भारतीय व्रत उत्सव | 5 | संवत्सरारम्भ-विज्ञान
भारतीय व्रत उत्सव | 5 | संवत्सरारम्भ-विज्ञान
संवत्सरारम्भ
समय
चैत्रशुक्ल प्रतिपदा
काल-निर्णय
इसमें सूर्योदय-व्यापिनी प्रतिपदा लेनी चाहिए। दोनों दिन सूर्योदय में प्रतिपदा हो या दोनों ही दिन सूर्योदय में प्रतिपदा न हो तो पहले' दिन ही करना चाहिए ।
यदि अधिक मास आ जावे तो भी प्रथम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही संवत्सरारम्भ मानना चाहिए; क्योंकि ऐसा अधिक मास अगले वर्ष में ही गिना जाता है।
विधि
इस दिन घरों पर ध्वजा लगाना, पञ्चाङ्ग-श्रवण, तैलाभ्यङ्ग और मिश्री तथा काली मिर्च सहित नीम के पत्ते खाये जाते हैं। पञ्चाङ्गों में
१. 'वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च ।
पूर्वविद्धैव कर्त्तव्या प्रतिपत् सर्वदा बुधैः ॥' (निर्णयसिन्धौ वृद्धवशिष्ठवचनम्)
२. 'निष्कर्षस्तु 'शुक्ला देर्मलमासस्य सोन्तर्भवति चोत्तरः ।' इत्यादिवचनात् अर्थिमवर्षान्तःपातान् मलमासमारभ्यैव वर्षप्रवृत्तेः शुक्रास्तादाविव मलमास एक कार्य इति वयं प्रतीमः' (निर्णयसिन्धौ)
३. 'प्राप्ते नूतनवत्सरे प्रतिगृहं कुर्याद्धजारोपणम्, स्नानं मङ्गलमाचरेद् द्विजवरैः साकं सुपूज्योत्सवैः ॥ देवानां गुरुयोषितां च शिशवोऽलङ्कारवस्त्रादिभिः सम्पूज्यो गणकः फलं च शृणुयात्तस्माच्च लाभप्रदम् ॥'
जो श्लोक लिखे रहते हैं उनमें नीम के पत्ते के साथ मिश्री के स्थान पर नमक' और हींग, जीरा तथा अजवायन लिखे हैं। तैलाभ्यङ्ग इस दिन अनिवार्य माना जाता है।
धर्मशास्त्रों में इस दिन महाशान्ति करने का और ब्रह्माजी के एवं वर्ष, मास, ऋतु, पक्ष, दिवस आदि कालावयवों के पूजन का भी विधान है।
इस दिन आरोग्यव्रत और तिलकव्रत भी किये जाते हैं।
समय-विज्ञान
ऊपर लिखा जा चुका है कि ऋतुओं के परिवर्त्त का नाम संवत्सर है। अब देखना यह है कि इस चक्र का आरम्भ कब से होना चाहिए, क्योंकि जो गोल या चक्र के आकार की वस्तु होती है उसका कहीं, कोना नहीं होता, अतएव उसका आरम्भ या समाप्ति कहीं भी समझे जा सकते हैं। फिर क्या कारण है कि चैत्रशुक्ल प्रतिपदा को ही संवत्सर का आरम्भ हो - यह प्रश्न हो सकता है।
१. 'पारिभद्रस्य पत्राणि कोमलानि विशेषतः । सपुष्पाणि समादाय चूर्ण कृत्वा विधानतः ॥ मरिचं लवणं हिड्नु जीरकेण च संयुतम् । अजमोदायुतं कृत्वा भक्षयेद्रोगशान्तये ॥' (अन्यत्र)
२. 'वत्सरादौ वसन्तादौ वलिराज्ये तथैव च । तैलाभ्यङ्गमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते ॥' वशिष्ठः (निर्णयसिन्धौ)
३. 'तत्र कार्या महाशान्तिः सर्वकल्मषनाशिनी ।
सर्वोत्पातप्रशमनी कलिदुःखप्रणाशिनी ॥
आयुःप्रदा पुष्टिकरा धनसौभाग्यवर्धिनी ।
मङ्गल्या च पवित्रा च लोकद्वयसुखावहा ।।
तस्यामादौ च सम्पूज्यो ब्रह्मा कमलसंभवः ।' इत्यादि
(मयूखकार श्रीनीलकाण्ठभट्ट के पुत्र श्रीशंकरभट्ट-विरचित व्रतार्क में)
४. उक्त व्रतार्क में ही ।
उत्तर यह है कि यों तो धर्मशास्त्रों में ब्रह्मपुराण का -'चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि । शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति ॥'
अर्थात् ब्रह्माजी ने चैत्रमास में शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय होने पर जगत् की सृष्टि की है।
यह वाक्य उद्धृत किया है, जिससे यह विदित होता है कि सृष्टि का आरम्भ इसी दिन हुआ है, अतः इस तिथि को संवत्सरारम्भ का दिन कहते हैं । तदनुसार ही यह उत्सव है ।
परन्तु यह वाचनिक निर्णय कहा जा सकता है, वैज्ञानिक अर्थात् सोपपत्तिक नहीं । इसलिए नीचे इस पर वैज्ञानिक विचार किया जाता है-
ऐतिहासिकों का कथन है कि वैदिक काल में संवत्सरारम्भ अनेक प्रकार से माना जाता था-कभी किसी ऋतु से और कभी किसी ऋतु से। उनका कहना है कि कभी मार्गशीर्ष मास से संवत्सरारम्भ होता था, अतएव इस मास का नाम 'आग्रहायण' (अग्रे हायनं यस्य) अथवा 'आग्रहायणिक' कहा जाता है। इसी प्रकार शरत् और वर्षा से भी संवत्सरारम्भ होता था, इसी कारण संवत्सर का संस्कृत में 'शरदू' और 'वर्ष' भी नाम है। अनेक पाश्चात्त्य और पौरस्त्य ऐतिहासिक विद्वानों का ऐसा मत है। संभव है, अत्यधिक प्राचीनकाल में ऐसा होता रहा हो। किन्तु जहाँ तक हमने सोचा है, भारतवर्ष के लिए वसन्तारम्भसे ही वर्ष का आरम्भ माना जाना वैज्ञानिक प्रतीत होता है। इसका एक कारण तो यह है कि वसन्त ऋतु नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति के नव शृङ्गार का आरम्भ-समय है। हम देखते हैं कि प्रत्येक वृक्ष-लता आदि इस समय अपने पुराने जीर्ण-शीर्ण पत्रादिकों को छोड़ कर वर्षभर के लिए पुनः नवीनता धारण करते हैं; इसलिए प्रकृति को नवीनता-प्रदान करने वाली इस ऋतु में वर्ष का आरम्भ माना जाय यह उचित ही है।
दूसरा कारण यह भी है कि सूर्य, निरयन पक्ष के अनुसार और सायन पक्ष के अनुसार भी, अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष पर इसी ऋतु में आता है।
तीसरा और वैज्ञानिक कारण यह है कि पूर्वोक्त काल-विज्ञान में उल्लिखित ऋतु-विज्ञान के अनुसार वर्ष भर की छः ऋतुएँ, उष्ण और शीत के हिसाब से, तीन-तीन ऋतुओं के दो समूहों में बाँटी जा सकती हैं। उनमें से उष्णता-प्रधान तीन ऋतुएँ हैं- वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा । अन्य शेष तीन शीत-प्रधान हैं- शरद्, हेमन्त और शिशिर । यही उष्ण और शीत, जिनको वेदों में अग्नि और सोम के नाम से कहते हैं, जगत् के जीवों के जीवन के प्रधान हेतु हैं, अतएव 'अग्नीषोमात्मकं जगत्' कहा जाता है।
इन दोनों में शीत प्रकृति का स्वाभाविक रूप है, अतएव मृत शरीर शीतल हो जाता है और उष्णता जीवन का लक्षण है। यदि प्रकृति में उष्णता न आवे तो प्राणियों की उत्पत्ति न हो। अतएव इस मृत प्रकृति को जीवनप्रदान करने के कारण ही सूर्य, जो उष्णता का आकर है, मार्तण्ड' कहा जाता है। ऋतुओं में उष्णता का आरम्भवसन्त ऋतु से ही होता है, इसलिए भी वसन्त में ही वर्ष का आरम्भउचित प्रतीत होता है और इसी विज्ञान को लेकर सम्भवतः उपर्युक्त पुराणवाक्य में ब्रह्मा की प्रथमं सृष्टि का आरम्भ इस दिन मान्ा गया है। जिसका अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि प्रकृति पहले सर्वाङ्गशीतल थी, ऋतुपरिवर्त्तन में वसन्त ने उसे सबसे पहले उष्णता दी और उसी दिन से सृष्टि का आरम्भ हुआ। बात भी ठीक है, क्योंकि बिना उष्णता के तो जीवन का आरम्भ हो ही नहीं सकता । अतः वसन्त ऋतु में ही वर्षारम्भ भारतवर्ष की ऋतुओं के अनुसार उचित प्रतीत होता है।
१. 'मृतेण्ड एष एतस्मिन् यदभूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेशः'
(श्रीमद्भागवत ५।२०।४४)
चैत्र मास ही क्यों ?
इस वसन्त ऋतु में भी दो मास हैं- चैत्र और वैशाख । उनमें से चैत्र में वर्षारम्भ होने का एक कारण तो यही हो सकता है कि यह वसन्त ऋतु का प्रथम मास है और विना किसी विशेष कारण के प्रथम मास का अतिक्रमण करके द्वितीय मास में संवत्सर का आरम्भ करने में कोई मुख्य हेतु नहीं। दूसरे, पुष्प-पल्लवादि निकलते भी इसी मास में हैं, क्योंकि मधु-रस उनको इस मास में ही प्राप्त होता है। माधव (वैशाख) में तो मधु-रस का परिणाममात्र होता है। इसलिए चैत्र में संवत्सरारम्भ माना जाना भी उचित ही है।
शुक्ल-पक्ष और प्रतिपदा ही क्यों ?
अब प्रश्न यह होता है कि चैत्र मास वसन्त का आरम्भ है तो उसके कृष्ण-पक्ष में वर्षारम्भ न होकर शुक्कु-पक्ष में क्यों होता है? इसका उत्तर शुक्लादि मास माननेवालों के लिए तो सहज ही है; क्योंकि उनके यहाँ चैत्र का आरम्भ ही वहीं से है; परन्तु आश्चर्य का विषय यह है कि कृष्ण-पक्ष से चैत्र का आरम्भ माननेवाले भी वर्षारम्भ चैत्र-शुक्ल से ही मानते हैं। इसका कारण यही है कि सभी धार्मिक कार्यों में चन्द्रमा का उतना ही महत्त्व माना गया है जितना कि सूर्य का । दूसरे, जीवन के आधारभूत वृक्ष-लतादि को सोमरस-प्रदान करनेवाला भी चम्द्रमा ही है, अतएव चन्द्रमा को ओषधि' और वनस्पतियों का राजा भी कहा जाता है। सो अभिवर्धमान चन्द्र में ही नवीन संवत्सर का आरम्भ कृष्ण पक्ष से मासारम्भ माननेवालों को भी उचित प्रतीत हुआ. यह स्वाभाविक ही है।
इसी से यह भी सिद्ध हो जाता है कि प्रतिपदा ही वर्षारम्भ का दिन क्यों माना गया है, क्योंकि वही दिन चन्द्रमा की प्रथम कला के आरम्भ का है। उसे छोड़कर किसी दूसरे दिन वर्षारम्भ मानना अनुपपन्न था, क्योंकि तब तो चन्द्रमा अणं अथवा पूर्ण ही प्राप्त होता जो आरम्भ का नहीं, किन्तु मध्य का अथवा अन्त का समय होता है।
विधि-विज्ञान
भारतीय त्योहारों का यह नियम है कि जो विधियाँ इन त्योहारों में प्रयुक्त होती हैं, वे सभी प्रायः शारीरिक और मानसिक लाभ पहुँचाने की दृष्टि से रखी गई हैं न कि केवल पारलौकिक दृष्टि से ही। इस नियम के अनुसार संवत्सरोत्सव के दिन जो तैलाभ्यङ्ग और मिश्री, काली मिर्च आदि के साथ नीम के कोमल पत्तों के खाने का विधान है यह भी सर्वथा वैज्ञानिक है।
रोगोत्पत्ति के विषय में यह बात ध्यान में रखने की है कि अधिकांश रोग चर्म-सम्बन्धी मलिनता से तथा उदर की अशुद्धि से उत्पन्न होते हैं।
उनमें से चर्म-सम्बन्धी विकारों को निवृत्त करने में तिल के तेल का अंभ्यङ्ग विशिष्ट स्थान रखता है। अतएव आयुर्वेदवालों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वाग्भट ने लिखा है-
'अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवातहा ।
दृष्टिप्रसादपुष्ट्यायुःस्वप्न सुत्वक्त्वदा डर्थकृत् ॥'
१. 'ओषधीशो निशापतिः' (अमरकोश दिग्वर्ग १४)
अर्थात् प्रतिदिन अभ्यङ्ग करना चाहिए। वह बुढ़ापा, थकावटं तथा वायु को निवृत्त करनेवाला, दृष्टि बढ़ानेवाला, प्रसन्नता, पुष्टता, आयु और निद्रा देनेन्नाला तथा त्वचा की सुन्दरता एवं दृढ़ता करनेवाला है। अभ्यङ्ग की प्रशंसा चरक संहिता में तो और भी विस्तार से लिखी है।
"स्नेहाभ्यङ्गाद्यथा कुम्भश्चमं स्नेहविमर्दनात् ।
भवत्युपाङ्गादतश्च दृढः क्लेशसहो यथा ॥
तथा शरीरमभ्यङ्गाद् दृढं सुत्वक् च जायते ।
प्रशान्तमारुताबाधं क्लेशव्यायामसंसहम् ॥
स्पर्शनेऽभ्यधिको वायुः स्पर्शनं च त्वगाश्रितम् ।
त्वच्यश्च परमभ्यङ्गस्तस्मात्तं शीलयेन्नरः ॥
न चाभिघाताभिहतं गात्रमभ्यङ्गसेविनः ।
विकारं भजतेऽत्यर्थं बलकर्मणि वा कचित् ॥ सुस्पर्शोपचिताङ्गश्च बलवान् प्रियदर्शनः । भवत्यभ्यङ्गनित्यत्वान्नरोऽल्पजर एव च ॥
खरत्वं स्तब्धता रौक्ष्यं श्रमः सुप्तिश्च पादयोः ।
दृष्टिः प्रसादं लभते मारुतश्चोपशाम्यति ॥
न च स्याद् गृध्रसीवातः पादयोः स्फुटनं न च ।
च सिरास्वायुसंकोचः पादाभ्यङ्गेच पादयोः ॥
अर्थात् जिस तरह चिकनाई लगाने से घड़ा और चिकनाई चुपड़ने से चमड़ा तथा उपाङ्ग (वांगने) से (गाड़ी की) घुरी दृढ़ एवं कष्ट सहन करनेवाले हो जाते हैं वैसे ही शरीर अभ्यङ्ग से दृढ़, अच्छी त्वचावाला, वातपीड़ा से निवृत्त और कष्ट तथा व्यायाम को अच्छी तरह सहन करनेवाला हो जाता है। यतः सबसे अधिक वायु स्पर्शेन्द्रिय में रहता है और स्पर्शेन्द्रिय त्वचा के आश्रित है और अभ्यङ्ग त्वचा के लिए सबसे अधिक हितकारी है, अतः मनुष्य को अभ्यङ्ग का अभ्यास करना चाहिएं। अभ्यङ्गसेवन करनेवाले का शरीर चोट खाने पर भी अथवा कहीं जोर करने पर भी विकारी नहीं होता। नित्य अभ्यङ्ग करने से, मनुष्य के अङ्ग सुस्पर्श (मुलायम) हो जाते और बढ़ते हैं, वह बलवान् सुन्दर और कम बुढ़ापेवाला हो जाता है। खुरदरापन, अकड़ना, रूखापन, श्रम, पैर सो जाना तथा वायु शान्त हो जाता है और दृष्टि प्रसन्नता (स्वच्छता) को प्राप्त हो जाती है। पैरों का अभ्यङ्ग करने से पैरों में गृध्रसी बायु, पैरों का फूटना और सिराओं तथा स्नायुओं का संकोच नहीं होता ।"
आप ही बतलाइए, वत्सरारम्भ में इससे अधिक उपयोगी बाह्यो-पचार और क्या हो सकता है। अभ्यङ्ग को अनिवार्य करने का मुख्य कारण यह है कि इस प्रथम दिन से ही अभ्यङ्ग का अभ्यास हो जाय, जिससे मनुष्य बाह्य-मल-संक्रम और चर्मरोगों से बचा रहे।
इसी प्रकार ज्वरादि रोगों की निवृत्ति के लिए निम्ब का उपचार भी प्रसिद्ध है। इसके लिए किसी प्रकार का प्रमाण देना ग्रन्थ-विस्तार मात्र ही होगा ।
किन्तु इतना लिख देना आवश्यक है कि नीम अत्यन्त कडुआ होता है और अत्यन्त कडुए रस वाली वस्तु वायु' उत्पन्न करती है। कडुआ नीम वायु न करे इसलिए उसमें मिश्री मिला दी जाती है, जो मधुर रस के कारण वायु को शान्त करती है। इसी तरह मधुर रसवाली वस्तु कफ उत्पन्न करती है, उसको शान्त करने के लिए उसमें चिरंपरी वस्तु कालीमिर्च मिला दी जाती है, जिससे यह मिश्रित प्रयोग त्रिदोषन्न बनकर सर्वरोगनिवारक हो गया है। ऐसी वस्तु का संवत्सरारम्भ में सेवन करना हितकारी है यह स्पष्ट ही समझा जा सकता है। जो लोग मिश्री न मिलाकर नमक मिलाते हैं उनके मिश्रण में भी लवण वातनाशक, कफजनक और मिर्च कफनाशक है। सो वह भी उचित ही है।
१. 'कटुतिक्तकषाया वातं जनयन्ति । मधुराम्ललवणास्त्वेनं शमयन्ति ॥'
( चरकसंहिता विमानस्थान १-७)
२. 'मधुराम्ललवणाः श्लेष्माणं जनयन्ति, कटुतिक्तकषायास्त्वेनं शमयन्ति।' (वही)
इसके अतिरिक्त उत्सवसंबन्धी ध्वजारोपण और संवत्सर के कालज्ञान के लिए पञ्चाङ्गश्रवण की, जो इस उत्सव के अङ्ग हैं, उपपत्तियाँ तो स्पष्ट ही हैं, क्योंकि ध्वजारोपण ऐश्वर्य तथा विजय का सूचक है, जो संवत्सर के आरम्भ में सभी को सर्वात्मना अभीष्ट है और पञ्चाङ्गश्रवण इसलिए है कि प्रतिदिन काल-ज्ञान करके ही सब कार्य करने चाहिए, जिसका अभ्यास प्रथम दिन से ही हो जावे ।
ब्रह्मा जी के पूजन की उपपत्ति भी स्पष्ट ही है, क्योंकि संवत्सरारम्भही सृष्टि के आरम्भ का दिन है और परमात्मा की तीन विभूतियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से ब्रह्मा ही सृष्टि के अधिष्ठाता देवता है, अतः इस दिन परमात्मा की ब्रह्मा के रूप में आराधना उचित ही है। दूसरे, नवीन वर्ष में प्रत्येक प्राणी चाहता भी यही है कि नवीन नवीन वस्तुएँ खूब उत्पन्न हों, जिससे देश समृद्धिशाली बने। सो उसके लिए भी परमात्मा की सृष्टिकर्ता के रूप में ही आराधना अपेक्षित है। संवत्सरादि कालावयवों की पूजा तो उस दिन होनी ही चाहिए, क्योंकि संवत्सर, जिसका आरम्भ हो रहा है, वह स्वयं कालावयव रूप ही है।
कथा के विषय में
( इस पुस्तक में व्रतों और त्योहारों की कथाएँ भी सरल भाषा में दी जा रही हैं। इस विषय में हम इतना निवेदन कर देना चाहते हैं कि पुराणों की यह शैली है कि साधारण जनों की प्रवृत्ति बढ़ाने के लिए इन कथाओं में प्रायः 'रोचनार्था फलश्रुतिः' के न्याय से प्रत्येक व्रत अथवा उत्सव की अत्यन्त प्रशंसा रहती है। आधुनिक शिक्षित इससे उद्विग्न-से हो जाते हैं, पर शिक्षित पाठकों को भी तात्पर्य पर दृष्टि रखनी चाहिए- उन्हें सोचना चाहिए कि कथा-लेखक जिस कार्य में प्रवृत्त कर रहे हैं वह पूर्ण धार्मिक और विज्ञानानुमोदित है। साधारण जनता को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रशंसा की अधिकता ही उत्तम कार्यों की ओर आवर्जित कर सकती है, अतः आधुनिक शिक्षितों को कार्य के फल पर विचार कर कथा के नाम से घबड़ना नहीं चाहिए।)
संवत्सरोत्सव की कथा
श्रीभगवान् ने कहा कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा जी ने समग्र जगत् को उत्पन्न किया तथा काल की गणना भी आरम्भ की। ब्रह्माजी ने सब देवताओं की सभा करके उनको ग्रह, ऋतु, मास, पक्ष ये सब प्रदान किये । अत एव इस दिन ब्रह्माजी की तथा उक्त कालावयवों की उपासना करते हैं। सृष्टि के आरम्भसे जो यह धर्म हमारे पूर्वजों ने और उनके भी पूर्वजों ने चलाया है वह बड़े प्रयत्न से किया जाना चाहिए।
इस दिन महाशान्ति करनी चाहिए, जिससे सब पापों का नाश हो, सब उत्पातों की शान्ति हो और कलियुग के दुःख नष्ट हों। यह शान्ति आयु की देनेवाली, पुष्टि करनेवाली, धन सौभाग्य बढ़ानेवाली, मंगल, पवित्र और लोक तथा परलोक में सुख देनेवाली है।
संवत्सरोत्सव के दिन सर्वप्रथम पाद्य, अर्घ्य, पुष्प, धूप, वस्त्र, अलंकार, भोजन, होम, भेंट, ब्राह्मणों की तृप्ति इत्यादि के द्वारा ब्रह्माजी का पूजन करना चाहिए। फिर काल के अवयवरूप देवताओं का पृथक् पृथक् पूजन करना चाहिए ।
कालावयव देवता ये हैं- ब्रह्मा, काम, निमेष, त्रुटि, लव, क्षण, काष्ठा, कला, नाड़ी, मुहूर्त, रात्रि, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युगादि, ग्रह, नक्षत्र, राशि, करण, योग और वर्ष के स्वामी ।
तदनन्तर अनुचरों सहित कुलनाग, मनु, इन्द्र, दक्षकन्याएँ, सुभद्रा, जया, शस्त्र, अस्त्र, बुद्धि, धनद (कुबेर), नलकूबर (कुबेर के पुत्र), निधि, भद्रकाली, सुरभि, वेद-वेदाङ्ग और वेदान्त विद्याओं के अधिदेवता, नाग, यज्ञ, सुपर्ण, गरुड, समुद्र, उत्तर कुरु, नवखंड, पाताल, सात नरक, वराहावतार, सात लोक, पञ्चमहाभूत, प्रकृति-पुरुष, अभिमान (अहंकार), पर्वत, गंगा आदि नदियाँ, सप्तष, पुष्करादितीर्थ, छन्द, कामधेनु, ऐरावत, उच्चैःश्रवा, धन्वन्तरि, गणेश, स्वामी कार्तिकेय, विन्न, स्कन्दग्रह, स्कन्दमाता, ज्वरादिरोग, बालखिल्य ऋषि, केशव, अगस्त्य, नारद, व्यासादिक, अप्सरा, सोमप और असोमप देवता, तुषित, द्वादश आदित्य, एकादश रुद्र, अश्वनीकुमार, द्वादश साध्य, उनचास मरुत्, विश्वकर्मा, अनुचरों सहित आठ लोकपाल, आयुध, वाहन, कवच, आसन, दुंदुभि, दैत्य, राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, पितृ, प्रेत तथा अन्य सूक्ष्म और भावगम्य देवता एवं परमात्मा विष्णु इन सब देवताओं का चतुर्थी विभक्ति और अन्त में नमः शब्द लगाकर पूजन करना चाहिए ।
फिर पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख बैठाकर अध्ये, पुष्प, धूप, माला, वस्त्र इत्यादि से और दक्षिणा से इतिहास-पुराणों के जानने वाले ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए ।
तब पूर्वोक्त मन्त्रों से यविष्ठ नाम के अग्नि का आवाहन कर सब देवताओं की तृप्ति के लिए होम करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मण-भोजन करवा के, सुहृत् सम्बन्धी और बान्धवों को जिमाकर स्वयं भोजन करना चाहिए तथा महान् उत्सव करना चाहिए ।
इस तरह करने से नवीन संवत्सर का आरम्भ सब सिद्धियों का देनेवाला होता है।
समाप्त
( इस प्रतिपदा को नवरात्रारम्भ भी होता है, किन्तु उसका विवरण शारद नवरात्र (आश्विन शुक्ल प्रतिपदा) के निर्णय में देखिये) ।
अभ्यास
(१) संवत्सरोत्सव का समय बताइए ।
(२) संवत्सरोत्सव में क्या-क्या विधियाँ होती हैं ?
(३) संवत्सरोत्सव वसन्त ऋतु में क्यों होता है।
(४) चैत्र कृष्ण प्रतिपदा में संवत्सरौत्सव न होकर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा में क्यों होता है ?
(५) संवत्सरोत्सव के दिन अभ्यङ्ग के क्या गुण हैं ?
(६) संवत्सरोत्सव की विधि में नीम के पल्लव और अन्य वस्तुएँ क्यों खाई जाती हैं ?
(७) संवत्सरोत्सव की कथा सुनने से क्या लाभ है ?
(८) संवत्सरोत्सव के दिन ब्रह्मा तथा कलावयवों की पूजा क्यों की जाती है ?
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