सप्तर्षि
सम्पादकीय भारत ऋषियों की परम्परा का राष्ट्र है। यहाँ लिपि के विकास से बहुत पहले से ज्ञान-विज्ञान की मौखिक परम्परा रही है। व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज, परिवार क्रमशः बृहत्तर ईकाइयों के प्रति हमारे कर्तव्य इन परम्पराओं में अनुस्यूत रहे हैं। व्यक्ति स्वयं है, एक साथ भोजन करने वाले कुटुम्ब हुए, एक ऋषि-परम्परा को मानने वाले यानी एक गोत्र के समूह समाज कहलाये और समस्त प्राणिमात्र परिवार कहलाये। हमारे ऋषियों ने वृक्ष, पर्वत, नदी आदि समस्त जैविक और अजैविक वातावरण के साथ व्यक्ति का अटूट सम्बन्ध माना है, उसके प्रति कर्तव्यों का निर्धारण किया है, जो आदिकाल में मौखिक परम्परा में दैनन्दिन में प्रचलित व्यवहार में रही, बाद में उसे किसी व्यक्ति ने अपनी भाषा दी, उसे लिपिबद्ध किया। तथापि हम मूल प्रवर्तक को उसका श्रेय देते रहे। अतः सूत्रों, स्मृतियों, संहिताओं तथा धर्मशास्त्रों को हम उनके उपलब्ध पाठ के आधार पर पौर्वापर्य काल निर्धारित नहीं कर सकते। सृष्टिकाल के आरम्भ से ही ऋषियों का अस्तित्व माना गया है। इनमें से दस ब्रह्मा के पुत्र माने गये हैं। इन्ही दस में से सात सप्तर्षि हैं। इन सप्तर्षियों ने ...