा जा चुका है । स्वास्थ्यरक्षा के लिए इसकी यहाँ भी आवश्यकता है।
जवारे बोना-यव (जौ) के अंकुरों का नाम जवारा है।
'पयसो रूपं यद्यवाः' (यजुः संहिता १६-२२)
इस श्रुति के अनुसार जौ पय का रूप है। पय दुग्ध को कहते हैं और जल को भी। इसकी व्युत्पत्ति निरुक्त में यह की गई है कि
'पयः पिबतेर्वा प्यायते र्वा' (२-२-१)
अर्थात् जो पीया जाय अथवा यों कहिए कि पीने से वृद्धि अथवा पुष्टि करे उसका नाम पय है। प्रत्यक्ष भी हम देखते हैं कि जल पीने से ओषधि वनस्पतियों की और दूध पीने से प्राणियों का. वृद्धि होती है और यह भी स्पष्ट है कि दुधारू पशुओं को जौ खिलाने से उनका दूध बढ़ता है, अतः भोज्यान्नों में और खासकर हविष्यान्नों में यव को प्रधानता दी गई है। अतएव 'यवोसि धान्यराजोसि - अर्थात् तू यव है, तू धान्यों का राजा है' यह भी कहा जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जौ वर्धनशील अनाज है। सो उसके अंकुर भी, जो नवीन अन्न के उत्पादक हैं, अवश्यमेव वर्धनशील और मांगलिक समझे जाने चाहिएँ। इस कारण महालक्ष्मीरूप शक्ति की, जिसका स्वरूप समृद्धि या वृद्धि है, पूजा में जवारे बोना उचित ही है।
घट-स्थापन-घट जल का आधार माना जाता है और जल वरुण देवता का प्रतीक है। घट पर वरुण का ही पूजन किया भी जाता है। वरुण देवता को वेदों में पाशबन्धन से छुड़ानेवाला बताया गया है, जैसा कि रक्षाबन्धन के प्रकरण में बताया जा चुका है।
अतः प्रत्येक मांगलिक कर्मों में रुकावट डालनेवाले बन्धनों की निवृत्ति के लिए वरुण का पूजन आवश्यक होता है और शक्ति-पूजा में तो घट-स्थापन अत्यन्त महत्त्व रखता है, क्योंकि जब तक बन्धनों की निवृत्ति न हो तब तक न तो मनुष्य लक्ष्मी, सरस्वती आदि शक्तियों की प्राप्ति कर सकता है और न संहार से ही बच सकता है, और सच्ची बात तो यह है कि पाशबद्ध होने से ही पुरुष पशु कहलाता है तथा परतन्त्रता में जकड़ा हुआ है। पाश की निवृत्ति होने पर ही मनुष्य स्वतन्त्र होकर शक्ति उपार्जन कर सकता है, अन्यथा नहीं। इस पाश से छुड़ाने के कारण शक्ति-पूजा में वरुण के प्रतीक घटस्थापन को प्रधानता दी गई है।
प्रतिमा-पूजन-प्रतिमा-पूजन की विशेषताएँ रामनवमी-जन्माष्टमी के उत्सवादि में जैसी बताई गई हैं वैसी ही यहाँ पर भी समझनी चाहिए।
अभ्यास
(१) शक्तिपूजा कब होती है ?
(२) शक्तिपूजा का कालविज्ञान विस्तार से समझाइए ।
( ३ शक्तिविज्ञान को आपने जैसा समझा है उसे पूजार्मे नवरात्र का क्यों महत्त्व है ?
(४) जवारे बोने और घटस्थापन की इस उत्सव में क्यों प्रधानता है ?
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